भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश -स्वामी विवेकानन्द

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भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश -स्वामी विवेकानन्द
'भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश पुस्तक का आवरण पृष्ठ
लेखक स्वामी विवेकानन्द
मूल शीर्षक भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश
प्रकाशक रामकृष्ण मठ
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी, 2001
देश भारत
भाषा हिंदी
मुखपृष्ठ रचना अजिल्द
विशेष इस पुस्तक का यह पंचम संस्करण है।

‘भगवान् बुद्ध तथा उनका सन्देश’ स्वामी विवेकानंद द्वारा रचित पुस्तक है। साधक-अवस्था से ही स्वामी विवेकानन्द भगवान् बुद्धि के लोकोत्तर व्यक्तित्व के प्रति अत्यन्त आकर्षण अनुभव करते थे। इस आकर्षण से प्रेरित हो श्रीरामकृष्णदेव के विद्यमान रहते ही वे अल्प समय के लिए बोधगया को आये थे तथा वहाँ पर उन्होंने गम्भीर ध्यानावस्था में भगवान् बुद्ध के दिव्य अस्तित्व का जीता-जागता अनुभव आया था। स्वामीजी बौद्ध धर्मग्रन्थों का अत्यन्त श्रद्धापूर्वक अध्ययन-अनुशीलन करते थे तथा अपने गुरुभाइयों को भी इस ओर प्रोत्साहित करते थे। अपने जीवन के विभिन्न प्रसंगों में उन्होंने बुद्धदेव के दिव्य जीवन, उपदेश, धर्म इत्यादि के विषय में अत्यन्त मूल्यवान विचार प्रकट किये हैं। उनमें से कुछ ही विचार लिपिबद्ध रूप में उपलब्ध हैं, परन्तु उन पर से भी स्वामीजी की बुद्धदेव के प्रति श्रद्धा-भक्ति की गम्भीरता की धारणा हो सकती है। साथ ही इन विचारों द्वारा बुद्ध देव के दिव्य व्यक्तित्व का सुन्दर चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है।

भगवान् बुद्ध तथा उनका सन्देश

भगवान् बुद्ध मेरे इष्टदेव हैं-मेरे ईश्वर हैं। उनका कोई ईश्वरवाद नहीं, वे स्वयं ईश्वर थे। इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है। सम्भव है कि भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेश से ये झगड़े कुछ देर के लिए रुक गये हों तथा समन्वय और शान्ति का संचार हुआ हो, किन्तु यह विरोध फिर उत्पन्न हुआ। केवल धर्ममत ही पर नहीं, सम्भवत: वर्ण के आधार पर भी यह विवाद चलता रहा-हमारे समाज के दो प्रबल अंग ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों, राजाओं तथा पुरोहितों के बीच विवाद आरम्भ हुआ था। और एक हजार वर्ष तक जिस विशाल तरंग ने समग्र भारत को सराबोर कर दिया था, उसके सर्वोच्च शिखर पर हम एक और महामहिम मूर्ति को देखते हैं। और वे हमारे शाक्यमुनि गौतम हैं। उनके उपदेशों और प्रचारकार्य से तुम सभी अवगत हो। हम उनको ईश्वरावतार समझकर उनकी पूजा करते हैं, नैतिकता का इतना बड़ा निर्भीक प्रचारक संसार में और उत्पन्न नहीं हुआ, कर्मयोगियों में सर्वश्रेष्ठ स्वयं कृष्ण ही मानो शिष्यरूप से अपने उपदेशों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उत्पन्न हुए। पुन: वही वाणी सुनाई दी, जिसने गीता में शिक्षा दी थी, ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’-, ‘इस धर्म का थोड़ा सा अनुष्ठान करने पर भी महाभय से रक्षा होती है।’[1] ‘स्त्रियों वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्’- ‘स्त्री, वैश्य और शूद्र तक परमगति को प्राप्त होते है।’[2].....गीता के उपदेशों के जीते-जागते उदाहरणस्वरूप, गीता के उपदेशक दूसरे रूप में पुन: इस मर्त्यलोक में पधारे, जिससे जनता द्वारा उसका एक कण भी कार्यरूप में परिणत हो सके। ये ही शाक्यमुनि हैं। ये दीन-दुखियों को उपदेश देने लगे। सर्वसाधारण के हृदय तक पहुँचने के लिए देवभाषा संस्कृत को भी छोड़ ये लोकभाषा में उपदेश देने लगे। राजसिंहासन को त्यागकर ये दु:खी, ग़रीब, पतित, भिखमंगों के साथ रहने लगे। इन्होंने राम के समान चाण्डाल को भी छाती से लगा लिया।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 2/40)
  2. (गीता 9/32).
  3. भगवान बुद्ध तथा उनका सन्देश (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 19 जनवरी, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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