तत्त्व मीमांसा -जैन दर्शन

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जैन दर्शन में तत्त्व का अर्थ है प्रयोजन भूत वस्तु। जो अपने मतलब की वस्तु है और जिससे अपना हित अथवा स्वरूप पहचाना जाता है वह तत्त्व है। 'तस्य भाव: तत्त्वम्' अर्थात् वस्तु के भाव (स्वरूप) का नाम तत्त्व है। ऋषियों या शास्त्रों का जितना उपदेश है उसका केन्द्र जीव (आत्मा) रहा है। उपनिषदों में आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और ध्यान पर अधिक बल दिया गया है और इनके माध्यम से आत्मा के साक्षात्कार की बात कही गयी है[1]जैन दर्शन तो पूरी तरह आध्यात्मिक है। अत: इसमें आत्मा को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है।[2]

  1. बहिरात्मा
  2. अन्तरात्मा और
  3. परमात्मा
  • मूढ आत्मा को बहिरात्मा, जागृत आत्मा को अन्तरात्मा और अशेष गुणों से सम्पन्न आत्मा को परमात्मा कहा गया है। ये एक ही आत्मा के उन्नयन की विकसित तीन श्रेणियाँ हैं। जैसे एक आरम्भिक अबोध बालक शिक्षक, पुस्तक, पाठशाला आदि की सहायता से सर्वोच्च शिक्षा पाकर सुबोध बन जाता है वैसे ही एक मूढात्मा सत्संगति, सदाचार-अनुपालन, ज्ञानाभ्यास आदि को प्राप्त कर अन्तरात्मा (महात्मा) बन जाता है और वही ज्ञान, ध्यान तप आदि के निरन्तर अभ्यास से कर्म-कलङ्क से मुक्त होकर परमात्मा (अरहन्त व सिद्ध रूप ईश्वर) हो जाता है। इस दिशा में जैन चिन्तकों का चिन्तन, आत्म विद्या की ओर लगाव अपूर्व है।
  • आचार्य गृद्धपिच्छ ने[3] तत्त्वार्थसूत्र[4] में, जो 'अर्हत् प्रवचन' के नाम से प्रसिद्ध है, लिखा है तत्त्वार्थ की श्रद्धा सम्यक् दर्शन है। सही रूप में तभी देखा परखा जा सकता है जब तत्त्वार्थ की श्रद्धा हो। ये तत्त्वार्थ (तत्त्व) सात हैं[5]-
  1. जीव
  2. अजीव
  3. आस्त्रव
  4. बंध
  5. संवर
  6. निर्जरा और
  7. मोक्ष

जीव तत्त्व

जीव तत्त्व सर्वोपरि प्रतिष्ठित और शाश्वत तत्त्व है। यह चेतना लक्षण वाला है, ज्ञाता-द्रष्टाहै और अनंतगुणों से सम्पन्न है। चेतना वह प्रकाश है जिसमें चेतन-अचेतन सभी पदार्थों को प्रकाशित करने की शक्ति है। वह दो प्रकार की है-

  1. ज्ञानचेतना (ज्ञानोपयोग) और
  2. दर्शनचेतना (दर्शनोपयोग) विशेष-ग्रहण का नाम ज्ञान-चेतना है और पदार्थ के सामान्य-ग्रहण का नाम दर्शनचेतना है।
  • ज्ञान चेतना के आठ भेद हैं- 1. मति, 2. श्रुत, 3. अवधि-ये तीन ज्ञान सम्यक् दर्शन के साथ होने पर सम्यक् होते हैं। और मिथ्यादर्शन के साथ होने पर मिथ्या भी होते हैं। इस तरह 1. सम्यक् मतिज्ञान, 2. सम्यक् श्रुतवान, 3. सम्यक् अवधिज्ञान, 4. मिथ्यामतिज्ञान, 5. मिथ्याश्रुतज्ञान 6. मिथ्या अवधिज्ञान (विभंगावधि), 7. मन:पर्ययज्ञान और 8 केवलज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। अंतिम दोनों ज्ञान सम्यक ही होते हैं, वे मिथ्या नहीं होते।
  • इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। और इस मतिज्ञानपूर्वक जो उत्तरकाल में चिन्तनात्मक ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। इन्द्रिय और मन निरपेक्ष एवं आत्मसापेक्ष जो मूर्तिक (पुद्गल) का सीमायुक्त ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है। इस अवधिज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थ के अनंतवें भाग को जो ज्ञान जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों से संबंधित और तीनों लोकों में विद्यमान समग्र पदार्थों को युगपत् जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहा गया है। यह ज्ञान जिसे हो जाता है वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा कहा जाता है। इन ज्ञानों के अवान्तर भेद भी जैनदर्शन में प्रतिपादित हैं, जो ज्ञातव्य हैं।
  • दर्शन चेतना के चार भेद हैं[6]- 1.चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन। नेत्रों से होने वाला पदार्थ का सामान्य दर्शन चक्षुर्दर्शन है और शेष इन्द्रियों एवं मन से होने वाला सामान्य दर्शन अचक्षुर्दर्शन है। अवधिज्ञान से पूर्व जो दर्शन होता है वह अवधिदर्शन है। केवल ज्ञान के साथ ही जो समस्त वस्तुओं का युगपत् दर्शन होता है वह केवलदर्शन है। यह जीवतत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से तीन प्रकार का है[7] अर्थात् इनके उत्थान की तीन श्रेणियां हैं। वे है- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, और 3. परमात्मा।
  • गीता में सम्भवत: ऐसे ही अन्तरात्मा को 'स्थितप्रज्ञ' कहा गया है। यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकार है[8]2)- 1. जघन्य, 2. मध्यम और 3. उत्तम। मिथ्यात्व का त्याग कर जिसने सम्यक्त्य (स्वयरभेद श्रद्धा) को प्राप्त कर लिया है, पर त्याग के मार्ग में अभी प्रवृत्त नहीं हो सका वह जघन्य अन्तरात्मा है। इसे जैन परिभाषा में 'अविरत-सम्यग्दृष्टि' कहा जाता है।
  • आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि तपस्वी (साधु) वही है ज्ञान, ध्यान और तप में लवलीन रहता है- 'ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।' यही उत्तम अन्तरात्मा तप और ध्यान द्वारा नवीन पुरातन कर्मों को निर्जीर्ण करके जब कर्मकलङ्क से मुक्त हो जाता है तो वह परमात्मा कहा जाता है। फिर उसे संसार परिभ्रमण नहीं करना पड़ता। अनन्त काल तक वह अपने अनन्त गुणों में लीन होकर शाश्वत सुख (नि:श्रेयस) का अनुभव करता है। जैन दर्शन में मुक्त जीवों की अवस्थिति लोक के अग्रभाग (सिद्धशिला) में मानी गयी है।[9]
  • गुणस्थान- उल्लेखनीय है कि इस जीव तत्त्व के आध्यात्मिक विकास या उन्नयन की चौदह श्रेणियां जैन आगमों में निरूपित हैं।[10] जिन्हें 'गुणस्थान' (आत्मगुणों को विकसित करने के दर्जे) संज्ञा दी गयी है। वे हैं-
  1. मिथ्यात्व
  2. सासादन
  3. मिश्र
  4. अविरत
  5. देशविरत
  6. सर्वविरत
  7. अप्रमत्तसंयत
  8. अपूर्वकरण
  9. अनिवृत्तिकरण
  10. सूक्ष्मसाम्पराय
  11. उपशान्त मोह
  12. क्षीण मोह
  13. सयोग केवली और
  14. अयोग केवली

इन चौदह गुणस्थानों में बारहवें गुणस्थान तक जीव संसारी कहलाता है। किन्तु निश्चय ही वह तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त करेगा और वहां तथा चौदहवें गुणस्थान में वह 'परमात्मा' संज्ञा को प्राप्त कर लेता है तथा कुछ ही क्षणों में गुणस्थानातीत होकर 'सिद्ध' हो जाता है।

अजीव तत्त्व

अजीव तत्त्व यों तो जीव के सिवाय सभी द्रव्य (पुद्गल आदि पांचों) अजीव हैं। उनमें किसी में भी चेतना न होने से अचेतन हैं। उनका विवेचन द्रव्य-मीमांसा में किया जा चुका है। पर यहाँ उस अजीव से मतलब है, जो जीव को अनादि से बन्धनबद्ध किये हुए है और जिससे ही वस्तुत: जीव को छुटकारा पाना है। वह है पुद्गल, और पुद्गलों में भी सभी पुद्गल नहीं क्योंकि वे तो छूटे हुए ही हैं। किन्तु कार्माणवर्गणा के जो कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्ध है और जो जीव के कषाय एवं योग के निमित्त से उससे बंधे है। तथा प्रतिसमय बंध रहे हैं। उन कर्म रूप पुद्गल स्कन्धों की यहाँ अजीव तत्त्व से विवक्षा है, जिन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छ ने 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्' पद के द्वारा 'कर्मभूभृत्' कहा है। इन्हें ही हेय ज्ञात कर आत्मा से दूर करना है। जैन दर्शनों में इन कर्मों को ज्ञानावरण आदि आठ भागों में विभक्त किया गया है। आत्मदर्शन, स्वरूपोपलब्धि सिद्धत्व आदि आत्मगुण उन्हीं के कारण अवरुद्ध रहते हैं।

आस्त्रव तत्त्व

जिनके द्वारा आत्मा में कर्मस्कन्धों का प्रवेश होता है उन्हें आस्त्रव कहा गया है। यह दो प्रकार का है[11]

  1. भावास्त्रव और
  2. द्रव्यास्त्रव

आत्मा के जिन कलुषितभावों या मन, वचन और शरीर की क्रिया से कर्म आते हैं उन भावों तथा मन, वचन और शरीर की क्रिया को भावास्त्रव तथा कर्मागमन को द्रव्यास्त्रव प्रतिपादित किया गया है। भावास्त्रव के अनेक भेद हैं- 1. मिथ्यात्व 2. अविरति, 3. प्रमाद, 4. कषाय और 5.योग। इनमें मिथ्यात्व के 5, अविरति के 5, प्रमाद के 15, कषाय के 4 और योग के 3 कुल 32 भेद हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के योग्य जो कार्माणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध आते हैं उनमें कर्मरूप शक्ति होना द्रव्यास्त्रव है। इनके ज्ञानावरण आदि आठ मूलभेद हैं और उनके उत्तरभेद एक सौ अड़तालीस हैं।

बन्ध तत्त्व

आत्मा के जिन अशुद्ध भावों से कर्म आत्मा से बंधें वे अशुद्ध भाव (राग, द्वेष, छल-कपट, क्रोध मान आदि) भावबंध हैं ये अशुद्ध भाव कर्म व आत्मा को परस्पर चिपकाने (बांधने) में गोंद का कार्य करते हैं। कर्म पुद्गलों तथा आत्मा के प्रदेशों का जो अन्योन्य प्रवेश है। दूध-पानी की तरह उनका घुल-मिल जाना है वह द्रव्य बन्ध है। एक दूसरी तरह से भी बंध के भेद कहे गए हैं[12]। वे हैं-

  1. प्रकृति
  2. स्थिति
  3. अनुभाग और
  4. प्रदेश

इनमें प्रकृति और प्रदेश योगों (शरीर, वचन और मन की क्रियाओं) से होते हैं। स्थिति एवं अनुभाव कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) के निमित्त से होते हैं।

संवरतत्त्व

संवरतत्त्व आस्त्रव तत्त्व के कथन में जिन आस्त्रवों को (कर्म के आने के द्वारों को) कहा गया है उनको रोक देना संवर है।[13] कर्म के द्वार बन्द हो जाते हैं तब कर्म आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकते। जैसे- सछिद्र जलयान (नाव आदि) के छोटे-बड़े सब छिद्र बंद कर देने पर जलयान में जल का प्रवेश नहीं होता। संवर नये कर्मों का प्रवेश रोकता है। इसके कई प्रकार हैं। व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र- ये उसके भेद हैं, जो आगत कर्मों को आत्मा में आने नहीं देते।

  • निर्जरा तत्त्व— ज्ञात-अज्ञात में आये कर्मों को तप आदि के द्वारा बाहर निकालने का जो प्रयत्न है वही निर्जरा है। यह सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है।[14] जो कर्म अपना फल देकर चला जाता हे वह सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा प्रत्येक जीव के प्रति समय होती रहती है, पर इससे बंधन नहीं टूटता है। तप के द्वारा जो बंधन तोड़ा जाता है वह अविपाक निर्जरा है। जीव को अपने उद्धार के लिए यही निर्जरा सार्थक होती है। अर्थात् उसी से शिवफल (मोक्ष) प्राप्त होता है।

मोक्ष तत्त्व

मोक्ष तत्त्व वह तत्त्व एवं तथ्य है जिसके लिए मुमुक्ष अनेक भवों से प्रयत्न करते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं। एक वे जो अतीतकाल से संबंध रखते हैं और अनादिकाल से बंधे चले आ रहे हैं तथा दूसरे वे हैं जो आगामी हैं। आगामी कर्मों का अभाव बंध हेतुओं (आस्त्रव) के अभाव (संवर) से होता है। अतीत संबंधी (पूर्वोपात्त) कर्मों का अभाव निर्जरा द्वारा होता है। इस प्रकार समस्त कर्मों का छूट जाना मोक्ष है।[15] यही शुद्ध अवस्था जीव की वास्तविक अपनी अवस्था है, जो सादि होकर अनंत है। इसी को प्राप्त करने के लिए आत्मा बाह्य और आभ्यंतर तपों, उत्तम क्षमादि धर्मों एवं चारों शुक्लध्यानों को करता है और नाना उपसर्गों एवं परीषहों को सहनकर उन पर विजय पाता है। द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म- इन तीनों प्रकार के कर्मों से रहित हो जाने पर आत्मा 'सिद्ध' हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रोतव्य:श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्वा च स्ततं ध्येय एते दर्शनहेतव:॥
  2. कुन्दकुन्द, मोक्ष प्राभृत गा. 4, 5, 6, 7
  3. गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र.सं. गा. 28
  4. गृद्धपिच्छ, त.सू. 1-2, 4; द्र. सं. गा. 28
  5. द्र. सं. गा. 3, 4, 5; त. सू. 2-8, 9; पंचास्ति, गा. 40, 41, 42
  6. पंचास्ति गा. 42; स. सि. 2-9; द्रव्यसं. गा. 4
  7. कुन्दकुन्द, अष्टपा., मोक्ष प्रा. गा. 4, 5, 6, 7
  8. दौलतराम छह-ढाला 3-4, 5, 6
  9. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं. गा. 14
  10. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं.4, गा. 13
  11. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 29, 30
  12. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, द्रव्यसं., गा. 32, 33
  13. गृद्धपिच्छ, स.सू. 9-1; द्रव्यसं. गा. 34, 35
  14. द्रव्य सं. गा. 36; त.सू. 9-3, 19, 20
  15. तत्त्व सूत्र 10-2, 3, द्रव्य सं. गा. 37

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