मुहम्मद

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मुहम्मद
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पूरा नाम अबू अल्‌-क़ासिम मुहम्मद इब्न अब्द अल्लाह इब्न अब्द अल्‌-मुत्तलिब इब्न हाशिम इब्न अब्द मनाफ़ इब्न क़ुसइ इब्न किलाब
अन्य नाम हज़रत मुहम्मद
जन्म 570 ई.
जन्म भूमि मक्का, अरब
मृत्यु 632 ई.
मृत्यु स्थान मदीना, अरब
अभिभावक अब्द अल्ह इब्न अब्द अल मुतल्लिब (अब्दुल्लाह) और आमना (अमीना बिन बहाब)
पति/पत्नी ख़दीजा, आयशा, हफ़सा, सौदा, 'उम्म सल्मा, ज़ैनब, उम्म हबीबी, जुवेरिया, रमलाह, रिहाना, मारिया, मैमूना, सफ़िया (13 पत्नियाँ)
संतान पुत्र: अल-क़ासिम, अब्द अल्लाह, इब्राहिम
पुत्री: फ़ातिमा, ज़ैनब बिन मुहम्मद, उम्म बिन मुहम्मद, रुक़या बिन मुहम्मद
प्रसिद्धि इस्लाम धर्म के सबसे महान् नबी और आखिरी पैग़म्बर माने जाते हैं।

हज़रत मुहम्मद साहब (जन्म- 570 ई., मक्का, अरब; मृत्यु- 632 ई., मदीना) अरब के एक प्रसिद्ध धर्माचार्य और इस्लाम के प्रवर्तक थे। क़ुरआन ने कहीं भी हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को ‘इस्लाम धर्म का प्रवर्तक’ नहीं कहा है। क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का परिचय नबी (ईश्वरीय ज्ञान की ख़बर देने वाला), रसूल (मानवजाति की ओर भेजा गया), रहमतुल्-लिल-आलमीन (सारे संसारों के लिए रहमत व साक्षात् अनुकंपा, दया), हादी (सत्यपथ-प्रदर्शक) आदि शब्दों से कराया है। स्वयं पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने इस्लाम धर्म के ‘प्रवर्तक’ होने का न दावा किया, न इस रूप में अपना परिचय कराया।

इनका पूरा नाम 'अबू अल्‌-क़ासिम मुहम्मद इब्न अब्द अल्लाह इब्न अब्द अल्‌-मुत्तलिब इब्न हाशिम इब्न अब्द मनाफ़ इब्न क़ुसइ इब्न किलाब' था।

हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के एक कथन के अनुसार ‘इस्लाम के भव्य भवन में एक ईंट की कमी रह गई थी, ईशदूतत्त्व द्वारा वह कमी पूरी हो गई और इस्लाम अपने अन्तिम रूप में सम्पूर्ण हो गया’ (आपके कथन का भावार्थ।) इससे सिद्ध हुआ कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) इस्लाम धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। (इसका प्रवर्तक स्वयं अल्लाह है, न कि कोई भी पैग़म्बर, रसूल, नबी आदि)। और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने उसी इस्लाम का आह्वान किया जिसका, इतिहास के हर चरण में दूसरे रसूलों ने किया था। इस प्रकार इस्लाम का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानवजाति और उसके बीच नियुक्त होने वाले असंख्य रसूलों के सिलसिले (श्रृंखला) का इतिहास।[1]

जीवन परिचय

हज़रत मुहम्मद का जन्म मक्का में 570 ई. में हुआ और मृत्यु 632 ई. में मदीना नाम के नगर में हुई। वह अमीना के गर्भ से उत्पन्न अब्दुल्ला के पुत्र थे।[2] जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप मोहम्मद साहब का पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने ख़दीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछडी, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात् वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जिबरील का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात् उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 622 ई. को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किलोमीटर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में 'हिज़रत' कहलाती है। इसी दिन से 'हिजरी संवत' का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्तर में 630 ई. में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात् 632 ई. को उनका निधन हो गया।

जन्म

इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म 570 ई. को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। ऐसे अन्धकार के समय अरब के प्रधान नगर बक्का (मक्का) में अब्दुल्मतल्लब के पुत्र की भार्या 'आमना' के गर्भ से स्वनामधन्य महात्मा मुहम्मद 617 विक्रम संवत में उत्पन्न हुए। इनका वंश ‘हाशिम’ वंश के नाम से प्रसिद्ध था। जब यह गर्भ में थे तभी इनके पिता स्वर्गवासी हुए। माता और पितामह का बालक पर असाधारण स्नेह था। एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने वाले बद्दू लोगों की स्त्रियों को पालने के लिए अपने बच्चों को दे देना मक्का के नागरिकों की प्रथा थी। एक समय ‘साद’ वंश की एक बद्दू स्त्री ‘हलीमा’ मक्का में आई। उनको कोई और बच्चा नहीं मिला था जिससे जब धनहीन ‘आमना’ ने अपने पुत्र को सौपने को कहा, तो उसने यह समझ कर स्वीकार कर लिया कि ख़ाली हाथ जाने से जो ही कुछ पल्ले पड़ जाय, वही अच्छा। हलीमा ने एक मास के शिशु मुहम्मद को लेकर अपने डेरे को प्रस्थान किया। इस प्रकार बालक मुहम्मद 4 वर्ष तक बद्दू-गृह में पलता रहा। इसके बाद वह फिर अपनी स्नेहमयी माता की गोद में आया। एक समय सती ‘आमना’ ने कुटुम्बियों से भेंट करने के लिए बालक मुहम्मद के साथ अपने मायके ‘मदीना’ को प्रस्थान किया।

मौहतरमा आमना का स्वर्गारोहण

मदीना से लौटने पर मार्ग में ‘अव्बा’ नामक स्थान पर पितृछाया-विहीन बालक मुहम्मद को अमृततुल्य मातृ-करस्पर्श से भी वंचित कर देवी ‘आमना’ ने स्वर्गारोहण किया। बहू और पुत्र के वियोग से खिन्न पितामह ‘अब्दुल्मतल्लब’ ने वात्सल्यपूर्ण हृदय से पौत्र के पालन-पोषण का भार अपने ऊपर लिया, किन्तु भाग्य को यह भी स्वीकृत नहीं था और मुहम्मद को 8 वर्ष का छोड़कर वह भी काल के गाल में चले गये। मरते समय उन्होंने अपने पुत्र ‘अबूतालिब’ को बुला कर करुण स्वर में आदेश दिया कि मातृ-पितृ-विहीन वत्स मुहम्मद को पुत्र समान जानना।

महात्मा मुहम्मद ने ‘अबूतालिब’ को प्रेमपूर्ण अभिभावकता में कभी वन में ऊँट-बकरी चराते तथा कभी साथियों के साथ खेलते-कूदते अपने लड़कपन को सानन्द बिताया। जब वह 12 वर्ष के थे और उनके चाचा व्यापार के लिए बाहर जाने वाले थे, तब उन्होंने साथ चलने के लिए बहुत आग्रह किया। चाचा ने मार्ग के कष्ट का ख्याल कर इसे स्वीकार न किया। जब चाचा ऊँट लेकर घर से निकलने लगे, तो भतीजे ने ऊँट की नकेल पकड़ कर रोते हुए कहा- “चाचाजी, न मेरे पिता हैं, न माँ। मुझे अकेले छोड़ कर कहाँ जाते हो। मुझे भी साथ ले चलो।" इस बात से अबूतालिब का चित्त इतना द्रवित हुआ कि वह अस्वीकार न कर सके और साथ ही मुहम्मद को भी लेकर ‘शाम’ की ओर प्रस्थित हुए। इसी यात्रा में बालक ने खीष्ठ-तपोधन ‘बहेरा’ का प्रथम दर्शन पाया।

महात्मा मुहम्मद के विवाह

जन-प्रवाद है कि असाधारण प्रतिभाशाली महात्मा मुहम्मद आजीवन अक्षर-ज्ञान से रहित रहे। व्यवहार-चतुरता, ईमानदारी आदि अनेक सद्गुणों के कारण कुरैश-वंश की एक समृद्धिशालिनी स्त्री ‘खदीजा’ ने अपना गुमाश्ता बनाकर 25 वर्ष की अवस्था में नवयुवक मुहम्मद से ‘शाम’ जाने के लिए कहा। उन्होंने इसे स्वीकार कर बड़ी योग्यतापूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। इसके कुछ दिनों बाद ‘खदीजा’ ने उनके साथ ब्याह करने की इच्छा प्रकट की। यद्यपि ‘खदीजा’ की अवस्था 40 वर्ष की थी, उसके दो पति पहले भी मर चुके थे, किन्तु उसके अनेक सद्गुणों के कारण महात्मा मुहम्मद ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया।

कितने ही नए मुसलमान महात्मा पर अपने मुसलमान हो जाने का आभार (इहसान) रखते थे। जिस पर कहा गया है— "तुझ पर इहसान रखते हैं कि मुसलमान हो गए, कह-मुझ पर इहसान मत रखो, यह परमेश्वर ने तुम्हारे ऊपर उपकार किया है कि तुमको सच्चा रास्ता दिया।[3]

महात्मा मुहम्मद का प्रथम विवाह श्रीमती ख़दीजा के साथ 25 वर्ष की अवस्था में हुआ। विवाह के अनन्तर वह 25 वर्ष तक जीवित रहीं। मदीना प्रवास से 3 वर्ष पूर्व, जबकि महात्मा 50 वर्ष के हो गए थे, उनका स्वर्गवास हुआ। इस्लाम की शिक्षा सर्वप्रथम इन्होंने स्वीकार की। कई चरणों से मजबूर होकर महात्मा को (प्रायः) दस विवाह और करने पड़े, किन्तु यह सब 53 वर्ष की अवस्था के बाद हुए। पर महात्मा के पास एक 'जैद' नाम का दास रहता था। उसके मुसलमान हो जाने पर उन्होंने इतना ही नहीं कि उसे दासता से मुक्त कर दिया, प्रत्युत अपना पोष्य पुत्र बनाकर उसका विवाह अपनी फूफी, 'उमैया' की लड़की 'जैनब' से करा दिया। जैनब की बड़ी–बड़ी इच्छाओं और उच्च–वंश के अभिमान ने दासता से मुक्त जैद के साथ पटरी न जमने दी। दोनों में बराबर झगड़ा होने लगा। अनेक बार जैद ने सम्बन्ध विच्छेद (=तलाक़) करना चाहा, किन्तु बार–बार महात्मा 'अपनी स्त्री को अपने पास रहने दे और अल्लाह से डर'- कहकर उसे रोक दिया करते थे, यद्यपि बार–बार परीक्षा ने उन्हें निश्चित कर दिया था कि इन दोनों का मन मिलना कठिन है। किन्तु सम्बन्ध–विच्छेद से उत्पन्न होने वाली कठिन समस्या को देखकर वह इसी तरह टालते जाते थे। 'जैनब' और उसके भाई मुसलमान होने के कारण 'क़ुरैशियों' के कोप–भाजन बने हुए थे और उन्होंने भी घर–बार छोड़कर 'मदीना' में प्रवास किया था। तलाक़ देने पर 'जैनब' का विवाह होना कठिन था। मुसलमान होने से मुसलमान भिन्न के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता था और मुसलमान में भी क़ुरैश के वंश की प्रतिष्ठा के ख्याल से किसी अक़ुरैशी से विवाह अयुक्त था, यद्यपि इससे बहुत पहले ही आदेश मिल चुका था—

"भगवान ने पोष्य पुत्रों को तुम्हारा पुत्र नहीं बनाया, यह तुम्हारी कपोल- कल्पना है।"[4]

इससे जैनब के साथ विवाह करने में इस्लाम धर्म के अनुसार कोई बाधा न थी, परन्तु महात्मा लोकापवाद से डरते थे। लोग कहेंगे- मुहम्मद ने अपनी पतोहू घर में रख ली, किन्तु इस्लाम के प्रवर्त्तक की यह निर्बलता बहुत हानिकर होती यदि वह उस शिक्षा को लोकापवाद से डरकर छोड़ देते जिसके कि वह स्वयं प्रचारक थे। फिर तो उनके अनुयायी क्यों न बर्हिर्मुख हो जाते। इसीलिए क़ुरान ने आदेश दिया।

महात्मा मुहम्मद की पत्नियाँ

'भगवान से डर, तू जो कुछ अपने भीतर छिपाना चाहता था, भगवान उसे प्रकाशित करना चाहता है। तू मनुष्यों से डरता है, किन्तु परमेश्वर से डरना ही सर्वोत्तम है।

जब 'जैद' की उससे इच्छा पूर्ण हो गई तो हम (ईश्वर) ने जैनब को तुझे ब्याह दिया। यह इसलिए कि मुसलमानों पर अपने मौखिक पुत्रों की स्त्रियों से ब्याह करने में हरज न हो।'[5]

मदीना प्रवास से पहले महात्मा ने एक ही ब्याह किया था। यह था श्रीमती 'ख़दीजा' के साथ। वह प्रवास से 3 वर्ष पूर्व ही स्वर्गवासिनी हो गई थीं। बाकी विवाह, जो मदीना में आने पर 53 वर्ष के बाद हुए, उनकी संख्या 9 से अधिक बतलायी जाती है। प्रधान स्त्रियों के नाम हैं—

  • श्रीमती 'आयशा' द्वितीय ख़लीफ़ा 'अबूबकर की पुत्री'।
  • श्रीमती 'हफ़सा' तृतीय ख़लीफ़ा 'उमर' की पुत्री।
  • श्रीमती 'सौदा'।
  • श्रीमती 'उम्म सल्मा'।
  • श्रीमती 'जैनब'।
  • श्रीमती 'उम्म हबीबी'।
  • श्रीमती 'जवेरिया'।
  • श्रीमती 'मैमूना'।
  • श्रीमती 'सफ़िया'।

इनमें से पहली छह क़ुरैश वंश की थीं। आत्मरक्षा के लिए सब तरह से हारकर मुसलमानों ने तलवार की शरण ली। उन्हें इस्लाम के शत्रुओं- क़ुरैश और उनके साथी यहूदियों से अनेक लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। जिनमें अनेक मुसलमान वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी स्त्रियाँ विधवा हो गईं। अब उनके पालन-पोषण का सवाल उठा। मुसलमानों की संख्या कम थी और उतने ही में प्रबन्ध करना था। इस छोटी-सी बिरादरी के साथ सम्बन्ध की अनिवार्यता ने महात्मा मुहम्मद को और भी मज़बूत किया कि वह उन विधवाओं और उनके सम्बन्धियों को सन्तुष्ट करने के लिए और भी शादियाँ करें। ऐसी ही कठिनाइयों में 'ख़ुनैस' की विधवा 'हफ़सा', 'अब्दुल्ला' की विधवा 'जैनब' और 'अबूसल्मा' की विधवा 'उम्म सल्मा' से विवाह करना, 'उबैदुल्ला' की विधवा 'उम्म हबीबा', से भी उपर्युक्त कारणों से ब्याह हुआ। जो तीन विवाह क़ुरैश- भिन्न वंशों में हुए, वह भी लड़ाकू सरदारों को ब्याह- सम्बन्ध से शान्त रखने के लिए हुए थे। श्री 'अबूबकर' के आग्रह ने 'आयशा' से ब्याह करने पर मजबूर किया। इन सब बातों से यह भली प्रकार पता चल सकता है कि महात्मा ने यह अनेक ब्याह विषय-भोग के लिए नहीं, किन्तु अन्य ही किन्हीं सदिच्छाओं से प्रेरित होकर किया। प्रेरित मुहम्मद के अपने ब्याह के विषय में क़ुरान की निम्न प्रकार की आज्ञा है।

तत्कालीन मूर्तियाँ

‘हुब्ल’, ‘लात्’, ‘मनात्’ ‘उज्ज’ आदि भिन्न-भिन्न अनेक देव-प्रतिमाएँ उस समय अरब के प्रत्येक क़बीले में लोगों की इष्ट थीं। बहुत पुराने समय में वहाँ मूर्तिपूजा न थी। ‘अमरू’ नामक काबा के एक प्रधान पुजारी ने ‘शाम’ देश में सुना कि इसकी आराधना से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसी ने पहले-पहल ‘शाम’ से लाकर कुछ मूर्तियाँ काबा के मन्दिर में स्थापित कीं। देखा-देखी इसका प्रचार इतना बढ़ा कि सारा देश मूर्तिपूजा में निमग्न हो गया। अकेले ‘काबा’ मन्दिर में 360 देवमूर्तियाँ थीं, जिनमें हुब्ल-जो छत पर स्थापित था- कुरेश-वंशियों का इष्ट था। ‘जय[6] हुब्ल’ उनका जातीय घोष था। लोग मानते थे कि ये मूर्तियाँ ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसीलिए वे उन्हें पूजते थे। अरबी में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होता है; किन्तु ‘अलाह’ शब्द ‘इस्लाम’ काल से पहले उस समय भी एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।

श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ मूर्तिपूजा- विरोधी यहूदी धर्म के अनुयायी थे। अनेक शिष्ट महात्माओं के सत्संग एवं लोगों के पाखण्ड ने उन्हें मूर्तिपूजा से विमुख बना दिया। वह ईसाई भिक्षुओं की भाँति बहुधा ‘हिरा’ की गुफ़ा में एकान्त-सेवन और ईश्वर- प्रणिधान के लिए जाया करते थे। ‘इक्रा बि-इस्मि रब्बिक’ (पढ़ अपने प्रभु के नाम के साथ) यह प्रथम क़ुरान वाक्य पहले वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर शरीर को देखकर क्षण भर के लिए वह मूर्च्छित हो गये थे। जब उन्होंने इस वृत्तान्त को श्रीमती ‘ख़दीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया तो उन्होंने कहा- अवश्य वह देवदूत था जो इस भगवत्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था। इस समय महात्मा मुहम्मद की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगम्बरी (भगवतता) का समय प्रारम्भ होता है।

इस्लाम का प्रचार और कष्ट

ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त कर उन्होंने मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया। मेला के ख़ास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में दूर से आयें हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की उपासना का खण्डन करके, वह एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान का उपदेश करते थे। ‘क़ुरैशी’ लोग अपने इष्ट, आचार और आमदनी की इस प्रकार निन्दा और उस पर इस प्रकार का कुठाराघात देखकर भी ‘हाशिम’- परिवार की चिरशत्रुता के भय से उन्हें मारने की हिम्मन न कर सकते थे। किन्तु इस नवीन धर्म-अनुयायी, दास-दासियों को तप्त बालू पर लिटाते, कोड़े मारते तथा बहुत कष्ट देते थे; तो भी धर्म के मतवाले प्राणपण से अपने धर्म को न छोड़ने के लिए तैयार थे। इस अमानुषिक असह्य अत्याचार को दिन पर दिन बढ़ते देख कर अन्त में महात्मा ने अनुयानियों को ‘अफ्रीका’ खण्ड के ‘हब्स’ नामक राज्य में- जहाँ का राजा बड़ा न्यायपरायण था- चले जाने की अनुमति दे दी। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, ‘क़ुरैशी’ का द्वेष भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता था, किन्तु ‘अबूतालिब’ के जीवन-पर्यन्त खुलकर उपद्रव करने की उनकी हिम्मत न होती थी। जब ‘अबूतालिब’ का देहान्त हो गया तो उन्होंने खुले तौर पर विरोध करने पर कमर बाँधी।

Blockquote-open.gif महात्मा मुहम्मद शान्तिप्रिय थे, ईश्वर भक्त थे। उनमें और बहुत से सदगुण थे; यों तो मनुष्य होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि वह सर्वथा निर्दोष थे। उन्होंने मनुष्य जाति पर बड़ा उपकार किया। अगणित आत्माओं को उनके प्रकाश ने मार्ग दिखलाया। अगणित प्राणियों ने उनके उपदेश से शान्ति पायी। इस छोटे निबन्ध में क़ुरान का सार निचोड़ने का प्रयत्न किया गया है। यथार्थ इस्लाम धर्म भी वही है जिसे 'क़ुरान' के अपने शब्द प्रतिपादित करते हैं। Blockquote-close.gif

मदीना प्रवास

अब महात्मा मुहम्मद की अवस्था 53 वर्ष की थी। उनकी स्त्री श्रीमती ‘खदीजा’ का देहान्त हो चुका था। एक दिन ‘क़ुरैशियों’ ने हत्या के अभिप्राय से उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, किन्तु महात्मा को इसका पता पहले से ही मिल चुका था। उन्होंने पूर्व ही वहाँ से ‘यस्रिब’ (मदीना) नगर को प्रस्थान कर दिया था। वहाँ के शिष्य-वर्ग ने अति श्रद्धा से गुरु सुश्रुषा करने की प्रार्थना की थी। पहुँचने पर उन्होंने महात्मा के भोजन, वासगृह आदि का प्रबन्ध कर दिया। जब से उनका निवास ‘यास्रिब’ में हुआ, तब से नगर का नाम ‘मदीतुन्नबी’ या नबी का नगर प्रख्यात हुआ। उसी को छोटा करके आजकल केवल ‘मदीना’ कहते हैं। ‘क़ुरान’ में तीस खण्ड हैं और वह 114 ‘सूरतों’ (अध्यायों) में भी विभक्त है।[7] निवास-क्रम से प्रत्येक सूरत ‘मक्की’ या ‘मद्नी’ नाम से पुकारी जाती है, अर्थात मक्का में उतरी ‘सूरतें’ ‘मक्की’ और मदीना में उतरी ‘मद्नी’ कही जाती है।

महात्मा मुहम्मद और उनके सम्बन्धी

क़ुरान में अनेक वाक्य महात्मा मुहम्मद के परिवार, इस्लाम धर्म में उनकी स्थिति आदि के सम्बन्ध में भी कहे गए हैं। अपने धर्म प्रवर्त्तकों को अल्लाह या उसका अवतार बना डालना धर्मानुयायियों का स्वभाव है। इसीलिए क़ुरान में (मुहम्मद) प्रेरित के अतिरिक्त कुछ नहीं[8] वाक्य बार–बार दुहराया गया है।

महात्मा मुहम्मद के प्रभु–प्रेरित होने के विषय में निम्नलिखित क़ुरान के उदगार हैं—

"जिसके पास 'तौरात'[9] और 'इंजील'[10] में से उद्धरण है, जिसका उपदेश पुण्य कर्म के लिए है और निषेध पाप कर्म के लिए। जो पवित्र (वस्तु) को भक्ष्य (हलाल) और अपवित्र को अभक्ष्य (हराम) करता है। जो उन (धर्मानुयायियों) से उनके ऊपर भार और फन्दों को अलग करता है, उस निरक्षर प्रेरित ऋषि के जो अनुयायी, विश्वासी तथा सहायक हैं, और उसके साथ उतरे प्रकाश (क़ुरान) का अनुसरण करते हैं, वही पुण्य के भागी हैं।" (7:19:6)

महात्मा का सम्मान

  • मैं मुहम्मद तुम्हारे सब के पास उस अल्लाह का भेजा हुआ (प्रेरित) हूँ, जिसका शासन पृथ्वी और आकाश दोनों में है।[11]
  • कह, मैं नया प्रेरित नहीं हूँ...जो कुछ अल्लाह मेरे पास भेजता है, मैं उसी का अनुसरण करता हूँ। मंगल और अमंगल का सुनने वाला छोड़ मैं कुछ नहीं हूँ।[12]

इस्लाम में यद्यपि महात्मा मुहम्मद अल्लाह के अवतार नहीं माने गए, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान कम है। कहा है—

"तेरे (मुहम्मद के) साथ–साथ हाथ मिलाने वाले अल्लाह के साथ हाथ मिलाते हैं। (मुहम्मद का हाथ नहीं) अल्लाह का हाथ उनके हाथों में हैं।"[13]

इन्जील में मुहम्मद लिए भविष्यवाणी

"हे विश्वासियों (मुसलमानों!) प्रेरित मुहम्मद के स्वर से तुम ऊँचा न चिल्लाओ और उसके साथ उस प्रकार से बातचीत न करो, जैसे तुम आपस में एक–दूसरे के साथ बोलते हो।"[14]

"परमेश्वर और देवदूत, प्रेरित के पास आशीर्वाद भेजते हैं। हे विश्वासियो! तुम भी उसके लिए आशीर्वाद और शान्ति की कामना करो।"[15]

मुसलमानों का यह भी विश्वास है कि यहूदियों की भाँति ईसाईयों के भी धर्म–ग्रन्थ में महात्मा मुहम्मद के प्रेरित होकर आने की भविष्यवाणी है; किन्तु दुराग्रहवश वह इसे स्वीकार नहीं करते। क़ुरान में यह भाव निम्न प्रकार से प्रदर्शित किया गया है—

"जब मरियम के पुत्र ईसा ने कहा है—हे इस्राइल की सन्तानों! (यहूदियों) मैं प्रभु–प्रेरित होकर तुम्हारे पास आया हूँ; पहली पुस्तक 'तारात' आदि को प्रमाणित मानता हूँ और एक प्रेरित का शुभ समाचार देता हूँ कि जो मेरे बाद आयेगा, उसका नाम मुहम्मद है। फिर जब मुहम्मद उनके पास प्रमाणों के साथ आया, तो कहते हैं—"यह साफ़ जादू (धोखा) है।"[16]

 

महात्मा मुहम्मद की प्रधानता

  • महात्मा मुहम्मद के पास ईश्वरीय सन्देश आने का कोई समय निश्चित न था। वह सोते–बैठते किसी समय पर भी आ जाता था। एक समय जब महात्मा रज़ाई ओढ़े सोये थे, उसी समय यह सन्देश आया—

"हे लिहाफ़ (ओढ़ना) में लिपटे, उठ और भय सुना।"[17]

  • निम्नलिखित वाक्य भी इस्लाम में महात्मा मुहम्मद की प्रधानता को प्रदर्शित करते हैं—

"हे विश्वासियों! ईश्वर और प्रेरित की आज्ञा मानों।"[18]

"विश्वासी (मुसलमान) वह है जो ईश्वर और प्रेरित पर विश्वास लाये हैं और शंका नहीं करते।"[19]

महात्मा मुहम्मद के चमत्कार

महात्मा मुहम्मद ने यद्यपि चमत्कार दिखलाने में अधिकतर अपनी असम्मति प्रकट की; किन्तु तो भी क़ुरान के कुछ वाक्य उनके कुछ चमत्कारों को प्रकट करते हैं। नीचे उन्हें संक्षेप में दिया जाता है—

  • "जब फेंका, तो तूने नहीं फेंका, किन्तु परमात्मा ने फेंका।"[20]

हज़रत ने बदर के युद्ध के समय एक मुट्ठी मिट्टी शत्रुओं की ओर फेंकी थी, पीछे शत्रु की पराजय हुई। यहाँ उसी बात का संकेत है।

  • "प्रभु ने अपने नबी और मुसलमानों के पास शान्ति और सेना भेजी, जिसको तुमने नहीं देखा।"[21]

यहाँ पर एक लड़ाई में ईश्वर ने फ़रिश्तों की सेना भेज कर महात्मा की मदद की- इसकी ओर संकेत है।

  • "वह (ईश्वर) पवित्र है, जो अपने दास (मुहम्मद) को रात में पवित्र मस्जिद से अन्तिम मस्जिद (स्वर्ग), जो चारों ओर पवित्र ऐश्वर्य से पूर्ण है- को ले गया कि उसको अपने प्रमाण दिखावें।"[22] "और उसको दूसरे उतार में, अन्तिम बेर (वृक्ष) के पास दिखाया, उसके पास वासोद्यान (स्वर्ग) हैं।...निस्सन्देह उस (मुहम्मद) ने अपने प्रभु के सबसे बड़े प्रमाण देखे।"[23]

यहाँ पर महात्मा मुहम्मद की सजीव स्वर्गयात्रा का वर्णन है, जिसे 'मिअराज' कहते हैं। ईश्वर ने उन्हें स्वर्ग में ले जाकर अपने ऐश्वर्य दिखलाए।

  • "जब हमने जिन्नों[24] में से कितनो को तेरी ओर आकृष्ट किया। जिन्होंने 'क़ुरान' सुना और जब वह वहाँ आये, तो (आपस में) बोले—चुप रहो। फिर जब (पढ़ना) समाप्त हुआ, तो अपनी जाति की ओर (ईश्वर का) भय सुनाने वाले होकर लौट गए।"[25]

'जिन्न अग्नि से उत्पन्न एक देवयोनि है। यहाँ पर बताया गया है कि उनमें से कितने ही महात्मा से 'क़ुरान' सुनकर मुसलमान हो गए और वे अपनी जाति में भी जाकर इसका प्रचार करने लगे।

यह महात्मा के सबसे प्रसिद्ध 'शक़कुलक़म्र' नामक चमत्कार का वर्णन है। महात्मा ने अपनी दैवी शक्ति दिखाने के लिए एक बार अँगुली चन्द्रमा की ओर की, इस पर उसके दो टुकड़े हो गए, जिसको कितने ही उनके अनुयायियों ने अपनी आँखों से देखा, यही इसका सांराश है।

'क़ुरान' में एक ईश्वर विश्वास पर बहुत बल दिया गया है। एक–दो नहीं, सैकड़ों बार कहा गया है कि वह परमेश्वर एक ही है, उसके सिवा दूसरा कोई पूज्य नहीं। यहाँ ईश्वर को सर्वव्यापक और सर्वज्ञ माना गया है। अवतारवाद का महात्मा ईसा के वर्णन के समय बड़े ज़ोर से खण्डन किया गया है। 'क़ुरान' ने खुले शब्दों में कहा है कि परमात्मा तुमको पूर्वजों के मार्ग पर चलाना चाहता है।[27] महात्मा मुहम्मद ने किसी नये धर्म की नींव रखने का दावा नहीं किया, किन्तु उसी 'दीन–इब्राहीम' या 'इब्राहीम' के पंथ का पुनः प्रचार करता है जो महात्मा मुहम्मद से हज़ारों वर्ष पूर्व विद्यमान था। महात्मा मुहम्मद उन विशेष व्यक्तियों में से थे, जिनका स्थान अपने आसपास के धरातल से ऊँचा होता है। जिस प्रकार प्रकृति कहीं–कहीं नीचे खड्डों के पास उत्तुंग पर्वत उत्पन्न कर देती है, वैसे ही अपनी जन्मभूमि में ऐसी महान् आत्माओं की स्थिति है। यद्यपि 'मोमिन' और 'मुस्लिम' शब्दों के अर्थ 'सत्य–प्रिय' और 'शान्ति–प्रिय' हैं, तो भी अनेक स्थानों पर इनका बड़ा संकुचित अर्थ लिया गया और इसी भ्रान्ति के कारण संसार में इस्लाम के नाम पर अनेक अनुचित कार्य हुए हैं। विद्वानों ने इस बात को माना है कि लाचार होकर आत्मरक्षा के लिए शस्त्र ग्रहण किया था; किन्तु पीछे कितने ही लोगों ने उसका उल्टा अर्थ लगाया। उन्होंने युद्ध को धर्म फैलाने का माध्यम माल लिया। वास्तव में महात्मा मुहम्मद शान्त प्रकृति के थे, उन्होंने बिना आवश्यकता के कभी रक्त बहाना अच्छा नहीं समझा।

"अल्लाहु ला–मुहिब्बुलफ़साद्।"[28]
(ईश्वर कलह नहीं पसन्द करता)
यह वाक्य भी उक्त अर्थ को स्पष्ट प्रतिपादित करता है।
'लकुम् दीन–कुम् व ली दीनी'।

'तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म और मेरे लिए मेरा धर्म'- इस वाक्य ने भी धार्मिक सहिष्णुता का अच्छा पाठ पढ़ाया है। 'इस्लाम' को समझने के लिए हमें उपरोक्त क़ुरान के वाक्यों पर विचार करना चाहिए। कतिपय मुसलमानों के आचरण से इस्लाम पर फ़ैसला देना अन्याय है।

महात्मा मुहम्मद शान्तिप्रिय थे, ईश्वर भक्त थे। उनमें और बहुत से सदगुण थे; यों तो मनुष्य होने के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि वह सर्वथा निर्दोष थे। उन्होंने मनुष्य जाति पर बड़ा उपकार किया। अगणित आत्माओं को उनके प्रकाश ने मार्ग दिखलाया। अगणित प्राणियों ने उनके उपदेश से शान्ति पायी। इस छोटे निबन्ध में क़ुरान का सार निचोड़ने का प्रयत्न किया गया है। यथार्थ इस्लाम धर्म भी वही है जिसे 'क़ुरान' के अपने शब्द प्रतिपादित करते हैं।

मुहम्मद अन्तिम पैग़म्बर

"जो कोई परमेश्वर और उसके प्रेरित की आज्ञा न माने, उसको सर्वदा के लिए नरक की अग्नि है।"[29] महात्मा मुहम्मद के आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। "तुम्हारे लिए प्रभु–प्रेरित का सुन्दर आचरण अनुकरणीय है।"[30] यह कहा गया है कि अरब के लोग उस समय एकदम असभ्य थे। उन्हें छोटे–छोटे से लेकर बड़े–बड़े आचार और सभ्यता-सम्बन्धी व्यवहारों को भी बतलाना पड़ता था। उनको गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, बड़े-छोटे के सम्बन्ध का भी विशेष विचार नहीं था। महात्मा मुहम्मद को गुरु और प्रेरित स्वीकार करने पर उनका यही मुख्य सम्बन्ध मुसलमानों के साथ है, न कि भाईबन्दी, चचा-भतीजा वाला पहला सम्बन्ध; यथा- "मुहम्मद तुम पुरुषों में से किसी का बाप नहीं, वह प्रभु-प्रेरित और सब प्रेरितों पर मुहर (अन्तिम) है।"[31] 'मुसलमानों का उस (मुहम्मद) के साथ प्राण से भी अधिक सम्बन्ध है और उसकी स्त्रियाँ तुम्हारी (मुसलमानों) की माताएँ हैं।'

बिदअत

बिदअत इस्लाम में कोई ऐसी नवीनता है, जिसका मुस्लिम समुदाय से पारंपरिक रस्मो-रिवाज (सुन्ना) में मूल न हो। इस्लाम का सबसे अधिक कट्टरवादी क़ानूनी विचारधारा हनबिला (और इसका आधुनिक उत्तरजीवी सऊदी अरब का वह मत) ने बिदअत को पूरी तरह ठुकरा दिया है और दलील दी है कि मुस्लिम का फ़र्ज़ पैगम्बर मुहम्मद द्वारा निर्धारित उदाहरण (सुन्ना) का पालन करना है, न कि उसमें सुधार लाने की कोशिश करना।

मृत्यु

मदीना में वह अधिक दिन तक शान्तिपूर्वक विश्राम न कर सके थे कि वहाँ भी क़ुरैश उन्हें कष्ट पहुँचाने लगे। अन्त में आत्मरक्षा का कोई अन्य उपाय न देख क़ुरैश और उनकी कुमंत्रणा में पड़े हुए ‘मदीना'- निवासी यहूदियों के साथ उन्हें अनेक युद्ध करने पड़े, जिनकी समाप्ति ‘मक्का-विजय’ और ‘काबा’ को मूर्तिरहित करने के साथ हुई। जन्म नगरी के विजय करने पर भी मदीना-निवासियों के स्नेहपाश में बद्ध हो महात्मा ने अपने शेष जीवन को मदीना में ही व्यतीत किया। उनके जीवन में ही सारा अरब एक राष्ट्र और एक धर्म के सूत्र में आबद्ध हो इस्लाम-धर्म में प्रविष्ट हो गया। 632 ई., मदीना में 63 वर्ष की अवस्था में इस प्रकार महात्मा मुहम्मद अपने महान् जीवनोद्देश्य को पूर्ण कर शिष्य जनों को अपने वियोग से दुःखसागर में मग्न करते मृत्यु को प्राप्त हुए। ‘क़ुरान’ के भाव समझने में पद-पद पर उस समय की परिस्थिति और घटना अपेक्षित है। उसे स्पष्ट करने के लिए तत्कालीन और प्राचीन अरब की दशा के साथ महात्मा की संक्षिप्त जीवनी भी आवश्यक है, जैसा कि अगले पृष्ठों से पता लगेगा। इसलिए यहाँ इसके विषय से कुछ करना पड़ा। 40वें वर्ष में ‘इक्रा बि इस्मि रब्बिक’ से लेकर मरने के 17 दिन (किसी-किसी के मत से 12 दिन) पूर्व ‘रब्बिकल् अक्रम’ (प्रभु तू अति महान् है) दस वाक्य के उतरने तक, जो कुछ दिव्योपदेश महात्मा मुहम्मद द्वारा प्रचारित हुआ, उसी का संग्रह क़ुरान के नाम से प्रसिद्ध, मुसलमानी धर्म का स्वतः प्रमाण ग्रन्थ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस्लाम का इतिहास (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 2 दिसंबर, 2010
  2. पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 563, परिशिष्ट 'घ' |
  3. 49:2:7
  4. 33:1:4
  5. 33:5:6
  6. ‘अलल्-हुब्ल’
  7. प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘रकूअ’ और प्रत्येक ‘रकूअ’ में अनेक ‘आयते’ होती हैं।
  8. 3:15:1
  9. मूसा को दिया गया ईश्वरीय ग्रन्थ, यहूदियों की धर्म पुस्तक।
  10. ईसा को दिया गया ईश्वरीय ग्रन्थ, ईसाईयों की धर्म पुस्तक।
  11. 7:20:1
  12. 46:1:9
  13. 48:1:10
  14. 49:1:2
  15. 33:7:4
  16. 61:1:6
  17. 74:1:1:2
  18. 4:8:9
  19. 49:2:5
  20. 2:2:6
  21. 9:42
  22. 17:1:1
  23. 53:1:13-15,18
  24. एक प्रकार के देवता
  25. 46:4:3
  26. 54:1:1
  27. 4:4:1
  28. 2:25:9
  29. 72:2:4
  30. 33:3:1
  31. 33:5:6

बाहरी कड़ियाँ

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