भारतीय ज़मींदारी प्रथा

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भारतीय ज़मींदारी प्रथा मध्यकालीन तथा औपनिवेशिककालीन भारत में प्रचलित थी। भारत की प्राचीन विचारधारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। भूमि भी वायु, जल एवं प्रकाश की तरह प्रकृतिदत्त उपहार मानी जाती थी। मद्रास (वर्तमान चैन्नई) में ज़मींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज़ शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देने वाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था, परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त ज़मींदारों से किया गया।

ऐतिहासिक तथ्य

  • महर्षि जैमिनि के मतानुसार- "राजा भूमि का समर्पण नहीं कर सकता, क्योंकि यह उसकी संपत्ति नहीं वरन् मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इस पर सबका समान रूप से अधिकार है।"
  • मनु का भी स्पष्ट कथन है कि- "ऋषियों के मतानुसार भूमि स्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है, जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया था।"[1]

अत: प्राचीन भारत के काफ़ी बड़े भाग में भूमि पर ग्राम के प्रधान का निर्वाचन ग्राम समुदाय करता था तथा उसकी नियुक्ति राज्य की सम्मति से होती थी। राज्य उसे भूमिकर न देने पर हटा सकता था, यद्यपि यह पद वंशानुगत था तथा इसकी प्राप्ति के लिये जनमत तथा राज्य स्वीकृति आवश्यक थी। अत: वर्तमान समय के ज़मींदारों से, जो निर्वाचित नहीं होते, वे भिन्न थे।[2]

भूमि का क्रय-विक्रय

भूमि का संपत्ति के रूप में क्रय-विक्रय प्राचीन भारत में संभव नहीं था। इस तथ्य की पुष्टि पश्चात्य विद्वान् बेडेन पावेल तथा सर जॉर्ज कैंपबेल ने भी की है। कैंपबेल का कथन है कि भूमि जोतने का अधिकार एक अधिकार मात्र ही था और हिन्दू व्यवस्था के अनुसार भूमि नहीं माना गया था। आधुनिक अनुसंधानों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि प्राचीन भारत में सामंत, उपरिक, भोगिक, प्रतिहर तथा दंडनायक विद्यमान थे। ये लोग न्यूनाधिक सामंत प्रथा के अनुकूल थे। किंतु इनके अधिकारों तथा कर्तव्यों का पता निश्चय रूप से नहीं हो सका है, सिवाय इसके कि ये लोग अपने स्वामियों को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक भेजते थे। इन अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में भूमि प्रदान की जाती थी।

याज्ञवल्क्य का मत

भूमि व्यवस्था के संबंध में याज्ञवल्क्य के मतानुसार चार वर्ग- 'महीपति', 'क्षेत्रस्वामी', 'कृषक' और 'शिकमी' थे।[3] आचार्य बृहस्पति ने क्षेत्रस्वामी के स्थान में केवल 'स्वामी' शब्द का ही प्रयोग किया है, परंतु इसका स्पष्टीकरण कर दिया है कि स्वामी, राजा और खेतिहर के मध्य का वर्ग था। उपर्युक्त वर्णन केवल भूधृति के वर्गीकरण को इंगित करता है, न कि कृषक को एक आंग्ल दास के स्तर पर पहुँचा देता है। मुख्य प्रश्न तो यह है कि भूमि पर स्वत्व अधिकार किसको- राज्य को, कृषक को अथवा किसी मध्यवर्ती वर्ग को विद्वानों के मतानुसार प्राचीन भारत में यह अधिकार[4] ही था, जो स्वत्व अधिकार नहीं कहा जा सकता।

यवनों की भूमि व्यवस्था

यवन शासनकाल में इस प्राचीन भूमि व्यवस्था में कोई रूपांतर नहीं दिखाई देता और न भूमि-स्वत्व-अधिकारों के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन ही। यवन शासक भूमिकर गाँव के मुखिया द्वारा ही वसूल करते थे और कभी-कभी स्थानीय सरदारों व राजाओं द्वारा, जो अपना स्तर गाँव के मुखिया से ऊँचा होने का दावा करते थे। इन राजाओं के दावे में राज्य अैर कृषक के बीच में एक मध्यवर्ती वर्ग का जन्म प्रतीत होता है। परंतु सामंतवाद पद अवरोध स्थायी रखा गया था, क्योंकि राज्य सर्वदा इन राजाओं को कर्मचारी ही मानते थे। यद्यपि ये राजा वंशानुगत होने लगे थे, तथापि राज्य को इनके पद को देने तथा वापस लेने का अधिकार सदैव प्राप्त था। एक राजा के उत्तराधिकारी को राजा की सनद प्राप्त करने के लिये प्रार्थना पत्र देना पड़ता था और सनद की प्राप्ति के पश्चात्‌ ही वह राजा होता था। 'आइना-ए-अकबरी' में कृषक तथा राज्य के बीच में किसी मध्यवर्ती वर्ग को मान्यता नहीं दी गई है तथा कथित राजा और ज़मींदार सैद्धांतिक और वास्तविक रूप में केवल कर वसूल करने वाले कर्मचारी ही थे।[2]

यह उल्लेखनीय है कि यवन शासकों ने भूमि-स्वामित्व-अधिकार का कभी दावा नहीं किया था। यह बात इन ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट है कि बादशाह औरंगज़ेब ने हुंडी, पालम तथा अन्य स्थानों पर कृषकों से भूमि ख़रीदी थी, जैसा अकबर ने अकबराबाद और इलाहाबाद में दुर्ग बनाने के लिए किया था। ऐसा ही शाहजहाँ ने भी किया था। उक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि यवन शासक केवल कर वसूल करने में ही संपत्ति अधिकार मानते थे, न कि भूमि में। उनके शासनकाल में कृषक के अधिकारों को उच्चतम मान्यता दी गई थी। कृषक अपना कर राजा तथा ग्राम के मुखिया द्वारा ही देता था और राजा तथा मुखिया को राज्य द्वारा इस कार्य का पारिश्रमिक मिलता था।

अर्धसामंतवादी भावना

सन 1707 ई. में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के पश्चात् कृषकों के अधिकारों का लोप धीरे-धीरे आरंभ हुआ, जबकि केंद्रीय सत्ता शिथिल पड़ने लगी। इस अराजकता के समय में अर्धसामंतवादी स्वार्थों की मनोभावना का प्रादुर्भाव हुआ। जब राज्य की सत्ता शिथिल पड़ने लगी, राज्य के कर्मचारी प्रजा के जानमाल की रक्षा करने में असमर्थ होने लगे। फलस्वरूप ग्राम निवासी रक्षा के लिये शक्तिशाली कर्मचारी एवं राजा या मुखिया लोगों का सहारा लेने लगे। इन लोगों ने स्वभावत: शरणार्थी कृषकों के भूम्यधिकारों पर आक्रमण किया। इन परिस्थितियों में ज़मींदारी प्रथा के अंकुर पाए जाते हैं। परंतु इस संकट काल में भी कृषकों के भूम्यधिकारों का पूर्ण समर्पण नहीं हुआ था।

ब्रिटिश काल में ज़मींदारी प्रथा का उदय

भारत में अंग्रेज़ों के आगमन काल से ही ज़मींदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज़ शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी हैं और कृषक उनकी प्रजा है, इसलिये उन्होंने स्थायी बंदोवस्त तथा अस्थायी बंदोवस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और ज़मींदारों से किए। यद्यपि राजनीतिक औचित्य से प्रभावित होकर उसने एक एक परगना हर कर वसूल करने वाले इजारेदार को पाँच वर्ष के लिये पट्टे पर दे दिया। इस प्रकार ज़मींदारी प्रथा को अंग्रज़ों ने मान्यता प्रदान की, यद्यपि आरंभ में उनका विचार कृषकों को उनके अधिकारों से वंचित करने का नहीं था। सन 1786 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस लॉर्ड वारेन हेस्टिगज के बाद गवर्नर-जनरल हुआ। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस भी ज़मींदारी प्रथा के पक्ष में था। उसने सन 1791 ई. बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दस वर्षीय बंदोबस्त की आज्ञा दी। दो वर्ष पश्चात् 'बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स' ने इस दस वर्षीय योजना को स्थायी बंदोबस्त[5] बना देने की अनुमति दे दी।[2]

अंग्रेज़ शासकों की नीलाम नीति

मद्रास (वर्तमान चैन्नई) में ज़मींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज़ शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देने वाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था, परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त ज़मींदारों से किया गया। महान् इतिहासकार सर विंसेंट ए. स्मिथ, अलीगढ़ की बंदोबस्त रिपोर्ट में, यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि प्रचलित भूम्यधिकारों की उपेक्षा करते हुए केवल उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर बंदोबस्त इजारदारों[6] से किए गए। अन्यायपूर्ण कर राशि इकट्ठा करने का यह सबसे सरल उपाय है, तथा यह राजनीति के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है, क्योंकि इसके फलस्वरूप सरकार को एक शक्तिशाली तथा धनी वर्ग की सहायता मिलती रहेगी। इस प्रकार भारतवर्ष के इतिहास में सर्वप्रथम इन बंदोबस्तों द्वारा राज्य और कृषकों के बीच में जमींदारों का वर्ग अंग्रेज़ों की नीति द्वारा स्थापित हुआ, जिसके फलस्वरूप कृषकों के भू-संपत्ति अधिकार, जो अनादि काल से चले आ रहे थे, छिन गए। यह मध्यवर्ती वर्ग दिन प्रतिदिन धनी होता गया, क्योंकि अंग्रेज़ शासक अपनी कर राशि में से अधिक से अधिक हिस्सा उन्हें प्रलोभन के रूप में देते रहे।

इन बंदोबस्तों में कृषकों के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया था, जिसके परिणामस्वरूप उनका दु:ख, अपमान एवं दारिद्रय दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। कई बार अंग्रेज़ शासकों ने भी इस ओर ध्यान दिलाया कि कृषकों की भूधृति की रक्षा की जाये एवं उनका लगान बंदोबस्त के समय तक निर्धारित कर दिया जाये। फिर भी कुछ नहीं किया गया। इसका कारण यह था कि अंग्रेज़ शासकों की धारणा थी, कि ज़मींदारों के साथ व्यवहार में उदारता दिखाने पर जब वे संपन्न एवं संतुष्ट रहेंगे तो वे अपने आसामियों को नहीं सताएँगे, जिसके फलस्वरूप वे भी खुशहाल रहेंगे। परंतु यह उनकी महान् भूल थी, क्योंकि जमींदारों ने हमेशा ही अपने कर्तव्य के साथ विश्वासघात किया। अत: अंग्रेज़ शासक यह महसूस करने लगे कि इस भूल का सुधार किया जाए। फलस्वरूप उन्होंने कृषकों की दशा सुधारने के लिए भूमि संबंधी विधानों की व्यवस्था की। यह कदम ज़मींदारी प्रथा के अस्त की दिशा में प्रथम चरण कहा जा सकता है।[2]

भूमि संबंधी पहला अधिनियम

इस प्रथम चरण में, जो सन 1859 ई. से 1929 ई. तक रहा, जो क़ानून बने उनसे ज़मींदारों के लगान बढ़ाने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए और उच्च श्रेणी के कृषकों को लाभ भी हुए। किंतु इन क़ानूनों का मुख्य उद्देश्य ज़मींदारों को लगान वसूल करने में सहूलियत देने का था, जिससे वे राज्य को राजस्व ठीक समय पर दे सकें। सन 1959 ई. में भूमि संबंधी पहला अधिनियम पास हुआ। यह अधिनियम समस्त ब्रिटिश भारत के लिये एक आदर्श भूमि-अधिनियम था, जिसके अनुरूप अधिनियम भारत के सभी भागों में पास हुए और समय-समय पर उनमें संशोधन भी किए गए ताकि असंतुष्ट कृषकों को शांत किया जा सके। किंतु ज़मींदार फिर भी कृषकों को अपने न्यायपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण करों को वसूलने के लिये निचोड़ते रहे, जिससे किसानों में घोर असंतोष तथा बेचैनी फैलने लगी।

किसान आंदोलन

ज़मींदारी प्रथा के अस्त के क्रम में दूसरा चरण सन 1930 ई. से 1944 ई. तक रहा। इस समय में सारे देश में किसान आंदोलन होने लगे। इन आंदोलनों का बीज एक किसान सभा ने बोया था, जो 'अखिल भारतीय कांग्रेस' की इलाहाबाद बैठक में 11 फ़रवरी, सन 1918 ई. को हुई थी। तत्पश्चात्‌ कांग्रेस किसानों के हितों को आगे बढ़ाने लगी। परिणामस्वरूप ग्रामीण जनता में काफ़ी जाग्रति पैदा हो गई। पं. जवाहरलाल नेहरू ने 'यू. पी. कांग्रेस कमेटी' में 27 अक्टूबर, 1928 को घोषणा की कि राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है, जब तक किसानों को शोषण से मुक्ति न प्राप्त हो। शनै: शनै: किसानों की जागरूकता बढ़ी और साथ ही साथ उनकी व्याकुलता भी। किसान वर्ग अब अधिक मुखर हो गया और भूधृति की स्थिरता एवं लगान में कमी की मांग करने लगा।

किसान आंदोलनों से प्रभावित होकर रैय्यतवाड़ी क्षेत्रों में नये अधिनियम बनाए गये, जिनसे कृषकों के हितों की रक्षा हो सके। 'मलाबार टेनेंसी ऐक्ट' (1930 ई.) इस संबंध में सीमा चिन्ह है। इसके बाद 'भोपाल लैंड रेवेन्यू ऐक्ट', 1935 तथा 'आसाम टेनेंसी ऐक्ट' 1935 पास हुए। 'गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट', 1935 के अर्न्तगत जब ‘प्राविंशल आटोनोमी’ का उद्घाटन हुआ तो प्रांतीय सरकारों ने भूमि सुधार अधिनियमों की व्यवस्था की, जिनमें कृषकों को और अधिकार प्रदान किए गए तथा ज़मींदारों के अधिकारों की कटौती की गई। 'यू. पी. टेनेंसी ऐक्ट', 1939 तथा 'बंबई टेनेंसी ऐक्ट', 1939 ये विशिष्ट उदाहरण ऐसे व्यापक अधिनियमों के हैं, जिनके द्वारा कृषकों को मौरूसी अधिकार दिए गए एवं कृषकों के हित में ज़मींदारों के कतिपय अधिकार छीन लिये गये।[2]

ज़मींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव

इन भूमि सुधार अधिनियमों के बनने पर भी ज़मींदारी प्रथा की बुराइयाँ विद्यमान रहीं, यद्यपि काफ़ी हद तक ज़मींदारों को पंगु बना दिया गया था। इन ज़मींदारों को नेहरू ‘ब्रिटिश सरकार की अतिलालित संतान[7]’ कहा करते थे। वे भूतकालीन सामंतवादी प्रथा के प्रतीक थे, जो कि आधुनिक परिस्थतियों के बिल्कुल प्रतिकूल हो गई थी। इसलिए 'इंडियन नेशनल कांग्रेस' ने कई बार इस बात की घोषणा की कि ज़मींदारी उन्मूलन को कांग्रेस के कार्यक्रम में प्रमुख स्थान देना चाहिए। एक किसान कफ्रोंंस 17 अप्रैल, 28 अप्रैल सन 1935 ई. को सरदार पटेल के सभापतित्व में इलाहाबाद में हुई थी। उसने ज़मींदारी उन्मूलन को प्रस्ताव पास करके इस ओर एक प्रमुख कदम उठाया। इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई थी कि ‘ग्राम कल्याण के दृष्टिकोण से वर्तमान ज़मींदारी प्रथा बिल्कुल विपरीत है। यह प्रथा ब्रिटिश शासन के आगमन में लायी गयी और इससे ग्रामीण जीवन पूर्णतया तहस-नहस हो गया है’। परंतु सन 1939 ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने के कारण भूमि सुधार का सारा कार्यक्रम रुक गया।

युद्ध की समाप्ति के बाद ज़मींदारी प्रथा के अंत का अंतिम चरण आरंभ हुआ जो सन 1945 से 1955 तक चला। युद्ध समाप्त होते ही ब्रिटिश सरकार ने 1945 ई. में 'गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट-1935' ई. के अंतर्गत प्रांतीय सदनों के चुनाव करने का फैसला किया। कांग्रेस ने चुनाव में भाग लेने का निश्चय किया और दिसंबर, 1945 में चुनाव घोषणा पत्र निकाला। इस घोषणा पत्र में ज़मींदारी उन्मूलन के विषय में स्पष्ट तय कहा गया कि ‘भूमि व्यवस्था का सुधार, जिसकी भारत में अति आवश्यकता है, कृषकों तथा राज्य के बीच मध्यवर्ती वर्ग को हटाने से संबंधित है। इसलिए इस मध्यवर्ती वर्ग के अधिकारों का उचित प्रतिकर देकर प्राप्त कर लिया जाना चाहिए।" इस घोषणा पत्र से अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा पत्रकार सभी सहमत थे।

आर्थिक विकास रोकने वाली प्रथा

ज़मींदारी प्रथा भारतीय आर्थिक विकास में रुकावट डालती थी, क्योंकि बड़े ज़मींदार हमेशा प्रतिक्रियावाद के समर्थक थे। ‘लंदन इकोनोमिस्ट’ ने इनके विषय में लिखा था कि "इनमें से अधिकतर ‘थैकरसे’ के पात्र ‘लॉर्ड स्टीन’ की तरह दुश्चरित्र, ‘जेन आस्टीन’ के ‘मिस्टर बेनेट’ की तरह आलसी, ‘सुर्तीजस्क्वायर’ की तरह शराबी थे।[8] 'बंगाल लैंड कमीशन' (सन 1940 ई.) भी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि "सन 1793 ई. का स्थायी बंदोबस्त उस समय जिन भी कारणों से उचित समझा गया हो, आज की परिस्थिति में अनुपयुक्त है और ज़मींदारी प्रथा में इतनी बुराइयाँ उपज चुकी हैं कि यह अब राष्ट्र के हित में किसी भी प्रकार उपयोगी नहीं रह गई है।" भारतीय तथा पश्चात्य अर्थवेत्ताओं की राय में ज़मींदारी उन्मूलन अधिक कृषि उत्पादन के लिए अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा संसार के हर भाग में समयानुकूल न होने के कारण समाप्त हो चुकी है। पुनश्च, यह प्रथा राज्य के लिये अधिक खर्चीली है। सर्वोपरि, यह प्रथा इस समय ऐसी स्थिति पर पहुँच चुकी थी कि यदि इसका उन्मूलन न किया गया होता तो इसके कारण ने केवल राष्ट्रीय आर्थिक समस्या पर ही वरन् समाज सुरक्षा पर भी विपत्ति आ पड़ती।[2]

प्रथा की समाप्ति

अत: सन 1946 ई. में चुनाव में सफलता के फलस्वरूप जब हर प्रांत में कांग्रेस के मंत्रिमंडल बने तो चुनाव प्रतिज्ञा के अनुसार ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिये विधेयक प्रस्तुत किये गये। ये विधेयक सन 1950 से 1955 तक बनकर चालू हो गए, जिनके परिणामस्वरूप ज़मींदारी प्रथा का भारत में उन्मूलन हो गया और कृषकों एवं राज्य के बीच पुन: सीधा संबंध स्थापित हो गया। भूमि के स्वत्वाधिकार अब कृषकों को वापस मिल गए, जिनका उपयोग वे अनादि परंपरागत काल से करते चले आए थे। इस प्रकार जिस ज़मींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज़ों के आगमन से हुआ था, उसका अंत भी उनके शासन के समाप्त होते ही हो गया। इस प्रथा की समाप्ति पर किसी ने तनिक भी शोक प्रकट नहीं किया, क्योंकि इसका विनाश होते ही पुराने सिद्धांत की, जिसके अनुसार भूमि का स्वामी कृषक होता था, पुनरावृति हुई।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जोता, मनुस्मृति, 8, 237,239
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 2.6 भारतीय ज़मींदारी प्रथा (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2015।
  3. याज्ञवल्क्य 2.158
  4. Servitus
  5. permanent settlement
  6. revenue farmers
  7. Spoilt child
  8. Indian land porblem, G.D. Patel