एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "२"।

तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष -विद्यानिवास मिश्र

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष -विद्यानिवास मिश्र
तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष
प्रकाशक ग्रंथ अकादमी
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2008
देश भारत
पृष्ठ: 135
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

तुलसीदास की रामकथा की रचना एक विचित्र संश्लेषण है। और एक ओर तो श्रीमद्भागवत पुराण की तरह इसमें एक संवाद के भीतर दूसरे संवाद, दूसरे संवाद के भीतर तीसरे संवाद और तीसरे संवाद के भीतर चौथे संवाद को संगुंफित किया गया है और दूसरी ओर यह दृश्य-रामलीला के प्रबंध के रूप में गठित की गई है, जिसमें कुछ अंश वाच्य हैं, कुछ अंश प्रत्यक्ष लीलायित होने के लिये यह प्रबंध काव्य हैं, जिसमें एक मुख्य वस्तु होती है, प्रतिनायक होता है- और अंत में रामचरित मानस में तीनों नहीं है। यह पुराण नहीं है क्योंकि पुराण में कवि सामने नहीं आता है- और यहाँ कवि आदि से अंत तक संबोधित करता रहता है। एक तरह से कवि बड़ी सजगता से सहयात्रा करता रहता है। पुराण में कविकर्म की चेतना भी नहीं रहती है- सृष्टि का एक मोहक वितान होता है और पुराने चरितों तथा वंशों के गुणगान होते हैं। पर रामचरितमानस का लक्ष्य सृष्टि का रहस्य समझना नहीं है, न ही नारायण की नरलीला का मर्म खोलना मात्र है। उनका लक्ष्य अपने जमाने के भीतर के अंधकार को दूर करना है, जिसके कारण उस मंगलमय रूप का साक्षात्कार नहीं हो पाता- आदमी सोच नहीं पाता कि केवल नर के भीतर नारायण नहीं है नारायण के भीतर भी एक नर का मन है, नर की पीड़ा है।

मध्ययुगीन काव्य का परिप्रेक्ष्य और तुलसीदास

मध्ययुगीन- विशेषकर पूर्व-मध्ययुगीन-कविता के बारे में प्रायः यह समझा जाता है कि वह मुक्तक काव्य है, प्रबंधात्मक नहीं है; व जितनी लीला पदावलियाँ है वे सभी प्रबंध रचना के रूप में न केवल प्रस्तुत हैं, बल्कि संगीतकारों में इसी रूप में विख्यात भी हैं। इसके पूर्व जयदेव ने ‘गीतगोविंद’ की रचना 24 पदावलियों में की थी। ये पदावलियाँ अपने आप में अलग-अलग रमणीय होती भी परस्पर गुँथी है। प्रबंध तो उसी को कहते है, जिसमें अन्विति समग्र ग्रंथ के पढ़ने में समझ में आए और ग्रन्थ का प्रत्येक अंश से अनुभव के काल में एक क्रम में हो तथा उस, अनुभव काल में पूर्वपर संबंध हो। सूर का काव्य भी लीला प्रबंध है। तुलसीदासजी ने इस लीला प्रबंध को पूर्व-मध्य युग की कथा-प्रधान और विशेषकर घटना-प्रधान सूफी प्रबंध रचना के साथ समन्वित करके एक नए प्रकार की प्रबंध रचना प्रस्तुत की है। इस प्रबंध रचना में लोककथा का स्वाद है, पुराण कथा का स्वाद है, महाकाव्य का स्वाद है और संवादों के बीच –बीच में आने वाले वर्णनात्मक प्रसंगों का गुंफन है। सूर के पद यदि कृष्णलीला के विशेष अवसर के लिए कीर्तन के रूप में प्रस्तुत हुए तो इसका यह अर्थ नहीं निकालना चाहिये कि ये पद किसी अनुक्रम में नहीं रचे गए; अनुक्रम बहुत कुछ तो पौराणिक है और कुछ सूर की सद्भावना है। गोवर्धन लीला के बाद ही रामलीला है। यह शिव भागवत का क्रम है। इस दोनों के बीच में वेणुगीत का प्रसंग ही उनकी उद्भावना है। इस उद्भावना में यह संभावना मूर्त होती है कि एक विराट प्रकृति के साथ एकात्म रूप में साक्षात्कार हो जाए और वह रूप वंशी के सर में ऐसा रूपांतरित हो जाए जो कानों के भीतर से अंतरात्मा में प्रविष्ट होकर एकाएक सारे दूसरे संबंधों को बिसरा दे, केवल उन्हीं से संबंध की एक अविच्छिन्न धारा प्रवर्तित कर दे।[1]



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलसीदास भक्ति प्रबंध का नया उत्कर्ष (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख