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मंथरा

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संक्षिप्त परिचय
मंथरा
मंथरा तथा कैकेयी
अवतार गन्धर्व कन्या
समय-काल रामायण काल
महाजनपद केकय
निवास अयोध्या
प्राकृतिक स्वरूप कुबड़ी
संदर्भ ग्रंथ रामायण
अपकीर्ति राम को वनवास और भरत को अयोध्या की राजगद्दी दिलाने के लिए रानी कैकेयी को मंथरा ने ही उकसाया था।
संबंधित लेख कैकेयी, भरत, रामायण
अन्य जानकारी जब कैकेयी का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ, तब मंथरा भी कैकेयी के साथ ही अयोध्या आ गई थी।

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मंथरा अयोध्या के राजा दशरथ की रानी कैकेयी की प्रिय दासी थी। वह एक कुबड़ी स्त्री थी।

किंवदंती

एक किंवदंती के अनुसार यह माना जाता है कि पूर्वजन्म में मंथरा 'दुन्दुभि' नाम की एक गन्धर्व कन्या थी। 'रामचरितमानस' के अनुसार मंथरा दासी के कहने पर ही राम के राज्याभिषेक होने के अवसर पर कैकयी की मति फिर गयी और उसने राजा दशरथ से दो वरदान माँगे। पहले वर में उसने भरत को राज्यपद और दूसरे वर में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा।

अयोध्या आगमन

मंथरा और रानी कैकेयी 'केकय देश' की थीं। 'केकय' रामायण तथा परवर्ती काल में पंजाब का एक जनपद था। इसे 'कैकेय', 'कैकस' या 'कैकेयस' के नाम से भी जाना जाता था। यह गंधार और विपाशा या बियास नदी के बीच का प्रदेश था। 'वाल्मीकि रामायण' से विदित होता है कि केकय जनपद की राजधानी 'राजगृह' या 'गिरिव्रज' में थी। जब कैकेयी का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ, तब मंथरा भी कैकेयी के साथ ही अयोध्या आ गई थी।

राम का राजतिलक

जब राम के राजतिलक का समाचार अयोध्या के घर-घर में पहुँच गया, तब सारा नगर प्रसन्नता से झूम उठा। प्रत्येक घर में मंगलाचार होने लगे। रातभर स्त्रियाँ मधुर कण्ठ से मंगलगान करती रहीं। सूर्योदय होते ही नगर निवासी अपने-अपने घरों को वन्दनवार, ध्वाजा-पताका आदि से सजाने लगे। नाना प्रकार के सुगन्धित एवं विभिन्न रंग के पुष्पों से सजे हाट बाज़ारों की शोभा वर्णनातीत हो गई। नट, नर्तक, गवैया आदि अपने अद्भुत खेल दिखाकर पुरवासियों का मनोरंजन करने लगे। स्थान-स्थान पर कदली-स्तम्भों के द्वार बनाये गये। ऐसा प्रतीत होता था कि अयोध्या नगरी नववधू की भाँति ऋंगार कर राम के रूप में वर के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।[1]

मंथरा की सोच

महारानी कैकेयी की प्रिय दासी मंथरा के हृदय को श्रीराम के राजतिलक का समाचार सुनकर और नगर की इस अभूतपूर्व छटा को देखकर बड़ा आघात लगा। वह सोचने लगी कि कौशल्या का पुत्र राजा बनेगा तो कौशल्या राजमाता कहलायेगी। जब कौशल्या की स्थिति अन्य रानियों से श्रेष्ठ हो जायेगी तो उसकी दासियाँ भी अपने आपको मुझसे श्रेष्ठ समझने लगेंगीं। इस समय कैकेयी राजा की सर्वाधिक प्रिय रानी है। राजमहल पर एक प्रकार से उसका शासन चलता है। इसीलिये राजप्रासाद की सब दासियाँ मेरा सम्मान करती हैं। किन्तु कौशल्या के राजमाता बनने पर वे मुझे हेय दृष्टि से देखने लगेंगीं। उनकी उस दृष्टि को मैं कैसे सहन कर सकूँगी। नहीं, यह सब कुछ मैं नहीं सह सकूँगी। मुझे इस विषय में अवश्य कुछ करना चाहिये।

राम के राज्याभिषेक का समाचार

मंथरा ने महल में लेटी हुई महारानी कैकेयी के पास जाकर कहा- "महारानी! उठिये, यह समय सोने का नहीं है।

मंथरा और कैकेयी

क्या आपको पता है कि कल महाराज दशरथ राम का युवराज के रूप में अभिषेक करेंगे?" कैकेयी मंथरा से यह समाचार सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुईं और पुरस्कार के रूप में मंथरा को एक बहुमूल्य आभूषण देते हुये बोली- "मंथरे! राम मुझे अत्यंत प्रिय है। तूने मुझे बड़ा प्रिय समाचार सुनाया है। यह आभूषण तो कुछ भी नहीं है, इस समाचार के लाने के लिये तू जो माँगेगी मैं तुझे दूँगी।" यह सुन कर मंथरा क्रोध से जल-भुन गई। कैकेयी द्वारा दिये गये आभूषण को फेंकते हुये उसने कहा- "रानी आप बड़ी नादान हैं। यह मत भूलिये कि सौत का बेटा शत्रु होता है। कौशल्या का अभ्युदय होगा और उसके राजमाता बन जाने पर आप उसकी दासी बन जायेंगी। आपके पुत्र भरत को भी राम की दासता स्वीकर करनी पड़ेगी। भरत के प्रभुत्व का विनाश होने पर आपकी बहू भी एक दासी का जीवन व्यतीत करेगी।" मंथरा की इस बात पर कैकेयी बोली- "मंथरा तू यह समझने का प्रयत्न क्यों नहीं करती कि राम महाराज के बड़े पुत्र हैं और सद्गुणों में सब भाइयों से श्रेष्ठ हैं। राम और भरत में अत्यधिक प्रेम भी है और राम को राज्य मिलने का अर्थ है, भरत को राज्य मिलना, क्योंकि वे सब भाइयों को अपने ही समान समझते हैं।"[1]

कैकेयी को प्रेरित करना

कैकेयी के इन वचनों ने मंथरा को और भी दुःखी कर दिया। वह बोली- "रानी! आप यह बात क्यों भूल जाती हैं कि राम के बाद राम का पुत्र ही अयोध्या के राजसिंहासन का अधिकारी होगा। इस प्रकार भरत राज परम्परा से अलग हो जायेंगे। याद रखिये कि राज्य मिल जाने के बाद राम भरत को राज्य से निर्वासित कर देंगे। सम्भव है कि वे भरत को यमलोक ही भेज दें।" मंथरा के मुख से भरत के अनिष्ट की आशंका की बात सुनकर कैकेयी विचलित हो उठी। उसने मंथरा से पूछा- "ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?" मंथरा बोली- "सम्भवतः आपको स्मरण होगा कि एक बार देवासुर संग्राम के समय आपको साथ लेकर आपके पति युद्ध में इन्द्र की सहायता करने के लिये गये थे। उस युद्ध में असुरों ने अस्त्र-शस्त्रों से महाराज दशरथ के शरीर को जर्जर कर दिया था और वे मूर्छित हो गये थे। आपने सारथी बन कर उनकी रक्षा की थी, जिसके बदले में उन्होंने आपसे दो वरदान माँगने के लिये कहा था। इस पर आपने कह दिया था कि जब कभी मुझे आवश्यकता होगी मैं इन वरदानों को माँग लूँगी। अब उन वरदानों को माँगने का अवसर आ गया है। आप एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर से राम के लिये चौदह वर्ष तक का वनवास माँग लीजिये। इस कार्य की सिद्धि के लिये आप मैले-कुचैले वस्त्र पहन कर कोपभवन में जाकर बिना बिस्तर बिछाये भूमि पर लेट जाइये। आपको दुःखी और कुपित देखकर महाराज आपको मनाने का प्रयत्न करेंगे। आप उसी समय अपने दोनों वर माँग लीजिये। वर माँगने के पूर्व उनसे वचन अवश्य ले लेना, क्यों कि वचन देने के पश्चात् वे दोनों वरदानों को देने के लिये बाध्य हो जायेंगे।" मंथरा का परामर्श मानकर कैकेयी ने ऐसा ही किया और कोपभवन में जाकर लेट गई।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 समर्पण (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 07 मई, 2013।

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