तुम्हारे शहर से जाने का मन है -दिनेश रघुवंशी

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तुम्हारे शहर से जाने का मन है -दिनेश रघुवंशी
दिनेश रघुवंशी
कवि दिनेश रघुवंशी
जन्म 26 अगस्त, 1964
जन्म स्थान ग्राम ख़ैरपुर, बुलन्दशहर ज़िला, (उत्तर प्रदेश)
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दिनेश रघुवंशी की रचनाएँ
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तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है

    महक थी अपनी साँसों में,परों में हौसला भी था
    तुम्हारे शहर में आये तो हम कुछ ख्वाब लाये थे
    जमीं पर दूर तक बिखरे – जले पंखो ! तुम्हीं बोलो
    मिलाकर इत्र में भी मित्र कुछ तेजाब ले आये

बड़ा दिल रखते हैं लेकिन हकीकत सिर्फ है इतनी
दिखाने के लिए ही बस ये हर रिश्ता निभाते हैं
कि जब तक काम कोई भी न हो इनको किसी से तो
न मिलने को बुलाते हैं, न मिलने खुद ही आते हैं

    बहुत नजदीक जाकर देखने से जान पाये हम
    कोई चेहरे नहीं हैं ये मुखौटे ही मुखौटे हैं
    हमेशा ही बड़ी बातें तो करते रहते हैं हरदम
    पर इनकी सोच के भी क़द इन्हीं के क़द से छोटे हैं

कभी लगता है सारे लोग बाजीगर नहीं तो क्या
मजे की बात है हमको करामाती समझते हैं
हमेशा दूसरों के दिल से यूँ ही खेलने वाले
बड़ा सबसे जहां में खुद को जज्बाती समझते हैं

    शिकायत हमसे करते हैं कि दुनिया की तरह हमको
    समझदारी नहीं आती, वफ़ादारी नहीं आती
    हमें कुछ भी नहीं आता, मगर इतना तो आता है
    जमाने की तरह हमको अदाकारी नहीं आती

न जाने शहर है कैसा, न जाने लोग हैं कैसे
किसी की चुप्पियों को भी ये कमज़ोरी समझते हैं
बहुत बचकर, बहुत बचकर, बहुत बचकर चलो तो भी
बिना मतलब, बिना मतलब, बिना मतलब उलझते हैं

    शहर की इन फ़िजाओं में अजब-सी बात ये देखी
    खुला परिवेश है फिर भि घुटन महसूस होती है
    यहाँ अनचाहे- अनजाने से रिश्ते हैं बहुत लेकिन
    हर इक रिश्ते की आहट में चुभन महसूस होती है

बहुत मजबूर होकर हम अगर कोशिश करें तो भी
तुम्हारे शहर में औरों के जैसे हो नहीं सकते
बिछाता है कोई काँटे अगर राहों में तो भी हम
किसी की राह में काँटे कभी भी बो नहीं सकते

    मिलेंगे अब कहाँ अपने, जगेंगे क्या नए सपने
    बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें
    चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में खुद को
    कहाँ ले जाएगी फिर ज़िंदगी ये किसलिए सोचें

नये रस्ते, नये हमदम, नई मंजिल, नई दुनिया
भले हो इम्तिहां कितने, कोई अब गम नहीं होंगे
सफ़र यूँ ज़िन्दगी का रोज कम होता रहे तो भी
सफ़र ज़िन्दादिली का उम्रभर अब कम नहीं होगा

    यहाँ नफ़रत के दरिया हैं, यहाँ ज़हरीले बादल हैं
    यहाँ हम प्यार की एक बूँ द तक को भी तरसते हैं
    यहाँ से दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर जाने दो
    यहाँ हर कूचे में दीवानों पे पत्थर बरसते हैं

ऐ मेरे दोस्त ! तुम मरहम लिए बैठे रहो लेकिन
जमाना जख्म भरने की इजाजत भी नहीं देगा
हमें फ़ितरत पता है इस शहर की, ये शरीफ़ों को
न जीने चैन से देगा, न मरने चैन से देगा

    अगर अपना समझते हो तो मुझसे कुछ भी मत पूछो
    समाया है अभी दिल में गहन सागर का सन्नाटा
    किसी से कहना भी चाहें तो हम कुछ कह नहीं सकते
    हमें खामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा

किसी को फ़र्क़ क्या पड़ता है जो हम खुद में तन्हा हैं
किसी दिन शाख से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ
किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे
मनाने कौन आएगा, अगर हम रूठ भी जाएँ

    तुम्हारे शहर के ये लोग, तुम इनको बताना तो
    भला औरों के क्या होंगे ये खुद अपने नहीं हैं
    मुसलसल पत्थरों में रहके पत्थर बन गए सब
    किसी की आँख में भी प्यार के सपने नहीं हैं

मुझे मालूम है ऐ दोस्त ! तुम ऐसे नहीं हो, पर
तुम्हारा दिल दुखाकर मैं भला खुश कब रहूँगा
मगर अब सर से ऊँचा उठ रहा है रोज पानी
मैं अपने दिलपे पत्थर रखके बस तुमसे कहूँगा

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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