भक्ति

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भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है। इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है। देवों के रूपदर्शन, उनकी स्तुति के गायन, उनके साहचर्य के लिए उत्सुकता, उनके प्रति समर्पण आदि में आनन्द का अनुभव-ये सभी उपादान वेदों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं।

भक्ति की व्यापकता

वैष्णव भक्ति की गंगोत्तरी विष्णुसूक्त ही है। ब्राह्मण साहित्य में कर्मकाण्ड के प्रसार के कारण भक्ति का स्वर कुछ मन्द पड़ जाता है, किन्तु उपनिषदों में उपासना की प्रधानता से निर्गुण भक्ति और कहीं-कहीं प्रतीकोपासना पुन: जागृत हो उठती है। छान्दोग्य उपनिषद, श्वेताश्वतरोपनिषद, मुण्डकोपनिषद आदि में विष्णु, शिव, रुद्र, अच्युत, नारायण, सूर्य आदि की भक्ति और उपासना के पर्याप्त संकेत पाये जाते हैं। वैदिक भक्ति की पयस्विनी महाभारत काल तक आते-आते विस्तृत होने लगी। वैष्णव भक्ति की भागवतधारा का विकास इसी काल में हुआ। यादवों की सात्वत शाखा में प्रवृत्तिप्रधान भागवत धर्म का उत्कर्ष हुआ। सात्वतों ने ही मथुरा-वृन्दावन से लेकर मध्य भारत, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक होते हुए तमिल प्रदेश तक प्रवृत्तिमूलक, रागात्मक भागवत धर्म का प्रचार किया। अभी तक वैष्णव अथवा शैव भक्ति के उपासक देवगण अथवा परमेश्वर ही थे। महाभारत काल में वैष्णव भागवत धर्म को एक ऐतिहासिक उपास्य का आधार कृष्ण वासुदेव के व्यक्तित्व में मिला। कृष्ण विष्णु के अवतार माने गये और धीरे-धीरे ब्रह्मा से उनका तादात्म्य हो गया। इस प्रकार नर देहधारी विष्णु की भक्ति जनसाधारण के लिए सुलभ हो गई।

प्रचार-प्रसार

इससे पूर्व यह धर्म ऐकान्तिक, नारायणीय, सात्वत आदि नामों से पुकारा जाता था। कृष्ण-वासुदेव भक्ति के उदय के पश्चात् यह भागवत धर्म कहलाने लगा। भागवत धर्म के इस रूप के उदय का काल लगभग 1400 ई. पू. है। तब से लेकर लगभग छठी सातवीं शताब्दी तक यह अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। बीच में शैव शाक्त सम्प्रदायों तथा शांकर वेदान्त के प्रचार से भागवत धर्म का प्रचार कुछ मंद सा पड़ गया। परन्तु पूर्व मध्य युग में इसका पुनरुत्थान हुआ। रामानुज, मध्वाचार्य आदि ने भागवत धर्म को और पल्लवित किया और आगे चलकर एकनाथ, रामानन्द, चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य आदि ने भक्ति आन्दोलन के माध्यम से भक्तिमार्ग का जनसामान्य तक व्यापक प्रसार किया। मध्ययुग में सभी प्रदेशों के संत और भक्त कवियों ने भक्ति के सार्वजनिक प्रचार में प्रभूत योग दिया।

चार मुख्य सम्प्रदाय

मध्ययुग में भागवत भक्ति के चार प्रमुख सम्प्रदाय प्रवर्तित हुए-

  1. श्रीसम्प्रदाय - (रामानुजाचार्य के द्वारा प्रचलित)
  2. ब्रह्मसम्प्रदाय - (मध्वाचार्य के द्वारा प्रचलित)
  3. रुद्रसम्प्रदाय - (विष्णुस्वामी के द्वारा प्रचलित) और
  4. सनकादिकसम्प्रदाय - (निम्बार्काचार्य के द्वारा स्थापित)।

इन सभी सम्प्रदायों ने अद्वैतवाद, मायावाद तथा कर्मसन्न्यास का खण्डन कर भगवान की सगुण उपासना का प्रचार किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि इस रागात्मिका भक्ति के प्रवर्तक सभी आचार्य सुदूर दक्षिण देश में ही प्रकट हुए। मध्ययुगीन भक्ति की उत्पत्ति और विकास का इतिहास भागवतपुराण के माहात्म्य में इस प्रकार से दिया हुआ है- 

उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धि कर्णाटक के गता।
क्वचित् क्वचिन् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता।।
तत्र धोरकलेर्योगात् पाधण्डै: खण्डितांगका।
दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्।।
वृन्दावनं पुन: प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी।
जाताहं युवती सम्यक् प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्।।

"मैं वही (जो मूलत: यादवों की एक शाखा के वंशज सात्वतों द्वारा लाई गई थी) द्रविड़ प्रदेश में (रागात्मक भक्ति के रूप में) उत्पन्न हुई। कर्नाटक में बड़ी हुई। महाराष्ट्र में कुछ-कुछ (पोषण) हुआ। गुजरात में वृद्धा हो गई। वहाँ घोर कलियुग (म्लेच्छ आक्रमण) के सम्पर्क से पाखण्डों द्वारा खण्डित अंगवाली मैं दुर्बल होकर बहुत दिनों तक पुत्रों (ज्ञान-वैराग्य) के साथ मन्दता को प्राप्त हो गई। फिर वृन्दावन (कृष्ण की लीलाभूमि) पहुँचकर सम्प्रति नवीना, सुरूपिणी, युवती और सम्यक् प्रकार से सुन्दर हो गई।"

इसमें संदेह नहीं कि मध्ययुगीन रागात्मिका भक्ति का उदय तमिल प्रदेश में हुआ। परन्तु उसके पूर्ण संस्कृत रूप का विकास भागवत धर्म के मूल स्थल वृन्दावन में ही हुआ, जिसको दक्षिण के कई संत आचार्यों ने अपनी उपासनाभूमि बनाया।

मोक्ष का साधन

भागवत धर्म के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं-सृष्टि के उत्पादक एक मात्र भगवान हैं। इनके अनेक नाम हैं, जिनमें विष्णु, नारायण, वासुदेव, जनार्दन आदि मुख्य हैं। वे अपनी योगमाया प्रकृति से समस्त जगत् की उत्पत्ति करते हैं। उन्हीं से ब्रह्मा, शिव आदि अन्य देवता प्रादुर्भूत होते हैं। जीवात्मा उन्हीं का अंश है, जिसको भगवान का सायुज्य अथवा तादात्म्य होने पर पूर्णता प्राप्त होती है। समय-समय पर जब संसार पर संकट आता है, तब भगवान अवतार धारण करके उसे दूर करते हैं। उनके दस प्रमुख अवतार हैं, जिनमें राम और कृष्ण प्रधान हैं। महाभारत में भगवान के चतुर्व्यूह की कल्पना का विकास हुआ। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध चार तत्त्व चतुर्व्यूह हैं, जिनकी उपासना भक्त क्रमश: करता है। वह अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण और वासुदेव नहीं बनता; उन्हीं का अंश होने के नाते उनके सायुज्य में सुख मानता है। निष्काम कर्म से चित्त की शुद्धि और उससे भाव की शुद्धि होती है। भक्ति ही एक मात्र मोक्ष का साधन है। भगवान के सम्मुख पूर्ण प्रपत्ति ही मोक्ष है।

भक्ति के प्रकार

भागवत उपासनापद्धति का प्रथम उल्लेख ब्रह्मसूत्र के शांकर भाष्य[1] में पाया जाता है। इसके अनुसार अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग से उपासना करते हुए भक्त भगवान को प्राप्त करता है। 'ज्ञानामृतसार' में छ: प्रकार की भक्ति बतलाई गई हैं-(1) स्मरण, (2) कीर्तन, (3) वन्दन, (4) पादसेवन, (5) अर्चन और (6) आत्मनिवेदन। भागवत पुराण[2] में नवधा भक्ति का वर्णन है। उपर्युक्त छ: में तीन-श्रवण, दास्य और सख्य और जोड़ दिये गये हैं। पांचरात्र संहिताओं के अनुसार सम्पूर्ण भागवत धर्म चार खण्डों में विभक्त है: (1) ज्ञानपाद (दर्शन और धर्म विज्ञान), (2) योगपाद (योगसिद्धान्त और अभ्यास), (3) क्रियापाद (मन्दिर निर्माण और मूर्तिस्थापना), (4) चर्यापाद (धार्मिक क्रियाएँ)।

भक्ति ग्रन्थ

भक्ति के ऊपर विशाल साहित्य का निर्माण हुआ है। इस पर सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं- भागवतपुराण। इसके अतिरिक्त महाभारत का शान्तिपर्व, श्रीमद्भागवदगीता, पांचरात्रसंहिता, सात्वतसंहिता, शांडिल्यसूत्र, नारदीय भक्तिसूत्र, नारदपंचरात्र, हरिवंश, पद्मसंहिता, विष्णुतत्त्वसंहिता; रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, वल्लभाचार्य आदि के ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2.42
  2. 7.5,23-24