वैदेही वनवास पंचदश सर्ग

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वैदेही वनवास पंचदश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली खंडकाव्य
सर्ग / छंद सुतवती सीता / तिलोकी
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वैदेही वनवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल अठारह (18) सर्ग
वैदेही वनवास प्रथम सर्ग
वैदेही वनवास द्वितीय सर्ग
वैदेही वनवास तृतीय सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्थ सर्ग
वैदेही वनवास पंचम सर्ग
वैदेही वनवास षष्ठ सर्ग
वैदेही वनवास सप्तम सर्ग
वैदेही वनवास अष्टम सर्ग
वैदेही वनवास नवम सर्ग
वैदेही वनवास दशम सर्ग
वैदेही वनवास एकादश सर्ग
वैदेही वनवास द्वादश सर्ग
वैदेही वनवास त्रयोदश सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्दश सर्ग
वैदेही वनवास पंचदश सर्ग
वैदेही वनवास षोडश सर्ग
वैदेही वनवास सप्तदश सर्ग
वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग

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परम-सरसता से प्रवाहिता सुरसरी।
कल-कल रव से कलित-कीर्ति थीं गा रही॥
किसी अलौकिक-कीर्तिमान-लोकेश की।
लहरें उठ थीं ललित-नृत्य दिखला रही॥1॥

अरुण-अरुणिमा उषा-रंगिणी-लालिमा॥
गगनांगण में खेल लोप हो चली थीं॥
रवि-किरणें अब थीं निज-कला दिखा रही।
जो प्राची के प्रिय-पलने में पली थीं॥2॥

सरल-बालिकायें सी कलिकायें-सकल।
खोल-खोल मुँह केलि दिखा खिल रही थीं॥
सरस-वायु-संचार हुए सब बेलियाँ।
विलस विलस बल खा खा कर हिल रही थीं॥3॥

समय कुसुम-कोमल प्रभात-शिशु को विहँस।
दिवस दिव्यतम-गोदी में था दे रहा॥
भोलेपन पर बन विमुग्ध उत्फुल्ल हो।
वह उसको था ललक-ललक कर ले रहा॥4॥

कहीं कान्ति-संकलित कहीं कल-केलिमय।
और कहीं सरिता-प्रवाह उच्छ्वसित था॥
खग कलरव आकलित कान्त-तरु पुंज से।
उसका सज्जित-कूल उल्लसित लसित था॥5॥

इसी कूल पर सीता सुअनों के सहित।
धीरे-धीरे पद-चालन कर रही थीं॥
उनके मन की बातें मृदुता साथ कह।
अन्तस्तल में वर-विनोद भर रही थीं॥6॥

सात बरस के दोनों सुत थे हो गए।
इसीलिए जिज्ञासा थी प्रबला हुई॥
माता से थे नाना-बातें पूछते।
यथावसर वे प्रश्न किया करते कई॥7॥

सरिता में थीं तरल-तरंगें उठ रहीं।
बार-बार अवलोक उन्हें कुश ने कहा॥
ए क्या हैं? ए किससे क्यों हैं खेलती।
मा इनमें है कैसे दीपक बल रहा॥8॥

सुने उक्तियाँ उनकी सत्यवती हँसी।
किन्तु प्यार से माँ ने ये बातें कहीं॥
ए हैं दुहितायें सरिता सुन्दरी की।
गोद में उसी की हैं क्रीड़ा कर रही॥9॥

जननी हैं सुरसरी, समीरण है जनक।
हुआ है इन्हीं दोनों से इनका सृजन॥
ए हैं परम-चंचला-सरसा-कोमला।
रवि-कर से है विलसित इनका तरल-तन॥10॥

जैसे सम्मुख से सारे-बालुका-कण।
चमक रहे हैं मिले दिवस-मणि की चमक॥
वैसे ही दिनकर की कान्ति-विभूति से।
दिव्य बने लहरें भी पाती हैं दमक॥11॥

तात तुमारे पिता का मनोरम-मुकुट।
रवि-कर से जैसा बनता है दिव्यतम॥
वह अमूल्य-मणि-मंजुलता-सर्वस्व है।
दृग-निमित्त है लोकोत्तर-आलोक सम॥12॥

यह सुन लव ने माता का अंचल पकड़।
कहा ठुनुक कर अम्मा हम लेंगे मुकुट॥
सीता ने सुत चिबुक थामकर यह कहा।
तात! तुमारे पिता तुम्हें देंगे मुकुट॥13॥

कुश बोले क्या हम न पा सकेंगे मुकुट।
सीता बोलीं तुम तो लव से हो बड़े॥
अत: मुकुट तुमको पहले ही मिलेगा।
दोनों में होंगे अनुपम-हीरे जड़े॥14॥

दोनों भ्राता शस्त्र-शास्त्र में निपुण हो।
अवध धाम में पहुँचोगे सानन्द जब॥
पाकर रविकुल-रवि से दिव सी दिव्यता।
रत्न-मुकुट-मण्डित होगे तुम लोग तब॥15॥

इसी समय कतिपय-चमकीली-मछलियाँ।
पुलिन-सलिल में तिरती दिखलाई पड़ीं॥
उन्हें देखने लगे लव किलक-किलक कर।
कुश की चंचल-ऑंखें भी उन पर अड़ीं॥16॥

उभय उन्हें देखते रहे कुछ काल तक।
फिर लव ने ललकित हो माँ से यह कहा॥
मैं लूँगा मछलियाँ क्या उन्हें पकड़ लूँ।
माँ बोलीं सुत यह अनुचित होगा महा॥17॥

जैसे तुम दोनों हो मेरे लाड़िले।
तुम्हें साथ ले जैसे मैं हूँ घूमती॥
गले लगाती हूँ तुमसे खेलती हूँ।
जैसे मैं हूँ तुम्हें प्यार से चूमती॥18॥

वैसे ही हो केलि-निरत मछलियाँ भी।
हैं बच्चों के सहित सलिल में विलसती॥
देखो तो कैसा हिल मिल हैं खेलती।
मिला-मिला कर मुँह कैसी हैं सरसती॥19॥

यदि कोई तुमको मुझसे तुमसे मुझे।
छीने तो बतला दो क्या होगी दशा॥
कोमल से कोमल बहु-व्याकुल-हृदय को।
क्या न लगेगी विषम-वेदना की कशा॥20॥

लव बोले आयेगा मुझको छीनने-
जो, मैं मारूँगा उसको दूँगा डरा॥
कहा जनकजा ने क्यों ऐसा करोगे।
इसीलिए न कि अनुचित करना है बुरा॥21॥

फिर तुम क्यों अनुचित करना चाहते हो।
कभी किसी को नहीं सताना चाहिए॥
उनके बच्चे हों अथवा हों मछलियाँ।
कभी नहीं उनको कलपाना चाहिए॥22॥

देखो वे हैं कितनी सुथरी सुन्दरी।
कैसा पुलकित हो हो वे हैं फिर रहीं॥
वहाँ गये उनका सुख होगा किरकिरा।
किन्तु पकड़ पाओगे उनको तुम नहीं॥23॥

जीव-जन्तु जितने जगती में हैं बने।
सबका भला किया करना ही है भला॥
निरअपराध को सता करें अपराध क्यों॥
वृथा किसी पर क्यों कोई लाये बला॥24॥

जल को विमल बनाती हैं ये मछलियाँ।
पूत-प्रेम का पाठ पढ़ाती हैं सदा॥
प्रियतम जल से बिछुड़े वे जीती नहीं।
किसी प्रेमिका पर क्यों आये आपदा॥25॥

इतना कहते जनक-नन्दिनी नयन में।
जल भर आया और कलेजा हिल गया॥
मानो व्याकुल बनी युगल-मछलियों को।
यथावसर अनुकूल-सलिल था मिल गया॥26॥

जल में जल से गुरु पदार्थ हैं डूबते।
माँ तुमने मुझसे हैं ए बातें कहीं॥
काठ कहा जाता है गुरुतर वारि से।
क्यों नौका जल में निमग्न होती नहीं॥27॥

सुने प्रश्न कुश का माता ने यह कहा।
बड़े बड़ाई को हैं कभी न भूलते॥
जल तरुओं को सींच-सींच है पालता।
उसके बल से वे हैं फलते-फूलते॥28॥

जब वे होते तप्त बनाता तर उन्हें।
जब होते निर्बल तब कर देता सबल॥
उसी की सरसता का अवलम्बन मिले।
अनुपम-रस पाते थे उनके सकल-फल॥29॥

वह जल देता क्यों उस नौका को डुबा।
जो तरु के तन द्वारा है निर्मित हुई॥
सदा एक रस रहती है उत्तम-प्रकृति।
तन-हित करती है तनबिन कर भी रुई॥30॥

है मुँह देखी प्रीति, प्रीति सच्ची नहीं।
वह होती है असम, स्वार्थ-साधन-रता॥
जीते जगती रह, है मरे न भूलती॥
पूत सलिल सी पूत-चित्त की पूतता॥31॥

जितने तरु प्रतिबिम्बित थे सरि-सलिल में।
उन्हें कुछ समय तक लव रहे विलोकते॥
फिर माता से पूछा क्या ए कूल द्रुम।
जल में अपना आनन हैं अवलोकते॥32॥

माँ बोलीं वे क्यों जल में मुँह देखते।
जो हैं ज्ञान-रहित जो जड़ता-धाम हैं॥
है छाया ग्रहिणी-शक्ति विमलाम्बु में।
तरु प्रतिबिम्बितकरण उसी का काम है॥33॥

सत्य बात सुत! मैंने बतला दी तुम्हें।
किन्तु क्रियायें तरु की हैं शिक्षा भरी॥
तुम लोगों को यही चाहिए सीख लो।
मिले जहाँ पर कोई शिक्षा हितकरी॥34॥

सरिता सेचन कर तरुओं का सलिल से।
हरा-भरा रखकर उनको है पालती॥
अवसर पर तर रख, कर शीतल तपन में।
जीवन से उनमें है जीवन डालती॥35॥

यथासमय तो उसको छाया-दान कर।
तरुवर भी उस पर बरसाते फूल हैं॥
उसके सुअनों को देते हैं सरस-फल।
सज्जित उनसे रहते उसके कूल हैं॥36॥

उपकारक के उपकारों को याद रख।
करते रहना अवसर पर प्रतिकार भी॥
है अति-उत्तम-कर्म्म, धर्म्म है लोक का।
हो कृतज्ञ, न बने अकृतज्ञ मनुज कभी॥37॥

यों भी तरु हैं लोक-हित निरत दीखते।
आतप में रह करते छाया-दान हैं॥
उनके जैसा फलद दूसरा कौन है।
सुर-शिर पर किनके फूलों का स्थान है॥38॥

हैं उनके पंचांग काम देते बहुत।
छबि दिखला वे किसे मुग्ध करते नहीं॥
लेते सिर पर भार नहीं जो वे उभर।
तो भूतल के विपुल उदर भरते नहीं॥39॥

है रसालता किसको मिली रसाल सी।
कौन गुलाब-प्रसूनों जैसा कब खिला॥
सबके हित के लिए झकोरे सहन कर।
कौन सब दिनों खड़ा एक पद से मिला॥40॥

तरु वर्षा-शीतातप को सहकर स्वयं।
शरणागत को करते आश्रय दान हैं॥
प्रात: कलरव से होता यह ज्ञात है।
खगकुल करते उनका गौरव-गान हैं॥41॥

पाता है उपहार 'प्रहारक, फलों का-
किससे, किसका मर्मस्पर्शी मौन है॥
द्रुम समान अवलम्बन विहग-समूह का।
कर्तव्योंकारी का हित-कर्ता कौन है॥42॥

तरु जड़ हैं इन सारे कामों को कभी।
जान बूझ कर वे कर सकते हैं नहीं॥
पर क्या इनमें छिपे निगूढ़-रहस्य हैं।
कैसे जा सकती हैं ए बातें कही॥43॥

कला-कान्त कितनी लीलायें प्रकृति की।
हैं ललामतम किन्तु हैं जटिलतामयी॥
कब उससे मति चकिता होती है नहीं।
कभी नहीं अनुभूति हुई उनपर जयी॥44॥

कहाँ किस समय क्या होता है किसलिए।
कौन इन रहस्यों का मर्म बता सका॥
भव-गुत्थी को खोल सका कब युक्ति-नख।
चल इस पथ पर कब न विचार-पथिक थका॥45॥

प्रकृति-भेद वह ताला है जिसकी कहीं।
अब तक कुंजी नहीं किसी को भी मिली॥
वह वह कीली है विभुता-भू में गड़ी।
जो न हिलाये ज्ञान-शक्ति के भी हिली॥46॥

जो हो, पर पुत्रों भव-दृश्यों को सदा।
अवलोकन तुम लोग करो वर-दृष्टि से॥
और करो सेचन वसुधा-हित-विटप का।
अपनी-सत्कृति की अति-सरसा-वृष्टि से॥47॥

जो सुर-सरिता हैं नेत्रों के सामने।
जिनकी तुंग-तरंगें हैं ज्योतिर्मयी॥
कीर्ति-पताका वे हैं रविकुल-कलस की।
हुई लोकहित-ललकों पर वे हैं जयी॥48॥

तुल लोगों के पूर्व-पुरुष थे, बहु-विदित-
भूप भगीरथ सत्य-पराक्रम धर्म-रत॥
उन्हीं के तपोबल से वह शुचि-जल मिला।
जिसके सम्मुख हुई चित्त-शुचिता-विनत॥49॥

उच्च-हिमालय के अंचल की कठिनता।
अल्प भी नहीं उन्हें बना चंचल सकी॥
दुर्गमता गिरि से निधि तक के पंथ की।
सोचे उनकी अथक-प्रवृत्ति नहीं थकी॥50॥

उनका शिव-संकल्प सिध्दि-साधन बना।
उनके प्रबल-प्रयत्नों से बाधा टली॥
पथ के प्रस्तर सुविधा के बिस्तर बने।
सलिल-प्रगति के ढंगों में पटुता ढली॥51॥

कुलहित की कामना लोक-हित लगन से।
जब उर सर में भक्तिभाव-सरसिज खिला॥
शिव-सिर-लसिता-सरिता हस्तगता हुई।
ब्रह्म-कमण्डल-जलमहि-मण्डल को मिला॥52॥

सुर-सरिता को पाकर भारत की धरा।
धन्य हो गयी और स्वर्ण-प्रसवा बनी।
हुई शस्य-श्यामला सुधा से सिंचिता।
उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धानी॥53॥

वह काशी जो है प्रकाश से पूरिता।
जहाँ भारती की होती है आरती॥
जो सुर-सरिता पूत-सलिल पाती नहीं।
पतित-प्राणियों को तो कैसे तारती॥54॥

सुन्दर-सुन्दर-भूति भरे नाना-नगर।
किसके अति-कमनीय-कूल पर हैं लसे॥
तीर्थराज को तीर्थराजता मिल गई।
किस तटिनी के पावनतम-तट पर बसे॥55॥

हृदय-शुध्दता की है परम-सहायिका।
सुर-सरिता स्वच्छता-सरसता मूल है॥
उसका जीवन, जीवन है बहु जीव का।
उसका कूल तपादिक के अनुकूल है॥56॥

साधाक की साधना सिध्दि-उन्मुख हुई।
खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके॥
किसके जल-सेवन से संयम सहित रह।
योग योग्यता बहु-योगी-जन पा सके॥57॥

जनक-प्रकृति-प्रतिकूल तरलता-ग्रहण कर।
भीति-रहित हो तप-ऋतु के आतंक से॥
हरती है तपती धरती के ताप को।
किसकी धारा निकल धराधर-अंक से॥58॥

किससे सिंचते लाखों बीघे खेत हैं।
कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है॥
कौन हरित रखती है अगणित-द्रुमों को।
सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है॥59॥

कौन दूर करती प्यासों की प्यास है।
कौन खिलाती बहु-भूखों को अन्न है॥
कौन वसन-हीनों को देती वसन है।
निर्धन-जन को करती धन-सम्पन्न है॥60॥

है उपकार-परायणा सुकृति-पूरिता।
इसीलिए है ब्रह्म-कमण्डल-वासिनी॥
है कल्याण-स्वरूपा भव-हित-कारिणी।
इसीलिए वह है शिव-शीश-विलासिनी॥61॥

है सित-वसना सरसा परमा-सुन्दरी।
देवी बनती है उससे मिल मानवी॥
उसे बनाती है रवि-कान्ति सुहासिनी।
है जीवन-दायिनी लोक की जाह्न्वी॥62॥

अवगाहन कर उसके निर्मल-सलिल में।
मल-विहीन बन जाते हैं यदि मलिन-मति॥
तो विचित्र क्या है जो निपतन पथ रुके।
सुर-सरिता से पा जाते हैं पतित गति॥63॥

महज्जनों के पद-जल में है पूतता।
होती है उसमें जन-हित गरिमा भरी॥
अतिशयता है उसमें ऐसी भूति की।
इसीलिए है हरिपादोदक सुरसरी॥64॥

गौरी गंगा दोनों हैं गिरि-नन्दिनी।
रमा समा गंगा भी हैं वैभव-भरी॥
गिरा समाना वे भी गौरव-मूर्ति हैं।
विबुध न कहते कैसे उनको सुरसरी॥65॥

पुत्रों रवि का वंश समुज्ज्वल-वंश है।
तुम लोगों के पूर्व-पुरुष महनीय हैं॥
सुर-सरिता-प्रवाह उद्भावन के सदृश।
उनके कितने कृत्य ही अतुलनीय हैं॥66॥

तुम लोगों के पितृदेव भी वंश के।
दिव्य पुरुष हैं, है महत्तव उनमें भरा॥
मानवता की मर्यादा की मूर्ति हैं।
उन्हें लाभ कर धन्य हो गयी है धरा॥67॥

सुन वनवास चतुर्दश-वत्सर का हुए-
अल्प भी न उद्विग्न न म्लान बदन बना॥
तृण समान साम्राज्य को तजा सुखित हो।
हुए कहाँ ऐसे महनीय-महा-मना॥68॥

धर्म धुरंधरता है धा्रुव जैसी अटल।
सदाचार सत्यव्रत के वे सेतु हैं॥
लोकोत्तर है उनकी लोकाराधना।
उड़ते उनके कलित-कीर्ति के केतु हैं॥69॥

राजभवन था सज्जित सुरपुर-सदन सा।
कनक-रचित बहु-मणि-मण्डित-पर्यंक था॥
रही सेविका सुरबाला सी सुन्दरी।
गृह-नभ का सुख राका-निशा-मयंक था॥70॥

इनको तजकर रहना पड़ा कुटीर में।
निर्जन-वन में सोना पड़ा तृणादि पर॥
फिर भी विकच बना रहता मुख-कंज था।
किसका चित्त दिखाया इतना उच्चतर॥71॥

होता है उत्ताल-तरंगाकुल-जलधि।
है अबाध्यता भी उसकी अविदित नहीं॥
किन्तु बनाया सेतु उन्होंने उसी पर।
किसी काल में हुआ नहीं ऐसा कहीं॥72॥

तुम लोगों के पिता लोक-सर्वस्व हैं।
दिव्य-भूतियों के अद्भुत-आगार हैं॥
हैं रविकुल के रवि-सम वे हैं दिव्यतम।
वे वसुधातल के अनुपम-श्रृंगार हैं॥73॥

उनके पद का करो अनुसरण पूत हो।
सच्चे-आत्मज बनो भुवन का भय हरो॥
रत्नाकर के बनो रत्न तुम लोग भी।
भले-भले भावों को अनुभव में भरो॥74॥

प्रकृति-पाठ को पठन करो शुचि-चित्त से।
पत्ते-पत्ते में है प्रिय-शिक्षा भरी॥
सोचो समझो मनन करो खोलो नयन।
जीवन-जल में ठीक चलेगी कृति-तरी॥75॥

दोहा

देख धूप होते समझ मृदुल-बाल को फूल।
चली गईं सीता ससुत तज सुर-सरिता कूल॥76॥

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