कुसुम -प्रेमचंद

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साल-भर की बात है, एक दिन शाम को हवा खाने जा रहा था कि महाशय नवीन से मुलाक़ात हो गयी। मेरे पुराने दोस्त हैं, बड़े बेतकल्लुफ़ और मनचले। आगरे में मकान है, अच्छे कवि हैं। उनके कवि-समाज में कई बार शरीक हो चुका हूँ। ऐसा कविता का उपासक मैंने नहीं देखा। पेशा तो वकालत; पर डूबे रहते हैं काव्य-चिंतन में। आदमी ज़हीन हैं, मुक़दमा सामने आया

और उसकी तह तक पहुँच गये; इसलिए कभी-कभी मुक़दमे मिल जाते हैं,लेकिन कचहरी के बाहर अदालत या मुक़दमे की चर्चा उनके लिए निषिद्ध है। अदालत की चारदीवारी के अन्दर चार-पाँच घंटे वह वकील होते हैं। चारदीवारी के बाहर निकलते ही कवि हैं सिर से पाँव तक। जब देखिये, कवि-मण्डल जमा है, कवि-चर्चा हो रही है, रचनाएँ सुन रहे हैं। मस्त हो-होकर झूम रहे हैं, और अपनी रचना सुनाते समय तो उन पर एक तल्लीनता-सी छा जाती है। कण्ठ स्वर भी इतना मधुर है कि उनके पद बाण की तरह सीधे कलेजे में उतर जाते हैं। अध्यात्म में माधुर्य की सृष्टि करना, निर्गुण में सगुण की बहार दिखाना उनकी रचनाओं की विशेषता है। वह जब लखनऊ आते हैं, मुझे पहले सूचना दे दिया करते हैं। आज उन्हें अनायास लखनऊ में देखकर मुझे आश्चर्य हुआ आप यहाँ कैसे ? कुशल तो है ? मुझे आने की सूचना तक न दी। बोले भाईजान, एक जंजाल में फँस गया हूँ। आपको सूचित करने का

समय न था। फिर आपके घर को मैं अपना घर समझता हूँ। इस तकल्लुफ़ की क्या ज़रूरत है कि आप मेरे लिए कोई विशेष प्रबन्ध करें। मैं एक ज़रूरी मुआमले में आपको कष्ट देने आया हूँ। इस वक्त की सैर को स्थगित कीजिए और चलकर मेरी विपत्ति-कथा सुनिये। मैंने घबड़ाकर कहा आपने तो मुझे चिन्ता में डाल दिया। आप और विपत्ति-कथा ! मेरे तो प्राण सूखे जाते हैं। 'घर चलिए, चित्त शान्त हो तो सुनाऊँ !' 'बाल-बच्चे तो अच्छी तरह हैं ?' 'हाँ, सब अच्छी तरह हैं। वैसी कोई बात नहीं है !' 'तो चलिए, रेस्ट्रां में कुछ जलपान तो कर लीजिए।' 'नहीं भाई, इस वक्त मुझे जलपान नहीं सूझता।'

हम दोनों घर की ओर चले। घर पहुँचकर उनका हाथ-मुँह धुलाया, शरबत पिलाया। इलायची-पान खाकर उन्होंने अपनी विपत्ति-कथा सुनानी शुरू की--

'कुसुम के विवाह में आप गये ही थे। उसके पहले भी आपने उसे देखा था। मेरा विचार है कि किसी सरल प्रकृति के युवक को आकर्षित करने के लिए जिन गुणों की ज़रूरत है, वह सब उसमें मौजूद हैं। आपका क्या ख़याल है ?'

मैंने तत्परता से कहा, मैं आपसे कहीं ज़्यादा कुसुम का प्रशंसक हूँ।

ऐसी लज्जाशील, सुघड़, सलीक़ेदार और विनोदिनी बालिका मैंने दूसरी नहीं देखी। महाशय नवीन ने करुण स्वर में कहा वही कुसुम आज अपने पति के निर्दय व्यवहार के कारण रो-रोकर प्राण दे रही है। उसका गौना हुए एक साल हो रहा है। इस बीच में वह तीन बार ससुराल गयी, पर उसका पति उससे बोलता ही नहीं। उसकी सूरत से बेज़ार है। मैंने बहुत चाहा कि उसे बुलाकर दोनों में सफ़ाई करा दूं, मगर न आता है, न मेरे पत्रों का उत्तर देता है। न जाने क्या गाँठ पड़ गयी है कि उसने इस बेदर्दी से आँखें फेर लीं। अब सुनता हूँ, उसका दूसरा विवाह होने वाला है। कुसुम का बुरा हाल हो रहा है। आप शायद उसे देखकर पहचान भी न सकें। रात-दिन रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। इससे आप हमारी परेशानी का अनुमान कर सकते हैं। ज़िन्दगी की सारी अभिलाषाएँ मिटी जाती हैं। हमें ईश्वर ने पुत्र न दिया; पर हम अपनी कुसुम को पाकर सन्तुष्ट थे और अपने भाग्य को धान्य मानते थे। उसे कितने लाड़-प्यार से पाला, कभी उसे फूल की छड़ी से भी न छुआ। उसकी शिक्षा-दीक्षा में कोई बात उठा न रखी। उसने बी. ए. नहीं पास किया, लेकिन विचारों की प्रौढ़ता और ज्ञान-विस्तार में किसी ऊँचे दर्जे की शिक्षित महिला से कम नहीं। आपने उसके लेख देखे हैं। मेरा ख़याल है, बहुत कम देवियाँ वैसे लेख लिख सकती हैं ! समाज, धार्म, नीति सभी विषयों में उसके विचार बड़े परिष्कृत हैं। बहस करने में तो वह इतनी पटु है कि मुझे आश्चर्य होता है। गृह-प्रबन्ध में इतनी कुशल कि मेरे घर का प्राय: सारा प्रबन्ध उसी के हाथ में था; किन्तु पति की दृष्टि में वह पाँव की धूल के बराबर भी नहीं। बार-बार पूछता हूँ, तूने उसे कुछ कह दिया है, या क्या बात है ? आख़िर, वह क्यों तुझसे इतना उदासीन है ? इसके जवाब में रोकर यही कहती है 'मुझसे तो उन्होंने कभी कोई बातचीत ही नहीं की।' मेरा विचार है कि पहले ही दिन दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया। वह कुसम के पास आया होगा और उससे कुछ पूछा होगा। उसने मारे शर्म के जवाब न दिया होगा। संभव है,उससे दो-चार बातें और भी की हों। कुसुम ने सिर न उठाया होगा। आप जानते ही हैं, कि कितनी शर्मीली है। बस, पतिदेव रूठ गये होंगे। मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकता कि कुसम-जैसी बालिका से कोई पुरुष उदासीन रह सकता है, लेकिन दुर्भाग्य को कोई क्या करे ? दुखिया ने पति के नाम कई पत्र लिखे, पर उस निर्दयी ने एक का भी जवाब न दिया ! सारी चिट्ठियाँ लौटा दीं। मेरी समझ में नहीं आता कि उस पाषाण-हृदय को कैसे पिघलाऊँ। मैं अब खुद तो उसे कुछ लिख नहीं सकता। आप ही कुसुम की प्राण रक्षा करें, नहीं तो शीघ्र ही उसके जीवन का अन्त हो जायगा और उसके साथ हम दोनों प्राणी भी सिधार जायॅगे। उसकी व्यथा अब नहीं देखी जाती।

नवीनजी की आँखें सजल हो गयीं। मुझे भी अत्यन्त क्षोभ हुआ। उन्हें तसल्ली देता हुआ बोला आप इतने दिनों इस चिन्ता में पड़े रहे, मुझसे पहले ही क्यों न कहा ? मैं आज ही मुरादाबाद जाऊँगा और उस लौंडे की इस बुरी तरह खबर लूँगा कि वह भी याद करेगा। बचा को ज़बरदस्ती घसीट कर लाऊँगा और कुसुम के पैरों पर गिरा दूंगा। नवीनजी मेरे आत्मविश्वास पर मुसकराकर बोले, आप उससे क्या कहेंगे ?

'यह न पूछिये ! वशीकरण के जितने मन्त्र हैं, उन सभी की परीक्षा करूँगा।'

'तो आप कदापि सफल न होंगे। वह इतना शीलवान, इतना विनम्र, इतना प्रसन्न मुख है, इतना मधुर-भाषी कि आप वहाँ से उसके भक्त होकर

लौटेंगे ! वह नित्य आपके सामने हाथ बाँधे खड़ा रहेगा। आपकी सारी कठोरता शान्त हो जायगी। आपके लिए तो एक ही साधन है। आपके कलम में जादू है ! आपने कितने ही युवकों को सन्मार्ग पर लगाया है। हृदय में सोयी हुई मानवता को जगाना आपका कर्तव्य है। मैं चाहता हूँ, आप कुसुम की ओर से ऐसा करुणाजनक, ऐसा दिल हिला देनेवाला पत्र लिखें कि वह लज्जित हो जाय और उसकी प्रेम-भावना सचेत हो उठे। मैं जीवन-पर्यन्त आपका आभारी रहूँगा।'

नवीनजी कवि ही तो ठहरे। इस तजबीज में वास्तविकता की अपेक्षा कवित्व ही की प्रधानता थी। आप मेरे कई गल्पों को पढ़कर रो पड़े हैं, इससे आपको विश्वास हो गया है कि मैं चतुर सँपेरे की भाँति जिस दिल को चाहूँ,नचा सकता हूँ। आपको यह मालूम नहीं कि सभी मनुष्य कवि नहीं होते,

और न एक-से भावुक। जिन गल्पों को पढ़कर आप रोये हैं, उन्हीं गल्पों को पढ़कर कितने ही सज्जनों ने विरक्त होकर पुस्तक फेंक दी है। पर इन बातों का वह अवसर न था। वह समझते कि मैं अपना गला छुड़ाना चाहता हूँ, इसलिए मैंने सहृदयता से कहा, आपको बहुत दूर की सूझी। और मैं इस प्रस्ताव से सहमत हूँ और यद्यपि आपने मेरी करुणोत्पादक शक्ति का अनुमान करने में अत्युक्ति से काम लिया है; लेकिन मैं आपको निराश न करूँगा। मैं पत्र लिखूंगा और यथाशक्ति उस युवक की न्याय-बुद्धि को जगाने की चेष्टा भी करूँगा, लेकिन आप अनुचित न समझें तो पहले मुझे वह पत्र दिखा दें, जो कुसुम ने अपने पति के नाम लिखे थे, उसने पत्र तो लौटा ही दिये हैं और यदि कुसुम ने उन्हें फाड़ नहीं डाला है, तो उसके पास होंगे। उन पत्रों को देखने से मुझे ज्ञात हो जायगा कि किन पहलुओं पर लिखने की गुंजाइश बाक़ी है। नवीनजी ने जेब से पत्रों का एक पुलिन्दा निकालकर मेरे सामने रख दिया और बोले मैं जानता था आप इन पत्रों को देखना चाहेंगे, इसलिए इन्हें साथ लेता आया। आप इन्हें शौक़ से पढ़ें। कुसुम जैसी मेरी लड़की है, वैसी ही आपकी भी लड़की है। आपसे क्या परदा !

सुगन्धित, गुलाबी, चिकने काग़ज़ पर बहुत ही सुन्दर अक्षरों में लिखे उन पत्रों को मैंने पढ़ना शुरू किया --

'मेरे स्वामी, मुझे यहाँ आये एक सप्ताह हो गया; लेकिन आँखें पल-भर के लिए भी नहीं झपकीं। सारी रात करवटें बदलते बीत जाती है। बार-बार सोचती हूँ, मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ कि उसकी आप मुझे यह सज़ा दे रहे हैं। आप मुझे झिड़कें, घुड़कें, कोसें; इच्छा हो तो मेरे कान भी पकड़ें।मैं इन सभी सजाओं को सहर्ष सह लूँगी; लेकिन यह निष्ठुरता नहीं सही जाती। मैं आपके घर एक सप्ताह रही। परमात्मा जानता है कि मेरे दिल में क्या-क्या अरमान थे। मैंने कितनी बार चाहा कि आपसे कुछ पूछॅ; आपसे अपने अपराधों को क्षमा कराऊँ; लेकिन आप मेरी परछाईं से भी दूर भागते थे। मुझे कोई अवसर न मिला। आपको याद होगा कि जब दोपहर को सारा घर सो जाता था; तो मैं आपके कमरे में जाती थी और घण्टों सिर झुकाये खड़ी रहती थी; पर आपने कभी आँख उठाकर न देखा। उस वक्त मेरे मन की क्या दशा होती थी, इसका कदाचित् आप अनुमान न कर सकेंगे। मेरी जैसी अभागिनी स्त्रियाँ इसका कुछ अंदाज़कर सकती हैं। मैंने अपनी सहेलियों से उनकी सोहागरात की कथाएँ सुन- सुनकर अपनी कल्पना में सुखों का जो स्वर्ग बनाया था उसे आपने कितनी निर्दयता से नष्ट कर दिया ! मैं आपसे पूछती हूँ, क्या आपके ऊपर मेरा कोई अधिकार नहीं है ? अदालत भी किसी अपराधी को दंड देती है, तो उस पर कोई-न-कोई अभियोग लगाती है, गवाहियाँ लेती है, उनका बयान सुनती है। आपने तो कुछ पूछा ही नहीं। मुझे अपनी ख़ता मालूम हो जाती, तो आगे के लिए सचेत हो जाती। आपके चरणों पर गिरकर कहती, मुझे क्षमा-दान दो। मैं शपथपूर्वक कहती

हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम, आप क्यों रुष्ट हो गये। सम्भव है, आपने अपनी पत्नी में जिन गुणों को देखने की कामना की हो, वे मुझमें न हों। बेशक

मैं अँगरेजी नहीं पढ़ी, अँगरेज़ी-समाज की रीति-नीति से परिचित नहीं, न अँगरेज़ी खेल ही खेलना जानती हूँ। और भी कितनी ही त्रुटियाँ मुझमें होंगी।

मैं जानती हूँ कि मैं आपके योग्य न थी। आपको मुझसे कहीं अधिक रूपवती, गुणवती, बुद्धिमती स्त्री मिलनी चाहिए थी; लेकिन मेरे देवता, दंड अपराधों

का मिलना चाहिए, त्रुटियों का नहीं। फिर मैं तो आपके इशारे पर चलने को तैयार हूँ। आप मेरी दिलजोई करें, फिर देखिए, मैं अपनी त्रुटियों को कितनी

जल्द पूरा कर लेती हूँ। आपका प्रेम-कटाक्ष मेरे रूप को प्रदीप्त, मेरी बुद्धि को तीव्र और मेरे भाग्य को बलवान कर देगा। वह विभूति पाकर मेरी कयाकल्प हो जायगी। स्वामी ! क्या आपने सोचा है ? आप यह क्रोध किस पर कर रहे हैं ? वह अबला, जो आपके चरणों पर पड़ी हुई आपसे क्षमा-दान माँग रही है, जो जन्म-जन्मान्तर के लिए आपकी चेरी है, क्या इस क्रोध को सहन कर सकती है ? मेरा दिल बहुत कमज़ोर है। मुझे रुलाकर आपको पश्चात्ताप के सिवा और क्या हाथ आयेगा। इस क्रोधग्नि की एक चिनगारी मुझे भस्म कर देने के लिए काफ़ी है, अगर आपकी यह इच्छा है कि मैं मर जाऊँ, तो मैं मरने के लिए तैयार हूँ; केवल आपका इशारा चाहती हूँ। अगर मरने से आपका चित्त प्रसन्न हो, तो मैं बड़े हर्ष से अपने को आपके चरणों पर समर्पित कर दूंगी; मगर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि मुझमें सौ ऐब हों, पर एक गुण भी है मुझे दावा है कि आपकी जितनी सेवा मैं कर सकती हूँ, उतनी कोई दूसरी स्त्री नहीं कर सकती। आप विद्वान् हैं, उदार हैं, मनोविज्ञान के पंडित हैं, आपकी लौंडी आपके सामने खड़ी दया की भीख माँग रही है। क्या उसे द्वार से ठुकरा दीजिएगा ? आपकी अपराधिनी क़ुसुम

यह पत्र पढ़कर मुझे रोमांच हो आया। यह बात मेरे लिए असह्य थी कि कोई स्त्री अपने पति की इतनी खुशामद करने पर मजबूर हो जाय। पुरुष अगर स्त्री से उदासीन रह सकता है, तो स्त्री उसे क्यों नहीं ठुकरा सकती ? वह दुष्ट समझता है कि विवाह ने एक स्त्री को उसका ग़ुलाम बना दिया। वह

उस अबला पर जितना अत्याचार चाहे करे, कोई उसका हाथ नहीं पकड़ सकता, कोई चूँ भी नहीं कर सकता। पुरुष अपनी दूसरी, तीसरी, चौथी शादी कर

सकता है, स्त्री से कोई सम्बन्ध न रखकर भी उस पर उसी कठोरता से शासन कर सकता है। वह जानता है कि स्त्री कुल-मर्यादा के बन्धनों में जकड़ी हुई है, उसे रो-रोकर मर जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। अगर उसे भय होता कि औरत भी उसकी ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, ईंट से भी नहीं; केवल थप्पड़ से दे सकती है, तो उसे कभी इस बदमिज़ाजी का साहस न होता। बेचारी स्त्री कितनी विवश है। शायद मैं कुसुम की जगह होता, तो

इस निष्ठुरता का जवाब इसकी दसगुनी कठोरता से देता। उसकी छाती पर मूँग दलता ? संसार के हॅसने की ज़रा भी चिन्ता न करता। समाज अबलाओं पर इतना जुल्म देख सकता है और चूँ तक नहीं करता, उसके रोने या हॅसने की मुझे ज़रा भी परवाह न होती। अरे अभागे युवक ! तुझे खबर नहीं, तू अपने भविष्य की गर्दन पर कितनी बेदर्दी से छुरी फेर रहा है ? यह वह समय है, जब पुरुष को अपने प्रणय-भण्डार से स्त्री के माता-पिता, भाई-बहन, सखियाँ-सहेलियाँ, सभी के प्रेम की पूर्ति करनी पड़ती है। अगर पुरुष में यह सामर्थ्य नहीं है तो स्त्री की क्षुधित आत्मा को कैसे सन्तुष्ट रख सकेगा। परिणाम वही होगा, जो बहुधा होता है। अबला कुढ़-कुढ़कर मर जाती है। यही वह समय है, जिसकी स्मृति जीवन में सदैव के लिए मिठास पैदा कर देती है। स्त्री की प्रेमसुधा इतनी तीव्र होती है कि वह पति का स्नेह पाकर अपना जीवन सफल समझती है और इस प्रेम के आधार पर जीवन के सारे कष्टों को हॅस-खेलकर सह लेती है। यही वह समय है, जब हृदय में प्रेम का बसन्त आता है और उसमें नयी-नयी आशा-कोंपलें निकलने लगती हैं। ऐसा कौन निर्दयी है, जो इस ऋतु में उस वृक्ष पर कुल्हाड़ी चलायेगा। यही वह समय है, जब शिकारी किसी पक्षी को उसके बसेरे से लाकर पिंजरे में बन्द कर देता है। क्या वह उसकी गर्दन पर छुरी चलाकर उसका मधुर गान सुनने की आशा रखता है ?

मैंने दूसरा पत्र पढ़ना शुरू किया मेरे जीवन-धान ! दो सप्ताह जवाब की प्रतीक्षा करने के बाद आज फिर यही उलाहना देने बैठी हूँ। जब मैंने वह पत्र लिखा था, तो मेरा मन गवाही दे रहा था कि उसका उत्तर ज़रूर आयेगा। आशा के विरुद्ध आशा लगाये हुए थी। मेरा मन अब भी इसे स्वीकार नहीं करता कि जान-बूझकर उसका उत्तर नहीं दिया। कदाचित् आपको अवकाश नहीं मिला, या ईश्वर न करे, कहीं आप अस्वस्थ तो नहीं हो गये ? किससे पूछूँ ? इस विचार से ही मेरा हृदय काँप रहा है। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप प्रसन्न और स्वस्थ हों। पत्र मुझे न लिखें, न सही, रोकर चुप ही तो हो जाऊँगी। आपको ईश्वर का वास्ता है; अगर आपको किसी प्रकार का कष्ट हो, तो मुझे तुरन्त पत्र लिखिए, मैं किसी को साथ लेकर आ जाऊँगी। मर्यादा और परिपाटी के बन्धनों से मेरा जी घबराता है, ऐसी दशा में भी यदि आप मुझे अपनी सेवा से वंचित रखते हैं, तो आप मुझसे मेरा वह अधिकार छीन रहे हैं, जो मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान् वस्तु है। मैं आपसे और कुछ नहीं माँगती, आप मुझे मोटे-से-मोटा खिलाइए, मोटे-से-मोटा पहनाइए, मुझे ज़रा भी शिकायत न होगी। मैं आपके साथ घोर-से-घोर विपत्ति में भी प्रसन्न रहूँगी। मुझे आभूषणों की लालसा नहीं, महल में रहने की लालसा नहीं, सैर-तमाशे की लालसा नहीं, धान बटोरने की लालसा नहीं। मेरे जीवन का उद्देश्य केवल आपकी सेवा करना है। यही उसका धयेय है। मेरे लिए दुनिया में कोई देवता नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई हाकिम नहीं। मेरे देवता आप हैं, मेरे राजा आप हैं, मुझे अपने चरणों से न हटाइए, मुझे ठुकराइए नहीं। मैं सेवा और प्रेम के फूल लिये, कर्तव्य और व्रत की भेंट अंचल में सजाये आपकी सेवा में आयी हूँ। मुझे इस भेंट को, इन फूलों को अपने चरणों पर रखने दीजिए। उपासक का काम तो पूजा करना है। देवता उसकी पूजा स्वीकार करता है या नहीं, यह सोचना उसका धार्म नहीं। मेरे सिरताज ! शायद आपको पता नहीं, आजकल मेरी क्या दशा है। यदि मालूम होता, तो आप इस निष्ठुरता का व्यवहार न करते। आप पुरुष हैं, आपके हृदय में दया है, सहानुभूति है, उदारता है, मैं विश्वास नहीं कर सकती कि आप मुझ जैसी नाचीज़ पर क्रोध कर सकते हैं। मैं आपकी दया के योग्य हूँ क़ितनी दुर्बल, कितनी अपंग, कितनी बेज़बान ! आप सूर्य हैं, मैं अणु हूँ; आप अग्नि हैं, मैं तृण हूँ; आप राजा हैं, मैं भिखारिन हूँ। क्रोध तो बराबर वालों पर करना चाहिए, मैं भला आपके क्रोध का आघात कैसे सह सकती हूँ ? अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सेवा के योग्य नहीं हूँ, तो मुझे अपने हाथों से विष का प्याला दे दीजिए। मैं उसे सुधा समझकर सिर और आँखों से लगाऊँगी और आँखें बन्द करके पी जाऊँगी। जब जीवन आपकी भेंट हो गया, तो आप मारें या जिलायें, यह आपकी इच्छा है। मुझे यही सन्तोष काफ़ी है कि मेरी मृत्यु से आप निश्चिन्त हो गये। मैं तो इतना ही जानती हूँ कि मैं आपकी हूँ और सदैव आपकी रहूँगी; इस जीवन में ही नहीं, बल्कि अनन्त तक।

अभागिनी,कुसुम

यह पत्र पढ़कर मुझे कुसुम पर भी झुँझलाहट आने लगी और उस लौंडे से घृणा हो गयी। माना, तुम स्त्री हो, आजकल के प्रथानुसार पुरुष को तुम्हारे ऊपर हर तरह का अधिकार है, लेकिन नम्रता की भी तो कोई सीमा होती है ? तो उसे भी चाहिए कि उसकी बात न पूछे। स्त्रिायों को धार्म और त्याग का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर हमने उनके आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास दोनों ही का अन्त कर दिया। अगर पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं, तो स्त्री भी पुरुष की मुहताज क्यों है ? ईश्वर ने पुरुष को हाथ दिये हैं, तो क्या स्त्री को उससे वंचित रखा है ? पुरुष के पास बुद्धि है, तो क्या स्त्री अबोधा है ? इसी नम्रता ने तो मरदों का मिज़ाज आसमान पर पहुँचा दिया। पुरुष रूठ गया, तो स्त्री के लिए मानो प्रलय आ गया। मैं तो समझता हूँ, कुसुम नहीं, उसका अभागा पति ही दया के योग्य है, जो कुसुम-जैसी स्त्री की कद्र नहीं कर सकता। मुझे ऐसा सन्देह होने लगा कि इस लौंडे ने कोई दूसरा रोग पाल रखा है। किसी शिकारी के रंगीन जाल में फँसा हुआ है। खैर, मैंने तीसरा पत्र खोला प्रियतम ! अब मुझे मालूम हो गया कि मेरी ज़िन्दगी निरुद्देश्य है। जिस फूल को देखनेवाला, चुननेवाला कोई नहीं, वह खिले तो क्यों ? क्या इसीलिए कि मुरझाकर ज़मीन पर गिर पड़े और पैरों से कुचल दिया जाय ? मैं आपके घर में एक महीना रहकर दोबारा आयी हूँ। ससुरजी ही ने मुझे बुलाया, ससुरजी ही ने मुझे बिदा कर दिया। इतने दिनों में आपने एक बार भी मुझे दर्शन न दिये। आप दिन में बीसों ही बार घर में आते थे, अपने भाई-बहनों से हॅसते-बोलते थे, या मित्रों के साथ सैर-तमाशे देखते थे; लेकिन मेरे पास आने की आपने कसम खा ली थी। मैंने कितनी बार आपके पास संदेश भेजे, कितना अनुनय-विनय किया, कितनी बार बेशर्मी करके आपके कमरे में गयी; लेकिन आपने कभी मुझे आँख उठाकर भी न देखा। मैं तो कल्पना ही नहीं कर सकती कि कोई प्राणी इतना हृदयहीन हो सकता है। प्रेम के योग्य नहीं, विश्वास के योग्य नहीं, सेवा करने के भी योग्य नहीं, तो क्या दया के भी योग्य नहीं ? मैंने उस दिन कितनी मेहनत और प्रेम से आपके लिए रसगुल्ले बनाये थे। आपने उन्हें हाथ से छुआ भी नहीं। जब आप मुझसे इतने विरक्त्त हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता कि जीकर क्या करूँ ? न-जाने यह कौन-सी आशा है, जो मुझे जीवित रखे हुए है। क्या अन्धेर है कि आप सज़ा तो देते हैं; पर अपराध नहीं बतलाते। यह कौन-सी नीति है ? आपको ज्ञात है, इस एक मास में मैंने मुश्किल से दस दिन आपके घर में भोजन किया होगा। मैं इतनी कमज़ोर हो गयी हूँ कि चलती हूँ तो आँखों के सामने अन्धेरा छा जाता है। आँखों में जैसे ज्योति ही नहीं रही ! हृदय में मानो रक्त का संचालन ही नहीं रहा। खैर, सता लीजिए, जितना जी चाहे। इस अनीति का अन्त भी एक दिन हो ही जायगा। अब तो मृत्यु ही पर सारी आशाएँ टिकी हुई हैं। अब मुझे प्रतीत हो रहा है कि मेरे मरने की खबर पाकर आप उछलेंगे और हल्की सॉस लेंगे, आपकी आँखों से आँसू की एक बूँद भी न गिरेगी; पर यह आपका दोष नहीं, मेरा दुर्भाग्य है। उस जन्म में मैंने कोई बहुत बड़ा पाप किया था। मैं चाहती हूँ मैं भी आपकी परवाह न करूँ, आप ही की भाँति आपसे आँखें फेर लूँ, मुँह फेर लूँ, दिल फेर लूँ; लेकिन न-जाने क्यों मुझमें वह शक्ति नहीं है। क्या लता वृक्ष की भाँति खड़ी रह सकती है ? वृक्ष के लिए किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। लता वह शक्ति कहाँ से लाये ? वह तो वृक्ष से लिपटने के लिए पैदा की गयी है। उसे वृक्ष से अलग कर दो और वह सूख जायगी। मैं आपसे पृथक् अपने अस्तित्व की कल्पना ही नहीं कर सकती। मेरे जीवन की हर एक गति, प्रत्येक विचार, प्रत्येक कामना में आप मौजूद होते हैं। मेरा जीवन वह वृत्त है, जिसके केन्द्र आप हैं। मैं वह हार हूँ, जिसके प्रत्येक फूल में आप धागे की भाँति घुसे हैं। उस धागे के बगैर हार के फूल बिखर जायॅगे और धूल में मिल जायॅगे।

मेरी एक सहेली है, शन्नो। उसका इस साल पाणिग्रहण हो गया है। उसका पति जब ससुराल आता है, शन्नो के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते। दिन-भरमें न जाने कितने रूप बदलती है। मुख-कमल खिल जाता है। उल्लास सँभाले नहीं सँभलता। उसे बिखेरती, लुटाती चलती है, हम जैसे अभागों के लिए। जब आकर मेरे गले से लिपट जाती है, तो हर्ष और उन्माद की वर्षा से जैसे मैं लथपथ हो जाती हूँ। दोनों अनुराग से मतवाले हो रहे हैं। उनके पास धन नहीं है, जायदाद नहीं है। मगर अपनी दरिद्रता में ही मगन हैं। इस अखण्ड प्रेम का एक क्षण ! उसकी तुलना में संसार की कौन-सी वस्तु रखी जा सकती है ? मैं जानती हॅ, यह रंगरेलियाँ और बेफिक्रियाँ बहुत दिन न रहेंगी। जीवन की चिन्ताएँ और दुराशाएँ उन्हें भी परास्त कर देंगी, लेकिन ये मधुर स्मृतियाँ संचित धान की भाँति अन्त तक उन्हें सहारा देती रहेंगी। प्रेम में भीगी हुई सूखी रोटियाँ, प्रेम में रंगे हुए मोटे कपड़े और प्रेम के प्रकाश से आलोकित छोटी-सी कोठरी, अपनी इस विपन्नता में भी वह स्वाद, वह शोभा और वह विश्राम रखती है, जो शायद देवताओं को स्वर्ग में भी नसीब नहीं। जब शन्नो का पति अपने घर चला जाता है, तो वह दुखिया किस तरह फूट-फूटकर रोती है कि मेरा हृदय गद्गद हो जाता है। उसके पत्र आ जाते हैं, तो मानो उसे कोई विभूति मिल जाती है। उसके रोने में भी, उसकी विफलताओं में भी, उसके उपालम्भों में भी एक स्वाद है, एक रस है। उसके आँसू व्यग्रता और विह्वलता के हैं, मेरे आँसू निराशा और दु:ख के। उसकी व्याकुलता में प्रतीक्षा और उल्लास है, मेरी व्याकुलता में दैन्य और परवशता। उसके उपालम्भ में अधिकार और ममता है, मेरे उपालम्भ में भग्नता और रुदन !

पत्र लम्बा हुआ जाता है और दिल का बोझ हलका नहीं होता। भयंकर गरमी पड़ रही है। दादा मुझे मसूरी ले जाने का विचार कर रहे हैं। मेरी दुर्बलता से उन्हें 'टी.बी.' का सन्देह हो रहा है। वह नहीं जानते कि मेरे लिए मसूरी नहीं, स्वर्ग भी काल-कोठरी है।

अभागिन, क़ुसुम

मेरे पत्थर के देवता ! कल मसूरी से लौट आयी। लोग कहते हैं, बड़ा स्वास्थ्यवर्धकक और रमणीक स्थान है, होगा। मैं तो एक दिन भी कमरे से नहीं निकली। भग्न-हृदयों के लिए संसार सूना है। मैंने रात एक बड़े मजे का सपना देखा। बतलाऊँ; पर क्या फ़ायदा ? न जाने क्यों मैं अब भी मौत से डरती हूँ। आशा का कच्चा धागा मुझे अब भी जीवन से बाँधे हुए है। जीवन-उद्यान के द्वार पर जाकर बिना सैर किये लौट आना कितना हसरतनाक है। अन्दर क्या सुषमा है, क्या आनन्द है। मेरे लिए वह द्वार ही बन्द है। कितनी अभिलाषाओं से विहार का आनन्द उठाने चली थी क़ितनी तैयारियों से पर मेरे पहुँचते ही द्वार बन्द हो गया है।

अच्छा बतलाओ, मैं मर जाऊँगी तो मेरी लाश पर आँसू की दो बूँदें

गिराओगे ? जिसकी ज़िन्दगी-भर की ज़िम्मेदारी ली थी, जिसकी सदैव के लिए

बॉह पकड़ी थी, क्या उसके साथ इतनी भी उदारता न करोगे ? मरनेवालों

के अपराध सभी क्षमा कर दिया करते हैं। तुम भी क्षमा कर देना। आकर

मेरे शव को अपने हाथों से नहलाना, अपने हाथ से सोहाग के सिन्दूर लगाना,

अपने हाथ से सोहाग की चूड़ियाँ पहनाना, अपने हाथ से मेरे मुँह में गंगाजल

डालना, दो-चार पग कन्धा दे देना, बस, मेरी आत्मा सन्तुष्ट हो जायगी और

तुम्हें आशीर्वाद देगी। मैं वचन देती हूँ कि मालिक के दरबार में तुम्हारा यश

गाऊँगी। क्या यह भी महॅगा सौदा है ? इतने-से शिष्टाचार से तुम अपनी

सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हुए जाते हो। आह ! मुझे विश्वास होता कि तुम

इतना शिष्टाचार करोगे, तो मैं कितनी खुशी से मौत का स्वागत करती। लेकिन

मैं तुम्हारे साथ अन्याय न करूँगी। तुम कितने ही निष्ठुर हो, इतने निर्दयी

नहीं हो सकते। मैं जानती हूँ; तुम यह समाचार पाते ही आओगे और शायद

एक क्षण के लिए मेरी शोक-मृत्यु पर तुम्हारी आँखें रो पड़ें। कहीं मैं अपने

जीवन में वह शुभ अवसर देख सकती !

अच्छा, क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकती हूँ ? नाराज़ न होना। क्या मेरी

जगह किसी और सौभाग्यवती ने ले ली है ? अगर ऐसा है, तो बधाई ! जरा

उसका चित्र मेरे पास भेज देना। मैं उसकी पूजा करूँगी, उसके चरणों पर

शीश नवाऊँगी। मैं जिस देवता को प्रसन्न न कर सकी, उसी देवता से उसने

वरदान प्राप्त कर लिया। ऐसी सौभागिनी के तो चरण धो-धो पीना चाहिए।

मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम उसके साथ सुखी रहो। यदि मैं उस देवी की

कुछ सेवा कर सकती, अपरोक्ष न सही, परोक्ष रूप से ही तुम्हारे कुछ काम

आ सकती। अब मुझे केवल उसका शुभ नाम और स्थान बता दो, मैं सिर

के बल दौड़ी हुई उसके पास जाऊँगी और कहूँगी देवी, तुम्हारी लौंडी हूँ,

इसलिए कि तुम मेरे स्वामी की प्रेमिका हो। मुझे अपने चरणों में शरण दो।

मैं तुम्हारे लिए फूलों की सेज बिछाऊँगी, तुम्हारी माँग मोतियों से भरूँगी, तुम्हारी

एड़ियों में महावर रचाऊँगी यह मेरी जीवन की साधाना होगी ! यह न समझना

कि मैं जलूँगी या कुढूँगी। जलन तब होती है, जब कोई मुझसे मेरी वस्तु छीन

रहा हो। जिस वस्तु को अपना समझने का मुझे कभी सौभाग्य न हुआ, उसके

लिए मुझे जलन क्यों हो। अभी बहुत कुछ लिखना था; लेकिन डाक्टर साहब आ गये हैं। बेचारा

हृदयदाह को टी.बी. समझ रहा है।

दु:ख की सतायी हुई,

क़ुसुम

मानसरोवर : 339

इन दोनों पत्रों ने धैर्य का प्याला भर दिया ! मैं बहुत ही आवेशहीन आदमी

हूँ। भावुकता मुझे छू भी नहीं गयी। अधिकांश कलाविदों की भाँति मैं भी

शब्दों से आन्दोलित नहीं होता। क्या वस्तु दिल से निकलती है, क्या वस्तु

केवल मर्म को स्पर्श करने के लिए लिखी गई है, यह भेद बहुधा मेरे साहित्यिक

आनन्द में बाधाक हो जाता है, लेकिन इन पत्रों ने मुझे आपे से बाहर कर

दिया। एक स्थान पर तो सचमुच मेरी आँखें भर आयीं। यह भावना कितनी

वेदनापूर्ण थी कि वही बालिका, जिस पर माता-पिता प्राण छिड़कते रहते थे,

विवाह होते ही इतनी विपदग्रस्त हो जाय ! विवाह क्या हुआ, मानो उसकी

चिता बनी, या उसकी मौत का परवाना लिखा गया। इसमें सन्देह नहीं कि

ऐसी वैवाहिक दुर्घटनाएँ कम होती हैं; लेकिन समाज की वर्तमान दशा में उनकी

सम्भावना बनी रहती है। जब तक स्त्री-पुरुष के अधिकार समान न होंगे,

ऐसे आघात नित्य होते रहेंगे। दुर्बल को सताना कदाचित् प्राणियों का स्वभाव

है। काटनेवाले कुत्तों से लोग दूर भागते हैं, सीधे कुत्ते पर बालवृन्द विनोद

के लिए पत्थर फेंकते हैं। तुम्हारे दो नौकर एक ही श्रेणी के हों, उनमें कभी

झगड़ा न होगा; लेकिन आज उनमें से एक को अफसर और दूसरे को उसका

मातहत बना दो, फिर देखो, अफसर साहब अपने मातहत पर कितना रोब

जमाते हैं। सुखमय दाम्पत्य की नींव अधिकार-साम्य ही पर रखी जा सकती

है। इस वैषम्य में प्रेम का निवास हो सकता है, मुझे तो इसमें सन्देह है।

हम आज जिसे स्त्री-पुरुषों में प्रेम कहते हैं, वह वही प्रेम है, जो स्वामी को

अपने पशु से होता है। पशु सिर झुकाये काम किये चला जाय, स्वामी उसे

भूसा और खली भी देगा, और उसकी देह भी सहलायेगा, उसे आभूषण भी

पहनायेगा; लेकिन जानवर ने जरा चाल धीमी की, जरा गर्दन टेढ़ी की कि

मालिक का चाबुक पीठ पर पड़ा। इसे प्रेम नहीं कहते। खैर, मैंने पाँचवॉ पत्र खोला

जैसा मुझे विश्वास था, आपने मेरे पिछले पत्र का भी उत्तर न दिया।

इसका खुला हुआ अर्थ है कि आपने मुझे परित्याग करने का संकल्प कर

लिया है। जैसी आपकी इच्छा ! पुरुष के लिए स्त्री पाँव की जूती है, स्त्री

के लिए तो पुरुष देव तुल्य है, बल्कि देवता से भी बढ़कर। विवेक का उदय

होते ही वह पति की कल्पना करने लगती है। मैंने भी वही किया। जिस

समय मैं गुड़िया खेलती थी, उसी समय आपने गुड्डे के रूप में मेरे मनोदेश

में प्रवेश किया। मैंने आपके चरणों को पखारा, माला-फूल और नैवेद्य से आपका

सत्कार किया। कुछ दिनों के बाद कहानियाँ सुनने और पढ़ने की चाट पड़ी,

तब आप कथाओं के नायक के रूप में मेरे घर आये। मैंने आपको हृदय

में स्थान दिया। बाल्यकाल ही से आप किसी-न-किसी रूप में मेरे जीवन में

घुसे हुए थे। वे भावनाएँ मेरे अन्तस्तल की गहराइयों तक पहुँच गयी हैं।

मेरे अस्तित्व का एक-एक अणु उन भावनाओं से गुँथा हुआ है। उन्हें दिल

से निकाल डालना सहज नहीं है। उसके साथ मेरे जीवन के परमाणु भी बिखर

जायॅगे, लेकिन आपकी यही इच्छा है तो यही सही। मैं आपकी सेवा में सबकुछ

करने को तैयार थी। अभाव और विपन्नता का तो कहना ही क्या मैं तो

अपने को मिटा देने को भी राजी थी। आपकी सेवा में मिट जाना ही मेरे

जीवन का उद्देश्य था। मैंने लज्जा और संकोच का परित्याग किया, आत्म-सम्मान

को पैरों से कुचला, लेकिन आप मुझे स्वीकार नहीं करना चाहते। मजबूर हूँ।

आपका कोई दोष नहीं। अवश्य मुझसे कोई ऐसी बात हो गयी है, जिसने

आपको इतना कठोर बना दिया है। आप उसे जबान पर लाना भी उचित

नहीं समझते। मैं इस निष्ठुरता के सिवा और हर एक सज़ा झेलने को तैयार

थी। आपके हाथ से ज़हर का प्याला लेकर पी जाने में मुझे विलम्ब न होता,

किन्तु विधि की गति निराली है ! मुझे पहले इस सत्य के स्वीकार करने में

बाधा थी कि स्त्री पुरुष की दासी है। मैं उसे पुरुष की सहचरी, अर्धांगिनी

समझती थी, पर अब मेरी आँखें खुल गयीं। मैंने कई दिन हुए एक पुस्तक

में पढ़ा था कि आदिकाल में स्त्री पुरुष की उसी तरह सम्पत्ति थी, जैसा गाय-बैल

या खेतबारी। पुरुष को अधिकार था स्त्री को बेचे, गिरो रखे या मार डाले।

विवाह की प्रथा उस समय केवल यह थी कि वर-पक्ष अपने सूर सामन्तों

को लेकर सशस्त्र आता था कन्या को उड़ा ले जाता था। कन्या के साथ

कन्या के घर में रुपया-पैसा, अनाज या पशु जो कुछ उसके हाथ लग जाता

था, उसे भी उठा ले जाता था। वह स्त्री को अपने घर ले जाकर, उसके पैरों

में बेड़ियाँ डालकर घर के अन्दर बन्द कर देता था। उसके आत्म-सम्मान के

भावों को मिटाने के लिए यह उपदेश दिया जाता था कि पुरुष ही उसका

देवता है, सोहाग स्त्री की सबसे बड़ी विभूति है। आज कई हज़ार वर्षों के

बीतने पर पुरुष के उस मनोभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पुरानी सभी

प्रथाएँ कुछ विकृत या संस्कृत रूप में मौजूद हैं। आज मुझे मालूम हुआ कि

उस लेखक ने स्त्री-समाज की दशा का कितना सुन्दर निरूपण किया था।

अब आपसे मेरा सविनय अनुरोध है और यही अन्तिम अनुरोध है कि

आप मेरे पत्रों को लौटा दें। आपके दिये हुए गहने और कपड़े अब मेरे किसी

काम के नहीं। इन्हें अपने पास रखने का मुझे कोई अधिकार नहीं। आप

जिस समय चाहें, वापस मँगवा लें। मैंने उन्हें एक पेटारी में बन्द करके अलग

रख दिया है। उसकी सूची भी वहीं रखी हुई है, मिला लीजिएगा। आज से

आप मेरी जबान या कलम से कोई शिकायत न सुनेंगे। इस भ्रम को भूलकर

भी दिल में स्थान न दीजिएगा कि मैं आपसे बेवफाई या विश्वासघात करूँगी।

मैं इसी घर में कुढ़-कुढ़कर मर जाऊँगी, पर आपकी ओर से मेरा मन कभी

मैला न होगा। मैं जिस जलवायु में पली हूँ, उसका मूल तत्त्व है पति में श्रध्दा।

ईर्ष्या या जलन भी उस भावना को मेरे दिल से नहीं निकाल सकती। मैं आपकी

कुल-मर्यादा की रक्षिका हूँ। उस अमानत में जीते-जी खनायत न करूँगी।

अगर मेरे बस में होता, तो मैं उसे भी वापस कर देती, लेकिन यहाँ मैं भी

मजबूर हूँ और आप भी मजबूर हैं। मेरी ईश्वर से यही विनती है कि आप

जहाँ रहें, कुशल से रहें। जीवन में मुझे सबसे कटु अनुभव जो हुआ, वह यही

है कि नारी-जीवन अधाम है अपने लिए, अपने माता-पिता के लिए, अपने

पति के लिए। उसकी क़दर न माता के घर में है, न पति के घर में। मेरा

घर शोकागार बना हुआ है। अम्माँ रो रही हैं, दादा रो रहे हैं। कुटुम्ब के

लोग रो रहे हैं, एक मेरी ज़ात से लोगों को कितनी मानसिक वेदना हो रही

है, कदाचित् वे सोचते होंगे, यह कन्या कुल में न आती तो अच्छा होता।

मगर सारी दुनिया एक तरफ हो जाय, आपके ऊपर विजय नहीं पा सकती।

आप मेरे प्रभु हैं। आपका फैसला अटल है। उसकी कहीं अपील नहीं, कहीं

फरियाद नहीं। खैर, आज से यह काण्ड समाप्त हुआ। अब मैं हूँ और मेरा

दलित, भग्न हृदय। हसरत यही है कि आपकी कुछ सेवा न कर सकी !

अभागिनी,

क़ुसुम

342 : मानसरोवर

मालूम नहीं, मैं कितनी देर तक मूक वेदना की दशा में बैठा रहा कि महाशय

नवीन बोले आपने इन पत्रों को पढ़कर क्या निश्चय किया ?

मैंने रोते हुए हृदय से कहा अगर इन पत्रों ने उस नर-पिशाच के दिल

पर कोई असर न किया, तो मेरा पत्र भला क्या असर करेगा। इससे अधिक

करुणा और वेदना मेरी शक्ति के बाहर है। ऐसा कौन-सा धार्मिक भाव है,

जिसे इन पत्रों में स्पर्श न किया गया हो। दया, लज्जा, तिरस्कार, न्याय, मेरे

विचार में तो कुसुम ने कोई पहलू नहीं छोड़ा। मेरे लिए अब यही अन्तिम

उपाय है कि उस शैतान के सिर पर सवार हो जाऊँ और उससे मुँह-दर-मुँह

बातें करके इस समस्या की तह तक पहुँचने की चेष्टा करूँ। अगर उसने

मुझे कोई सन्तोषप्रद उत्तर न दिया, तो मैं उसका और अपना ख़ून एक कर

दूंगा। या तो मुझी को फाँसी होगी, या वही कालेपानी जायगा। कुसुम ने

जिस धैर्य और साहस से काम लिया है, वह सराहनीय है। आप उसे सान्त्वना

दीजिएगा। मैं आज रात की गाड़ी से मुरादाबाद जाऊँगा और परसों तक जैसी

कुछ परिस्थिति होगी; उसकी आपको सूचना दूंगा ! मुझे तो यह कोई चरित्राहीन

और बुद्धिहीन युवक मालूम होता है।

मैं उस बहक में जाने क्या-क्या बकता रहा। इसके बाद हम दोनों भोजन

करके स्टेशन चले। वह आगरे गये, मैंने मुरादाबाद का रास्ता लिया। उनके

प्राण अब भी सूखे जाते थे कि क्रोध के आवेश में कोई पागलपन न कर

बैठूँ। मेरे बहुत समझाने पर उनका चित्त शान्त हुआ।

मैं प्रात:काल मुरादाबाद पहुँचा और जॉच शुरू कर दी। इस युवक के

चरित्रा के विषय में मुझे जो सन्देह था, वह ग़लत निकला। मुहल्ले में, कालेज

में, उसके इष्ट-मित्रों में, सभी उसके प्रशंसक थे। अन्धेरा और गहरा होता हुआ

जान पड़ा। सन्धया-समय मैं उसके घर जा पहुँचा। जिस निष्कपट भाव से

वह दौड़कर मेरे पैरों पर झुका, वह मैं नहीं भूल सकता। ऐसा वाक्चतुर, ऐसा

सुशील और विनीत युवक मैंने नहीं देखा। बाहर और भीतर में इतना

आकाश-पाताल का अन्तर मैंने कभी न देखा था। मैंने कुशल-क्षेम और

शिष्टाचार के दो-चार वाक्यों के बाद पूछा तुमसे मिलकर चित्त प्रसन्न हुआ;

लेकिन आखिर कुसुम ने क्या अपराध किया है, जिसका तुम उसे इतना कठोर

दण्ड दे रहे हो ? उसने तुम्हारे पास कई पत्र लिखे, तुमने एक का भी उत्तर

न दिया। वह दो-तीन बार यहाँ भी आयी, पर तुम उससे बोले तक नहीं।

मानसरोवर : 343

क्या उस निर्दोष बालिका के साथ तुम्हारा यह अन्याय नहीं है ?

युवक ने लज्जित भाव से कहा बहुत अच्छा होता कि आपने इस प्रश्न

को न उठाया होता। उसका जवाब देना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मैंने तो

इसे आप लोगों के अनुमान पर छोड़ दिया था; लेकिन इस ग़लतफ़हमी को

दूर करने के लिए मुझे विवश होकर कहना पड़ेगा।

यह कहते-कहते वह चुप हो गया। बिजली की बत्ती पर भाँति-भाँति

के कीट-पतंगे जमा हो गये। कई झींगुर उछल-उछलकर मुँह पर आ जाते थे;

और जैसे मनुष्य पर अपनी विजय का परिचय देकर उड़ जाते थे। एक बड़ा-सा

अँखफोड़ भी मेज पर बैठा था और शायद जस्त मारने के लिए अपनी देह

तौल रहा था। युवक ने एक पंखा लाकर मेज पर रख दिया, जिसने विजयी

कीट-पतंगों को दिखा दिया कि मनुष्य इतना निर्बल नहीं है, जितना वे समझ

रहे थे। एक क्षण में मैदान साफ़ हो गया और हमारी बातों में दख़ल देनेवाला

कोई न रहा।

युवक ने सकुचाते हुए कहा सम्भव है, आप मुझे अत्यन्त लोभी, कमीना

और स्वार्थी समझें; लेकिन यथार्थ यह है कि इस विवाह से मेरी वह अभिलाषा

न पूरी हुई, जो मुझे प्राणों से भी प्रिय थी। मैं विवाह पर रजामन्द न था,

अपने पैरों में बेड़ियाँ न डालना चाहता था; किन्तु जब महाशय नवीन बहुत

पीछे पड़ गये और उनकी बातों से मुझे यह आशा हुई कि वह सब प्रकार

से मेरी सहायता करने को तैयार हैं, तब मैं राजी हो गया; पर विवाह होने

के बाद उन्होंने मेरी बात भी न पूछी। मुझे एक पत्र भी न लिखा कि कब

तक वह मुझे विलायत भेजने का प्रबन्ध कर सकेंगे। हालॉकि मैंने अपनी इच्छा

उन पर पहले ही प्रकट कर दी थी; पर उन्होंने मुझे निराश करना ही उचित

समझा। उनकी इस अकृपा ने मेरे सारे मनसूबे धूल में मिला दिये। मेरे लिए

अब इसके सिवा और क्या रह गया है कि एल-एल.बी. पास कर लूँ और

कचहरी में जूती फटफटाता फिरूँ।

मैंने पूछा तो आखिर तुम नवीनजी से क्या चाहते हो ? लेन-देन में

तो उन्होंने शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया। तुम्हें विलायत भेजने का

खर्च तो शायद उनके काबू से बाहर हो।

युवक ने सिर झुकाकर कहा तो यह उन्हें पहले ही मुझसे कह देना

चाहिए था। फिर मैं विवाह ही क्यों करता। उन्होंने चाहे कितना ही खर्च

कर डाला हो; पर इससे मेरा क्या उपकार हुआ ? दोनों तरफ से दस-बारह

हज़ार रुपये खाक में मिल गये और उनके साथ मेरी अभिलाषाएँ खाक में

मिल गयीं। पिताजी पर तो कई हज़ार का ऋण हो गया है। वह अब मुझे

इंग्लैंड नहीं भेज सकते। क्या पूज्य नवीनजी चाहते तो मुझे इंग्लैंड न भेज

देते ? उनके लिए दस-पाँच हज़ार की कोई हक़ीकत नहीं।

मैं सन्नाटे में आ गया। मेरे मुँह से अनायास निकल गया छि: ! वाह

री दुनिया ! और वाह रे हिन्दू-समाज ! तेरे यहाँ ऐसे-ऐसे स्वार्थ के दास पड़े

हुए हैं, जो एक अबला का जीवन संकट में डालकर उसके पिता पर ऐसे

अत्याचारपूर्ण दबाव डालकर ऊँचा पद प्राप्त करना चाहते हैं। विद्यार्जन के

लिए विदेश जाना बुरा नहीं। ईश्वर सामर्थ्य दे तो शौक़ से जाओ; किन्तु पत्नी

का परित्याग करके ससुर पर इसका भार रखना निर्लज्जता की पराकाष्ठा है।

तारीफ की बात तो तब थी कि तुम अपने पुरुषार्थ से जाते। इस तरह किसी

की गर्दन पर सवार होकर, अपना आत्म-सम्मान बेचकर गये तो क्या गये।

इस पामर की दृष्टि में कुसुम का कोई मूल्य ही नहीं। वह केवल उसकी

स्वार्थ-सिद्धि का साधनमात्र है। ऐसे नीच प्रकृति के आदमी से कुछ तर्क करना

व्यर्थ था। परिस्थिति ने हमारी चुटिया उसके हाथ में रखी थी और हमें उसके

चरणों पर सिर झुकाने के सिवाय और कोई उपाय न था।

दूसरी गाड़ी से मैं आगरे जा पहुँचा और नवीनजी से यह वृत्तांत कहा।

उन बेचारे को क्या मालूम था कि यहाँ सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं के सिर डाल

दी गयी है। यद्यपि इस मन्दी ने उनकी वकालत भी ठण्डी कर रखी है और

वह दस-पाँच हज़ार का खर्च सुगमता से नहीं उठा सकते लेकिन इस युवक

ने उनसे इसका संकेत भी किया होता, तो वह अवश्य कोई-न-कोई उपाय

करते। कुसुम के सिवा दूसरा उनका कौन बैठा हुआ है ? उन बेचारे को तो

इस बात का ज्ञान ही न था। अतएव मैंने योंही उनसे यह समाचार कहा,

तो वह बोल उठे छि: ! इस जरा-सी बात को इस भले आदमी ने इतना

तूल दे दिया। आप आज ही उसे लिख दें कि वह जिस वक्त जहाँ पढ़ने

के लिए जाना चाहे, शौक़ से जा सकता है। मैं उसका सारा भार स्वीकार

करता हूँ। साल-भर तक निर्दयी ने कुसुम को रुला-रुलाकर मार डाला।

घर में इसकी चर्चा हुई। कुसुम ने भी माँ से सुना। मालूम हुआ, एक

हज़ार का चेक उसके पति के नाम भेजा जा रहा है; पर इस तरह, जैसे किसी

संकट का मोचन करने के लिए अनुष्ठान किया जा रहा हो।

कुसुम ने भृकुटी सिकोड़कर कहा अम्माँ, दादा से कह दो, कहीं रुपये

भेजने की ज़रूरत नहीं।

माता ने विस्मित होकर बालिका की ओर देखा क़ैसे रुपये ? अच्छा !

वह ! क्यों इसमें क्या हर्ज है ? लड़के का मन है, तो विलायत जाकर पढ़े।

हम क्यों रोकने लगे ? यों भी उसी का है, वो भी उसी का नाम है। हमें

कौन छाती पर लादकर ले जाना है ?

'नहीं आप दादा से कह दीजिए, एक पाई न भेजें।'

'आखिर इसमें क्या बुराई है ?'

'इसीलिए कि यह उसी तरह की डाकाजनी है, जैसी बदमाश लोग किया

करते हैं। किसी आदमी को पकड़कर ले गये और उसके घरवालों से उसके

मुक्तिधन के तौर पर अच्छी रकम ऐंठ ली।'

माता ने तिरस्कार की आँखों से देखा।

'कैसी बातें करती हो बेटी ? इतने दिनों के बाद तो जाके देवता सीधे

हुए हैं और तुम उन्हें फिर चिढ़ाये देती हो।'

कुसुम ने झल्लाकर कहा ऐसे देवता का रूठे रहना ही अच्छा। जो आदमी

इतना स्वार्थी, इतना दम्भी, इतना नीच है, उसके साथ मेरा निर्वाह न होगा।

मैं कहे देती हूँ, वहाँ रुपये गये, तो मैं ज़हर खा लूँगी। इसे दिल्लगी न समझना।

मैं ऐसे आदमी का मुँह भी नहीं देखना चाहती। दादा से कह देना और अगर

तुम्हें डर लगता हो तो मैं खुद कह दूं ! मैंने स्वतन्त्र रहने का निश्चय कर

लिया है।

माँ ने देखा, लड़की का मुखमण्डल आरक्त हो उठा है। मानो इस प्रश्न

पर वह न कुछ कहना चाहती है, न सुनना।

दूसरे दिन नवीनजी ने यह हाल मुझसे कहा, तो मैं एक आत्म-विस्मृत

की दशा में दौड़ा हुआ गया और कुसुम को गले लगा लिया। मैं नारियों में

ऐसा ही आत्माभिमान देखना चाहता हूँ। कुसुम ने वह कर दिखाया, जो मेरे

मन में था और जिसे प्रकट करने का साहस मुझमें न था।

साल-भर हो गया है, कुसुम ने पति के पास एक पत्र भी नहीं लिखा

और न उसका ज़िक्र ही करती है। नवीनजी ने कई बार जमाई को मना लाने

की इच्छा प्रकट की; पर कुसुम उसका नाम भी सुनना नहीं चाहती। उसमें

स्वावलम्बन की ऐसी दृढ़ता आ गयी है कि आश्चर्य होता है। उसके मुख पर निराशा और वेदना के पीलेपन और तेजहीनता की जगह स्वाभिमान और स्वतन्त्रता की लाली और तेजस्विता भासित हो गयी है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ


बाहरी कड़ियाँ

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