उपचरि

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उपचरि वसुश्री नारायण के परम भक्त थे। उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग कर घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी तो इंद्र घबरा गये कि कहीं इंद्रपद के लिए उन्होंने तपस्या न की हो। इंद्र ने समझा-बुझाकर उन्हें तपस्या से निवृत्त कर दिया तथा उन्हें स्फटिक से बना एक विमान उपहार स्वरूप प्रदान किया, जो कि आकाश में ही रहता था। उस विमान में रहने के कारण राजा वसु 'उपचरि' कहलाए। इंद्र ने उन्हें त्रिलोकदर्शी होने का वरदान दिया तथा सदैव विजयी रहने के लिए वैजंतीमाला और सुरक्षा के लिए एक बेंत भेंटस्वरूप दिया। एक बार कोलाहल पर्वत ने काम के वशीभूत होकर शुक्तिनदी को रोक लिया। राजा उपचरि ने अपने पाँव के प्रहार से उसके दो खंड कर दिये तथा नदी पूर्वगति से बहने लगी। पर्वत के समागम से शुक्तिनदी की युगल संतान हुई, जिन्हें उसने कृतज्ञ भाव से राजा को समर्पित कर दिया। राजा ने उसके पुत्र को सेनापति नियुक्त कर दिया तथा गिरिका नामक कन्या को पत्नी के रूप में ग्रहण किया। एक दिन वे पितरों की आज्ञा का पालन करने के निमित्त शिकार खेलने गये। वहाँ के मनोरम वातावरण में कामोन्मत्त राजा उपचरि का वीर्यपात हो गया। राजा ने संतान की इच्छा से उस वीर्य को अपने भार्या के पास, पत्ते मे लपेटकर भेजा। जब बाज उसे ले जा रहा था तो मार्ग में दूसरे बाज ने उसे मांस-पिंड समझकर झपट्टा मारा, जिससे वह पत्ते में लिपटा हुआ वीर्य यमुना में गिर गया। यमुना में ब्रह्मा के शाप से एक अप्सरा मछली के रूप में रहती थी। उसने उसका पान किया तथा एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया। अप्सरा अद्रिका पूर्व शाप से मुक्त होकर स्वर्गलोक चली गई। पुत्री को पहले मत्स्यगंधा तथा बाद में सत्यवती कहकर मछवारों ने पाला तथा पुत्र जो मत्स्य नामक पराक्रमी राजा हुआ, उसे उपचरि ने पाला।

एक बार महर्षियों तथा देवताओं में विवाद छिड़ गया। देवताओं का कहना था कि 'अज' का अभिप्राय बकरे से है, अत: यज्ञ में बकरे का प्रयोग करना चाहिए। ऋषियों के अनुसार अज माने 'अनाज'। वे लोग विवाद में व्यस्त थे, तभी राजा उपचरि उधर से निकले। उन सबने एक मत हो उनको निर्णायक बनाया। उपचरि ने देवताओं का मत जानकर उनका पक्ष लिया। अत: ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा, "यदि तुम्हारा मत ग़लत है और दृष्टि पक्षपातपूर्ण है तो तुम आकाशमार्ग से हटकर पाताल में चले जाओ। यदि हम मिथ्यावादी हैं तो हम पाप भोगें।" उनके शाप देते ही उपचरि (वसु) पतित होकर पाताल में पहुँच गये। देवतागण बहुत दु:खी थे कि उनका पक्ष लेने के कारण वसु को कष्ट उठाना पड़ा। उन्होंने पाताल में रहते हुए भी वसु को ब्राह्मणों का आदर करने का उपदेश दिया तथा व्यवस्था कर दी कि ब्राह्मणों के यज्ञों में दी गई 'वसुधारा' की आहुति उन्हें निरन्तर मिलेगी। साथ ही वरदान दिया कि श्रीहरि प्रसन्न होकर उनका उद्धार करेंगे। वसु पूर्ववत यज्ञादि में लगे रहे। वे श्रीहरि के अनन्य भक्त थे। विष्णु ने अपने वाहन गरुड़ को पाताल भेजकर वसु को बुलवाकर आकाश में छोड़ दिया। वे पुन: 'उपचरि' नाम को सार्थक करने लगे।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक 'भारतीय मिथक कोश') पृष्ठ संख्या-37

  1. महाभारत, आदिपर्व, अ. 63|1-69 शान्तिपर्व, अ. 336 देखिए भागवत पुराण, 2|1|

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