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दक्षिण भारत 1565-1615

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दक्षिण भारत का इतिहास 1565 से 1615 तक

बहमनी साम्राज्य के विघटन के बाद अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुण्डा नामक तीन शक्तिशाली रियासतें उभरी और उन्होंने मिलकर 1565 में तालिकोट के निकट बन्नीहट्टी की लड़ाई में विजयनगर को बुरी तरह पराजित किया। विजय के पश्चात् इन रियासतों ने पुराने तौर-तरीक़े अपना लिए। अहमदनगर और बीजापुर दोनों ने उपजाऊ शोलापुर पर अपना-अपना दावा किया। युद्ध और विवाह सम्बन्ध दोनों में से कोई भी इस समस्या को सुलझाने में सहायक नहीं हुआ। दोनों रियासतों की महत्त्वाकांक्षा बीदर को हस्तगत करने की थी। अहमदनगर अपने उत्तर में स्थित बरार को भी हथियाना चाहता था। वस्तुतः बहमनी सुल्तानों के वंशज निज़ामशाहियों ने दक्कन में प्रधानता नहीं तो कम से कम बेहतर स्थिति का दावा किया आरम्भ किया। उनके इस दावे का विरोध के केवल बीजापुर ने किया बल्कि गुजरात के सुल्तानों ने भी किया जिनकी नज़र बरार के साथ-साथ समृद्ध कोंकण प्रदेश पर भी थी। गुजरात के सुल्तानों ने अहमदनगर के विरुद्ध बरार को सक्रिय सहायता दी और दक्कन में शक्ति-संतुलन को रखने के लिए अहमदनगर से युद्ध भी किया। बीजापुर और गोलकुण्डा में भी नालदुर्ग के लिए संघर्ष हुआ।

दक्षिणी राज्य और मराठा

1572 में मुग़लों द्वारा गुजरात विषय से एक नयी परिस्थिति उत्पन्न हो गई। गुजरात विजय दक्कन विजय की पूर्व-पीठिका हो सकती थी। लेकिन अकबर कहीं और व्यस्त था, और इस मौक़े पर दक्कन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था। अहमदनगर ने मौक़े का लाभ उठाकर बरार हथिया लिया। वास्तव में अहमदनगर और बीजापुर ने एक समझौता कर लिया जिसके अंतर्गत बीजापुर को विजयनगर के इलाक़ों पर दक्षिण में अपने राज्य का विस्तार करने की छूट मिल गई और अहमदनगर ने बरार को रौंद डाला। गोलकुण्डा भी विजयनगर साम्राज्य के क्षेत्र में अपनी सीमाओं का विस्तार करना चाहता था। इस प्रकार सभी दक्कनी रियासतें विस्तारवादी थीं। इस स्थिति में एक और महत्त्वपूर्ण बात दक्कन में मराठों का बढ़ता महत्त्व था। जैसा कि हम देख चुके हैं, बहमनी शासकों ने हमेशा मराठा सेनाओं को सहायक सेना के रूप में रखा था। इसे बारगीर (या सामान्यतः बारगी) कहा जाता था। स्थानीय स्तर पर राजस्व कार्य ब्राह्मणों के हाथों में था। मोरे, निम्बालकर, घाटगे जैसे कुछ पुराने मराठा वंशों ने बहमनी सुल्तानों की सेना में रहकर मनसब और जागीरें भी प्राप्त की थी। इनमें से अधिकांश शक्तिशाली ज़मींदार थे। जिन्हें दक्कन में देशमुख कहा जाता था। परन्तु उनमें न तो कोई राजपूतों की भाँति स्वतंत्र शासक था और न उनमें से किसी के पास बड़ा राज्य था। दूसरे वे अनेक वंशों के नेता भी नहीं थे, जिनकी सहायता पर वे निर्भर कर सकते। अतः अधिकांश मराठा सरदार सैनिक साहसिक थे, जो परिस्थिति के अनुसार अपनी स्वामीभक्ति बदल सकते थे। फिर भी मराठा दक्कन के ज़मींदारों की रीढ़ थे और उनकी स्थिति उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों के राजपूतों के समान थी। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में दक्कनी राज्यों ने मराठों को अपनी ओर मिलाने की निश्चित नीति अपनायी। दक्कन की तीनों बड़ी रियासतों ने मराठा सरदारों को नौकरी और बड़े पद दिये। बीजापुर का इब्राहिम आदिलशाह जो 1555 में गद्दी पर बैठा था, इस नीति को अपनाने वालों में अग्रणी था। कहा जाता है कि उसके पास 30,000 मराठों की सहायक (बारगी) सेना थी, और वह राजस्व के मामलों में मराठों को हर स्तर पर छूट दिया करता था। इस नीति के अंतर्गत पुराने वंशों पर तो कृपा बनी ही रही, कई नये वंश भी बीजापुर रियासत में महत्त्वपूर्ण हो गए। जैसे भोंसले, जिनका वंशगत नाम घोरपड़े था, डफ्ले ( अथवा चह्वान) आदि। राजनयिक वार्ताओं में मराठी ब्राह्मणों का उपयोग भी नियमित रूप से किया जाता था। उदाहरण के लिए अहमदनगर के शासक ने कणकोजी नरसी नामक ब्राह्मण को पेशवा की उपाधि दी। अहमदनगर और गोलकुण्डा में भी मराठों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।

अतः यह स्पष्ट है कि ज़मींदार वर्ग और लड़ाकू जातियों के साथ मित्रता की नीति अकबर-कालीन मुग़ल साम्राज्य से बहुत पहले दक्कन की रियासतों ने अपना ली थी।

दक्कन में मुग़लों का बढ़ाव

उत्तर भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् दक्कन की ओर क़दम बढ़ाना मुग़लों के लिए स्वाभाविक था। यद्यपि विंध्याचल उत्तर और दक्षिण की सीमा-रेखा था, परन्तु यह अलंध्य-अवरोध नहीं था। यात्री, व्यापारी, तीर्थ यात्री और घुमक्कण साधू सदा से इसे पार कर आते-जाते रहे थे तथा दक्षिण और उत्तर में जहाँ हर एक के अपने विशेष सांस्कृतिक स्वरूप थे उन्हें एक रूप में बाँधते रहे थे। तुग़लक़ों द्वारा दक्कन-विजय तथा उत्तर और दक्षिण के मध्य आवागमन के साधन सुगम हो जाने के कारण दोनों पक्षों में व्यापारिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध दृढ़तर हो गए थे। दिल्ली सल्तनत के पतन के पश्चात् बहुत से सूफ़ी सन्त और नौकरी की तलाश में अन्य व्यक्ति बहमनी सुल्तानों के दरबार में पहुँचे थे। राजनीतिक दृष्टि से भी उत्तर और दक्षिण अलग नहीं थे। जैसा कि हम देख चुके हैं पश्चिम के गुजरात और मालवा तथा पूर्व में उड़ीसा राज्य दक्कन की राजनीति में निरन्तर लिप्त रहे थे। अतः यह स्वाभाविक था कि सातवें और आठवें दशक के प्रारम्भ में मालवा और गुजरात का जीतने के पश्चात् मुग़ल भी दक्कन की राजनीति में रुचि दिखाते। 1576 में एक मुग़ल सेना ने खानदेश पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक को समर्पण के लिए विवश कर दिया। किन्तु अकबर को अधिक महत्त्वपूर्ण कारणों से अपना ध्यान कहीं और लगाना पड़ा। 1586 से 1598 तक बारह वर्षों तक अकबर उत्तर-पश्चिम की स्थिति का अध्ययन करने के लिए लाहौर में रहा। इसी बीच दक्कन की परिस्थितियाँ बिगड़ती चली गईं।

दक्कन राजनीति का जलता हुआ कुण्ड था। विभिन्न दक्कनी रियासतों के बीच लड़ाई एक आम बात थी। एक शासक की मृत्यु विभिन्न दलों के सामन्तों के बीच संघर्ष का कारण बन जाती थी। प्रत्येक दल शासक निर्माता की भूमिका निभाना चाहता था। इन परिस्थितियों में दक्कनियों और नवागन्तुकों (अफ़ाकी अथवा ग़रीब) के बीच संघर्ष खुले रूप से होता था। दक्कनियों में भी हब्शी (अबीसीनियाई अथवा अफ्रीकी) और अफ़ग़ान दो वर्ग बन गये। इन वर्गों और दलों का दक्कन की जनता के साथ सांस्कृतिक स्तर पर कोई सम्पर्क नहीं था। दक्कन की सैन्य और राजनीतिक प्रणाली में मराठों का विलयन, जो बहुत पहले प्रारम्भ हो चुका था, और आगे नहीं बढ़ा। अतः शासकों और सरदारों के प्रति जनता की बहुत कम स्वामिभक्ति थी।

दलगत संघर्ष

दलगत संघर्षों और मतभेदों के कारण परिस्थिति और भी बिगड़ गई। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ईरान में नये राजवंश सफ़विद के अंतर्गत शियामत राजधर्म बन गया था। शिया सम्प्रदाय का बहुत समय से दमन किया जाता रहा था और अब उत्साह की पहली लहर में इस सम्प्रदाय के लोगों को अपने पूर्व विरोधियों को सताने का मौक़ा मिला। परिणामतः बहुत से महत्त्वपूर्ण परिवारों ने वहाँ से भागकर अकबर के दरबार में शरण ली जो शियाओं और सुन्नियों में कोई विभेद नहीं करता था। कुछ दक्कनी रियासतों ने भी शियामत को राजधर्म के रूप में स्वीकार किया। गोलकुण्डा इनमें से प्रमुख था। बीजापुर और अहमदनगर में भी शिया शक्तिशाली थे किंतु उनका पलड़ा कभी-कभी ही भारी होता था। इससे दलगत संघर्ष और बढ़ गया।

महदवी सम्प्रदाय

दक्कन में महदवी सिद्धांतो का भी काफ़ी प्रसार हुआ। मुसलमानों का विश्वास था कि प्रत्येक युग में पैगम्बर के परिवार से एक व्यक्ति प्रकट होगा और धर्म को दृढ़ करेगा तथा न्याय को विजय दिलायेगा। ऐसा व्यक्ति महदी कहलाता था। हालाँकि संसार के विभिन्न भागों में अलग-अलग कालों में महदी प्रकट हो चुके थे, किंतु सोलहवीं शताब्दी के अन्त में इस्लाम को एक युग की सम्भावित समाप्ति ने इस्लामी दुनिया में अनेक आशाएँ उत्पन्न कर दी थीं। भारत में, पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में जौनपुर में उत्पन्न मुहम्मद ने भारत और इस्लामी दुनिया का भ्रमण किया और काफ़ी उत्साह पैदा किया। दक्कन सहित उसने देशभर में अपने दायरे स्थापित कि। दक्कन उसके लिए बहुत उपजाऊ सिद्ध हुआ। परम्परावादी तत्त्व महदवी सम्प्रदाय के उतने ही तीव्र विरोधी थे, जितने की शिया सम्प्रदाय के थे। हालाँकि दोनों के बीच कोई प्रेम-भाव समाप्त नहीं हुआ था। अकबर ने इसी संदर्भ ने सुलह कुल का सिद्धांत प्रचारित किया। उसे इस बात का भय था कि दक्कन के सम्प्रदायगत संघर्षों का सीधा प्रभाव मुग़ल साम्राज्य पर पड़ेगा।

पुर्तग़ाली प्रभाव

अकबर को पुर्तग़ालियों की बढ़ती शक्ति का भी ख़तरा था। पुर्तग़ाली मक्का जाने वाले हज यात्रियों के कामों में हस्तक्षेप करते थे। इसमें वे शाही परिवारों की स्त्रियों को भी नहीं छोड़ते थे। वे अपनी सीमाओं में धौंस से काम लेते थे, जो कि अकबर को पसन्द नहीं था। पुर्तग़ाली मुख्य भूमि पर निरन्तर अपना प्रभाव बढ़ाने के चक्कर में थे और यहाँ तक की उन्होंने सूरत पर हाथ डाला, जिसे एक मुग़ल सेनापति ने समय पर पहुँकर बचा लिया। अतः अकबर ने स्पष्ट रूप से यह महसूस किया कि मुग़ल साम्राज्य के निरीक्षण में दक्कनी रियासतों की सम्मिलित शक्ति यदि पुर्तग़ालियों के खतरे को पूरी तरह समाप्त नहीं भी कर सकेगी, तो उसे कम अवश्य कर देगी। इन्हीं कारकों के कारण अकबर दक्कनी मामलों में लिप्त होने को विवश हुआ।

बरार, अहमदनगर और ख़ानदेश विजय

अकबर ने पूरे देश पर अपने प्रभुत्व का दावा किया था। अतः वह चाहता था कि राजपूतों की भाँति दक्कनी रियासतें भी उसकी प्रभुत्ता को स्वीकर करें। उसने पहले भी कई दूत इस प्रयत्न में दक्कनी रियासतों को भेजे थे, कि वे उसकी शक्ति को स्वीकार कर उससे मित्रता करें। लेकिन उनका अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। यह स्पष्ट था कि जब तक मुग़ल उन पर सैनिक दबाव न डालें, दक्कनी रियासतें मुग़ल प्रभुत्ता को स्वीकार करने वाली नहीं थीं।

चाँदबीबी

1591 में अकबर ने राजनयिक आक्रमण किया। उसने प्रत्येक दक्कनी रियासत में दूत भेजे और उनसे मुग़ल प्रभुत्ता स्वीकार करने को कहा। जैसा कि आशा की जाती थी, किसी रियासत ने इस प्रभाव को स्वीकार नहीं किया। केवल खानदेश ही इसका अपवाद रहा। क्योंकि वह मुग़ल साम्राज्य के एकदम निकट था और मुग़लों का सामना कर पाने की स्थिति में नहीं था। अहमदनगर के शासक बुरहान ने मुग़ल दूत के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया, अन्य रियासतों ने केवल मित्रता के वायदे किए। ऐसा प्रतीत होता था कि अकबर दक्कन के मामले में कोई निश्चित क़दम उठाना चाहता था। 1595 में बुरहान की मृत्यु के बाद छिड़े निजामशाही सरदारों के आपसी संघर्ष ने अकबर को आवश्यक अवसर प्रदान कर दिया। वहाँ अलग-अलग दलों द्वारा समर्थित चार लोग उत्तराधिकारी का दावा कर रहे थे। सबसे मज़बूत दावा मृतक शासक के पुत्र बहादुर का था। बीजापुर का शासक इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय भी उसका समर्थन करना चाहता था। बुरहान की बहन चाँदबीबी इब्राहीम के चाचा और बीजापुर के भूतपूर्व शासक की विधवा थी। वह बहुत योग्य स्त्री थी और उसने आदिलशाह के वयस्क होने तक दस साल तक रियासत पर शासन किया। वह मातमपुर्शी के लिए अहमदनगर आई थी और वहाँ उसने अपने भतीजे के दावे का ज़ोरदार समर्थन किया। इसी पृष्ठभूमि में विरोधी दल के सरदारों (दक्कनियों) ने मुग़लों को हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित किया। इसके बाद जो संघर्ष हुआ, वह वास्तव में अहमदनगर पर प्रभुत्व के लिए मुग़लों और बीजापुर के मध्य संघर्ष था।

बरार पर प्रभुत्व

मुग़ल आक्रमण का नेतृत्व गुजरात के गवर्नर मुग़ल शहज़ादा मुराद और अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना ने किया। ख़ानदेश के शासक को सहयोग करने को कहा गया अहमदनगर के सरदारों में आपस में फूट होने के कारण राजधानी तक मुग़लों को कम विरोध का सामना करना पड़ा। चाँदबीबी ने तरुण शासक बहादुर के साथ स्वयं को क़िले के अन्दर बन्द कर लिया। चार महीनों के घेरे के बाद दोनों पक्षों में समझौता हुआ। इस बीच चाँदबीबी ने बहुत साहस का परिचय दिया था। समझौते के अनुसार बरार मुग़लों के प्रभुत्व में आ गया और शेष क्षेत्र पर बहादुर का दावा मान लिया गया। मुग़लों का प्रभुत्व भी स्वीकार कर लिया गया। यह समझौता 1596 में हुआ।

अहमदनगर पर पर विजय

बरार के मुग़ल साम्राज्य में विलयन ने दक्कन रियासतों को सावधान कर दिया। उन्होंने अनुभव किया कि बरार के मिल जाने से दक्कन में मुग़लों के पैर जम जायेंगे और वे कभी भी अपने क़दम आगे बढ़ा सकेंगे। यह भय कारणहीन नहीं था। अतः वह अहमदनगर के पक्ष में हो गयीं और मुग़लों द्वारा बरार के विलयन में अवरोध उत्पन्न करने लगीं। शीघ्र ही एक बीजापुरी सेनापति के नेतृत्व में बीजापुर, गोलकुण्डा और अहमदनगर की संयुक्त सेना ने काफ़ी बड़ी संख्या में बरार पर आक्रमण कर दिया। 1597 में हुई एक ज़बरदस्त लड़ाई में मुग़ल सेना ने तीन गुनी दक्कनी सेना को पराजित कर दिया। बीजापुर और गोलकुण्डा की सेनाएँ पीछे हट गईं और चाँदबीबी स्थिति का सामना करने के लिए अकेली रह गईं। हालाँकि चाँदबीबी 1596 की संधि का पालन करना चाहती थी लेकिन वह मुग़लों को परेशान करने के लिए अपने सरदारों को आक्रमण करने से रोक नहीं सकी। इसका परिणाम यह हुआ कि मुग़लों ने अहमदनगर के क़िले पर दोबारा घेरा डाल दिया। कहीं से भी कोई मदद न मिलने के कारण चाँदबीबी ने मुग़लों से समझौते को बातचीत शुरू की। लेकिन विरोधी दलों ने उस पर द्रोह का आरोप लगाकर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार दक्कन की राजनीति के एक सर्वाधिक रोमांचक व्यक्तित्व का अन्त हो गया। इसके बाद मुग़लों ने अहमदनगर पर आक्रमण करके उस पर विजय प्राप्त कर ली। तरुण शासक बहादुर को ग्वालियर के क़िले भेज दिया गया। बालघाट को भी साम्राज्य में मिला लिया गया और अहमदनगर में मुग़ल छावनी डाल दी गई। यह घटना 1600 में घटी।

अकबर की समस्याएँ

अहमदनगर की पराजय और निज़ामशाह के पकड़े जाने से दक्कन में अकबर की समस्याएँ समाप्त नहीं हो गईं। वहाँ कोई ऐसा निज़ामशाही राजकुमार या सरदार शेष नहीं था जिसके पास पर्याप्त समर्थन हो और जो अकबर के साथ समझौते की बातचीत कर सके। साथ ही मुग़ल उस समय न तो अहमदनगर से आगे बढ़ना चाहते थे और न ही वह इस स्थिति में थे कि रियासत के शेष क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने का प्रयत्न करें। मुग़ल सरदारों की भी आपसी झड़पों से स्थिति और भी बिगड़ गई।

मालवा और ख़ानदेश

स्थिति का मौके पर अध्ययन करने के लिए अकबर पहले मालवा और फिर ख़ानदेश की ओर बढ़ा। वहाँ उसे पता लगा कि ख़ानदेश के नये शासक ने अपनी सीमा से होकर अहमदनगर जाते हुए शहज़ादा दानियाल का उचित सम्मान नहीं किया था। अकबर ख़ानदेश में स्थित असीरगढ़ के क़िले पर भी अपना अधिकार करना चाहता था क्योंकि वह दक्कन का सृदृढ़तम क़िला माना जाता था। मज़बूत घेरे के बाद, जब रोग फैलने लगा तो ख़ानदेश का शासक बाहर आया और उसने समर्पण कर दिया (1601) । ख़ानदेश को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया गया।

दानियाल का विवाह और मुत्यु

असीरगढ़ पर आक्रमण करने के बाद अकबर शहज़ादा सलीम के विद्रोह से निपटने के लिए उत्तर की लौट आया। यद्यपि ख़ानदेश, बरार, बालघाट और अहमदनगर के क़िले पर मुग़ल आधिपत्य कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी, फिर भी मुग़लों को अपनी स्थिति अभी और भी मज़बूत करनी थी। अकबर इस बारे में पूरी तरह से सजग था कि बीजापुर से किसी समझौते के बिना दक्कन की समस्याओं का कोई स्थायी हल नहीं निकल सकता। अतः उसने इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय के पास उसे आश्वस्त करने के लिए संदेश भेजा। आदिलशाह ने अकबर के सबसे छोटे पुत्र शहज़ादा दानियाल से अपनी बेटी के विवाह का प्रस्ताव किया। लेकिन शादी के कुछ समय बाद ही शहज़ादा दानियाल की अधिक मदिरापान के कारण मुत्यु हो गई (1602) । अतः दक्कन की परिस्थिति अस्पष्ट रही और अकबर के उत्तरीधिकारी जहाँगीर को उससे निपटना पड़ा।

मलिक अम्बर का उदय

अहमदनगर के पतन और मुग़लों द्वारा बहादुर निज़ाम शाह की गिरफ्तारी के बाद इस बात की पूरी सम्भावना थी कि अहमदनगर रियासत के टुकड़े हो जाते और पड़ोसी रियासतें उन्हें हस्तगत कर लेतीं, किन्तु मलिक अम्बर के रूप में एक योग्य व्यक्ति के उदय की वजह से ऐसा नहीं हुआ। मलिक अम्बर एक अबीसीनियाई था और उसका जन्म इथियोपिया में हुआ था। उसके प्रारम्भिक जीवन की विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसा अनुमान है कि उसके निर्धन माता-पिता ने उसे बग़दाद के ग़ुलाम-बाज़ार में बेच दिया था। बाद में उसे किसी व्यापारी ने ख़रीद लिया और उसे दक्कन ले आया, जहाँ की समृद्धि उस काल में बहुत लोगों को आकर्षित करती थी। मलिक अम्बर ने मुरतज़ा निज़ामशाही के प्रभावशाली सरदार चंगेज़ ख़ाँ के यहाँ काफ़ी तरक़्क़ी की थी। जब मुग़लों ने अहमदनगर पर आक्रमण किया तो मलिक अम्बर अपना भाग्य आज़माने के लिए बीजापुर चला गया। लेकिन जल्दी ही वह वापस आ गया और चाँदबीबी के विरोधी हब्शी[1] दल में सम्मिलित हो गया। अहमदनगर के पतन के बाद अम्बर ने एक निज़ामशाही शहजादे को ढूँढ निकाला और बीजापुर के शासक की मदद से उसे मुरतज़ा निज़ामशाह द्वितीय के नाम से गद्दी पर बैठा दिया। वह स्वयं उसका पेरुबा (संरक्षक) बन गया। पेशवा का पद अहमदनगर की रियासत में पहले से प्रचलित था। मलिक़ अम्बर ने काफ़ी बड़ी मराठी सेना इकट्ठी कर ली। मराठे तेज़ गति वाले थे और दुश्मन की रसद काटने में काफ़ी होशियार थे। यह गुरिल्ला युद्ध प्रणाली दक्कन के मराठों के लिए परम्परागत थी, लेकिन मुग़ल इससे अपरिचित थे। मराठों की सहायता से मलिक अम्बर ने मुग़लों को बरार, अहमदनगर, और बालाघाट में अपनी स्थिति सुदृढ़ करना कठिन कर दिया।

मलिक अम्बर और ख़ान-ए-ख़ाना की मित्रता

उस समय दक्कन में मुग़लों का सेनापति अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना था, जो एक चालाक और होशियार राजनीतिज्ञ तथा योग्य सैनिक था। उसने 1601 में तेलंगाना के नादेर नामक स्थान पर मलिक अम्बर को बुरी तरह पराजित किया। किन्तु उसने मलिक अम्बर के साथ मित्रता का सम्बन्ध रखने का निर्णय लिया क्योंकि वह समझता था कि शेष निज़ामशाही क्षेत्र में स्थायित्व रहना अच्छा है। दूसरी ओर मलिक अम्बर ने भी ख़ान-ए-ख़ाना के साथ मित्रता करना बेहतर समझा क्योंकि इससे उसे अपने आंतरिक विरोधियों से निपटने का अवसर मिल सकता था। किन्तु अकबर की मृत्यु के बाद मुग़ल सरदारों के पारस्परिक मतभेद के कारण दक्कन में मुग़लों की स्थिति कमज़ोर हो जाने से मलिक़ अम्बर ने बरार, बालाघाट और अहमदनगर से मुग़लों को खदेड़ने के लिए ज़ोरदार आक्रमण किया। उसके इस प्रयत्न में बीजापुर के शासक इब्राहीम आदिलशाह ने सहायता की क्योंकि वह चाहता था कि अहमदनगर, बीजापुर और मुग़लों के बीच निज़ामशाही राज्य मध्यवर्ती राज्य बना रहे। उसने मलिक अम्बर को उसके परिवार में रहने, ख़ज़ाना इकट्ठा करने और भोजन सामग्री रखने के लिए तेलगांना में कंन्धार का शक्तिशाली क़िला दिया। उसने उसकी मदद के लिए 10,000 घुड़सवार भी भेजे जिनका व्यय पूरा करने के लिए एक क्षेत्र भी सुरक्षित कर लिया गया। इस समझौते को मलिक अम्बर तथा बीजापुर के एक प्रमुख इथियोपियाई सरदार की बेटी के विवाह से और भी दृढ़ बनाया गया। यह विवाह 1609 में बड़ी धूम-धाम से हुआ। आदिलशाह ने वधू को बहुत दहेज दिया और 80,000 रुपये केवल आतिशबाजी में खर्च किए।

बीजापुर की सहायता से शक्ति बल बढ़ाकर और मराठों की सक्रिय सहायता से अम्बर ने शीघ्र ही ख़ान-ए-ख़ाना को बुरहानपुर तक खदेड़ दिया। अकबर द्वारा दक्कन के विजित प्रदेश इस प्रकार 1610 तक छिन गए यद्यपि जहाँगीर ने शहज़ादा परवेज़ को एक बड़ी सेना देकर दक्कन भेजा था पर वह मलिक अम्बर की चुनौती का सामना नहीं कर सका। यहाँ तक की अहमदनगर भी छिन गया और शहज़ादा परवेज़ को अम्बर के साथ अपमानजनक समझौता करना पड़ा।

मलिक़ अम्बर उन्नति करता रहा। जब तक मराठे तथा अन्य दक्कनी तत्त्व उसकी सक्रिय सहायता करते रहे, मुग़ल अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित नहीं कर पाये। लेकिन धीरे-धीरे मलिक अम्बर उद्धत होकर गया और परिणामतः उसके मित्र उससे दूर हो गये। अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना तब तक पुनः दक्कन का वायसराय नियुक्त हो चुका था। उसने इस स्थिति का लाभ उठाया और कई हब्शी सरदारों तथा जगदेव राय, बाबजी काटे, उदाजी राम जैसे कई मराठा सरदारों को अपनी ओर मिला लिया। जहाँगीर स्वयं मराठों के महत्त्व के प्रति पूरी तरह से सजग था। उसने अपनी जीवनी में लिखा है कि मराठे "सख्त जान हैं और मुल्क में विरोध का केन्द्र हैं।" मराठा सरदारों की मदद से ख़ान-ए-ख़ाना ने 1616 में अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुण्डा की संयुक्त सेना को पूरी तरह पराजित किया। मुग़लों ने निज़ामशाही की नयी राजधानी खिरकी पर अधिकार कर लिया और वहाँ से जाने से पहले प्रत्येक इमारत जला डाली। इस पराजय ने मुग़लों के विरुद्ध दक्कनी भाईचारे को हिला दिया। परन्तु मलिक अम्बर ने अपने प्रयत्नों में ढील नहीं आने दी।

जहाँगीर की नीति

ख़ान-ए-ख़ाना की विजय को पूर्ण करने के लिए जहाँगीर ने अपने पुत्र शहज़ादा ख़ुर्रम (बाद में शाहजहाँ) के सेनापतित्व में बहुत बड़ी सेना भेजी और स्वयं सहायता पहुँचाने के लिए मांडू आ गया (1618)। इस ख़तरे को देखते हुए अम्बर को समर्पण करना पड़ा। इस सन्दर्भ में यह महत्त्वपूर्ण है कि संधि में जहाँगीर ने अम्बर द्वारा जीते गए प्रदेशों तक अपना दावा नहीं किया। कुछ विद्वान् इसका कारण जहाँगीर की सैनिक कमज़ोरी मानते हैं। किन्तु वास्तविकता यह नहीं है। यह जहाँगीर की नीति के कारण हुआ। स्पष्टतः जहाँगीर दक्कन में मुग़ल उत्तरदायित्व को बढ़ाना या दक्कन के मामलों में बहुत गहराई से लिप्त होना नहीं चाहता था और फिर उसे आशा थी कि उसकी उदारता से दक्कनी रियासतों को निःसंशय होने का अवसर मिलेगा और वे मुग़लों के साथ मित्रतापूर्वक रह सकेंगी। अपनी नीति के अंतर्गत ही जहाँगीर ने बीजापुर को अपनी ओर खींचने का प्रयत्न किया। आदिलशाह को उसने एक उदार फ़रमान भेजा, जिसमें जहाँगीर ने उसे 'बेटा' कहकर सम्बोधित किया था।

मुग़लों के हाथों पराजय

इन पराजयों के बावजूद मलिक अम्बर मुग़लों के विरुद्ध दक्कनी विरोध का नेतृत्व करता रहा और दक्कन में शान्ति स्थापित नहीं हो पाई। परन्तु दो वर्ष पश्चात् ही दक्कनी सेनाओं की मुग़लों के हाथों गम्भीर पराजय हुई। अम्बर को मुग़लों के सब क्षेत्र लौटाने पड़े और उसके पास का 14 कोस का क्षेत्र भी देना पड़ा। दक्कनी रियासतों को पचास लाख रुपये हरजाने के रूप में भी देने पड़े। इन विजयों का श्रेय शहज़ादा ख़र्रम को दिया गया।

अम्बर का विजय अभियान

पहली पराजय के तत्काल बाद इस दूसरी पराजय ने मुग़लों के ख़िलाफ़ दक्कनी रियासतों की एकता को तोड़ कर रख दिया। उनमें पुरानी शत्रुताएँ फिर से उभर आईं। मलिक अम्बर ने शोलापुर को पुनः प्राप्त करने के लिए बीजापुर के विरुद्ध कई अभियान छेड़े। शोलापुर दोनो रियासतों के बीच संघर्ष का कारण था। अम्बर द्रुत गति से बीजापुर की राजधानी पहुँचा, इब्राहीम आदिलशाह द्वारा बनावायी नयी राजधानी नौरसपुर को जला डाला और आदिलशाह को क़िले में शरण लेने को विवश कर दिया, यह अम्बर की शक्ति की चरम-सीमा थी।

यद्यपि मलिक अम्बर में उल्लेखनीय सैनिक-कौशल, शक्ति और इच्छाशक्ति थी, किन्तु उसकी उपलब्धियाँ बहुत कम समय तक रह सकीं क्योंकि मुग़लों के साथ वह मिलकर नहीं रह सका या वह ऐसा करना ही नहीं चाहता था। अम्बर के उदय में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इससे दक्कनी क्रियाकलापों में मराठों के महत्त्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया। मलिक अम्बर के नेतृत्व में सफलता के बाद मराठों में इतना आत्मविश्वास उत्पन्न हो गया कि कालान्तर में वे स्वतंत्र भूमिका का निर्माण करने में समर्थ हुए।

मलिक अम्बर ने भू-राजस्व की टोडरमल की प्रणाली को लागू करके निज़ामशाही रियासत के प्रशासन में सुधार लाने का प्रयत्न किया। उसने भूमि को ठेके (इज़ारा) पर देने की पुरानी प्रथा का समाप्त कर दिया क्योंकि वह वह किसानों के विनाश का कारण नहीं बनती थी। इसके स्थान पर उसने ज़ब्ती-प्रणाली को लागू किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अबीसीनियाई

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