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रोटियाँ -नज़ीर अकबराबादी

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रोटियाँ -नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी
कवि नज़ीर अकबराबादी
जन्म 1735
जन्म स्थान दिल्ली
मृत्यु 1830
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
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नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ
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जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों[1] से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
         जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।

        रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
        करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
        दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
        ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
                 सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।
 
जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है ।
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है ।।
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हुज़ूर है ।
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है ।।
         इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ ।।3।।

        आवे तवे तनूर का जिस जा ज़ुबाँ पे नाम ।
        या चक्की चूल्हे के जहाँ गुलज़ार हो तमाम ।।
        वां सर झुका के कीजे दण्डवत और सलाम ।
        इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम ।।
                 पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ ।।4।।

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर-पूर ।
आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर ।।
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी या मोती चूर ।
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर ।।
         इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियाँ ।।5।।

        पूछा किसी ने यह किसी कामिल[2] फक़ीर से ।
        ये मेह्र[3]-ओ-माह[4] हक़ ने बनाए हैं काहे के ।।
        वो सुन के बोला, बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे ।
        हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते ।।
                 बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ ।।6।।

फिर पूछा उस ने कहिए यह है दिल का नूर क्या ?
इस के मुशाहिर्द[5] में है ख़िलता ज़हूर[6] क्या ?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
कश्फ़-उल-क़ुलूब[7] और ये कश्फ़-उल-कुबूर[8] क्या ?
         जितने हैं कश्फ़[9] सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।7।।

        रोटी जब आई पेट में सौ कन्द[10] घुल गए ।
        गुलज़ार[11] फूले आँखों में और ऐश तुल गए ।।
        दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गए ।
        चौदह तबक़[12]के जितने थे सब भेद खुल गए ।।
                 यह कश्फ़ यह कमाल दिखाती हैं रोटियाँ ।।8।।

रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो ।
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो ।।
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो ।
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो ।।
         अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ ।।9।।

        अब जिनके आगे मालपूए भर के थाल हैं ।
        पूरे भगत उन्हें कहो, साहब के लाल हैं ।।
        और जिन के आगे रोग़नी और शीरमाल हैं ।
        आरिफ़ वही हैं और वही साहिब कमाल हैं ।।
                 पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ ।।10।।

कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते ।
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते ।।
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते ।
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते ।।
         जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।11।।

        रोटी से नाचे प्यादा क़वायद दिखा-दिखा ।
        असवार नाचे घोड़े को कावा लगा-लगा ।।
        घुँघरू को बाँधे पैक[13] भी फिरता है जा बजा ।
        और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा बजा ।।
                 सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।

रोटी के नाच तो हैं सभी ख़ल्क में बड़े ।
कुछ भाँड भगतिए ये नहीं फिरते नाचते ।।
ये रण्डियाँ जो नाचें हैं घूँघट को मुँह पे ले ।
घूँघट न जानो दोस्तो ! तुम जिनहार[14] इसे ।।
         उस पर्दे में ये अपनी कमाती हैं रोटियाँ ।।13।।

        वह जो नाचने में बताती हैं भाव-ताव ।
        चितवन इशारतों से कहें हैं कि ’रोटी लाव’ ।।
        रोटी के सब सिंगार हैं रोटी के राव-चाव ।
        रंडी की ताब क्या करे जो करे इस कदर बनाव ।।
                 यह आन, यह झमक तो दिखाती हैं रोटियाँ ।।14।।

अशराफ़ों[15] ने जो अपनी ये जातें छुपाई हैं ।
सच पूछिए, तो अपनी ये शानें बढ़ाई हैं ।।
कहिए उन्हीं की रोटियाँ कि किसने खाई हैं ।
अशराफ़[16] सब में कहिए, तो अब नानबाई हैं ।।
         जिनकी दुकान से हर कहीं जाती हैं रोटियाँ ।।15।।

        भटियारियाँ कहावें न अब क्योंकि रानियाँ ।
        मेहतर खसम हैं उनके वे हैं मेहतरानियाँ ।।
        ज़ातों में जितने और हैं क़िस्से कहानियाँ ।
        सब में उन्हीं की ज़ात को ऊँची हैं बानियाँ ।।
                 किस वास्ते की सब ये पकाती हैं रोटियाँ ।।16।।

दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई[17] है ।
ना दुश्मनी ना दोस्ती ना तुन्दखोई[18] है ।।
कोई किसी का, और किसी का न कोई है ।
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है ।।
         नौकर नफ़र[19] ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ ।।17।।

        रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर ।
        रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर ।।
        या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या फ़तीर[20]
        गेहूँ, ज्वार, बाजरे की जैसी भी हो ‘नज़ीर‘ ।।
                 हमको तो सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ ।।18।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. परियों जैसी शक्ल सूरत वाली
  2. निपुण
  3. सूर्य
  4. चाँद
  5. निरीक्षण
  6. प्रकट
  7. मन की गुप्त जानकारी देना
  8. क़ब्र की गुप्त जानकारी देना
  9. गुप्तज्ञान
  10. मिठाई
  11. बाग़
  12. चौदह लोक, इस्लामी दर्शन के अनुसार लोक चौदह हैं।
  13. डाकिया या पत्रवाहक
  14. हरगिज़
  15. कुलीन
  16. शरीफ़ का बहुवचन
  17. अच्छाई
  18. बदमिज़ाज़ी
  19. मज़दूर
  20. गुंधे हुए आटे की लोई

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