भयानक रस

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भयानक रस हिन्दी काव्य में मान्य नौ रसों में से एक है। भानुदत्त के अनुसार, ‘भय का परिपोष’ अथवा ‘सम्पूर्ण इन्द्रियों का विक्षोभ’ भयानक रस है। अर्थात् भयोत्पादक वस्तुओं के दर्शन या श्रवण से अथवा शत्रु इत्यादि के विद्रोहपूर्ण आचरण से है, तब वहाँ भयानक रस होता है। हिन्दी के आचार्य सोमनाथ ने ‘रसपीयूषनिधि’ में भयानक रस की निम्न परिभाषा दी है-

‘सुनि कवित्त में व्यंगि भय जब ही परगट होय। तहीं भयानक रस बरनि कहै सबै कवि लोय’।

वर्ण तथा देवता

भरतमुनि ने इसका रंग काला तथा देवता कालदेव को बताया है। भानुदत्त के अनुसार इसका वर्ण श्याम और देवता यम हैं। ‘नाट्यशास्त्र’ में भयानक रस को प्रधान रसों में न परिगणित कर, बीभत्स रस से उत्पन्न बताया है। बीभत्स रस का स्थायी भाव 'जुगुत्सा' है। अप्रिय वस्तु के दर्शन, स्पर्शन अथवा स्मरण से उत्पन्न घृणा का भाव जुगुत्सा कहलाता है। अपराध, विकृत रव अथवा विकृत प्राणी से उत्पन्न मनोविकार भय कहा गया है।

उत्पत्ति

भरत ने बीभत्स के दर्शन से भयानक की उत्पत्ति मानी है। लेकिन आधुनिक मनोविज्ञान ने भय एवं जुगुत्सा, दोनों को प्रवृत्ति प्रेरित प्रधान भावों में गिनाया है। वास्तव में भयानक को बीभत्स से उत्पन्न उत्पन्न बताने का कोई समीचीन मनोवैज्ञानिक आधार प्रतीत नहीं होता। अपितु भय घृणा की तुलना में अधिक आदिम मनोवृत्ति प्रतीत होता है। नृतत्त्वविदों ने मानव विकास का अध्ययन करते हुए भय को मानवी संस्कृति के एक बहुत बड़े भाग का प्रधान कारण सिद्ध किया है।

भरत ने भयानक के कारणों में विकृत शब्द वाले प्राणियों का दर्शन, गीदड़, उलूक, व्याकुलता, ख़ाली घर, वन प्रदेश, मरण, सम्बन्धियों की मृत्यु या बन्धन का दर्शन, श्रवण या कथन इत्यादि को निर्दिष्ट किया है। जबकि बीभत्स के विभावों में अमनोहर तथा अप्रिय का दर्शन, अनिष्टा का श्रवण, दर्शन या कथन इत्यादि को परिगणित किया है। इस उल्लेख से ही स्पष्ट होता है कि भय के उद्रेक के लिए, जुगुत्सा की अपेक्षा, अधिक अवसर तथा परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं। अर्थात् भय का क्षेत्र जुगुत्सा की तुलना में अधिक व्यापक है, और इसीलिए भय जुगुत्सा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली मनोविकार सिद्ध होता है। पुन: भय के मूल में संरक्षण की प्रवृत्ति कार्यशील होती है। प्राणिमात्र में यह वर्तमान रहता है तथा मन पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। अतएव भयानक रस को बीभत्स से उत्पन्न बताना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता।

‘साहित्यदर्पण’ में भयानक रस को ‘स्त्रीनीचप्रकृति:’ कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि इस रस के आश्रय स्त्री, नीच प्रकृति वाले व्यक्ति, बालक तथा कोई भी कातर प्राणी होते हैं-‘भयानको भवेन्नेता बाल: स्त्रीकातर: पुन:’।[1] अपराध करने वाला व्यक्ति भी अपने अपराध के ज्ञान से भयभीत होता है। भयानक के आलम्बन व्याघ्र इत्यादि हिंसक जीव, शत्रु, निर्जन प्रदेश, स्वयं किया गया अपराध इत्यादि हैं। शत्रु की चेष्टाएँ, असहायता उद्दीपन हैं तथा स्वेद, विवर्णता, कम्प, अश्रु, रोमांच इत्यादि अनुभाव हैं। त्रास, मोह, जुगुत्सा, दैन्य, संकट, अपस्मार, चिन्ता, आवेग इत्यादि उसके व्यभिचारी भाव हैं।

कुलपति का वर्णन

हिन्दी के आचार्य कुलपति ने इन सभी उपादानों को एकत्र समेटकर भयानक रस का इस प्रकार वर्णन किया है-

'बाघ ब्याल विकराल रण, सूनो बन गृह देख।
जे रावर अपराध पुनि, भय विभाव यह लेख।
कम्प रोम प्रस्वेद पुनि, यह अनुभाव बखानि।
मोह मूरछा दीनता, यह संचारी जानि।'

भेद

भानुदत्त ने ‘रसतरंगिणी’ में भयानक रस के दो भेद किये हैं-

  1. स्वनिष्ठ
  2. परनिष्ठ

स्वनिष्ठ भयानक वहाँ होता है, जहाँ भय का आलम्बन स्वयं आश्रय में रहता है और परनिष्ठ भयानक वहाँ होता है, जहाँ भय का आलम्बन आश्रय में वर्तमान न होकर उससे बाहर, पृथक् होता है, अर्थात् आश्रय स्वयं अपने किये अपराध से ही डरता है। उदाहरण-

'कर्तव्य अपना इस समय होता न मुझको ज्ञात है। कुरुराज चिन्ताग्रस्त मेरा जल रहा सब गात है।'

अतएव मुझको अभय देकर आप रक्षित कीजिए। या पार्थ-प्रण करने विफल अन्यत्र जाने दीजिए’।[2]

अपने वध के लिए अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर जयद्रथ ने यह वचन दुर्योधन से कहे हैं। अभिमन्यु का अपराध आलम्बन है, अर्जुन का प्रण उद्दीपन है, त्रास इत्यादि संचारी हैं तथा जयद्रथ का चिन्तित होना अनुभाव है। इन उपादानों से पुष्ट होकर भय स्थायी भयानक रस की निष्पत्ति में समर्थ हुआ है। परनिष्ठ भयानक रस का उदाहरण-

'एक ओर अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय। बिकल बटोही बीच ही, परयौ मूरछा खाय।'

यहाँ अजगर और सिंह आलम्बन हैं। उन दोनों जीवों की भयानक आकृति तथा चेष्टाएँ उद्दीपन हैं, स्वेद, कम्प, रोमांच आदि संचारी हैं और मूर्च्छा, विकलता आदि अनुभाव हैं। इन सबसे भय स्थायी पुष्ट होकर भयानक रस की प्रतीति कराता है।

कहीं-कहीं भय स्थायी होने पर भी भयानक रस नहीं होता है। क्योंकि वहाँ कवि का अभीष्ट कुछ और भी होता है, यथा-

'सूवनि साजि पढ़ावतु है निज फौज लखे मरहट्ठन केरी।
औरंग आपुनि दुग्ग जमाति बिलोकत तेरिए फौज दरेरी।
साहि-तनै सिवसाहि भई भनि भूषन यों तुव धाक घनेरी।
रातहु द्योस दिलीस तकै तुव सेन कि सूरति सूरति घेरी'।[3]

यहाँ शिवाजी आलम्बन, उनके पराक्रम का स्मरण उद्दीपन, औरंगज़ेब को अपनी ही सेना में शिवाजी की सेना का भ्रम होना अनुभाव तथा चिन्ता, त्रास इत्यादि संचारी हैं। इन सभी अवयवों से भय स्थायी की अभिव्यक्ति होती है। परन्तु कवि का अभीष्ट यहाँ शिवाजी की प्रशंसा करना है। अतएव यहाँ भय ‘राजविषयक रतिभाव’ में मिल गया है और गौण बन गया है। इसीलिए यहाँ भयानक रस की निष्पत्ति नहीं मानी जायेगी।

वर्णन

भयानक रस का श्रृंगार, वीर, रौद्र, हास्य एवं शान्त रस के साथ विरोध बताया गया है। वीरगाथात्मक रासों ग्रन्थों में युद्ध, रण, प्रयाण, विजय आदि अवसरों पर भयानक रस का सुन्दर वर्णन मिलता है। ‘रामचरितमानस’ में लंकाकाण्ड में भयानक के प्रभावशील चित्र अंकित हैं। हनुमान द्वारा लंकादहन का प्रसंग भयानक रस की प्रतीति के लिए पठनीय है। रीति कालीन वीर काव्यों में भी भय का संचार करने वाले अनेक प्रसंग हैं। भूषण की रचनाएँ इस सम्बन्ध में विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

लेखकों द्वारा प्रयोग

भारतेन्दु द्वारा प्रणीत ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक में श्मशान वर्णन के प्रसंग में भयानक रस का सजीव प्रतिफलन हुआ है। इस सम्बन्ध में "रुरुआ चहुँ दिसि ररत डरत सुनिकै नर-नारी" से प्रारम्भ होने वाला पद्य-खण्ड द्रष्टव्य है। वर्तमान काल में मैथिलीशरण गुप्त, श्यामनारायण पांडेय, ‘दिनकर’ इत्यादि की विविध रचनाओं में भयानक रस का उल्लेख्य प्रयोग हुआ है। छायावादी काव्य की प्रकृति के यह रस प्रतिकूल है, परन्तु नवीन काव्य में वैचित्र्य के साथ यत्र-तत्र इसकी भी झलक मिलती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अकबरसाहि : श्रृं. द.
  2. मैथिलीशरण गुप्त : ज.व.
  3. भूषण

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