गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-3)

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गुनाहों का देवता -धर्मवीर भारती (समीक्षा-3)
गुनाहों का देवता
लेखक धर्मवीर भारती
मूल शीर्षक गुनाहों का देवता
प्रकाशक भारतकोश पर संकलित
देश भारत
पृष्ठ: 80
भाषा हिन्दी
विषय गुनाहों का देवता की समीक्षा से जुड़े आलेख
टिप्पणी आलेख संकलक: अशोक कुमार शुक्ला

जब मैं सारी रात न सोया

आलेख : अमृत उपाध्याय (पांच साल बाद एक बार फिर 'गुनाहों का देवता' पढ़ा..और पढ़ते वक्त एक बार फिर महसूस हुआ कि पहली बार पढ़ते वक्त आंसुओं का बहना यूं ही तो नहीं था...फिर रोया...और फफक कर रोया...'गुनाहों का देवता' से मेरी यादें इस रूप में भी जुड़ी हैं कि इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने जो कुछ महसूस किया था, वही मेरी पहली रचना थी, जिसे प्रभात खबर ने प्रकाशित किया....इसलिए अपनी कलम से भले ही ये महत्वपूर्ण लेख ना हो लेकिन मेरे जीवन में इस रचना की अहमियत है...यही सोचकर जारी कर रहा हूं।)

और चंदर का हाथ तैश में उठा और एक भरपूर तमाचा सुधा के गाल पर पड़ा..सुधा के गाल पर नीली उंगलियां उपट आईं। वह स्तब्ध, जैसे पत्थर बन गई हो! आंख में आंसू जम गये, पलकों में निगाहें जम गयीं, होठों में आवाजें जम गयीं और सीने में सिसकियां जम गयीं। चंदर ने एक बार सुधा की ओर देखा और कुर्सी पर जैसे गिर पड़ा और सिर पटककर बैठ गया.सुधा कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गयी। चंदर के घुटनों पर सिर रख दिया.बड़ी भारी आवाज में बोली-चंदर, देखें तुम्हारे हाथ में चोट तो नहीं आयी-- गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती का उपन्यास 'गुनाहों का देवता' पढ़ते हुए उसके चरित्रों, ख़ास कर सुधा के प्रति किसी के मन में अपनापन और सम्मान का भाव उत्पन्न होना लाजिमी है। शायद इसीलिए पहली बार इस उपन्यास को पढ़ते हुए ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ता गया, मेरी आँखें आंसुओं की गर्माहट को लगातार महसूस करती रहीं। हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों के जीवन में रोने के अवसर, ख़ास कर खुल कर रोने के मौके बहुत कम आते हैं। लेकिन डॉ. धर्मवीर भारती के इस उपन्यास ने मुझे यह मौका देने में कहीं चूक नहीं की। सालों बाद मैंने अपने आंसुओं को बेइजाजत बहते हुए पाया। सयानेपन के बोध से परिचित होने के बाद बचपन में कभी भी सहज भाव से निकल आने वाले आंसू कहीं खो से गये थे। लेकिन इस उपन्यास को पढ़कर मैं रोया और सिर्फ रोया नहीं, फफक-फफक कर रोया। इसके पात्र और घटनाएं मेरे मानस पटल पर किसी मित्र-बंधु की तरह अंकित हो गये। तब से जाने कितने दिन-रात चंदर, सुधा, बिनती, डॉ. शुक्ला, गेसू, बिसरिया पम्मी और कैलाश के साथ बीते हैं। बिनती की बातों से हंसा हूं, चंदर की दलीलों में उलझा हूं और सुधा के कष्ट से मेरे हृदय ने वेदना महसूस की है। चंदर और सुधा के रिश्ते अजब हैं। चंदर गर्व की परतों से बना, सूरज का एक गोला है। उसमें सुबह की लालिमा है, दोपहर का तीखापन है, कहीं तिरछी किरणें बादलों के बीच से आंख-मिचौली करती हैं, तो कहीं सांझ का धूसर सौंदर्य है। उसके व्यक्तित्व में विविधता है। लेकिन सुधा चंद्रमा है। बिल्कुल शीतल, चंद्रमा की तरह उसके व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। कभी बचपना है, कभी समझदारी है, कभी वह अपने उम्र के हिसाब से बड़ी बातें किया करती है, तो कभी बच्चों सी छोटी-छोटी शिकायतों में उलझी रहती है। वह मानती है कि वह सूरज (चंदर) के प्रकाश से प्रकाशमान है। वह खुद को तुच्छ समझती है। सुधा चंदर को कभी माँ की ममता देती है, कभी बहन की तरह तकरार करती है, कभी पत्नी का दुलार देती है, तो कभी दोस्त जैसा हौसला और संरक्षण। सुधा एक ऐसी तेज है, जो देखने पर दिखती नहीं और नहीं देखने पर बेचैनी बढ़ जाती है। सुधा के चरित्र ने मुझे इतना विवश कर मुझे अपनी ओर खींचा है कि उसकी बातें मन में दोहराने से कतराता रहा हूं, फिर भी उसकी बातें याद रह गयीं हैं। चंदर सुधा का निर्माता नहीं हो सकता, क्योंकि सुधा के ब्याह के साथ ही चंदर का नैतिक पतन आरंभ होता है, पर सुधा वासना के कीचड़ में-जिसे वह नरक समझती थी- रह कर भी कमल की तरह पवित्र रही। चंदर वासना के बहाव में बहता है और तब सुधा के ख्याल को भी वह झटकने लगता है। समय की आंधी से उठे दोष के रेतीले टीले मनुष्य के व्यक्तित्व को इतना जकड़ लेते हैं कि वह उसके सामने घुटने टेक देता है। जैसा चंदर के साथ हुआ वह साधारण आदमी के लिए स्वाभाविक है। इसलिए चंदर सुधा का निर्माता नहीं था। सुधा का स्वभाव उसकी अपनी प्रकृति की देन थी। उसकी पवित्रता में दिखावा नहीं था। लेकिन चंदर समाज, लोग, मजबूरी, प्रतिष्ठा, स्वाभिमान जैसे शब्दों की परिभाषाओं से बंधा था। दरअसल चंदर सुधा द्वारा निर्मित था। सुधा के कारण वह दृढ़ था, इस अहम के साथ कि वह सुधा को आदर्शों के अनुसार ढाल रहा है। सुधा और चंदर में आत्मा और शरीर जैसा संबंध था और सुधा का ब्याह हो जाता है, तब यह आत्मा और शरीर एक दूसरे से अलग हो कर अस्तित्वहीन से हो जाते हैं। उपन्यास के आखिर में चंदर और सुधा की भेंट होती है। चंदर उसके जीवन के आखिरी दिन उसे देख पाता है। अंतत: सुधा अपने अल्हड़पन और समझदारी को समेटे चंदर की गोद में सिर रख कर हमेशा के लिए विदा हो जाती है। उपन्यास के इन पन्नों को पढ़ने के बाद दो दिनों तक मैं असहज रहा, जैसे कोई अपना हमेशा के लिए छोड़ कर चला गया हो, जैसे सालों लंबे साथ के बाद कोई पूरी उम्र नहीं मिलेगा। मैं लड़की की शादी में विदाई के बाद घर में फैले सूनेपन से भर उठा था। आँखें सावन-भादो हो कर सूज गयीं और देह तपने लगी। पूरे दिन कुछ खा न सका, शरबत पी, तो सुधा की शरबत याद आयी, चाय पी, तो चंदन की शरारत याद आयी.....

मेरे शब्द कहीं खो गये थे, मैं इसे पढ़ कर रोता था और बंद कर देने पर आकुल होने लगता था। हार कर मैंने डायरी खोल ली और बस इतना लिख पाया-

आज मैं सारी रात न सोया, होठों को आंसू से धोया, सिसकियों ने समझाना चाहा, फिर भी दिल का दर्द ना खोया, आज मैं सारी रात न सोया



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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