परमानंद दास

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परमानंद दास
परमानंद दास
पूरा नाम परमानंद दास
जन्म संवत 1550 विक्रमी (1493 ई.)
जन्म भूमि कन्नौज, उत्तर प्रदेश
मृत्यु संवत 1641 विक्रमी (1584 ई.)
मृत्यु स्थान सुरभीकुण्ड, गोवर्धन
कर्म भूमि मथुरा
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि अष्टछाप के कवि, भगवान की लीला के मर्मज्ञ, अनुभवी कवि और कीर्तनकार।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख अष्टछाप कवि, वल्लभाचार्य, श्रीकृष्ण, गोवर्धन, गोकुल
अन्य जानकारी परमानंद दास युवावस्था में ही अच्छे कवि और कीर्तनकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे। लोग उन्हें "परमानंद स्वामी" कहते थे। 26 वर्ष की अवस्था तक वे कन्नौज में रहे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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परमानंद दास वल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। वे भगवान की लीला के मर्मज्ञ, अनुभवी कवि और कीर्तनकार थे। उन्होंने आजीवन भगवान की लीला गायी। श्रीवल्लभाचार्य जी की उन पर बड़ी कृपा रहती थी। वे उनका बड़ा सम्मान करते थे। उनका पद संग्रह ‘परमानंदसागर’ के नाम से विख्या‍त है। उनकी रचनाएं अत्यन्त सरस और भावपूर्ण हैं। लीलागायक कवियों में उन्हें गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।

परिचय

परमानंद दास जी का जन्म संवत 1550 विक्रमी (1493 ई.) में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी को हुआ था। वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे और कन्नौज, उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे। जिस दिन वे पैदा हुए, उसी दिन एक धनी व्यक्ति ने उनके पिता को बहुत-सा धन दिया। दान के फलस्वरूप घर में परमानंद छा गया। पिता ने बालक का नाम परमानंद रखा। उनकी बाल्यावस्था सुखपूर्वक व्यतीत हुई। बचपन से ही उनके स्वभाव में त्याग और उदारता का बाहुल्य‍ था। उनके पिता साधारण श्रेणी के व्यक्ति थे। दान आदि से ही जीविका चलाते थे।

आर्थिक कठिनाईयाँ

एक समय कन्नौज में अकाल पड़ा। हाकिम ने दण्डरूप में उनके पिता का सारा धन छीन लिया। वे कंगाल हो गये। परमानंद पूर्णरूप से युवा हो चुके थे। अभी तक उनका विवाह नहीं हुआ था। पिता को सदा उनके विवाह की चिन्ता बनी रहती थी और परमानंद उनसे कहा करते थे कि- "आप मेरे विवाह की चिन्ता न करें, मुझे विवाह ही नहीं करना है। जो कुछ आय हो, उससे परिवार वालों का पालन करें, साधु-सेवा और अतिथि-सत्कार करें।" किन्तु पिता को तो द्रव्योपार्जन की सनक थी, वे घर से निकल पड़े। देश-विदेश में घूमने लगे।

कवि और कीर्तनकार

पिता के जाने के बाद परमानंद भगवान के गुण-कीर्तन, लीला-गान और साधु-समागम में अपने दिन बिताने लगे। वे युवावस्था में ही अच्छे कवि और कीर्तनकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये। लोग उन्हें "परमानंद स्वामी" कहने लगे थे। 26 वर्ष की अवस्था तक वे कन्नौज में रहे। उसके बाद वे प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) चले आये। स्वामी परमानंद की कुटी में अनेकानेक साधु-संत सत्संग के लिये आने लगे। उनकी विरक्ति बढ़ती गयी और काव्य तथा संगीत में वे पूर्णरूप से निपुण हो गये।

रात्रि जागरण व कीर्तन

स्‍वामी परमानन्‍द एकादशी की रात्रि को जागरण करते थे। भगवान की लीलाओं का कीर्तन करते थे। प्रयाग में भगवती कालिन्‍दी के दूसरे तट पर दिग्विजयी महाप्रभु वल्लभाचार्य का अड़ैल में निवास स्‍थान था। उनका जलघरिया कपूर परमानन्‍द स्‍वामी के जागरण उत्‍सव में सम्मिलित हुआ करता था। एक दिन एकादशी की रात को स्‍वामी परमानन्‍द कीर्तन कर रहे थे। कपूर चल पड़ा, यमुना में नाव नहीं थी। वह तैरकर इस पार आ गया। परमानन्‍द स्‍वामी ने देखा कि उसकी गोद में एक श्‍याम वर्ण का शिशु बैठा है। उसके सिर पर मयूरपिच्‍छका मुकुट है, नयन कमल के समान प्रफुल्लित हैं, अधरों पर अमृत की ज्‍योत्‍स्‍ना लहरा रही है, गले में वनमाला है, पीताम्‍बर में उसका शरीर अत्‍यन्‍त मनमोहक-सा लग रहा है। परमानन्‍द के दिव्‍य संस्‍कार जाग उठे। उन्‍हें पूर्ण विश्‍वास हो गया कि भक्त की माधुर्यमयी गोद में भगवान श्‍यामसुन्‍दर ही उनका कीर्तन सुन रहे हैं। उत्‍सव समाप्‍त हो गया। स्‍वप्‍न में उन्‍हें श्रीवल्‍लभाचार्य के दर्शन की प्रेरणा मिली। वे दूसरे दिन उनसे मिलने के लिये चल पड़े। आचार्यप्रवर ने उनसे भगवान का यश वर्णन करने को कहा। परमानंद जी ने विरह का पद गाया-

जिय की साध जु जियहिं रही री।
बहुरि गुपाल देखि नहिं पाए बिलपत कुंज अहीरी।।
इक दिन सो जु सखी यहि मारग बेचन जात दही री।
प्रीति के‍ लिएँ दान‍ मिस मोहन मेरी बाँह गही री।।
बिनु देखैं छिनु जात कलप सम बिरहा अनल दही री।
परमानंद स्‍वामी बिनु दरसन नैनन नदी बही री।।

उन्होंने आचार्य को बाललीला के अनेक पद सुनाये। आचार्य ने उन्हें ब्रह्म-सम्बन्ध दिया। परमानंद स्वामी से 'दास' बन गये।

'अष्टछाप' के कवि

संवत 1582 विक्रमी में परमानंददास महाप्रभु जी के साथ ब्रज गये। उन्होंने इस यात्रा में आचार्य को अपने पूर्व निवास स्थान कन्नौज में ठहराया था। आचार्य उनके मुख से "हरि तेरी लीला की सुधि आवै।" पद सुनकर तीन दिनों तक मूर्च्छित रहे। वे आचार्यप्रवर के साथ सर्वप्रथम गोकुल आये। कुछ दिन रहकर वे उन्हीं के साथ वहां से गोवर्धन चले आये। वे सदा के लिये गोवर्धन में ही रह गये। सुरभीकुण्ड पर श्यामतमाल वृक्ष के नीचे उन्होंने अपना स्थायी निवास स्थिर किया। वे नित्य श्रीनाथ जी का दर्शन करने जाते थे। कभी-कभी नवनीतप्रिय के दर्शन के लिये गोकुल भी जाया करते थे। संवत 1602 विक्रमी में गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने उनको ‘अष्टकछाप’ में सम्मिलित कर लिया। वे उच्चकोटि के कवि और भक्त थे।

गोकुल आगमन

भगवान के लीलागान में उन्हें बड़ा रस मिलता था। एक बार विट्ठलनाथ जी के साथ 'कृष्ण जन्माष्टमी' को वे गोकुल आये। नवनीतप्रिय के सामने उन्होंने पद गान किया। वे पद गाते-गाते सुध-बुध भूल गये। ताल-स्वर का उन्हें कुछ भी पता नहीं रहा। उसी अवस्था में वे गोवर्धन लाये गये। मूर्च्छा समाप्त होने पर अपनी कुटी में आये, उन्होंने बोलना छोड़ दिया। गोसाईं जी ने उनके शरीर पर हाथ फेरा। परमानंददास ने नयनों में प्रेमाश्रु भरकर कहा कि- "प्रेमपात्र तो केवल नन्दनन्दन हैं। भक्त तो सुख और दु:ख दोनों में उन्हीं की कृपा के सहारे जीते रहते हैं।"

कृति - 'परमानंदसागर'।

गोलोक यात्रा

संवत 1641 विक्रमी में भाद्रपद कृष्ण नवमी को परमानंद दास ने गोलोक प्राप्त किया। वे उस समय सुरभीकुण्ड पर ही थे। मध्याह्न का समय था। गोसाईं विट्ठलनाथ उनके अन्त समय में उपस्थित थे। परमानंद का मन युगलस्वरूप की माधुरी में संलग्न था। उन्होंने गोसाईं जी के सामने निवेदन किया-

राधे बैठी तिलक संवारति।
मृगनैनी कुसुमायुध कर धरि नंद सुवन को रूप बिचारति।।
दर्पन हाथ सिंगार बनावति, बासर जुग सम टारति।
अंतर प्रीति स्यामसुंदर सों हरि संग केलि संभारति।।
बासर गत रजनी ब्रज आवत मिलत गोबर्धन प्यारी।
‘परमानंद’ स्वामी के संग मुदित भई ब्रजनारी।।


इस प्रकार श्रीराधा-कृष्ण की रूप-सुधा का चिन्तन करते हुए उन्होंने अपनी गोलोक यात्रा सम्पन्न की।

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