बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-1 ब्राह्मण-2

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  • इसमें सृष्टि के जन्म की अद्भुत कल्पना की गयी है।
  • कोई नहीं जानता कि सृष्टि का निर्माण और विकास कैसे हुआ, किन्तु वैदिक ऋषियों ने अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से सृष्टि के विकास-क्रम को प्रस्तुत किया है।
  • उनका कहना है कि सृष्टि के प्रारम्भ में कुछ नहीं था।
  • केवल एक 'सत्' ही था, जो प्रलय-रूपी मृत्यु से ढका हुआ था। तब उसने संकल्प किया कि उसे पुन: उदित होना है।
  • उस संकल्प के द्वारा अप: (जल) का प्रादुर्भाव हुआ।
  • इस जल के ऊपर स्थूल कण एकत्र हो जाने से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।
  • उसके उपरान्त सृष्टि के सृजनकर्ता के श्रम-स्वरूप उसका तेज़ अग्नि के रूप में प्रकट हुआ।
  • तदुपरान्त परमेश्वर ने अपने अग्नि-रूप के तृतीयांश को सूर्य, वायु और अग्नि तीन भागों में विभक्त कर दिया।
  • पूर्व दिशा उसका शीर्ष भाग (सिर), उत्तर-दक्षिण दिशाएं उसका पार्श्व भाग औ द्युलोक उसका पृष्ठ भाग, अन्तरिक्ष उदर, पृथ्वी वक्षस्थल और अग्नि तत्त्व उस विराट पुरुष की आत्मा बने। यही प्राणतत्त्व कहलाया।
  • इसके बाद इस विराट पुरुष की इच्छा हुई कि अन्य शरीर उत्पन्न हों।
  • तब मिथुनात्मक सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हुआ।
  • नर-नारी, पशु और पक्षियों तथा जलचरों में नर-मादा के युग्म बने और उनके मिथुन-संयोग से जीवन का क्रमिक विकास हुआ। फिर इसके पालन के लिए अन्न से मन और मन से वाणी का सृजन हुआ।
  • वाणी से ऋक्, यजु, साम का सृजन हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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