द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन -राजमणि तिवारी

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लेखक- राजमणि तिवारी

28 अगस्त, 1976। प्रात: कालीन वेला। चतुर्दिक मोहक हरीतिमा। स्वागत करती शस्य श्यामला मही। मारिशस के सुरम्य स्थल मोका में स्थित महात्मा गांधी संस्थान का विशाल प्रांगण। दूर-दूर पर दृष्टिगोचर होती हुई पर्वतमालाएं और उनकी उपत्यकाओं में लहराते ईख के खेत। उनकी मधुर मनुहार मन को मोह रही थी। इंद्र देव रह-रहकर झीनी-झीनी फुहारों से अभिषेक करते प्रतीत हो रहे थे। उभरते-घुमड़ते बादल किसी का संदेश पहुँचाने के लिए बैचेन थे। मानो जो लोग वहाँ नहीं पहुँच पाए थे, उनकी उपस्थिति की सूचना देने का भार उन्हीं के कंधों पर हो। चारों तरफ़ प्रकृति की निराली छटा बिखरी हुई थी।

महात्मा गांधी संस्थान का संपूर्ण प्रांगण विश्व की चुनी हुई मनीषा और पांडित्य के सान्निध्य से पुलकित हो रहा था। लेखकों, कवियों, पत्रकारों, विद्वानों, विचारकों, समीक्षकों, प्रशासकों आदि का विशाल जमघट लगा हुआ था। उत्साह, स्फूर्ति, उल्लास और उमंग के भाव साक्षात् स्वरूप धारण करने का उद्यत से प्रतीत हो रहे थे। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन के क्षण निकट आ रहे थे। विश्व के लगभग 20 देशों के विद्वान् अपनी अपनी वेशभूषा में वहाँ उपस्थित थे, फिर भी वहाँ भारतीय वेशभूषा और भारतीयता का ऐसा प्रधान्य दिखाई पड़ रहा था, मानो हम भारत से 3000 मील दूर न होकर भारत के ही किसी नगर में बैठे हों। इस सम्मेलन में भारत, इंग्लैंड, अमरीका, फ़्रांस, फ़ेडरल रिपब्लिक ऑफ़ जर्मनी, हालैंड, जापान, जर्मन जनवादी गणतंत्र, चेकोस्लोवाकिया, इटली, स्वीडन, हंगरी, कीनिया, जांबिया, मलावी, तंजानिया, मेडागास्कर आदि लगभग 20 देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। इनके अतिरिक्त मारिशस के कोने-कोने से आए साहित्यकार, लेखक, विद्वान् तथा सामान्य जनता अपार संख्या में उपस्थित थी।

भारत सरकार की ओर से 30 विद्वानों का एक सरकारी प्रतिनिधि मंडल भेजा गया था, जिसमें हिन्दी के मूर्धन्य विद्वानों के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं के वरेण्य विद्वान, साहित्यकार, प्रशासक आदि भी सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्य सरकारों, विश्वविद्यालयों, कालेजों, स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं तथा निजी संस्थानों के लगभग 150 विद्वान, कलाकार आदि भी इस सम्मेलन में उपस्थित थे। उस समय विशाल पंडाल में उपस्थित अपार जन समूह के सम्मुख मारिशस, भारत और अन्य देशों के विद्वान् मंच पर विराजमान थे। सम्मेलन प्रारंभ होने की उद्घोषणा और मंगलाचरण के पश्चात् मारिशस की कुछ बालिकाओं ने निम्नलिखित प्रार्थना गीत प्रस्तुत किया :
हे जगत्राता विश्व विधाता, हे सुख शांति निकेतन हे।
प्रेम के सिंधु, दीन के बंधु, दु:ख दरिद्र विनाशक हे।
नित्य अखंड अनंत अनादि, पूरणब्रह्म सनातन हे।
जगआश्रय जगपति जगवंदन, अनुपम अलख निरंजन हे।
प्राणसखा त्रिभुवन प्रतिपालक, जीवन के अवलंबन हे।
हे जगत्राता विश्व विधाता, हे सुख शांति निकेतन हे।
 
इस प्रार्थना गीत के उदात्त और मधुर स्वरों ने उस वातावरण को किसी पुनीत मंत्र की भांति इस प्रकार अभिभूत कर दिया, जो केवल अनुभव का विषय है, वाणी का नहीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों हम धरातल से ऊपर उठते जा रहे हों और किसी अनिर्वचनीय विराटता का अनुभव कर रहे हों। ऐसे ही आह्लादकारी वातावरण में द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।

इस सम्मेलन की सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएँ भेजते हुए प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था कि 'हिन्दी विश्व की महान् तथा सशक्त भाषाओं में से एक है। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और आज़ादी के बाद भारत में, और दूसरे देशों में भी हिन्दी भाषा की अभिवृद्धि हुई है तथा इसके साहित्य का बहुत विकास हुआ है। आज कई महादेशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है, यह बहुत अच्छी बात है कि विश्व के हिन्दी प्रेमी ऐसे सम्मेलनों में मिलते हैं, जिससे 'वसुधैव कुटुंबकम्' की भीवना बढ़ती है। लेकिन हिन्दी को किसी अन्य भाषा का अहित करके आगे नहीं बढ़ना है, बल्कि उन्हें साथ लेकर चलना है, जैसे कि एक परिवार छोटे-बड़े सभी सदस्यों के सहयोग से चलता है।'

सर्वप्रथम उपस्थित प्रतिनिधियों और जन समुदाय का स्वागत करते हुए इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष श्री दयानंद लाल वसंत राय ने कहा, 'आज मारिशस के इतिहास में यह एक सुनहरा दिन है, जब इस देश में द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन हो रहा है। आज हमारा हृदय अत्यंत हर्ष और उल्लास से भरा हुआ है और हम इस सम्मेलन में पधारे हुए अपने सभी सम्मानित अतिथियों, प्रतिनिधियों, पर्यवेक्षकों तथा अन्य आमंत्रित भाइयों और बहनों का हार्दिक स्वागत करते हैं। हमारा ध्यान ख़ासतौर पर उन उदारमना अतिथियों की ओर जाता है, जो भारत सहित अनेक दूर दूर के देशों से यात्रा के कष्ट और असुविधाओं को सहन कर हमारे देश में पधारे हैं। उनके आगमन से हमारे इस विराट आयोजन की शोभा बढ़ी है। आप सब के स्वागत में केवल यहाँ की हिन्दी भाषी जनता ही नहीं, अपितु समूचे मारिशस के तेलुगु, मराठी, तमिल, उर्दू, गुजराती, चीनी, फ़्रेंच, अंग्रेज़ी आदि भाषाएँ बोलने वाले भी सम्मिलित हैं।

इसके बाद मारिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं हिन्दी के अनन्य प्रेमी डॉ. शिवसागर रामगुलाम ने इस सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा, 'मारिशस में हिन्दी का विकास हमारे समाज के विकास का दस्तावेज़ है। हमारे जो पूर्वज यहाँ आए थे, वे ख़ाली हाथ थे, उनके पास लड़ने का कोई हथियार नहीं था। उन्होंने बहुत दु:ख सहा। जानवर की तरह खेतों में रात और दिन काम किया। अपने धैर्य को जतन से बचाए रखा, क्योंकि उनके पास अपनी भाषा थी। वे हिन्दी, उर्दू, तमिल, तेलुगु, मराठी आदि बोलते थे। इन भाषाओं में बहुत ऊँचा ज्ञान और साहित्य है। अपनी भाषा की डोरी से उन्होंने अपने धर्म और अपनी संस्कृति को बांध रखा था।' मारिशस में भारतीय भाषाओं के विकास का क्रम बताते हुए उन्होंने आगे कहा, 'हमारा विश्वास है कि इन भाषाओं की रक्षा से हमारे देश की संस्कृति की रक्षा होनी है और इन संस्कृतियों के मेल से हम मारिशस में नई संस्कृति का निर्माण करेंगे, जिसमें सबका योगदान होगा।' 'मेरा विश्वास है कि हिन्दी प्यार और एकता की भाषा है। यह हमेशा से जनता की भाषा रही है। भारत और मारिशस, दोनों को स्वतंत्र कराने में हिन्दी का हाथ रहा है।

अपने सारगर्भित अध्यक्षीय भाषण में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के नेता डॉ. कर्ण सिंह ने हिन्दी की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्ता का उल्लेख करते हुए कहा, 'आज हिन्दी सभी प्रकार के विचारों की एक समर्थ वाहिनी बन चुकी है और बोलने वालों की संख्या को देखते हुए यह विश्व की चार प्रमुख भाषाओं में से एक है। इसमें अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने की क्षमता है। देववाणी संस्कृत के साथ तो हिन्दी का अधिक सामीप्य है, क्योंकि वह हिन्दी की ही नहीं, कई भाषाओं की जननी है। इस अवसर पर एकत्र सदस्यगण के सामने मैं यह प्रार्थना करना चाहूंगा कि जहाँ वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अग्रसर हैं, वहाँ उनका संस्कृत की ओर भी ध्यान देना आवश्यक हो जाता है। इस सशक्त, सजीव भाषा के सीखने के प्रबंध हर उस देश में होने चाहिए, जहाँ पर हिन्दी भाषा-भाषी रहते हों। इससे हिन्दी साहित्यकारों तथा दार्शनिकों को ही लाभ नहीं होगा, बल्कि हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाने में सहायता होगी। इसके अतिरिक्त हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में परस्पर अनुवाद ज़रूरी है। भारत में लिखे जाने वाले हिन्दी साहित्य को अन्य देशों तक, और अन्य देशों के साहित्यकारों की हिन्दी रचनाओं को भारत पहुँचाना एक बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसी से हिन्दी जगत् की आंतरिक शक्ति बढ़ेगी और हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय रूप अधिक निखरेगा। इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रिकाओं की आवश्यकता है, जो हिन्दी का संदेश विश्व के हर उस क्षेत्र तक पहुँचाए, जहाँ हिन्दी भाषी तथा हिन्दी प्रेमी रहते हों।
यह सम्मेलन तीन दिन तक चलता रहा। सम्मेलन में जिन 4 प्रमुख विषयों पर विचार-विमर्श हुआ, वे इस प्रकार है :

  1. हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति, शैली और स्वरूप,
  2. जनसंचार के साधन और हिन्दी,
  3. स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका,
  4. विश्व में हिन्दी के पठन-पाठन की समस्याएँ।

 
प्रत्येक विषय पर विचार विमर्श करने के लिए तीन तीन विद्वानों का एक एक अध्यक्ष मंडल बनाया गया था। इस अध्यक्ष मंडल का एक सदस्य मारिशस का, दूसरा भारत का और तीसरा इनसे भिन्न अन्य किसी देश का विद्वान् होता था। इनके अतिरिक्त एक विद्वान् विषय के संयोजन का कार्य करता था। पहले विषय पर बनाये गए अध्यक्ष मंडल में श्री खेर जगत् सिंह (मारिशस), प्रो. डी.पी. यादव (भारत), प्रो. के. दोई (जापान) तथा डॉ. लोठार लुत्से (जर्मन संघीय गणराज्य) शामिल थे। डॉ. धर्मवीर भारती ने इसका संयोजन किया था। इस विषय पर भाग लेने वालों में जयनारायण राय, श्रीमती धनवंती रिक्वाय, श्री रामदेव धुरंधर, श्री देववंशलाल रामनाथ, श्री सोमदत्त बखौरी, श्री लेनार्ट पियर्सन, श्रीमती निकोल बलवीर, श्रीमती इवा अरादि, श्री ओडोलेन स्मेकल, श्रीमती कोहेन तथा प्रो. के. दोई प्रमुख थे। इस सभी विद्वानों ने हिन्दी की महानता बतलाते हुए उसे राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाने पर जोर दिया।

'जन संचार के साधन और हिन्दी' नामक विषय पर विचार करने के लिए श्री वासुदेवसिंह (भारत), प्रो. के. दोई (जापान) और श्री मोहन लाल मोहित (मारिशस) का अध्यक्ष मंडल बनाया गया था। इसके संयोजक श्री चंदूलाल चंद्राकर थे। वक्ताओं में सर्वश्री शंकरदयाल सिंह, महावीर अधिकारी, दीपचंद्र बिहारी, मनोहरश्याम जोशी, रवींद्र वर्मा, श्रीकांत वर्मा, ए. रमेश चौधरी आरिगपूडि, कमलेश्वर, राजेंद्र अवस्थी, धर्मवीर जी धुरा, अरविंद कुमार आदि प्रमुख थे। हिन्दी के ऐतिहासिक योगदान की चर्चा करते हुए वक्ताओं ने बतलाया कि इसके माध्यम से कवियों, साहित्यकारों, संतों, विचारकों ने अपनी अनुभूतियों से देश-विदेश को जाग्रत किया है और वे इसे सार्वदेशिक तथा अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनाने में निरंतर प्रयत्नशील रहे हैं।

'हिन्दी के प्रचार-प्रसार में स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका' नामक विषय पर हुए विचार-विमर्श के अध्यक्ष मंडल में श्री सूरजप्रसाद सिंह मंगर (मारिशस), श्री एम. वी. कृष्णराव (भारत) और श्रीमती निकाल बलवीर (फ़्रांस) शामिल थीं। इसका संयोजन भारत के श्री आंजनेय शर्मा ने किया। वक्ताओं में सर्वश्री मधुकरराव चौधरी, मोहनलाल मोहित, डॉ. जयरामन, योगेंद्र शर्मा, इंद्रदेव भोला, डॉ. रत्नाकर पांडेय, हृदयग्रीवाचारी, राधाकृष्ण मूर्ति, मंगलप्रसाद तिलकधारी, डॉ. राजेश्वरैया इत्यादि प्रमुख थे। इन वक्ताओं ने कहा कि अगर हिन्दी के विकास, प्रचार और प्रसार का इतिहास देखा जाए तो साफ हो जाता है कि इसमें प्रारम्भ से अगर किसी का योगदान मिला है, तो स्वैच्छिक संस्थाओं का, जिन्होंने अपने अथक प्रयत्नों से हिन्दी का प्रचार, प्रसार और विकास अहिन्दी भाषा भाषी प्रान्तों में और विदेशों में भी किया है। शासन के द्वारा तो कार्रवाई होती रही, लेकिन जहाँ पर शासनों की दिक्कतें रहीं वहाँ स्वैच्छिक संस्थाओं ने कार्य किया है।

चौथे सत्र में 'विश्व में हिन्दी के पठन-पाठन की समस्या' विषय पर विचार-विमर्श हुआ, जिसके अध्यक्ष मंडल में डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अतिरिक्त श्री सतकाम बलैल (मारिशस) और प्रो. ओदोलेन (चेकोस्लोवाकिया) शामिल थे। इसका संयोजन प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने किया। जिन-जिन विद्वानों ने इसमें भाग लिया। उनमें प्रो. हरवंशलाल शर्मा, श्री के.के. मंडल, डॉ. गोपाल शर्मा, डॉ. नामवर सिंह, प्रो.जी. सुंदर रेड्डी, डॉ. कामिल बुल्के, श्री ठाकुरदत्त, श्री पूजानंद नेमा, श्री मोहन गौतम, श्रीमत कमलारत्नम, प्रो. श्यामनंदन किशोर तथा श्री सुधाकर पांडेय के नाम उल्लेखनीय हैं। इन वक्ताओं का विचार था कि हिन्दी के अध्ययन एवं अध्यापन की प्रणाली को और सशक्त बनाया जाए, इसके लिए नए अविष्कारों का भी प्रयोग किया जाए और शोध के क्षेत्रों को व्यापक बनाया जाए। भाषा और साहित्य की रक्षा के लिए मातृभाषा को ही अध्ययन-अध्यापन का माध्यम बनाया जाना चाहिए।

सभी सत्रों में विचार-विमर्श का स्तर बहुत ही उच्च कोटि का रहा। इनमें हिन्दी के प्रचार, प्रसार, प्रयोग, प्रशिक्षण इत्यादि सभी पहलुओं पर गंभीरता और विस्तार से विचार किया गया। इस विचार-मंथन के परिणामस्वरूप सम्मेलन के अंत में एक मंतव्य प्रचारित किया गया, जिसकी प्रमुख बातें इस प्रकार हैं।

  • इस अधिवेशन ने प्रथम हिन्दी विश्व सम्मेलन के बोधवाक्य- 'वसुधैव कुटुंबकम्' को स्वीकार किया है, जिसके अनुसार विश्व की एक परिवार के रूप में कल्पना की गई है। इस सम्मेलन का विश्वास है कि आज जब मानवता एक चौराहे पर जा खड़ी है, हिन्दी का प्रेम, सेवा और शांति की भाषा के रूप में उन सारी शक्तियों को बल देना चाहिए, जो 'एक विश्व एक परिवार' के आदर्श को और भी सुदृढ़ करें और जहाँ मानव के लिए जाति, धर्म, वर्ण और राष्ट्रीयता की सीमाएँ न हों। यह सम्मेलन उसी दृष्टिकोण को दुहराना चाहता है, जिसे प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन ने भी स्वीकार किया था कि वह हिन्दी के मामले में किसी भी प्रकार की ज़ोर-जबरदस्ती या लादने की दृष्टि नहीं रखता है और इसी प्रकार यह मानता है कि जो भाषा स्वेच्छा से स्वीकार की जाएगी, वही सारे विश्व में लोकप्रियता और मान्यता प्राप्त करेगी।
  • सम्मेलन ने प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में पारित इस प्रस्ताव का फिर समर्थन किया कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में एक आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान मिले और यह सिफारिश की कि इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक क्रमबद्ध कार्यक्रम बनाया जाए। सम्मेलन को यह जानकर संतोष हुआ कि प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के अन्य निर्णयों के बारे में भी ठोस कदम उठाए गए हैं, जिनमें विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना का निर्णय भी शामिल है।
  • सम्मेलन में भारत में समाचार पत्रों के संकलन के बारे में निर्गुट देशों के उस सम्मेलन का भी स्वागत किया गया, जिसमें सभी संवाद-सामग्री का एक 'पूल' बनाने का निर्णय लिया गया। सम्मेलन की धारणा है कि जन-संचार के अन्य सभी साधनों, जैसे- रेडियो, टेलिविजन, फिल्म तथा अन्य प्रकार के वैज्ञानिक उपकरणों का हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उपयोग किया जाए, ताकि वह 'एक विश्व एक परिवार' की उदात्त भावना का प्रचार कर सके।
  • सम्मेलन की धारणा है कि मारिशस, भारत, फ़िजी, त्रिनिडाड, गुयाना जैसे अन्य देशों में वहाँ की स्वैच्छिक संस्थाओं ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है और यह माना गया है कि इन सभी संस्थाओं को उन देशों की सरकारों तथा जनता से सहायता मिलनी चाहिए। मारिशस और भारत जैसे देशों में तो हिन्दी का अभियान राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना के आंदोलन से ही जुड़ा रहा है, लेकिन इन देशों की संस्थाओं ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अपना हिन्दी प्रचार-कार्य जारी रखा है।
  • सम्मेलन ने विश्व के अनेक देशों में हिन्दी के पठन-पाठन संबंधी समस्याओं पर भी विचार किया और इसमें पाठ्य पुस्तकों, वैज्ञानिक उपकरणों तथा अन्य बातों के अभाव में किन प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इस पर भी विचार किया। इन कठिनाइयों को दूर करने का अवश्य ही प्रयत्न होना चाहिए। साथ ही साथ यह भी विचार प्रकट किया गया कि क्षेत्र के विशेषज्ञों को विशिष्ट गोष्ठियों का आयोजन कर इन समस्याओं के बारे में व्यावहारिक सुझाव और समाधान प्रस्तुत करने चाहिए। विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसे विशाल मंच पर तो इन समस्याओं का निर्देश मात्र दिया जा सकता है।
  • द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन मारिशस में हुआ है, इस बात पर सभी प्रतिनिधियों ने अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और उसका मुक्त कंठ से अभिनंदन किया। सम्मेलन जिस कुशलता के साथ संचालित हुआ, उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। अनेक प्रतिनिधियों ने यह इच्छा व्यक्त की कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सम्मेलन की गतिविधियों को आगे बढ़ाने की दृष्टि से किसी संगठन का विचार किया जाए। एक विशेष सुझाव दिया गया कि मारिशस में ही एक विश्व हिन्दी केंद्र की स्थापना की जाए, जो सारे विश्व की हिन्दी गतिविधियों का समन्वय कर सके और एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन हो, जो भाषा के माध्यम से ऐसे समुचित वातावरण का निर्माण कर सके, जिसमें मानव विश्व का नागरिक बनकर रहे और विज्ञान और अध्यात्म की महान् शक्ति एक नए समन्वित सामंजस्य का रूप ले सके। सम्मेलन के विचार में यह उचित होगा कि इस कार्य के नेतृत्व के लिए मारिशस के प्रधानमंत्री डॉ. शिवसागर रामगुलाम जी से ही निवेदन किया जाए, जो द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन की राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष हैं और जिनका सुयोग्य, अनुभवी एवं प्रज्ञायुक्त मार्ग दर्शन इसके लिए परम उपयोगी होगा।
  • द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने वाले सभी प्रतिनिधि और पर्यवेक्षकों का यह अभिमत रहा है कि यह सम्मेलन मात्र हिन्दी के इतिहास में ही नहीं, वरन् मानवता की निरंतर यात्रा में भी एक युगांतकारी घटना है। इसलिए यह सम्मेलन विश्व के उन समस्त स्त्री-पुरुषों की ओर स्नेह और मैत्री का हाथ बढ़ाता है, जो ऐसे ही महान् आदर्शों के लिए काम कर रहे हैं। सम्मेलन में यह सुदृढ़ धारणा प्रकट की गई कि तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन होने तक की अवधि तक हिन्दी राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में आदर्श प्रगति कर लेगी।


इन निर्णयों के क्रियान्वयन के लिए जहाँ तक भारत सरकार का संबंध है, पिछले 7 वर्षों से निरंतर प्रयास चलता रहा है। इसके लिए राजभाषा विभाग में संबंधित मंत्रालयों तथा संस्थाओं के वरिष्ठ अधिकारियों की 9 बैठकें बुलाई गईं तथा उनसे विचार-विमर्श करके कार्रवाई कराई गई। इसके निर्णयों के क्रियान्वयन पर विचार करने के लिए सबसे पहली बैठक राजभाषा विभाग के सचिव एवं भारत सरकार के तत्कालीन हिन्दी सलाहकार श्री रमा प्रसन्न नायक की अध्यक्षता में 9-12-1976 को बुलाई गई थी। इस बैठक में निम्नलिखित अधिकारी एवं विद्वान् उपस्थित थे-

  1. श्री सुधाकर द्विवेदी, संयुक्त सचिव, राजभाषा विभाग।
  2. श्री सनत कुमार चतुर्वेदी, निदेशक (भाषा), शिक्षा मंत्रालय।
  3. डॉ. हरवंशलाल शर्मा, निदेशक, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय।
  4. डॉ. गोपाल शर्मा, निदेशक, केंद्रीय हिन्दी संस्थान।
  5. श्री वे. आंजनेय शर्मा, सचिव, अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ, नई दिल्ली।
  6. डॉ. आर.एन. श्रीवास्तव, अध्यक्ष, भाषा विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
  7. श्री केवलकृष्ण सेठी, उपसचिव (भाषा), शिक्षा मंत्रालय।
  8. श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी उपसचिव, सूचना और प्रसारण मंत्रालय।
  9. श्री बी.पी. सिन्हा, विशेषाधिकारी, हिन्दी, विदेश मंत्रालय।
  10. श्री हरिबाबू कंसल, उपसचिव, राजभाषा विभाग।
  11. श्री आर.पी.एम. त्रिपाठी, उपसचिव, राजभाषा विभाग तथा
  12. श्री राजमणि तिवारी, वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी, राजभाषा विभाग। इन अधिकारियों में से अधिकांश द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के कार्यक्रमों में उपस्थित थे।
  • इस बैठक में मुख्य रूप से निम्नलिखित विषयों पर चर्चा हुई-
हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिए क्रमबद्ध कार्यक्रम बनाना-

बैठक में यह विचार व्यक्त किया गया कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए यह ज़रूरी है कि पहले हमारे सभी बड़े-बड़े दूतावासों में हिन्दी का अच्छा प्रचार हो और वहाँ हिन्दी में कार्य भी किया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि बड़े-बड़े दूतावासों में तथा उन देशों में, जहाँ भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में निवास करते हैं, हिन्दी अधिकारी, हिन्द अनुवादक, हिन्दी टाइपराइटर, हिन्दी पुस्तकालय तथा हिन्दी में कार्य करने से संबंधित सभी उपकरण और सुविधाएँ सुलभ कराई जाएँ। इस संबंध में विदेश मंत्रालय द्वारा तत्परतापूर्वक कार्रवाई की जाए और हिन्दी के प्रयोग के लिए ठोस आधार भूमि तैयार की जाए। इसके अतिरिक्त यदि दूतावासों में काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों के लिए अब तक हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था नहीं हुई तो उन्हें शीघ्र हिन्दी पढ़ाने की व्यवस्था की जाए। बैठक में यह विचार भी व्यक्त किया गया कि विदेश मंत्री जी द्वारा केंद्रीय हिन्दी समिति की 26 मई, 1976 की बैठक में दिए गए उस आश्वासन के संदर्भ में कि जो सदस्य राष्ट्रसंघ की महासभा की बैठकों में हिन्दी में भाषण करेंगे, उनके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ में स्थित हमारे कार्यालय द्वारा अनुवाद देने की व्यवस्था की जाएगी, अनुवर्ती कार्रवाई की जाए।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो, टेलीविजन, फिल्म तथा अन्य वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करना-

इस विषय के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रतिनिधि श्री रमेशचंद्र त्रिपाठी ने बताया कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए रेडियो और टेलीविजन द्वारा आवश्यक कार्रवाई की जा रही है और भविष्य में इस कार्य को और अधिक तेज किया जाएगा। बैठक में सुझाव दिया गया कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार का दिग्दर्शन कराते हुए एक फिल्म तैयार की जाए और उसका उपयोग देखने के बाद इस विषय पर भविष्य में और फिल्में बनाने की व्यवस्था की जाए।

हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं को पर्याप्त सरकारी सहायता प्रदान करना-

शिक्षा मंत्रालय के राजभाषा निदेशक श्री सनत कुमार चतुर्वेदी ने बताया कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए स्वैच्छिक संस्थाओं को पर्याप्त सरकारी सहायता दी जा रही है और ज़रूरत पड़ने पर इसमें और वृद्धि की जाएगी।

हिन्दी की पठन-पाठन संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए पाठ्य पुस्तकों और वैज्ञानिक उपकरणों आदि का प्रयोग-

श्री चतुर्वेदी ने सूचित किया कि हिन्दी की पठन-पाठन संबंधी समस्याओं पर शिक्षा मंत्रालय की तरफ़ से कार्रवाई की जा रही है और शीघ्र एक बैठक बुलाई जायेगी, जिसमें इस समस्या के सभी पहलुओं पर विचार किया जायेगा।

मारिशस में विश्व हिन्दी केंद्र की स्थापना-

इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया और यह सुझाव दिया गया कि मारिशस में तो विश्व हिन्दी केंद्र की स्थापना की ही जाए, साथ ही विश्व के अन्य भागों में भी, जहाँ हिन्दी भाषी लोग रहते हैं अथवा जहाँ भारतीय मूल के लोग अधिक संख्या में निवास करते हैं, वहाँ पर चार-पांच विश्व हिन्दी केंद्र और खोले जाएं।

मारिशस से विश्व हिन्दी पत्रिका के प्रकाशन पर विचार-

विदेश मंत्रालय के प्रतिनिधि श्री बी.पी. सिन्हा ने बताया कि मारिशस सरकार ने विश्व हिन्दी पत्रिका के प्रकाशन का भारत महात्मा गांधी संस्थान के अध्यक्ष डॉ. के. हजारीसिंह को सौंप दिया है, जो इस संबंध में कार्रवाई कर रहे हैं और वे शीघ्र ही भारत आकर उसकी रूपरेखा को अंतिम रूप देंगे। राजभाषा विभाग के सचिव ने विचार प्रकट किया कि पत्रिका के विषयों, स्तंभों तथा अन्य प्रमुख मदों के संबंध में जो रूपरेखा बनाई जाए, उसके संबंध में यदि राजभाषा विभाग से भी परामर्श कर लिया जाए तो अच्छा हो।

हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में मारिशस के हिन्दी साहित्य का समावेश करना-

बैठक में सूचना दी गई कि हिन्दी निदेशालय में इस कार्य के लिए समिति बनाई गई है, जो इस विषय पर विचार कर रही है। उपस्थित अधिकारियों ने विचार प्रकट किया कि हिन्दी निदेशालय को इस संबंध में शीघ्र कार्रवाई करनी चाहिए और स्वैच्छिक संस्थाओं की परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों में विकल्प के रूप में मारिशस, फ़िजी आदि देशों के हिन्दी साहित्यकारों की रचनाएँ तथा पुस्तकें भी शामिल करनी चाहिए।
उपर्युक्त विषयों तथा इनसे उत्पन्न होने वाले अन्य संबंधित विषयों पर कार्रवाई कराने तथा की जा रही कार्रवाई की समीक्षा करने के लिए राजभाषा विभाग में समय-समय पर संबंधित मंत्रालयों/विभागों/कार्यालयों के वरिष्ठ अधिकारियों एवं प्रतिनिधियों की कई बैठकें बुलाई गईं, जिनमें संबंधित संस्थाओं के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया। इस प्रकार की अंतिम 2 बैठकें राजभाषा विभाग के सचिव श्री जयनारायण तिवारी की अध्यक्षता में क्रमश: 15-08-81 को बुलाई गई। इन बैठकों में भाग लेने वाले अधिकारियों एवं संस्थाओं के प्रतिनिधियों में निम्नलिखित के नाम उल्लेखनीय हैं-

  1. श्री एच.वी. गोस्वामी, संयुक्त सचिव, राजभाषा विभाग,
  2. श्री राजकृष्ण बंसल, उपसचिव एवं
  3. श्री देवेंद्रचरण मिश्र, निदेशक (राजभाषा विभाग),
  4. श्री बी.पी. सिन्हा, विशेषाधिकारी हिन्दी, विदेश मंत्रालय,
  5. श्री के.के. खुल्लर, उपसचिव शिक्षा मंत्रालय,
  6. श्रीमती कांति देव, अवर सचिव, सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय,
  7. डॉ. रणवीर रांग्रा, निदेशक, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय,
  8. श्री आर.पी. मालवीय, निदेशक, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो,
  9. श्री राजनारायण बिसारिया, उपनिदेशक, कार्यक्रम, दूरदर्शन केंद्र, नई दिल्ली,
  10. डॉ. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली,
  11. श्री शंकरदेव लोंढे, प्रतिनिधि विश्व हिन्दी विद्यापीठ,
  12. डॉ. कैलाश वाजपेयी, विश्व हिन्दी प्रतिष्ठान,
  13. श्री जगदीश प्रसाद शर्मा, अखिल भारतीय हिन्दी संस्था संघ, नई दिल्ली तथा
  14. राजमणि तिवारी, वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी, राजभाषा विभाग।


हिन्दी को संयुक्त राष्ट्रसंघ की एक आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिए विदेश मंत्रालय ने कई उपाय किए हैं। उसने इस विषय में अन्य देशों के प्रतिनिधि मंडलों के साथ औपचारिक परामर्श किया है और संयुक्त राष्ट्रसंघ में महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों का अनुवाद सुलभ कराने के लिए सभी संभावनाओं का पता लगाया है। साथ ही संयुक्त राष्ट्रसंघ की सहायता से कुछ महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों का हिन्दी में अनुवाद भी करवा लिया है। अन्य ऐसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों और प्रकाशनों की सूची भी तैयार की गई है, जो अनुवाद और प्रकाशन की दृष्टि से उपयोगी समझी गई है। इन दस्तावेजों के अनुवाद और प्रकाशन की दृष्टि से उपयोगी समझी गई है। इन दस्तावेजों के अनुवाद, प्रकाशन तथा वितरण की लागत और अन्य संबंधित विषयों के बारे में संयुक्त राष्ट्रसंघ से विचार-विमर्श किया जा रहा है।

विदेश स्थित 142 भारतीय मिशनों में हिन्दी के कार्य की गति तेज की जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में इन मिशनों को 108 हिन्दी टाइपराइटर भेजे गये हैं। आशा है, निकट भविष्य में अन्य मिशनों में भी एक-एक हिन्दी टाइपराइटर भेज दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त मिशनों में एक-एक हिन्दी टाइपिस्ट और हिन्दी आशुलिपिक उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था की जा रही है। ऐसे देशों में, जहाँ हिन्दी जानने वाले लोगों की संख्या अधिक है, जैसे मारिशस, फ़िजी, गुयाना आदि में हिन्दी अधिकारी भी नियुक्त किये गए हैं। अन्य कुछ प्रमुख देशों में भी हिन्दी अधिकारियों की नियुक्ति पर विचार किया जा रहा है।

शिक्षा मंत्रालय द्वारा विदेशों में हिन्दी के प्रचार के लिए सक्रिय रूप से कार्रवाई की जा रही है। इन देशों में दक्षिण-पूर्वी एशिया, इंग्लैंड, अमरीका, रूस, फ़्रांस, पश्चिमी जर्मनी और जापान आदि देश शामिल हैं। इन देशों में हिन्दी लेखन, हिन्दी प्रशिक्षण, हिन्दी पुस्तकालयों की स्थापना इत्यादि में सहायता देने के लिए विशेष प्रबंध किये गए हैं। इसके अतिरिक्त केंद्रीय हिन्दी संस्थान, दिल्ली में विदेशियों को हिन्दी का शिक्षण देने के लिए लगभग 50 छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं। इसके लिए विदेश स्थित भारतीय दूतावासों, मिशनों से प्रार्थनापत्र मंगाये जाते हैं। चुने गए विद्वानों को 500 रुपये प्रतिमास छात्रवृत्ति दी जाती है और उन्हें अपने देश से भारत (दिल्ली) आने तथा यहाँ से वापस जाने के लिए हवाई जहाज़ का किराया भी दिया जाता है।

शिक्षा मंत्रालय ने सूरीनाम, त्रिनिदाद तथा गुयाना में एक एक हिन्दी प्राध्यापक की व्यवस्था की है। इसी प्रकार श्रीलंका के लिए दो अंशकालिक अध्यापकों का प्रबंध किया गया है। इन अध्यापकों का चुनाव और नियुक्ति भारतीय संस्कृति संबंध परिषद द्वारा की जाती है और उनके वेतन तथा भत्तों पर होने वाला व्यय शिक्षा मंत्रालय वहन करता है। सांस्कृतिक विनिमय कार्यक्रम के अंतर्गत हिन्दी भाषा और साहित्य के विभिन्न पक्षों पर व्याख्यान देने के लिए विश्व के भिन्न-भिन्न देशों में हिन्दी के विद्वानों को भी भेजा जाता है।

विदेशों में रहने वाले हिन्दी पाठकों तथा भारतीय मूल के लोगों को पुस्तकालय की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए विदेश स्थित भारतीय दूतावासों एवं मिशनों को हिन्दी की पर्याप्त पुस्तकें भेजी गई हैं। काठमांडू स्थित भारतीय दूतावास के हिन्दी पुस्तकालय के लिए एक पुस्तकालयाध्यक्ष का भी प्रबंध किया गया है। विदेशों में हिन्दी कक्षाएँ प्रारंभ करने के लिए पाठ्य पुस्तकें भी भेजी गई हैं।
पिछले 7 वर्षों में अकेले मारिशस को दो लाख रुपये से अधिक मूल्य की हिन्दी पुस्तकें भेजी गई हैं। इसी प्रकार अन्य देशों के लिए प्रतिवर्ष 2 लाख से अधिक मूल्य की पुस्तकें भेजी जाती हैं। मारिशस, फ़िजी और श्रीलंका में हिन्दी के प्रचार का कार्य करने वाली स्वैच्छिक संस्थाओं के उपयोग के लिए हिन्दी टाइपराइटर भी भेजे गए हैं। फ़िजी के हिन्दी भाषी लोगों के बच्चों को हिन्दी प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध कराने की दृष्टि से राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद की सहायता से हिन्दी पाठ्य पुस्तकों की छपाई की एक योजना बनाई जा रही है, जिस पर ढाई लाख रुपये का अनुमान है।

द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय के विभिन्न माध्यमों ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार की दिशा में कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिनका विवरण इस प्रकार से हैं-

  1. गीत और नाटक प्रभाग ने हिन्दी गीत तथा नाटक और हिन्दी में प्रस्तुत किए जाने वाले अन्य कार्यक्रम पहले से लगभग डेढ़ गुना अधिक कर दिए हैं।
  2. पत्र सूचना कार्यालय ने प्रेस रिलीजों में हिन्दी के प्रयोग को बढ़ावा देने की दृष्टि से ग्रामीण पत्र सेवा, यूनेस्को फ़ीचर सेवा, कृषि पत्रिका सेवा और विशेष सेवा प्रारम्भ की है।
  3. विज्ञापन और दृश्य प्रसार निदेशालय ने द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के पहले विभिन्न हिन्दी समाचार पत्रों को लगभग 6,500 विज्ञापन दिए थे। किंतु वर्ष 1976-77, 77-78, 78-79, 79-80, 80-81 एवं 81-82 में हिन्दी समाचार पत्रों को क्रमश: 10,668, 9,454, 13,127, 12,351 और 12,333 विज्ञापन दिए गए हैं।
  4. आकाशवाणी के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में स्थित केंद्रों द्वारा हिन्दी पढ़ाने के कार्यक्रम पर विशेष जोर दिया गया है और अब लगभग 20 अहिन्दी भाषी केंद्रों में पाठ प्रसारित किए जाते हैं।
  5. दूरदर्शन के प्रसारणों में हिन्दी को उच्च स्थान दिया जाता है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में स्थित दूरदर्शन केंद्रों द्वारा अधिकांश कार्यक्रम हिन्दी में ही दिए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में स्थित केंद्रों से भी प्रचुर मात्रा में हिन्दी के कार्यक्रम प्रसारित किए जा रहे हैं।
  6. फिल्म विभाग ने द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद मूल रूप से हिन्दी में पहले की अपेक्षा अधिक डाकूमेंट्री फिल्में बनाई हैं। जो फिल्में मूल रूप से हिन्दी में नहीं बनाई जातीं, उनका भी हिन्दी में रूपांतर तैयार किया जाता है। इनकी संख्या में भी पहले की अपेक्षा वृद्धि हुई है।
  7. फिल्मों के माध्यम से हिन्दी प्रचार-प्रसार करने के लिए भी सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय को समय-समय पर प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं, किंतु अभी इसे व्यावहारिक नहीं पाया गया है।


हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाओं को बहुत पहले से सरकारी सहायता दी जा रही है। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के पश्चात् इन्हें सहायता देने पर अधिक ध्यान दिया गया है और ऐसी प्राय: सभी संस्थाओं को, जो अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार, प्रशिक्षण तथा पुस्तकालयों के संचालन का कार्य कर रही हैं, शिक्षा मंत्रालय की तरफ़ से आर्थिक सहायता दी जा रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में स्थित ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों और स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को भी, जो हिन्दी और नागरी लिपि के विभिन्न पक्षों के विकास में लगी हुई हैं, उन्हें भी आर्थिक सहायता दी जाती है।
इन स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं द्वारा पढ़ाए जाने वाले हिन्दी पाठ्यक्रमों में विदेशों में लिखे गए हिन्दी साहित्य को शामिल करने का प्रयास किया गया है। प्राप्त सूचना के अनुसार हिन्दी विद्यापीठ, देवधर, बिहार ने अपने पाठ्यक्रम में ऐसी 14 पुस्तकों को नियोजित करने का निश्चय किया है। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने मारिशस के 3 लेखकों की 4 पुस्तकों को अपने पाठ्यक्रम का अंग बनाने का निर्णय किया है। राष्ट्रभाषा परिषद, उड़ीसा ने एक पुस्तक को अपने पाठ्यक्रम में स्थान दिया है। हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, बंबई, मार्च, 1981 से एक पुस्तक को अपने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर चुकी है। मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद, बंगलौर की शिक्षा समिति ने भी अपने पाठ्यक्रम में तीन पुस्तकों को स्थान देने का निश्चय किया है। हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद तथा कर्नाटक हिन्दी महिला सेवा समिति, बंगलौर 1982 से अपने पाठ्यक्रमों में विदेश लेखकों की रचनाओं को शामिल कर रहे हैं। इसी प्रकार महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे तथा बंबई हिन्दी विद्यापीठ, बंबई ने भी ऐसी पुस्तकों को अपने पाठ्यक्रमों में शामिल करने का निश्चय किया है।

इस प्रकार अब विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य को भी हिन्दी के पाठ्यक्रमों में शामिल करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। राजभाषा विभाग के सुझाव पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रयोजनमूलक हिन्दी का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम तैयार किया जा रहा है। इस संबंध में एक बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें 47 विश्वविद्यालयों के भाषा विभागों के अध्यक्षों तथा कुलपतियों ने भाग लिया था। आयोग द्वारा इस कार्य के लिए एक उपसमिति भी बनाई गई है, जो इस विषय में आगे की कार्रवाई के संबंध में अपने सुझाव देगी।

चिकित्सा, कृषि, इंजीनियरी आदि विषयों और व्यावसायिक क्षेत्रों में शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी को अपनाए जाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। इस विषय में शिक्षा मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालय केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा कार्रवाई की जा रही है। इन विषयों में बहुत-सी मौलिक और अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं और उनके प्रचार के लिए विश्वविद्यालयों में शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाए जाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। इन विषयों से संबंधित मंत्रालय भी इनके बारे में पुस्तकें लिखवाने के संबंध में कार्रवाई कर रहे हैं। इसी प्रकार विधि, न्याय और कंपनी कार्य मंत्रालय की तरफ़ से विधि क्षेत्र की श्रेष्ठ पुस्तकों का अनुवाद कराया जा रहा है तथा मौलिक ग्रंथ भी लिखवाए जा रहे हैं। इस मंत्रालय ने मौलिक ग्रंथों पर पुरस्कार देने की भी योजना बनाई है, ताकि ऐसे लेखकों को प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त हो सके।

राजभाषा विभाग तथा अन्य मंत्रालयों की तरफ़ से यांत्रिक उपकरणों की सहायता से हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने के उपाए किए जा रहे हैं। इस दृष्टि से देवनागरी लिपि के टाइपराइटरों की व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य यांत्रिक साधनों, जैसे टेलीप्रिंटर, कम्प्यूटर, पता लेखी मशीनों, बिजली से चलने वाले टाइपराइटर, इलेक्ट्रानिक टेलीप्रिंटर, पिनप्वाइंट टाइपराइटर आदि के निर्माण के लिए संबंधित मंत्रालयों और निर्माता कंपनियों के सहयोग से कार्रवाई कराई जा रही है।

इस वितरण से ज्ञात होगा कि द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन के पश्चात् भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों/विभागों एवं स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं की तरफ़ से उसमें लिए गए निर्णयों को क्रियान्वित करने के लिए भरपूर प्रयास किये किए हैं। इस संबंध में आयोजित की गई बैठकों में तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन के संबंध में भी निरंतर विचार-विमर्श होता रहा है, जिसके परिणामस्वरूप अब तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन भी किया जा रहा है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
1. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. कर्ण राजशेषगिरि राव
2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
3. हिन्दी साहित्य और सामासिक संस्कृति डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर
4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
8. भारतीय व्यक्तित्व के संश्लेष की भाषा डॉ. रघुवंश
9. देश की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी का योगदान डॉ. राजकिशोर पांडेय
10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
11. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति के तत्त्व डॉ. शिवनंदन प्रसाद
12. हिन्दी:सामासिक संस्कृति की संवाहिका श्री शिवसागर मिश्र
13. भारत की सामासिक संस्कृृति और हिन्दी का विकास डॉ. हरदेव बाहरी
हिन्दी का विकासशील स्वरूप
14. हिन्दी का विकासशील स्वरूप डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित
15. हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान डॉ. उदयनारायण तिवारी
16. हिन्दी का विकासशील स्वरूप (शब्दावली के संदर्भ में) डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया
17. मानक भाषा की संकल्पना और हिन्दी डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी
18. राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास, महत्त्व तथा प्रकाश की दिशाएँ श्री जयनारायण तिवारी
19. सांस्कृतिक भाषा के रूप में हिन्दी का विकास डॉ. त्रिलोचन पांडेय
20. हिन्दी का सरलीकरण आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा
21. प्रशासनिक हिन्दी का विकास डॉ. नारायणदत्त पालीवाल
22. जन की विकासशील भाषा हिन्दी श्री भागवत झा आज़ाद
23. भारत की भाषिक एकता: परंपरा और हिन्दी प्रो. माणिक गोविंद चतुर्वेदी
24. हिन्दी भाषा और राष्ट्रीय एकीकरण प्रो. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव
25. हिन्दी की संवैधानिक स्थिति और उसका विकासशील स्वरूप प्रो. विजयेन्द्र स्नातक
देवनागरी लिपि की भूमिका
26. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी श्री जीवन नायक
27. देवनागरी प्रो. देवीशंकर द्विवेदी
28. हिन्दी में लेखन संबंधी एकरूपता की समस्या प्रो. प. बा. जैन
29. देवनागरी लिपि की भूमिका डॉ. बाबूराम सक्सेना
30. देवनागरी लिपि (कश्मीरी भाषा के संदर्भ में) डॉ. मोहनलाल सर
31. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि पं. रामेश्वरदयाल दुबे
विदेशों में हिन्दी
32. विश्व की हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ डॉ. कामता कमलेश
33. विदेशों में हिन्दी:प्रचार-प्रसार और स्थिति के कुछ पहलू प्रो. प्रेमस्वरूप गुप्त
34. हिन्दी का एक अपनाया-सा क्षेत्र: संयुक्त राज्य डॉ. आर. एस. मेग्रेगर
35. हिन्दी भाषा की भूमिका : विश्व के संदर्भ में श्री राजेन्द्र अवस्थी
36. मारिशस का हिन्दी साहित्य डॉ. लता
37. हिन्दी की भावी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा
38. अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद
39. नेपाल में हिन्दी और हिन्दी साहित्य श्री सूर्यनाथ गोप
विविधा
40. तुलनात्मक भारतीय साहित्य एवं पद्धति विज्ञान का प्रश्न डॉ. इंद्रनाथ चौधुरी
41. भारत की भाषा समस्या और हिन्दी डॉ. कुमार विमल
42. भारत की राजभाषा नीति श्री कृष्णकुमार श्रीवास्तव
43. विदेश दूरसंचार सेवा श्री के.सी. कटियार
44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे