वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा

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  • महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
  • शिवादित्य (10वीं शती) से पूर्ववर्ती आचार्य चन्द्रमति के अतिरिक्त प्राय: अन्य सभी प्रख्यात व्याख्याकारों ने पदार्थों की संख्या छ: ही मानी, किन्तु शिवादित्य ने सप्तपदार्थी में कणादोक्त छ: पदार्थों में अभाव को भी जोड़ कर सप्तपदार्थवाद का प्रवर्तन करते हुए वैशेषिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। यद्यपि चन्द्रमति (6ठी शती) ने दशपदार्थी (दशपदार्थशास्त्र) में कणादसम्मत छ: पदार्थो में शक्ति, अशक्ति, सामान्य-विशेष और अभाव को जोड़कर दश पदार्थों का उल्लेख किया था, किन्तु चीनी अनुवाद के रूप में उपलब्ध इस ग्रन्थ का और इसमें प्रवर्तित दशपदार्थवाद का वैशेषिक के चिन्तन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। हाँ, ऐसा प्रतीत होता है कि अभाव के पदार्थत्व पर चन्द्रमति के समय से लेकर शिवादित्य के समय तक जो चर्चा हुई, उसको मान्यता देते हुए ही शिवादित्य ने अभाव का पदार्थत्व तो प्रतिष्ठापित कर ही दिया। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि कणाद ने आरम्भ में मूलत: द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन ही पदार्थ माने थे। शेष तीन का प्रवर्तन बाद में हुआ। अधिकतर यही मत प्रचलित है, फिर भी संक्षेपत: छ: पदार्थों का परिगणन कणाद ने ही कर दिया था।
  • विभिन्न विद्वानों द्वारा किये गये अनुसन्धानों द्वारा जो तथ्य सामने आये हैं, उनके अनुसार वैशेषिक तत्त्व-मीमांसा में प्रमुख रूप से चार मत प्रचलित हुए, जिन्हें
  1. त्रिपदार्थवाद
  2. षट्पदार्थवाद
  3. दशपदार्थवाद तथा
  4. सप्तपदार्थवाद कहा जा सकता है।

न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र माने जाते हैं। वैशेषिकसूत्र और न्यायसूत्र की रचना से पूर्व संभवत: आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत इन दोनों शास्त्रों का समावेश होता रहा, किन्तु कालान्तर में न्यायशास्त्र में प्रमाणों के विवेचन को और वैशेषिक शास्त्र में प्रमेयों के विश्लेषण को प्रमुखता दी गई जिससे कि दोनों का विकास पृथक्-पृथक् रूप में हुआ। बाद के कतिपय प्रकरण ग्रन्थों में फिर इन दोनों शास्त्रों का समन्वय करने का प्रयास किया गया, पर वस्तुत: ऐसे उत्तरकालीन ग्रन्थों में भी कुछ न्यायप्रधान हैं और कुछ वैशेषिकप्रधान। न्याय के आचार्यों ने गौतम प्रवर्तित सोलह पदार्थों में वैशेषिकसम्मत सात प्रदार्थों का, तथा वैशेषिक के व्याख्याकारों ने वैशेषिकसम्मत सात पदार्थों में न्यायसम्मत सोलह पदार्थों का अन्तर्भाव करते हुए इन दोनों दर्शनों में समन्वय करने का प्रयत्न किया, किन्तु इससे इन दोनों दर्शनों की अपनी-अपनी विशिष्टता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा और दोनों शास्त्रों का पृथक्-पृथक् प्राधान्य आज भी बना हुआ है।

पदार्थ

वैशेषिक दर्शन में तत्त्व शब्द के स्थान पर पदार्थ शब्द को प्रयुक्त किया गया है। पदार्थ शब्द का व्युत्पत्तिमूलक[1] आशय यह है कि कोई भी ऐसी वस्तु, जिसकों कोई नाम दिया जा सके अर्थात जो शब्द से संकेतित की जा सके और इन्द्रिय-ग्राह्य हो वह अर्थ कहलाती है।[2] कतिपय विद्वानों के अनुसार जिस प्रकार हाथी के पद (चरण-चिह्न) को देखकर हाथी का ज्ञान किया जा सकता है, उसी प्रकार पद (शब्द) से अर्थ का ज्ञान होता है। वैशेषिकसूत्र में पदार्थ का लक्षण उपलब्ध नहीं होता। पदार्थ शब्द का प्रयोग भी सूत्रकार ने केवल एक बार किया है।[3]

  • प्रशस्तपाद (चतुर्थ शती) के अनुसार पदार्थ वह है जिसमें अस्तित्व, अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व हो।[4]
  • ये तीनों ही लक्षण-साधर्म्य के आधायक हैं, अर्थात पदार्थों के ये तीन समान धर्म हैं। प्रशस्तपाद का यह भी कहना है कि नित्य द्रव्यों के अतिरिक्त अन्य सभी पदार्थ किसी पर आश्रित रहते हैं। आश्रित का अर्थ है परतन्त्र रूप से रहना, न कि समवाय सम्बन्ध से। प्रशस्तपाद द्वारा प्रयुक्त अस्तित्व, अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व इन तीन शब्दों का विश्लेषण उत्तरवर्ती आचार्यों ने अपनी-अपनी दृष्टि से किया। उनमें से कतिपय आचार्यों के निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य हैं—

अस्तित्व

  • श्रीधर (10वीं शती) का यह कथन है कि किसी वस्तु का जो स्वरूप है, वही उसका अस्तित्व है।[5] जबकि व्योमशिवाचार्य (9वीं शती) के विचार में 'अस्ति' या 'सत्' इस प्रकार का ज्ञान ही अस्तित्व कहलाता है।
  • न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य (12वीं शती) सत्तासंबन्धबुद्धि को ही अस्तित्व कहते हैं।
  • जगदीश तर्कालंकार (16वीं शती) ने सूक्ति नामक टीका में भावत्वविशिष्ट स्वरूपसत्त्व को ही 'अस्तित्व' कहा है।
  • सामान्यतया अस्तित्व और सत्ता को पर्यायवाची माना जा सकता है, किन्तु वैशेषिक दर्शन के अनुसार इनमें भेद है। अस्तित्व सत्ता की अपेक्षा अधिक व्यापक है, क्योंकि सत्ता में भी अस्तित्व है। अस्तित्व किसी वस्तु का अपना स्वरूप है, यह सत्ता सामान्य की तरह समवाय सम्बन्ध से वस्तु में नहीं रहता। वह तो वस्तु का अपना ही विशेष रूप है।
  • वैशेषिकों के अनुसार सत्ता केवल द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन में ही समवाय सम्बन्ध से रहती है। इन तीन में रहने के कारण उसको सामान्य कहा जाता है, न कि अधिक व्यापकता के कारण। इस प्रकार सत्ता 'सामान्य' का और 'अस्तित्व' स्वरूप-विशेष का द्योतक है। अस्तित्व व्यापक है और सत्ता व्याप्य।

अभिधेयत्व
अभिधान का आशय है- नाम या शब्द। शब्दों से जिसका उल्लेख हो सके, वह अभिधेय है।

  • उदयनाचार्य ने अभिधेय को ही पदार्थ माना है।[6]
  • अन्नंभट्ट भी प्रमुखतया अभिधेयत्व को ही पदार्थों का सामान्य लक्षण मानते हैं।[7] संसार में जो भी वस्तु है, उसका कोई नाम है। अत: वह अभिधेय है। जो अभिधेय है, वह प्रमेय है और जो प्रमेय है, वह पदार्थ है। कोई भी अर्थ (वस्तु) जो संज्ञा से संज्ञित हो, पदार्थ कहलाता है।

ज्ञेयत्व

  • शिवादित्य के अनुसार पदार्थ वे हैं, जो प्रमिति के विषय हों।[8] पदार्थ अज्ञेय नहीं, अपितु ज्ञेय हैं। विश्व के सभी पदार्थ घट-पट आदि, जिनका अस्तित्व है, वे ज्ञेय अर्थात ज्ञानयोग्य भी हैं। अज्ञेय विषय की सत्ता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। जिसका अस्तित्व है वह सत है, जो सत है वह ज्ञेय है, और जो ज्ञेय है वह अभिधेय है।
  • वस्तुत: अस्तित्व, अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व में से किसी एक लक्षण से भी पदार्थ की परिभाषा की जा सकती है, क्येंकि अस्ति या सत शब्द द्वारा उल्लिखित भाव पदार्थों के संदर्भ में अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व कोई भिन्न संकल्पनाएं नहीं हैं। वस्तुत: अस्तित्व, अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व ये भाव पदार्थों के समान धर्म है। ऐसा प्रतीत होता है कि पदार्थ की परिभाषा में 'अस्तित्व' शब्द के समावेश से यह संकेतित किया गया है कि वस्तु वैसी है, जैसा उसका स्वरूप है, न कि वैसी, जैसी हम उसे कल्पित करते हैं। इससे विज्ञानवाद का निरसन होता है और शून्यवाद का भी प्रत्याख्यान हो जाता है। ज्ञेयत्व से संशयवाद और अज्ञेयवाद तथा अभिधेयत्व से यह बताया गया है कि वस्तुज्ञान की अभिव्यक्ति आवश्यक है। प्रतीत होता है कि प्रशस्तपाद भी इस बात से परिचित थे कि इन तीनों लक्षणों में से किसी एक से भी पदार्थ को परिभाषित किया जा सकता है, किन्तु उन्होंने अपने पूर्ववर्ती या समसामयिक आचार्यों की विभिन्न शंकाओं के समाधान के लिए तीनों को एक साथ रखकर यह प्रतिपादित किया कि -
  1. पदार्थ सत है,
  2. पदार्थ अभिधेय है और
  3. पदार्थ ज्ञेय है। फिर भी परवर्ती कई ग्रन्थकारों ने इनमें से किसी एक को भी पदार्थ का समग्र लक्षण मानकर काम चला लिया।
  • उदयनाचार्य और अन्नंभट्ट ने अभिधेयत्व को और शिवादित्य ने ज्ञेयत्व और प्रमेयत्व को प्रमुखता दी। 'अस्तित्व' को छोड़ने का कारण संभवत: यह था कि इनके समय तक अभाव की सत्पम पदार्थ के रूप में प्रतिष्ठा हो रही थी या हो चुकी थी। यद्यपि वस्तुओं के धर्म उनसे पृथक् नहीं होते, फिर भी धर्म और धर्मी के भेद से उनमें पार्थक्य माना जाता है। द्रव्यादि छ: पदार्थों में अस्तित्व, अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व ये तीन समान धर्म हैं। किन्तु श्रीधर का इस संदर्भ में यह कथन है कि ये तीनों अवस्था-भेद से पृथक् हैं, मूलत: तो वे वस्तु के स्वरूप के ही द्योतक हैं।[9] वस्तुत: ये तीनों शब्द एक ही वस्तु के तीन पक्षों का आख्यान करते हैं। यह ज्ञातव्य है कि अस्तित्व और अभाव की संकल्पनाओं में पारस्परिक विरोध का प्रत्याख्यान करते हुए श्रीधर ने यह बताया कि सत्ता केवल द्रव्य, गुण और कर्म में रहती है, जबकि अस्तित्व अन्य सभी पदार्थों में, और यहाँ तक कि अभाव में भी रहता है। विश्वनाथ पंचानन ने भी अस्तित्व को अभावसहित सातों पदार्थों का साधर्म्य माना। अत: सत्ता और अस्तित्व दो भिन्न-भिन्न संकल्पनाएँ हैं।[10] यद्यपि श्रीधर द्वारा निरूपित 'अस्तित्व' के अर्थ को ग्रहण करने पर अभाव के पदार्थत्व का समाधान हो सकता है। पर शंकर मिश्र ने इस समस्या का समाधान यह कहकर किया कि ज्ञेयत्व और अभिधेयत्व तो छ: पदार्थों के उपलक्षण मात्र हैं, वस्तुत: उनमें सातों पदार्थों का साधर्म्य है। इतने सारे आख्यान-प्रत्याख्यानों के रहते हुए भी पदार्थ के लक्षण में 'अस्तित्व' की संघटकता अभाव के परिप्रेक्ष्य में अभी भी विवादास्पद बनी हुई है। फिर भी संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्रशस्तपाद के अनुसार जो सत्, अभिधेय और ज्ञेय है, उसी को पदार्थ कहा जा सकता है।

पदार्थ संख्या

वैशेषिक में पदार्थों की संख्या के संदर्भ में प्रमुख रूप से चार सोपान या चार मत उपलब्ध होते हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
त्रिपदार्थवाद

  • अनेक विद्वानों का यह मत है कि वैशेषिक सूत्र में कणाद ने पहले द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन ही पदार्थों का परिगणन किया था। इस बात का आधार यह है कि वैशेषिक सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में केवल इन्हीं तीनों का निरूपण है और आठवें अध्याय के द्वितीय आह्निक में इन्हीं तीन को अर्थ-संज्ञा से निर्दिष्ट किया गया है।[11]
  • सत्ता भी द्रव्य, गुण, कर्म में ही मानी गई है।[12]
  • इनके अतिरिक्त शेष तीन अर्थात सामान्य विशेष और समवाय का विश्लेषण बाद में किया गया है।
  • इस प्रकार अनेक विद्वानों का यह मत है कि कणाद द्वारा जिस प्रकार से इन छ: पदार्थों का उल्लेख किया गया, उससे यह सिद्ध होता है कि कणाद ने द्रव्य, गुण और कर्म को प्रमुख रूप से पदार्थ माना और सामान्य विशेष और समवाय के पदार्थत्व का निरूपण गौण रूप में किया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पदार्थों की संकल्पना के विकास-क्रम के प्रथम सोपान में कणाद ने गौण रूप में अवशिष्ट तीन तत्त्वों का परिगणन करते हुए भी प्रमुखतया द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन को ही पदार्थ संज्ञा से निर्दिष्ट किया था।

षट्पदार्थवाद
वैशेषिकसूत्र में छ: पदार्थों का उल्लेख पूर्वोक्त रूप में उपलब्ध होता है। फिर भी कई विद्वानों का यह मत है कि सिद्धान्त के रूप में षट्पदार्थवाद की विधिवत स्थापना प्रशस्तपाद ने की। इस मान्यता के समर्थन में यह बात भी कही जाती है कि वैशेषिकसूत्र की चन्द्रानन्दवृत्ति और मिथिलावृत्ति में प्रथमाध्याय के प्रथम आह्निक के उस सूत्र की व्याख्या नहीं है, जो पदार्थ-गणना से सम्बद्ध माना जाता है।

  • राधाकृष्णन प्रभृति अनेक विद्वान यह मानते हैं कि यह सूत्र प्रक्षिप्त है।[13]
  • प्रशस्तपाद ने भाष्य के आरम्भ में ही यह स्थापना की कि पदार्थ छ: हैं—द्रव्य-गुण-कर्म-सामान्य-विशेष-समवायानां षण्णां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानं नि:श्रेयसहेतु:। तच्चेश्वरचोदनाभिव्यक्ताद् धर्मादेव।[14]
  • इन छ: पदार्थों में भी विकास का एक क्रम रहा है। विकासक्रम के प्रथम चरण में सर्वप्रथम द्रव्य का ज्ञान हुआ। फिर जब द्रव्यों में भेद दिखाई दिया तो द्रव्यों में अन्तर्निहित गुणो, विशेषताओं का पता चला। इसी प्रकार जब वस्तुओं की स्थिति में परिवर्तन का बोध हुआ तो परिवर्तन में अन्तर्निहित कर्म की अवधारणा हुई और इस प्रकार सर्वप्रथम द्रव्य, गुण और कर्म ये तीन पदार्थ माने गये।
  • विकास के द्वितीय सोपान का आरम्भ अनेक वस्तुओं में कुछ समानताओं के दिखाई देने के कारण हुआ, फलत: सामान्य या जाति नामक तत्त्व भी पदार्थ की कोटि में गिना जाने लगा। इस सामान्य में भी समानता के साथ ही व्यावर्तकता का भी बोध हुआ। उदाहरणतया जैसे गोत्व नामक सामान्य एक गौ को अन्य गौओं के समान निर्दिष्ट करता है, वैसे ही वह गोभिन्न अश्व आदि प्राणियों से गौ को पृथक् भी करता है। अत: इसके लिए 'सामान्य-विशेष' नामक एक पदार्थ की अवधारण की गई। किन्तु गठबन्धन की इस अवधारणा को लोक-स्वीकृति नहीं मिल पाई, अत: उत्तरवर्ती आचार्यों ने यही उचित समझा कि वस्तुओं में समानता को व्यक्त करने वाले तत्त्व 'सामान्य' का और उनमें वैशिष्टय बताने वाले तत्त्व विशेष का पृथक्-पृथक् रूप से पदार्थत्व माना जाए। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष की पदार्थ के रूप में अवधारणा के साथ यह भी देखा गया कि वस्तुओं में बाह्य और आन्तरिक संबन्ध भी विद्यमान हैं। जैसे संयोग एक सम्बन्ध है, किन्तु वह पहले से असम्बद्ध वस्तुओं को ही एक दूसरे से जोड़ सकता है। किन्तु वह केवल बाह्य सम्बन्ध है, जबकि वस्तुओं में अन्तर्वती सम्बन्ध भी होते हैं। अत: वस्तुओं में पाये जाने वाले आन्तरिक सम्बन्ध के रूप में समवाय की अवधारणा की गई और इस प्रकार समवाय को एक पदार्थ मानकर प्रशस्तपाद आदि आचार्यों ने षट्पदार्थवाद को एक व्यवस्थित रूप दे दिया।[15]

सप्तपदार्थवाद
वैशेषिकसम्मत पदार्थमीमांसा के विकासक्रम के द्वितीय चरण में प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने षट्पदार्थवाद को प्रतिष्ठापित कर दिया था। किन्तु षट्पदार्थी अवधारणा मुख्यत: भाव पदार्थों पर ही चरितार्थ होती है, अभाव पर नहीं। चन्द्रमति जैसे भाष्यकारों के ग्रन्थों से भी इस बात के संकेत मिलते हैं कि अभाव-पदार्थत्व के सम्बन्ध में शिवादित्य से पहले भी विचार होता रहा। फिर भी यह तो स्पष्ट ही है कि परम्परीण रूप से चर्चित और प्राय: पदार्थश्रृंखला में परिगणित होने के बाद भी अभाव का पदार्थत्व विवादास्पद रहता चला आ रहा था। शिवादित्य ने सप्तपदार्थी में अभाव को प्रतिष्ठित करके पदार्थों की संख्या विधिवत सात निर्धारित कर दी।
दशपदार्थवाद
चन्द्रमति (6ठी शती) ने दशपादार्थशास्त्र (दशपदार्थी) में

  1. द्रव्य
  2. गुण
  3. कर्म
  4. सामान्य
  5. विशेष
  6. समवाय
  7. शक्ति
  8. अशक्ति
  9. सामान्य-विशेष तथा
  10. अभाव नामक दस पदार्थों का परिगणन किया। इनमें से छ: तो वैशेषिक परम्परा में पहले से ही स्वीकृत थे। बाकी चार का अवतरण चन्द्रमति ने किया। इन चारों में से शक्ति के पदार्थत्व का उल्लेख प्रभाकर मतानुयायी मीमांसकों ने भी किया।

इनमें से अभाव का समावेश तो शिवादित्य (10वीं शती) ने सप्तपदार्थी में कर दिया, किन्तु चन्द्रमति परिगणित शेष तीन का पदार्थत्व उत्तरवर्ती वैशेषिक परम्परा में स्वीकार्य नहीं हो पाया, संक्षेप में प्रस्तुत है कि शक्ति, अशक्ति और सामान्य-विशेष को पदार्थ मानने के पक्ष में चन्द्रमति आदि वैशेषिकों, आचार्यों और प्रभाकर मीमांसकों के क्या तर्क थे और अन्य आचार्यों ने उनको क्यों नहीं अपनाया?
शक्ति के पृथक् पदार्थत्व का निरसन
मीमांसकों का यह तर्क है कि शक्ति एक अतिरिक्त पदार्थ है। यह इस उदाहरण से सिद्ध होता है कि चन्द्रकान्तमणि की उपस्थिति या सन्निधि में आग और काष्ठ के संयोग से भी दाहक्रिया नहीं होती। इसके विपरीत यदि चन्द्रकान्तमणि की उपस्थिति या सन्निधि न हो तो दाहक्रिया हो जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि चन्द्रकान्तमणि की उपस्थिति में दाहक्रिया नहीं होती और अनुपस्थिति में हो जाती है। अत: शक्ति एक अतिरिक्त पदार्थ है। इस तर्क का खण्डन इस प्रकार किया जाता है कि यदि किसी वस्तु के समीप होने या न होने से शक्ति का उत्पाद और विनाश माना जाएगा तो इस प्रकार अनेक शक्तियाँ माननी पड़ेंगी। अत: इसकी अपेक्षा यह मानना अधिक उचित है कि अग्नि मात्र नहीं, अपितु उत्तेजक मणि के अभाव से विशिष्ट अग्नि ही दाह का कारण होती है। शक्ति के पदार्थत्व का खण्डन करते हुए शिवादित्य ने यह बताया कि शक्ति पृथक् पदार्थ नहीं, अपितु द्रव्यादि स्वरूप ही है। दृष्ट कारणों से ही दृष्ट कार्य की उत्पत्ति होती है। अत: अदृष्टि शक्ति को कारण मानना उचित नहीं है। एक ही कार्य की उत्पत्ति अनेक कारणों से भी हो सकती है। जैसे कि आग, काष्ठ के घर्षण से अथवा सूर्यकान्त मणि के प्रभाव से भी उत्पन्न हो सकती है। अत: दाह का कारण शक्ति नहीं, अपितु उत्तेजकाभाव विशिष्टमण्यभाव है।[16] अग्नि में रहने वाली शक्ति अग्नि के अतिरिक्त और कुछ नहीं हे, वह अग्नि ही है।
अशक्ति के पृथक् पदार्थत्व का निरसन
जैसे भाव पदार्थों के विपरीत अभाव का पदार्थत्व स्वीकार किया गया है, उसी प्रकार शक्ति के विपरीत अशक्ति को भी एक पदार्थ मानकर चन्द्रमति ने पदार्थों की गणना में इसका भी समावेश किया, किन्तु वैशेषिक की उत्तरवर्ती पदार्थमीमांसा पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
सामान्य-विशेष के पृथक् पदार्थत्व का निरसन

  • चन्द्रमति ने दश पदार्थों में 'सामान्य-विशेष' का भी परिगणन किया। कतिपय वैशेषिकों ने यह देखा कि ऐसी अनेक वस्तुएँ हैं, जिनमें समानता दिखाई देती है, किन्तु वह समानता न केवल समानधर्मा वस्तुओं को एक वर्ग में रखती है, अपितु अन्य वर्ग की वस्तुओं से उसको अलग भी करती है। इस प्रकार उन्होंने सामान्य-विशेष नामक एक गठजोड़ की कल्पना की और उसको एक पदार्थ माना।
  • सामान्य और विशेष का पदार्थत्व पृथक्-पृथक् रूप से तो वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत है ही। प्रशस्तपाद का तो यह भी विचार रहा कि सामान्य से केवल सत्ता का बोध होता है और विशेष से केवल अन्य विशेष का। अत: उन्होंने सामान्य और विशेष के बीच की स्थिति को अपरसामान्य कहा, जो कि सामान्य और विशेष की मध्यस्थ कड़ी जैसा है। दशपदार्थी में भी सम्भवत: ऐसी ही संकल्पना को ध्यान में रखते हुए सामान्य-विशेष का एक अलग पदार्थ के रूप में उल्लेख किया गया। किन्तु इस संकल्पना को भी उत्तरवर्ती वैशेषिकों की स्वीकृति नहीं मिल पाई।

सादृश्य आदि के पृथक् पदार्थत्व का निरसन

  • प्रभाकर मीमांसकों ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, शक्ति, सादृश्य और संख्या नामक आठ पदार्थ माने, जबकि भाट्ट मीमांसकों ने द्रव्य, सामान्य, गुण, कर्म और अभाव या अनुपलब्धि इन पाँच को ही पदार्थ माना।[17] प्राभाकरोक्त पदार्थों में सादृश्य के पदार्थत्व पर गहरी विप्रतिपत्तियाँ प्रकट करने के साथ-साथ वैशेषिकों का यह मत रहा कि शिवादित्योक्त सप्तपदार्थों के अतिरिक्त अन्य किसी तत्त्व का पृथक् पदार्थत्व स्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • सादृश्य के पदार्थत्व के संबन्ध में प्रभाकर मीमांसकों ने यह तर्क दिया कि सादृश्य और सामान्य में अन्तर है। सादृश्य सामान्यसहित सभी पदार्थों में रहता है, अत: सादृश्य भी एक पदार्थ है। इस अवधारणा के विपरीत श्रीधर यह कहते हैं कि सादृश्य भी एक पृथक् पदार्थ नहीं है, अपितु उपाधिरूप सामान्य है।[18]
  • पद्मनाथ मिश्र का भी यह कथन है कि किसी पदार्थ के बहुत से धर्मों का उससे भिन्न दूसरे पदार्थ में पाया जाना ही सादृश्य है, जैसे चन्द्रमुख में। अत: सादृश्य कोई पृथक् पदार्थ नहीं है। उदयनाचार्य ने भी यह कहा है कि सादृश्य द्रव्यादि छ: भाव पदार्थों में ही समाविष्ट है।[19]
  • विश्वनाथ पंचानन का भी यही विचार है कि सादृश्य पदार्थान्तर नहीं है।[20]
  • दिनकरीकार का विचार है कि सादृश्य के पदार्थत्व को स्वीकार करते हुए भी तत्त्वज्ञान में सहायक न होने के कारण पृथक् पदार्थ के रूप में सादृश्य के परिगणन की नव्य नैयायिक आवश्यकता नहीं समझते।
  • प्रशस्तभाष्य की सेतु-टीका में पद्मनाभ मिश्र ने पूर्वपक्ष के रूप में भेद, शक्ति, शुद्धि, अशुद्धि, भावना, स्वत्व, क्षणिक, वैशिष्ट्य, समूह, प्रकारित्व, संख्या, सादृश्य, तारत्व, मन्दत्व, आधाराधेयभाव, व्यंजनावृत्ति, स्फोट, संसर्गमर्यादा, लिंग, विशेषण-विशेष्यभाव, कारणत्व, स्वरूप, सम्बन्ध, और तत्तेदन्ता इन 23 तत्त्वों का उल्लेख करते हुए उनके पदार्थत्व को अस्वीकृत किया पदार्थों की संख्या सात ही प्रतिपादित की।
  • इसी प्रकार न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य ने भी तमस, शक्ति ज्ञानता, वैशिष्टय, आधाराधेय भाव और सादृश्य के पदार्थत्व का पूर्वपक्ष की दृष्टि से उपस्थापन करके उनका निराकरण किया।
  • शिवादित्य ने भी निम्नलिखित सात तत्त्वों के पृथक् पदार्थत्व का प्रत्याख्यान करते हुए यह कहा कि
  1. मध्यत्व परापरत्व का अभाव ह
  2. तमस् का अन्तर्भाव अभाव में हो जाता है
  3. शक्ति द्रव्यादिस्वरूप है,
  4. विशेष्य विशेषण विशेष्यभावसम्बन्ध है,
  5. ज्ञातता ज्ञानविषयक सम्बन्ध के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं
  6. सादृश्य उपाधि रूप है और
  7. लघुत्व गुरुत्व का अभाव है।
  • मानमनोहरकार वादिवागीश्वर ने भी शक्ति, ज्ञातता, विशिष्टता, विषयविषयीभाव, सादृश्य और प्रधान के पदार्थत्व का पूर्वपक्ष के रूप में उपन्यास करके इनके पदार्थत्व का निरसन किया तथा तमस को भी पृथक् पदार्थ न मानकर अभाव में ही उसका अन्तर्भाव किया।
  • न्याय-वैशेषिक परम्परा के कतिपय उत्तरवर्ती आचार्यों ने वैशेषिकसम्मत इन सात पदार्थों में से कुछ को स्वीकार नहीं किया।
  • उदाहरणतया रघुनाथ शिरोमणि ने पदार्थतत्वनिर्णय नामक लघुग्रन्थ में विशेष के पदार्थत्व का खण्डन किया[21] और क्षण, स्वत्व, शक्ति, कारणत्व, कार्यत्व, संख्या, वैशिष्ट्य एवं विषयता ये आठ पदार्थ अतिरिक्त रूप में मानने का विधान किया।
  • इसी प्रकार वेणीदत्त (18वीं शती) ने पदार्थमण्डन नामक ग्रन्थ में द्रव्य, गुण, कर्म, धर्म और अभाव ये पाँच ही पदार्थ माने और विशेष का पदार्थत्व स्वीकार नहीं किया। अन्य दर्शनों के अनेक आचार्यों को भी विशेष का पदार्थत्व मान्य नहीं हुआ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पदार्थों के अभिधान और संख्या के संबन्ध में वैशेषिक के आचार्यों और अन्य दार्शनिकों ने भी विभिन्न मत प्रस्तुत किये। किन्तु वैशेषिक पदार्थमीमांसा के विकासक्रम में अन्तत: शिवादित्य द्वारा निरूपित सप्तपदार्थवाद ही सर्वाधिक मान्य समझा गया।
वैशेषिक के सप्त पदार्थों में न्याय के सोलह पदार्थों का अन्तर्भाव
यों तो यह प्रश्न उठाना अनावश्यक सा है कि न्याय में परिगणित 16 पदार्थों का वैशेषिक में निर्दिष्ट 7 पदार्थों में कैसे अन्तर्भाव होता है, क्योंकि न्यायसूत्र में पदार्थों की नहीं, अपितु शास्त्रार्थ में उपयोगी विषयों की गणना की गई है। फिर भी, अन्तर्भाव की रूपरेखा निम्नलिखित रूप से सम्पन्न होती है।[22]

  1. द्रव्य(आत्मा) में- प्रमाण (प्रत्यक्ष कुछ आचार्यों के अनुसार गुण में), प्रयोजन, दृष्टान्त, हेत्वाभास (संदर्भानुसार गुण में भी), निग्रहस्थान (संदर्भानुसार) तथा सिद्धान्त का अन्तर्भाव माना जा सकता है।
  2. गुण (बुद्धि) में- अर्थ प्रमाण (अनुमान), संशय, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, छल और जाति को अन्तर्भूत किया जा सकता है।
  3. कर्म
  4. सामान्य
  5. विशेष
  6. समवाय— न्याय-वैशेषिक में समान है, किन्तु इनके वर्गीकरण और निरूपण में कुछ भेद है। वात्स्यायन के अनुसार न्याय के प्रमेयों का इनमें और इनका न्याय के प्रमेयों में अन्तर्भाव है। न्यायशास्त्र में इनकी चर्चा प्रमेयों के अन्तर्गत की गई है।
  7. अभाव में— निग्रहस्थान (अज्ञान, अप्रतिभा तथा विक्षेप) तथा अपवर्ग (दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति) का अन्तर्भाव हो जाता है।

द्रव्य

वैशेषिकों ने पूर्वोक्त प्रकार से सात पदार्थों का उल्लेख किया है और ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं को सात वर्गों में वर्गीकृत किया है। पदार्थों की संख्या के सम्बन्ध में वैशेषिक के विभिन्न आचार्यों और विभिन्न दार्शनिकों में मतभेद हैं, द्रव्य का सामान्य स्वरूप, द्रव्यों के लक्षण और उनके प्रमुख भेदों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे।
द्रव्य का लक्षण

  • वैशेषिक दर्शन में मुख्यत: इस दृष्टिकोण के आधार पर पदार्थों का विवेचन किया गया कि पदार्थों में समानत: साधर्म्य है और आन्तरिक विभिन्नता उनका निजी वैशिष्ट्य है, जो उन्हें उनके वर्ग की अन्य वस्तुओं से पृथक् करती है। कणाद ने द्रव्य के लक्षण का निरूपण करते हुए यह प्रतिपादित किया कि कार्य का समवायिकारण और गुण एवं क्रिया का आश्रयभूत पदार्थ ही

द्रव्य है।[23] पृथ्वी आदि नौ द्रव्यों का इस लक्षण से युक्त होना ही उनका साधर्म्य है। इस लक्षण को कणादोत्तरवर्ती प्राय: सभी वैशेषिकों ने अपने द्रव्यपरक चिन्तन का आधार बनाया, किन्तु उनके विचारों में कहीं-कहीं कुछ अन्तर भी दिखाई देता है।

  • कणाद के उपर्युक्त लक्षण का आशय यह है कि द्रव्य
  1. कर्म का आश्रय है,
  2. गुणों का आश्रय है और
  3. कार्यों का समवायिकारण है।
  • कतिपय उत्तरवर्ती आचार्यों ने इन तीनों घटकों में से किसी एक को ही द्रव्य का लक्षण मानने की अवधारणाओं का भी विश्लेषण किया। उनमें से कतिपय ने इस आशंका का भी उद्भावन किया कि 'जो कर्म का आश्रय हो वह द्रव्य है'- यदि कणाद सूत्र का केवल यही एक घटक द्रव्य का लक्षण माना जाएगा, तो इसमें अव्याप्ति दोष आ जायेगा, क्योंकि आकाश, काल और दिक भी पदार्थ हैं जबकि वे निष्क्रिय हैं, उनमें कर्म होता ही नहीं है। यद्यपि प्रत्येक क्रियाशील पदार्थ द्रव्य माना जा सकता है, किन्तु प्रत्येक द्रव्य को क्रियाशील नहीं माना जा सकता। 'जो गुणों का आश्रय हो वह द्रव्य है' केवल इस घटक को भी कुछ आचार्यों ने द्रव्य का पूर्ण लक्षण मान लिया।[24] किन्तु इस संदर्भ में यह आपत्ति की जाती है कि 'उत्पत्ति के प्रथम क्षण में पदार्थ गुणरहित होता है।' अत: यह लक्षण अव्याप्त है।
  • परन्तु इस आपत्ति का उत्तर देते हुए उदयनाचार्य ने कहा कि द्रव्य कभी भी गुणों के अत्यन्ताभाव का अधिकरण नहीं होता। इस कथन का यह आशय है कि उत्पत्ति के प्रथम क्षण में भले ही द्रव्य में गुणाश्रयता न हो, किन्तु उस समय भी उसमें गुणों का आश्रय बनने की शक्ति तो रहती ही है और इस प्रकार द्रव्य गुणों के अत्यन्ताभाव का अनधिकरण है।[25]
  • चित्सुखाचार्य आदि आचार्यों ने केवल इस घटक को ही पूर्ण लक्षण मानने पर आपत्ति की, अत: इस लक्षण को भी निर्विवाद नहीं कहा जा सकता। बौद्ध दर्शन में धर्मों को क्षण रूप में सत माना गया है तथा धर्मी या द्रव्य को असत। पुञ्ज (समुदाय) के अतिरिक्त अवयवी नाम की कोइर वस्तु नहीं है। सारे तन्तु अलग कर दिये जाएँ तो पट का कोइर अस्तित्व नहीं रहता। अत: द्रव्य की संकल्पना मात्र पर भी विप्रतिपत्ति करते हुए बौद्धों ने यह तर्क दिया कि गुणों से पृथक् द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है, जैसे कि चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा रूप आदि का ही ग्रहण होता है। रूप के बिना किसी ऐसी वस्तु का हमें अलग से प्रत्यक्ष नहीं होता, जिसमें वह रूप, गुण रहता हो, जो वस्तुओं को संश्लिष्ट रूप में प्रस्तुत कर देती है। अत: बौद्ध मतानुसार गुणों से पृथक् द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है।[26]
  • बौद्धों के इस आक्षेप का उत्तर न्याय-वैशेषिक में इस प्रकार दिया गया है कि यदि द्रव्य जैसे घट केवल रूप (नील) स्पर्श आदि गुणों का समुदायमात्र होता तो एक ही आश्रय द्रव्य के सम्बन्ध में दो भिन्न-भिन्न गुणों जैसे देखने (रूप) और छूने (स्पर्श) का निर्देश नहीं हो सकता था।[27] अत: यह सिद्ध होता है कि आश्रयभूत द्रव्य (घट) रूप और स्पर्श का समुदाय मात्र नहीं, अपितु उनसे पृथक् एवं स्वतंत्र अवयवी है।
  • यह ज्ञातव्य है कि सांख्य में धर्मी और धर्मों का तत्त्वत: अभिन्न माना गया है। वेदान्त में तत्त्वत: धर्मों को असत और धर्मी को सत माना गया है।
  • वैशेषिक में धर्म और धर्मी दोनों को वस्तुसत माना गया है। 'जो समवायिकारण हो वही द्रव्य है' कणादसूत्र के केवल इस तृतीय घटक को ही द्रव्य की पूर्ण परिभाषा मानने की अवधारणा का भी अनेक उत्तरवर्ती आचार्यों ने समर्थन किया है।[28]
  • इन आचार्यो के कथनों का सार यह है कि समवायिकारण वह होता है, जिसमें समवेत रहकर ही कार्य उत्पन्न होता है। प्रत्येक कार्य की समवेतता द्रव्य पर आश्रित है। संयोग और विभाग नामक कार्य विभु द्रव्यों से भी सम्बद्ध है।[29] इन आचार्यों का यह मत है कि इस आंशिक घटक को ही पूरा लक्षण मानने में कोई दोष नहीं है। कणादसूत्र के तीन घटकों पर आधारित उपर्युक्त तीन पृथक्-पृथक् परिभाषाओं की स्वत:पूर्ण स्वतन्त्र अवधारणाओं के प्रवर्तन के बावजूद सामान्यत: इन तीनों घटकों को एक साथ रखकर तथा तीनों के समन्वित आशय को ध्यान में रखते हुए यह कहना उपयुक्त होगा कि कणाद के अनुसार द्रव्य वह है जो क्रिया का समवायिकारण तथा गुण और कर्म का आश्रय हो। 'द्रव्यत्व जाति से युक्त एवं गुण का जो आश्रय हो, वह द्रव्य है'[30] – इस जातिघटित लक्षण की रीति से भी द्रव्य के लक्षण का उल्लेख प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, किरणावली, सप्तपदार्थी आदि ग्रन्थों में मिलता है, किन्तु चित्सुख ने इस मत की आलोचना करते हुए इस संदर्भ में यह कहा कि द्रव्यत्व जाति में कोई प्रमाण नहीं है। किन्तु सिद्धान्त चन्द्रोदय आदि ग्रन्थों में यह बताया गया है कि द्रव्यत्व जाति की स्वतंत्र सत्ता है और वह प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण से ज्ञात होती है।
  • श्रीधराचार्य ने पूर्व पक्ष के रूप में यह शंका उठाई कि जल को देखने के अनन्तर अग्नि को देखने पर 'यह वही है'- ऐसी अनुगत प्रतीति नहीं होती। अत: द्रव्यत्व नाम की कोइर जाति कैसे मानी जा सकती है और न्यायकन्दली में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि गुण और कर्म का आश्रय होने के अतिरिक्त द्रव्य की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। अत: द्रव्य उसको कहते हैं, जिसकी स्वप्राधान्य रूप से स्वतन्त्र प्रतीति हो। इसका आशय यह हुआ कि द्रव्य वह है, जिसकी अपनी प्रतीति के लिए किसी अन्य आश्रय की आवश्यकता नहीं होती। यही स्वातन्त्र्य द्रव्य का द्रव्यत्व है, जो जल और आग को एक ही वर्ग में रख सकता है। यद्यपि चित्सुख जैसे आचार्यों ने स्वातन्त्र्य को द्रव्य की जाति के रूप में स्वीकार नहीं किया, तथापि वैशेषिक नय में श्रीधर के इस मत को उत्तरवर्ती आचार्यों से अत्यधिक आदर प्राप्त हुआ। संक्षेपत: उपर्युक्त कथनों को यदि एक साथ रखा जा सके तो हम यह कह सकते हैं कि पदार्थ वह है, जो किसी कार्य का समवायिकारण हो, गुण और कर्म का आश्रय हो, द्रव्यत्व जाति से युक्त हो, और जिसकी स्वप्राधान्य रूप से स्वतन्त्र प्रतीति हो।[31]

द्रव्य के भेद
वैशेषिक में द्रव्य के पृथ्वी अप, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन ये नौ भेद माने गये हैं।[32]

  • इन नौ द्रव्यों में पृथ्वी, जल, तेज- ये तीन अनित्य द्रव्य हैं,
  • वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन- ये छ: नित्य द्रव्य हैं।
  • कुछ आचार्य वायु को भी अनित्य द्रव्य मानते हैं।
  • भाट्ट मीमांसकों के मतानुसार तमस और शब्द भी अतिरिक्त द्रव्य हैं।
  • किन्तु वैशेषिकों के अनुसार तमस प्रकाश का अभावमात्र है और शब्द भी पृथक् द्रव्य नहीं है।
  • कन्दलीकार के अनुसार आत्मा नामक द्रव्य में ईश्वर का समावेश भी हो जाता है। अत: प्रशस्तपाद आरम्भ में ही यह कह देते हैं कि वैशेषिक नय में द्रव्य केवल नौ ही मान्य हैं। अन्य दर्शनों में इन नौ से अतिरिक्त जो द्रव्य माने गये हैं, वे वैशेषिकों के अनुसार पृथक् द्रव्यों के रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं हैं।[33]
  • रघुनाथ शिरोमणि ने दिक, काल और आकाश को ईश्वर (आत्मा) में अन्तर्भूत मानकर तथा मन को असमवेत भूत कहकर द्रव्यों की संख्या पाँच तक ही सीमित करने की अवधारणा प्रवर्तित की।[34] किन्तु इस बात का वैशेषिक नय पर कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।
  • वेणीदत्त ने पदार्थमण्डन नामक ग्रन्थ में रघुनाथ शिरोमणि की मान्यताओं का प्रबल रूप से खण्डन किया।[35] अत: यही मानना ही तर्कसंगत है कि वैशेषिक दर्शन में नौ ही द्रव्य माने गये हैं।
  • परिगणित नौ द्रव्यों में से प्रथम पाँच, पंचमहाभूत संज्ञा से अधिक विख्यात हैं।

पृथ्वी

  • कणाद के अनुसार रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण जिसमें समवाय सम्बन्ध से रहते हों वह पृथ्वी है।[36]
  • प्रशस्तपाद ने इन चारों गुणों में दस अन्य गुण यानी संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व और संस्कार जोड़ते हुए यह बताया कि पृथ्वी में चौदह गुण पाये जाते हैं। इनमें से गन्ध पृथ्वी का व्यावर्तक गुण हैं।[37]
  • रूप, रस और स्पर्श विशेष गुण हैं और शेष दस सामान्य गुण हैं। पृथ्वी दो प्रकार की है।
  1. नित्य- परमाणुरूप और
  2. अनित्य परमाणुजन्य कार्यरूप।
  • पृथ्वी के कार्यरूप परमाणुओं में
  1. शरीर,
  2. इन्द्रिय और विषय के भेद से तीन प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व माना जाता है।
  • पार्थिव शरीर भोगायतन होता है। शरीर मुख्यत: पृथ्वी के परमाणुओं से निर्मित और गन्धवान होता है, अत: वैशेषिकों ने शरीर को पार्थिव ही माना है, पांचभौतिक नहीं।
  • वैशेषिकों के अनुसार पार्थिव परमाणु शरीर के उपादान कारण और अन्य भूतों के परमाणु उनके निमित्त कारण होते हैं, किन्तु लोकप्रसिद्ध के कारण पाँचों भूतों के परमाणुओं को शरीर का उपादान कारण माना जाता है।
  • अत: शरीर का पांचभौतिकत्व प्रख्यात हो गया, जिस पर वैशेषिक मत का काई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा। शरीर से संयुक्त, अपरोक्ष प्रतीति के साधन तथा अतीन्द्रिय द्रव्य को इन्द्रिय कहा जाता है। इन्द्रियों में से घ्राणेन्द्रिय ही गन्ध को ग्रहण करती है अत: घ्राणेन्द्रिय ही मुख्यत: पार्थिव इन्द्रिय हैं।[38]
  • पार्थिव द्रव्य के तृतीय भेद के अन्तर्गत सभी शरीररहित और इन्द्रियरहित विषय आते हैं।[39]
  • पृथ्वी की परिभाषा में कणाद और प्रशस्तपाद ने अनेक गुणों का उल्लेख किया था; किन्तु वैशेषिक चिन्तन के विकास क्रम के साथ अन्तत: यह बात मान्य हो गई कि जो गन्धवती हो, वह पृथ्वी है।[40]
  • पृथ्वी का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है।

अप् (जल)

  • सूत्रकार कणाद के अनुसार रूप, रस, स्पर्श नामक गुणों का आश्रय तथा स्निग्ध द्रव्य ही जल है।[41]
  • प्रशस्तपाद ने पृथ्वी के समान जल में भी समवाय सम्बन्ध से चौदह गुणों के पाये जाने का उल्लेख किया है।
  • जल का रंग अपाकज और अभास्वर शुक्ल होता है।
  • यमुना के जल में जो नीलापन है, वह यमुना के स्रोत में पाये जाने वाले पार्थिव कणों के संयोग के कारण औपाधिक है। जल में स्नेह के साथ-साथ सांसिद्धिक द्रवत्व हैं।[42]
  • जल का शैत्य ही वास्तविक है। उसमें केवल मधुर रस ही पाया जाता है।[43]
  • उसके अवान्तर स्वाद खारापन, खट्टापन आदि पार्थिव परमाणुओं के कारण होते हैं।
  • आधुनिक विज्ञान के अनुसार जल सर्वथा स्वादरहित होता है, अत: जल के माधुर्य के सम्बन्ध में वैशेषिकों का मत चिन्त्य है।[44]
  • पृथ्वी की तरह जल भी परमाणु रूप में नित्य और कार्यरूप में अनित्य होता है। कार्यरूप जल में शरीर, इन्द्रिय (रसना) और विषय-भेद से तीन प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व समवायिकारणत्व माना जाता है। अर्थात जल शरीरारम्भक, इन्द्रियारम्भक और विषयारम्भक होता है। सरिता, हिम, करका आदि विषय रूप जल है। जल का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है।

तेज

  • सूत्रकार के अनुसार रूप और स्पर्श (उष्ण) जिसमें समवाय सम्बन्ध से रहते हैं, वह द्रव्य तेज़ कहलाता है।[45] *प्रशस्तपाद के अनुसार तेज़ में रूप और स्पर्श नामक दो विशेष गुण तथा संख्या, परिमाण, पृथक्त्व संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व और संस्कार नामक नौ सामान्य गुण रहते हैं। इसका रूप चमकीला शुक्ल होता है।[46]
  • यह उष्ण ही होता है और द्रवत्व इसमें नैमित्तिक रूप से रहता है। तेज़ दो प्रकार का होता है, परमाणुरूप में नित्य और कार्यरूप में अनित्य। कार्यरूप तेज़ के परमाणुओं में शरीर, इन्द्रिय और

विषय भेद से तीन प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व (समवायिकारणत्व) माना जाता है।

  • तेजस शरीर अयोनिज होते हैं जो आदित्यलोक में पाये जाते हैं और पार्थिव अवयवों के संयोग से उपभोग में समर्थ होते हैं। तेजस के परमाणुओं से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय चक्षु है। कार्य के समय तेज़ के परमाणुओं से उत्पन्न विषय (वस्तुवर्ग) चार प्रकार का होता है।[47]
  1. भौम- जो काष्ठ-इन्धन से उद्भूत, ऊर्ध्वज्वलनशील एवं पकाना, जलाना, स्वेदन आदि क्रियाओं को करने में समर्थ (अग्नि) है,
  2. दिव्य- जो जल से दीप्त होता है और सूर्य, विद्युत् आदि के रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान है,
  3. उदर्य- जो खाये हुए भोजन को रस आदि के रूप में परिणत करने का निमित्त (जठराग्नि) है;
  4. आकरज- जो खान से उत्पन्न होता है अर्थात् सुवर्ण आदि जो जल के समान अपार्थिव हैं और जलाये जाने पर भी अपने रूप को नहीं छोड़ते। पार्थिव अवयवों से संयोग के कारण सुवर्ण का रंग पीत दिखाई देता है। किन्तु वह वास्तविक नहीं है। सुवर्ण का वास्तविक रूप तो भास्वर शुक्ल है। पूर्वमीमांसकों ने सुवर्ण को पार्थिव ही माना है, तेजस नहीं। उनकी इस मान्यता को पूर्वपक्ष के रूप में रखकर इसका मानमनोहर, विश्वनाथ, अन्नंभट्ट आदि ने खण्डन किया है।[48]
  • सुवर्ण से संयुक्त पार्थिव अवयवों में रहने के कारण इसकी उपलब्धि सुवर्ण में भी हो जाती हैं जिस प्रकार गन्ध पृथ्वी का स्वाभाविक गुण है, उसी प्रकार उष्णस्पर् तेज़ का स्वाभाविक गुण है। अत: उत्तरवर्ती आचार्यों ने उष्णस्पर्शवत्ता को ही तेज़ का लक्षण माना है।[49]
  • तेज़ का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है।

वायु

  • जिस द्रव्य में स्पर्श नामक गुण समवाय सम्बन्ध से रहे, उसको वायु कहा जाता है।[50]
  • सूत्रकार के इस कथन में प्रशस्तपाद ने यह बात भी जोड़ी कि वायु में स्पर्श के अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व तथा संस्कार ये गुण भी रहते हैं।[51]
  • वायु का स्पर्श अनुष्ण, अशीत तथा अपाकज होने के कारण पृथ्वी आदि के स्पर्श से भिन्न होता है। वायु रूपरहित होता है। वायु भी अणु (नित्य) और कार्य (अनित्य) रूप में दो प्रकार का होता है। कार्यरूप वायु के परमाणुओं में शरीर, इन्द्रिय, विषय और प्राण के भेद से चार प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व (समवायिकारणत्व) रहता है।[52]
  • विश्वनाथ के अनुसार विषय में ही प्राण का अन्तर्भाव होने से वायवीय शरीर अयोनिज होते हैं। वे वायुलोक में रहते हैं और पार्थिव अणुओं के संयोग से उपभोग में समर्थ होते हैं वायवीय इन्द्रिय त्वक होती है, जो सारे शरीर में विद्यमान रहती है।[53] किन्तु इस संदर्भ में जयन्त भट्ट का यह कथन भी ध्यान देने योग्य है कि त्वगिन्द्रिय से शरीरावरक चर्म ही नहीं, अपितु शरीर के भीतरी तन्तुओं का भी ग्रहण होना चाहिए। वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता। उसका स्पर्श, शब्द, कम्प आदि से अनुमान होता है। वायु की गति तिर्यक होती है। सम्मूर्च्छन (विशेष प्रकार का संयोग) सन्निपात (टकराव), तृण के ऊर्ध्वागमन आदि के आधार पर यह भी अनुमान किया जाता है कि वायु अनेक हैं। शरीर में रस, मल आदि का प्रेरक वायु प्राण कहलाता है और मूलत: एक है, किन्तु स्थानभेद और क्रियाभेद से वह
  1. मुखनासिका से निष्क्रमण और प्रवेश करने के कारण प्राण,
  2. मल आदि को नीचे ले जाने के कारण अपान,
  3. सब ओर ले जाने से समान,
  4. ऊपर ले जाने से उदान और
  5. नाड़ी द्वारों में विस्तृत होने से व्यान कहलाता है।
  • सूत्रकार और प्रशस्तपाद के अनुसार वायु का ज्ञान अनुमान प्रमाण से होता है, किन्तु व्योम शिवाचार्य, रघुनाथ शिरोमणि, वेणीदत्त आदि आचार्यों का यह मत है कि वायु का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से हो जाता है।[54]
  • अन्नंभट्ट ने रूपरहित और स्पर्शवान को वायु कहा है। अब प्राय: वायु का यही लक्षण सर्वसाधारण में अधिक प्रचलित है।

आकाश

  • वैशेषिक सूत्रकार कणाद ने पृथ्वी, जल, तेज़ और वायु की परिभाषा मुख्यत: उनमें समवाय सम्बन्ध से विद्यमान प्रमुख गुणों के आधार पर सकारात्मक विधि से की, किन्तु आकाश की परिभाषा का अवसर आने पर कणाद ने आरम्भ में नकारात्मक विधि से यह कहा कि आकाश वह है[55] जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नामक गुण नहीं रहते। किन्तु बाद में उन्होंने यह बताया कि परिशेषानुमान से यह सिद्ध होता है कि आकाश वह है, जो शब्द का आश्रय है।
  • प्रशस्तपाद के कथनों का आशय भी यह है कि आकाश वह है, जिसका व्यापक शब्द है। आकाश एक पारिभाषिक संज्ञा है। अर्थात आकाश को 'आकाश' बिना किसी निमित्त के वैसे ही कहा गया है, जैसे कि व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में किसी बालक को देवदत्त कह दिया जाता है। अत: 'आकाशत्व' जैसी कोई जाति (सामान्य) उसमें नहीं है। जिस प्रकार से पृथ्वी घट का कार्यारम्भक द्रव्य है, उस प्रकार से आकाश किसी अवान्तर द्रव्य का आरम्भक नहीं होता। जैसी पृथ्वीत्व की परजाति (व्यापक सामान्य) द्रव्यत्व है और अपरजाति (व्याप्य सामान्य) घटत्व है, वैसी परजाति होने पर भी कोई अपरजाति आकाश की नहीं है। यद्यपि गुण और कर्म की अपेक्षा से भी अपरजाति की प्रतीति का विधान है, किन्तु आकाश में शब्द आदि जो छ: गुण बताये गए हैं, वे सामान्य गुण हैं। अत: उनमें अपरजाति का घटकत्व नहीं माना जा सकता। शब्द विशेष गुण होते हुए भी अनेक द्रव्यों का गुण नहीं है। अत: वह जाति का घटक नहीं होता। इस प्रकार अनेकवृत्तिता न होने के कारण आकाश में 'आकाशत्व' नामक सामान्य की अवधारणा नहीं की जा सकती।
  • किन्तु उपर्युक्त मन्तव्य का ख्यापन करने के अनन्तर भी प्रशस्तपाद यह कहते हैं कि आकाश में शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयाग और विभाग ये छ: गुण विद्यमान हैं और परिगणित गुणों में शब्द को सर्वप्रथम रखते हैं, जिससे वैशेषिक के उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी कणाद और प्रशस्तपाद के आशयों के अनुरूप शब्द को परिशेषानुमान के आधार पर आकाश का प्रमुख गुण मान लिया और इस प्रकार अन्नंभट्ट ने अन्तत: आकाश की यह परिभाषा की 'शब्दगुणकम् आकाशम्' अर्थात जिस द्रव्य में शब्द नामक गुण रहता है वह आकाश है। आकाश एक है, नित्य है और विभु है।[56] आकाश की न तो उत्पत्ति होती है और न नाश। वह अखण्ड द्रव्य है। उसके अवयव नहीं होते। आकाश का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। उसका ज्ञान परिशेषानुमान से होता है। 'इह पक्षी' आदि उदाहरणों के आधार पर मीमांसकों ने आकाश को प्रत्यक्षगम्य माना है, किन्तु वैशेषिकों के अनुसार 'इह पक्षी' आदि कथन आकाश का नहीं, अपितु आलोकमण्डल का संकेत करते हैं। अत: आकाश, शब्द द्वारा अनुमेय द्रव्य है।
  • वैशेषिकों के अनुसार शब्द का गुण है, गुण का आश्रय कोई न कोई द्रव्य होता है। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य शब्द के आश्रय नहीं हैं। अत: आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्यान्तर आश्रय के रूप में उपलब्ध न होने के कारण आकाश को परिशेषानुमान से शब्दगुण का आश्रय माना गया है। आकाश का कोई समवायि, असमवायि और निमित्त कारण नहीं है। शब्द उसका ज्ञापक हेतु है, कारक नहीं।
  • भाट्ट मीमांसक शब्द को गुण नहीं अपितु द्रव्य मानते हैं। किन्तु वैशेषिकों के अनुसार शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध नहीं होता। सूत्रकार कणाद ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि द्रव्य वह होता है, जिसके केवल एक ही नहीं, अपितु अनेक समवायिकारण हों। शब्द का केवल एक समवायिकारण है, वह आकाश है। अत: शब्द एकद्रव्याश्रयी गुण है।[57] वह द्रव्य नहीं है, अपितु द्रव्य से भिन्न है और गुण की कोटि में आता है। इस प्रकार वैशेषिक नयानुसार आकाश पृथक् रूप से एक विभु और नित्य द्रव्य है।

काल

  • काल के संदर्भ में पूरी वैशेषिक परम्परा के चिन्तन का समाहार सा रखते हुए अन्नंभट्ट ने यह बताया कि 'अतीत आदि के व्यवहार का हेतु काल कहलाता है। वह एक है, विभु है तथा नित्य है।[58]' इस परिभाषा में जिन चार घटकों का समावेश किया गया है, उन पर वैशेषिक दर्शन के लगभग सभी आचार्यों ने गहरा विचार-विमर्श किया है।
  • कणाद ने काल के द्रव्यत्व का उल्लेख करते हुए उसके अतीतादिव्यवहारहेतुत्व पर ही अधिक बल दिया। उन्होंने कहा कि अपर (कनिष्ठ) आदि में जो अपर आदि (कनिष्ठ होने) का ज्ञान होता है वह काल की सिद्धि में लिंग अर्थात निमित्त कारण है। अधिक सूर्यक्रिया के सम्बन्ध से युक्त भ्राता को पर (ज्येष्ठ) तथा अल्प सूर्यक्रिया के सम्बन्ध से युक्त भ्राता को अपर (कनिष्ठ) कहा जाता है। अत: सूर्य और पिण्ड (शरीर) के मध्य जो परत्वापरत्व-बोधक और युगपत, चिर, क्षिप्र आदि सम्बन्धघटक द्रव्य है, वही काल है।[59]
  • प्रशस्तपाद ने आकाश एवं दिक के समान काल को पारिभाषिक संज्ञा माना और सूत्रकार के कथन का अनुगमन करते हुए यह कहा कि पौर्वापर्य्य, यौगपद्य, अयौगपद्य, चिरत्व और क्षिप्रत्व की प्रतीतियाँ काल की अनुमिति की हेतु हैं।
  • काल की सत्ता के सिद्ध होने पर भी उसके द्रव्यत्व पर उठाई जाने वाली शंकाओं का समाधान वैशेषिक इस प्रकार करते हैं कि पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्यों में से किसी में भी क्षण, निमेष आदि कालबोधक प्रतीतियों को संयुक्त नहीं किया जा सकता अत: जिस द्रव्य के साथ हमारे क्षण आदि का ज्ञान संयुक्त होता है, वह काल है।
  • श्रीधराचार्य ने सूर्यक्रिया या सूर्यपरिवर्तन के स्थान पर मनुष्य-शरीर के भौतिक परिवर्तन की प्रतीति को काल का अनुमापक बताकर एक नई उद्भावना की।[60]
  • इसी प्रकार वल्लभाचार्य ने न्यायलीलावती में यह कहा कि 'यह पुस्तक वर्तमान है', 'यह मेज वर्तमान है', ऐसे वाक्यों में विषय का भेद होने पर भी उनकी वर्तमानता एक जैसी है।[61]
  • अत: वर्तमानत्व ही काल का ज्ञापक है। अस्तित्व व्यक्तिगत स्वरूप या सत्ता सामान्य स्वरूप को द्योतित करता है, जबकि वर्तमानत्व वस्तुओं के कालिक सम्बन्ध का निदर्शक है।
  • सूत्रकार ने यह भी कहा कि अन्य कार्यों का निमित्त कारण काल है।[62]
  • इसी प्रकार प्रशस्तपाद के कथनों का भी यह सार है कि -
  1. पर, अपर आदि प्रतीतियों का ,
  2. वस्तुओं की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का,
  3. तथा क्षण, निमेष आदि प्रतीतियों का जो हेतु है, वह काल कहलाता है।
  • शिवादित्य और चन्द्रकान्त ने काल को पृथक् द्रव्य नहीं माना। उनके अनुसार काल और दिक् आकाश से अभिन्न हैं।
  • रघुनाथ शिरोमणि ने भी काल को द्रव्य न मानते हुए यह कहा कि ईश्वर से अतिरिक्त काल को पृथक् द्रव्य मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर ही कालव्यवहार का विषय है।[63]
  • किन्तु दिनकर भट्ट वर वैणीदत्त ने रघुन के मत का खण्डन करते हुए यह प्रतिपादित किया कि काल को पृथक् द्रव्य माने बिना हमारी कालिक अनुभूतियों का समाधान नहीं होता।
  • जयन्तभट्ट, नागेशभट्ट, योगभाष्यकार व्यास आदि के अनुसार काल की संकल्पना कल्पनाप्रसूत है, काल क्षणप्रवाह मात्र है। अत: वह स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, किन्तु वैशेषिक इनके मत को स्वीकार नहीं करते और काल को एक पृथक् द्रव्य ही मानते हैं।
  • संक्षेप में वैशेषिक मत का सार यह है कि क्षण, निमेष आदि काल की व्यावहारिक उपाधियाँ हैं। इनका नाश होने से भी काल का नाश नहीं होता, अत: काल एक नित्य द्रव्य है, उपाधिभेद से उसमें अनेकता होने पर भी काल वस्तुत: एक है और पर, अपर आदि कालिक प्रतीतियों का कोई अन्य आधार द्रव्य न होने के कारण काल पृथक् रूप से एक विभु एवं नित्य द्रव्य है।

दिशा

  • वैशेषिक मत का सारसंग्रह करते हुए अन्नंभट्ट ने यह कहा कि 'प्राची आदि के व्यवहार-हेतु को दिक् (दिशा) कहते हैं। दिक् एक हा, विभु है और नित्य है।[64]' इस परिभाषा में उल्लिखित प्रमुख घटकों का वैशेषिकों की लम्बी परम्परा में बड़ा गहन विश्लेषण किया गया है।
  • कणाद ने यह बताया कि-'जिससे : यह पर है; यह अपर है'- ऐसा ज्ञान होता है, वह दिक् सिद्धि में लिंग है।' कणाद ने यह भी कहा कि दिक् का द्रव्यत्व और नित्यत्व वायु के समान है। दिशा के तात्त्विक भेदों का कोई हेतु नहीं पाया जाता अत: वह एक है। किन्तु संयोगात्मक उपाधियों के कारण उसमें प्राची, प्रतीची आदि भेद से नानात्व का व्यवहार होता है।[65]
  • प्रशस्तपाद ने अपरजाति (व्याप्यसामान्य) के अभाव के कारण दिशा को भी आकाश और काल के समान एक पारिभाषिक संज्ञा माना और सूत्रकार के मन्तव्य का अनुवाद सा करते हुए यह बताया कि -'यह इससे पूर्व में है; यह इससे पश्चिम में है- ऐसी प्रतीतियाँ जिसकी बोधक हों, वह दिशा है।[66]' किसी परिच्छिन्न परिमाण वाले मूर्त्त द्रव्य को अवधि (केन्द्रबिन्दु) मान करके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर आदि प्रतीतियाँ की जाती हैं। किन्तु दिशा के बोधक लिंग में भेद न होने के कारण दिशा वस्तुत: एक है। प्राची आदि भेद दिशा की व्यावहारिक उपाधियाँ है। काल के समान दिशा में भी एकत्व संख्या, परममहत परिमाण, एक पृथक्त्व, संयोग और विभाग ये पाँच गुण होते हैं।
  • चित्सुख, चन्द्रकान्त, शिवादित्य आदि ने दिशा के पृथक् द्रव्यत्व का प्राय: इस आधार पर खण्डन किया है कि आकाश, काल एवं दिशा पृथक्-पृथक् द्रव्य नहीं, अपितु एक ही द्रव्य के तीन पक्ष प्रतीत होते हैं। रघुनाथ शिरोमणि और भासर्वज्ञ के अनु सार दिशा ईश्वर से अभिन्न है और दिशासम्बन्धी सभी प्रतीतियाँ ईश्वर की उपाधियाँ हैं।[67]
  • वैयाकरण और बौद्ध काल और दिशा को क्षणिक प्रवाहमान विज्ञान कहते हैं सांख्य द्वारा ये दोनों आकाश में अन्तर्भूत बताये गये हैं।
  • वेदान्त के अनुसार काल और दिशा परब्रह्म पर आरोपित प्रातिभासिक प्रतीतियाँ हैं। केवल वैशेषिक में ही उनका पृथक् द्रव्यत्व माना गया है।
  • इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि यदि सूत्रकार कणाद को आकाश, काल और दिशा का पृथक्-पृथक् द्रव्यत्व अभिप्रेत न होता, तो यह इनके विश्लेषण के लिए पृथक्-पृथक् सूत्रों का निर्माण क्यों करते? इन तीनों द्रव्यों का स्वरूप, कार्यक्षेत्र और प्रयोजन भिन्न है। उदाहरणतया आकाश एक भूतद्रव्य है, दिक मूर्त द्रव्य नहीं है। काल, कालिक परत्वापरत्व का हेतु होता है, जबकि दिशा, देशिक परत्वापरत्व की हेतु है। कालिक प्रतीतियाँ स्थिर होती हैं, जबकि देश की प्रतीतियाँ केन्द्र सापेक्ष होने से अस्थिर होती हैं। अत: वेणीदत्त जैसे उत्तरवर्ती वैशेषिकों का भी यही कथन है कि दिशा पृथकि रूप से एक विभु और नित्य द्रव्य है।[68]

आत्मा

  • सूत्रकार कणाद ने आत्मा के द्रव्यत्व का विश्लेषण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा कि प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर विकार, सुख-दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक लिंगों से आत्मा का अनुमान होता है। ज्ञान आदि गुणों का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है और किसी अवान्तर (अपर सामान्य) द्रव्य का आरम्भक न होने के कारण नित्य है। आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। रूप आदि के समान ज्ञान भी एक गुण है। उसका भी आश्रय कोई द्रव्य होना चाहिए। पृथ्वी आदि अन्य आठ द्रव्य ज्ञान के आश्रय नहीं है। अत: परिशेषानुमान से जो द्रव्य ज्ञान का आश्रय है, उसको आत्मा कहा जाता है।
  • कणाद ने यह भी कहा कि– ज्ञानादि के आश्रयभूत द्रव्य की आत्मसंज्ञा वेद विहित है। इस वेद विहित आत्मा का अन्य आठ द्रव्यों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। 'अहम्' शब्द का आत्मवाचित्व सुप्रसिद्ध है। 'मैं देवदत्त हूँ' ऐसे वाक्यों में शरीर में अहम की प्रतीति उपचारवश होती है। प्रत्येक आत्मा में सुख, दु:ख की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप से होती है। अत: जीवात्मा एक नहीं अपितु अनेक हैं, नाना हैं।[69]
  • प्रशस्तपाद ने भी सूत्रकार का अनुवर्तन करते हुए प्रकारान्तर से यह कहा कि सूक्ष्म होने के कारण आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु 'जैसे बसूला आदि करणों (हथियारों) को कोई बढ़ई चलाता है, वैसे ही श्रोत्र आदि करणों (इन्द्रियों) को चलाने वाला भी कोई होगा'- इस प्रकार से करण प्रयोजक के रूप में आत्मा का अनुमान किया जाता हैं प्रशस्तपाद ने कई अन्य उदाहरणों के द्वारा भी यह बताया कि प्रवृत्ति-निवृत्ति आदि का प्रेरक भी कोइर चेतन ही हो सकता है। वही आत्मा है। सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न नामक गुणों से भी गुणी आत्मा का अनुमान होता है। पृथ्वी, शरीर, इन्द्रिय आदि के साथ अहं प्रत्यय का योग नहीं होता। वह केवल आत्मा के साथ होता है। प्रशस्तपाद ने आत्मा में बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व संयोग और विभाग इन चौदह गुणों का उल्लेख करते हुए यह भी कहा कि इनमें बुद्धि से लेकर संस्कार पर्यन्त प्रथम आठ आत्मा के विशेष गुण हैं और संख्याआदि शेष छ: सामान्य गुण। विशेष गुण अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते, जबकि सामान्य अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं।[70]
  • कणाद और प्रशस्तपाद के कथनों का शंकर मिश्र प्रभृति कतिपय उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने कुछ भिन्न आशय ग्रहण किया और यह कहा कि आत्म् का मानस प्रत्यक्ष होता है। मैं हूँ- यह ज्ञान, मानसप्रत्यक्ष है, न कि अनुमानजन्य। कणाद के एक अन्य कथन को स्पष्ट करते हुए शंकर मिश्र ने यह भी बताया कि जिस प्रकार वायु के परमाणुओं में अवयवों के विषय में कोई प्रमाण न होने से वे नित्य माने जाते हैं, वैसे ही आत्मा के अवयव मानने में कोई प्रमाण न होने के कारण आत्मा नित्य है तथा अनादि का आश्रय होने के कारण आत्मा एक द्रव्य है।[71]
  • वेदान्त आदि में ज्ञान को आत्मा का स्वरूप माना जाता है, किन्तु वैशेषिक दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है।
  • न्यायमंजरी में जयन्त ने भी यह कहा कि स्वरूपत: आत्मा जड़ या अचेतन है। इन्द्रिय और विषय का मन के साथ संयोग होने से आत्मा में चैतन्य उत्पन्न होता है।[72] आत्मा विभु है। वह न तो अणुपरिमाण है, न मध्यमपरिमाण।
  • अन्नंभट्ट ने वैशेषिक मत का सारसंग्रह करते हुए यह बताया कि ज्ञान का जो अधिकरण है, वह आत्मा है। वह दो प्रकार का है, जीवात्मा और परमात्मा। परमात्मा एक है और जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न होने के कारण अनेक है।[73] इस संदर्भ में उद्योतकर का यह कथन भी स्मरणीय है कि परमात्मा नित्य ज्ञान का अधिकरण है जबकि जीवात्मा अनित्य ज्ञान का।
  • श्रीधर ने भी यह बताया है कि जीवात्मा शरीरधारी होता है जबकि परमात्मा कभी भी शरीर धारण नहीं करता।[74]

मन

  • न्याय-वैशेषिक का यह सिद्धान्त है कि गन्धादि विषयों का घ्राणादि इन्द्रियों से, इन्द्रियों का मन से, औ मन का आत्मा से संयोग होने पर ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। विषय का इन्द्रिय के साथ और इन्द्रिय का आत्मा से अधिष्ठानमूलक सम्पर्क होने पर भी यदि इन्द्रिय और आत्मा के बीच मन संयुक्त या सन्निहित नहीं है तो ज्ञान नहीं होता, और संपृक्त या सन्निहित है तो ज्ञान होता है। गन्धादि एकाधिक विषयों के साथ घ्राणादि एकाधिक इन्द्रियों का युगपद संयोग हो जाने पर भी उनमें से केवल एक ही विषय का ज्ञान होता है, क्योंकि मन उनमें से केवल एक ही इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध हो सकता है, एक ही समय एकाधिक के साथ नहीं। मन की अव्यापृतता या अन्यत्र व्यापृतता के कारण कभी-कभी इन्द्रियों से संयुक्त होने पर भी विषय का बोध नहीं होता। अत: कणाद यह कहते हैं कि विषयों और इन्द्रियों के युगपद संयोग की स्थिति में किसी एक विषय में ज्ञान के सद्भाव और अन्य विषय में ज्ञान के अभाव को हेतु मानकर जिस द्रव्य का अनुमान किया जाता है, वह मन कहलाता है। कणाद यह भी कहते हैं कि जैसे वायु स्पर्शादि गुणों का आश्रय होने के कारण द्रव्य और अवान्तर सृष्टि का समारम्भक न होने के कारण नित्य है, वैसे ही संयोगादि गुणों का आश्रय होने के कारण मन द्रव्य है और अपर सामान्य अर्थात किसी सजातीय अवान्तर द्रव्य का समारम्भक द्रव्य न होने के कारण वह नित्य है। शरीर के प्रत्येक अवयव या अंग में ही अनेक युगपत प्रयत्न न होने तथा आत्मा में एक काल में ही अनेक युगपद ज्ञान उत्पन्न न होने के कारण यह सिद्ध होता है कि मन प्रति शरीर एक है अर्थात भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न है।[75]
  • प्रशस्तपाद आदि भाष्यकारों ने कणाद के कथनों को प्रकारात्नर से प्रस्तुत करते हुए यह बताया कि आत्मा, इन्द्रिय तथा विषय के सान्निध्य के होते हुए भी ज्ञान, सुख आदि कार्य कभी होते हैं, कभी नहीं होते हैं। अत: आत्मा, इन्द्रिय और विषय इन तीनों के अतिरिक्त किसी अन्य हेतु की अपेक्षा है, वही हेतु मन है। प्रशस्तपाद ने मन को संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और संस्कार नामक आठ गुणों का अचेतन, परार्थक, मूर्त, अणुपरिमाण तथा आशु संचारी माना है।[76]
  • प्रशस्तपाद के अनुसार स्मृति भी किसी इन्द्रिय पर आधारित होती है। श्रोत्रेन्द्रिय स्मृति का हेतुभूत जो इन्द्रिय है, वही मन है। सुखादि की प्रतीति का कारण भी मन ही हे। इस प्रकार प्रशस्तपाद के अनुसार युगपदि ज्ञानानुत्पत्ति, स्मृति और सुखादि की प्रतीति इन तीन हेतुओं से मन का अनुमान होता है।
  • व्युत्पत्ति के अनुसार मन का अर्थ है- मनन का साधन -'मन्यते बुध्यतेऽनेनेति' (मन्-सर्वधातुभ्योऽसुन्)। किन्तु मन आन्तरिक अनुभवों में ही नहीं, अपितु बाह्य वस्तुओं के प्रत्यक्ष में भी सहायक होता है। अत: प्रशस्तपाद ने यह बताया कि मन वह द्रव्य है, जो मनस्त्वजाति से युक्त हो।
  • न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार भी सभी प्रकार के ज्ञान का हेतु जो इन्द्रिय है, वह मन है। मन ज्ञान का आश्रय नहीं, अपितु ज्ञान का कारण है।[77]
  • उदयनाचार्य के मत में मन एक मूर्त द्रव्य है और स्पर्शरहित है।
  • शिवादित्य का यह विचार है कि मन मनस्त्वजाति से युक्त, स्पर्शरहित, क्रिया का अधिकरण द्रव्य है।
  • वल्लभाचार्य विश्वनाथ आदि आचार्यों ने बताया कि सुख-दु:खादि का अनुभव कराने वाली अन्तरिन्द्रिय ही मन है। बाह्य इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का तभी ग्रहण कर सकती हैं, जब मन भी उनके साथ हो। अत: मन सुख आदि का ग्राहक इन्द्रिय होने के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों द्वारा उनके अर्थग्रहण में भी सहायक होता है। ज्ञान के अयोगपथ से यह सिद्ध होता है कि प्रति शरीर भिन्न-भिन्न है, अत: उसमें अनेकत्व है।
  • श्रीधर का यह कथन है कि दो विभु द्रव्यों के बीच संयोग संभव नहीं है। आत्मा विभु है अत: मन को भी विभु नहीं माना जा सकता, वह अणु है।[78] बाह्य इन्द्रियाँ मन को नहीं देख सकतीं, अत: मन एक अतीन्द्रिय द्रव्य है।[79]

गुण का स्वरूप और भेद

  • कणाद के अनुसार समवाय सम्बन्ध से द्रव्य में आश्रय लेने का जिसका स्वभाव हो, जो स्वयं गुण का आश्रय न हो, संयोग और विभाग का कारण न हो और अन्य किसी की अपेक्षा न रखता हो, वह गुण नामक पदार्थ है।[80]
  • प्रशस्तपाद ने यह बताया कि गुणत्व का समवायी होना, द्रव्य में आश्रित होना, गुणरहित होना, क्रियारहित होना सभी गुणों का साधर्म्य है।[81]
  • केशवमिश्र के मत में जो सामान्य जाति से असमवायिकारण बनने वाला हो, स्पन्दन रहित क्रियावान न हो और द्रव्य पर आश्रित हो, वह गुण कहलाता है।[82]
  • विश्वनाथ ने द्रव्याश्रित निर्गुण और निष्क्रिय हो गुण कहा है।[83]
  • कणाद ने निम्नलिखित सत्रह गुणों का उल्लेख किया है-
  1. रू
  2. रस
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. संख्या
  6. परिमाण
  7. पृथक्त्व
  8. संयोग
  9. विभाग
  10. परत्व
  11. अपरत्व
  12. बुद्धि
  13. सुख
  14. दु:ख
  15. इच्छा
  16. द्वेष और
  17. प्रयत्न।
  • प्रशस्तपाद ने वैशेषिकसूत्र (1-1-6) में उल्लिखित 'च' पद को आधार बनाकर निम्नलिखित सात गुणों को जोड़कर गुणों की संख्या 24 तक पहुँचा दी-
  1. गुरुत्व
  2. द्रवत्व
  3. स्नेह
  4. संस्कार
  5. धर्म
  6. अधर्म और
  7. शब्द
  • शंकर मिश्र के मतानुसार कणाद ने इन सात गुणों का परिगणन नहीं किया क्योंकि ये तो प्रसिद्ध हैं ही।
  • कुछ विद्वानों ने
  1. लघुत्व
  2. मृदुत्व
  3. कठिनत्व और
  4. आलस्य को जोड़कर गुणों की संख्या 28 करने का प्रयत्न किया है।
  • कई आचार्यों ने
  1. परत्व
  2. अपरत्व और पृथक्त्व को अनावश्यक मानकर गुणों की संख्या 21 बताई है। किन्तु सामान्यतया यही माना जाता है कि वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या 24 है। नव्यन्याय में परत्व, अपरत्व को विप्रकृष्टत्व और सन्निकृष्टत्व या ज्येष्ठत्व और कनिष्ठत्व में अन्तर्निहित मान लिया गया है और पृथक्त्व को अन्योन्याभाव का ही एक रूप बताया गया है। अत: नव्यनैयायिक 21 गुण मानते हैं। विश्वनाथ ने उपर्युक्त चौबीस गुणों का वर्गीकरण निम्नलिखित रूप से किया है-

आश्रयद्रव्यों की मूर्तामूर्तपरक

  • केवल मूर्त द्रव्यों में रहने वाले जैसे रूप, रस आदि।
  • केवल अमूर्त द्रव्यों में रहने वाले, जैसे- बुद्धि, सुख आदि।
  • मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के द्रव्यों में रहने वाले, जैसे- संख्या, परिमाण आदि।

आश्रय-संख्यापरक
इन गुणों में से कुछ एक-एक द्रव्य में रहते हैं और कुछ एकाधिक द्रव्यों में। संयोग, विभाग, संख्या, अनेकाश्रित गुण हैं और अन्य एकाश्रित।
सामान्य-विशेषपरक
विश्वनाथ ने गुणों का वर्गीकरण

  1. सामान्य और
  2. विशेष रूप में भी किया है।
  • उनके मतानुसार सामान्य गुण हैं- संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, असांसिद्धिक द्रवत्व, गुरुत्व तथा वेग-संस्कार।
  • विशेष गुण हैं- बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, स्नेह, सांसिद्धिक द्रवत्व, धर्म, अधर्म, भावना, संस्कार तथा शब्द।

इन्द्रियग्राह्यतापरक
विश्वनाथ ने यह भी बताया है कि इन्द्रियग्राह्यता के आधार पर भी गुणों का निम्नलिखित रूप से वर्गीकरण किया जा सकता है-

  1. एकेन्द्रियग्राह्य- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द।
  2. द्वीन्द्रियग्राह्य- (चक्षु और त्वक् से) संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग-संस्कार।
  3. अतीन्दिय- गुरुत्व, बुद्धि, सुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म तथा भावना-संस्कार।
  • गुणों का संक्षिप्त विवरण अन्नंभट्ट द्वारा उल्लिखित क्रमानुसार निम्नलिखित है-

रूप का स्वरूप
केवल चक्षु द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विशेष गुण को रूप कहते हैं। यहाँ पर ग्रहण का आशय है लौकिक प्रत्यक्ष-योग्य जाति का आश्रय। दृष्ट वस्तु में परिमाणवत्ता, व्यक्तता तथा अन्य गुणों से अनभिभूतता होनी चाहिए तभी उसका रूप चक्षुग्रह्यि होगा। 'चक्षुमात्रि' शब्द के प्रयोग का यह आशय है कि चक्षु से भिन्न बहिरिन्द्रिय द्वारा रूप का ग्रहण नहीं होता। अन्तरिन्द्रिय मन पर यह बात लागू नहीं होती। रूप पृथ्वी, जल और तेज़ इन तीनों द्रव्यों में रहता है और शुक्ल, नील, रक्त, पीत, हरित, कपिश और चित्र भेद से सात प्रकार का होता है।
रस का स्वरूप
जीभ से प्रत्यक्ष होने वाले गुण का नाम रस है। रस छ: प्रकार का होता है- मथुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त तथा कषाय। रस पृथ्वी और जल में रहता है। पृथ्वी में छ: प्रकार काजल रहता है, किन्तु जल में केवल मधुर रस रहता है और वह अपाकज होता है। चित्ररस की सत्ता को नैयायिकों ने स्वीकार नहीं किया, क्योंकि आँख किसी वस्तु के विस्तृत भाग के रूपों को एक साथ देख सकती है, किन्तु जिह्वाग्र एक समय एक ही रस का ग्रहण कर सकता है।
गन्ध का स्वरूप
घ्राण इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किये जाने योग्य गुण को गन्ध कहते हैं। सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से यह दो प्रकार का होता है और केवल पृथ्वी में रहता है और अनित्य है। सुगन्ध और दुर्गन्ध गम्य हैं। नैयायिकों ने चित्रगन्ध की सत्ता को भी स्वीकार नहीं किया। जल में गन्ध का जो आभास होता है, वह पृथ्वी के संयोग के कारण संयुक्त समवाय सम्बन्ध से होता है।
स्पर्श का स्वरूप
जिस गुण का केवल त्वचा से प्रत्यक्ष होता है, वह स्पर्श कहलाता है। स्पर्श तीन प्रकार का होता है और चार द्रव्यों में रहता हैं- शीत (जल में), उष्ण (तेज़ में) तथा अनुष्णाशीत (पृथ्वी और वायु में)। यह पृथ्वी, जल, तेज़ और वायु में रहता है। नव्य नैयायिक कठिन और सुकुमार को भी स्पर्श का भेद मानते हैं, जबकि प्राचीन नैयायिक उनको संयोग के अन्तर्गत समाविष्ट करते हैं।
संख्या का स्वरूप

  • एक, दो आदि व्यवहार के कारण को संख्या कहा जाता है। दूसरे शब्दों में संख्या वह सामान्य गुण है, जो एकत्व आदि व्यवहार का निमित्त होता है। वह नौ द्रव्यों में रहती है और एक से लेकर परार्ध पर्यन्त होती है। संख्या दो प्रकार की होती है- एक द्रव्य में रहने वाली एकत्व और अनेक द्रव्यों में रहने वाली- द्वित्व त्रित्व आदि। एकत्व भी दो प्रकार का होता है-
  1. नित्य, जो पृथ्वी, जल, तेज़ और वायु के परमाणु तथा आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन इन नित्य पदार्थों में रहता है और
  2. अनित्य, जो अपने आश्रय घट-पट आदि के समवायि कारण तन्तु आदि अनित्य पदार्थों में रहता है। इन पदार्थों के नाश से तद्गत एकत्व भी नष्ट हो जाता है पट का रूप अपने समवायिकारणों के रूप से उत्पन्न होता है। द्वित्वादि नामक संख्या तो सभी द्रव्यों में अनित्य होती है।
  • द्वित्व संख्या की उत्पत्ति दो द्रव्यों में जैसे 'यह एक घट है' यह भी एक घट है' इस अपेक्षाबुद्धि से होती है। द्वित्व दो द्रव्यों का गुण है, अत: दो द्रव्य द्वित्व के समवायिकरण होते हैं और दोनों द्रव्यों के दोनों एकत्व असमवायिकारण होते हैं, एकत्व की अपेक्षाबुद्धि निमित्त कारण होती है। अपेक्षाबुद्धि के नाश से द्वित्व का भी नाश हो जाता है।
  • साधारणतया तो संख्या एक प्रतीतिमात्र है, किन्तु न्यायवैशेषिक की दृष्टि से रूप आदि के समान संख्या भी एक गुण है। संक्षेपत: द्वित्व आदि की उत्पत्ति (द्वित्वोदय प्रक्रिया) वैशेषिकों के अनुसार इस प्रकार है—
  • प्रथम क्षण में – इन्द्रिय का घटद्वय से सम्बन्ध।
  • द्वितीय क्षण में- एकत्वसामान्य का ज्ञान।
  • तृतीय क्षण में – एक यह, एक यह, इस प्रकार की अपेक्षाबुद्धि का उत्पन्न होना।
  • चतुर्थ क्षण में – द्वित्व संख्या की उत्पत्ति
  • पंचम क्षण में – द्वित्व सामान्य (जाति का ज्ञान)।
  • षष्ठ क्षण में- द्वित्व संख्या का ज्ञान।
  • सप्तम क्षण में – द्वित्वसंख्याविशिष्ट दो घट व्यक्ति का ज्ञान।
  • अष्ठम क्षण में – द्वित्व ज्ञान से आत्संस्कार।

परिमाण का स्वरूप
मान के व्यवहार अर्थात् दो सेर आदि नापने और तौलने के असाधारण कारण को परिमाण कहा जाता है। परिमाण नौ द्रव्यों में रहता है और अणु, महत, दीर्ष व हृस्व भेद से चार प्रकार का होता है। परिमाण का नित्य और अनित्य के रूप में भी वर्गीकरण किया जाता है। नित्य द्रव्यों में रहने वाला परिमाण नित्य और अनित्य द्रव्यों में रहने वाला परिमाण अनित्य होता है। कार्यगत परिमाण के तीन उपभेद हैं-

  1. संख्यायोनि
  2. परिमाणयोनि तथा
  3. प्रचययोनि।
  4. पृथकत्व का स्वरूप

पृथक्ता के व्यवहार के असाधारण कारण को पृथक्त्व कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है- जहाँ एक वस्तु में अन्य वस्तु से पृथक्त् प्रतीत होती हैं, वहाँ एक पृथक्त्व और जहां दो वस्तुओं में अन्य वस्तु या वस्तुओं से पृथक्ता प्रतीत होती है (जैसे घट और पट पुस्तक से पृथक् है) वहाँ द्विपृथक्त्व आदि। एक पृथक्त्व नित्य द्रव्य में रहता हुआ नित्य होता है और अनित्य द्रव्य में रहता हुआ अनित्य। द्विपृथक्त्य आदि सर्वत्र अनित्य ही होता है, क्योंकि उसका आधार द्वित्व आदि संख्या हे, जिसको अनित्य माना जाता है। 'यह घट उस घट से पृथक् है'- इस प्रकार का व्यवहार द्रव्यों के संबन्ध में प्राय: देखा जाता है। इस प्रकार की प्रतीति का निमित्त एक गुण माना जाता है। यही पृथक्त्व है। अन्योन्याभाव के आधार पर यह प्रतीति नहीं हो सकती, क्योंकि अन्योन्याभाव तो 'घट पट नहीं है' आदि ऐसे उदाहरणों पर चरितार्थ होता है, जिनमें तादात्म्य का अभाव है। इस प्रकार पृथक्त्व की प्रतीति भावात्मक है जबकि अन्योन्याभाव की प्रतीति अभावात्मक होती है।
संयोग का स्वरूप
जब दो द्रव्य इस प्रकार समीपस्थ होते हैं कि उनके बीच कोई व्यवधान न हो तो उनके मेल को संयोग कहते हैं। इस प्रकार संयोग एक सामान्य गुण है, जो दो द्रव्यों पर आश्रित रहता है। संयोग अव्याप्यवृत्ति होता है। उदाहरणतया पुस्तक और मेज का संयोग दो द्रव्यों से सम्बद्ध होता हे, किन्तु यह संयोग दोनों द्रव्यों को पूर्ण रूप से नहीं घेरता, केवल उनके एक देश में रहता है। मेज के साथ पुस्तक के एक पार्श्व का और पुस्तक के साथ मेज के एक भाग का ही संयोग होता है। संयोग को केवल व्यवधानाभाव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि व्यवधानाभाव तो कुछ दूर पर स्थित द्रव्यों में भी हो सकता है। किन्तु संयोग में तो व्यवधानाभाव तो कुछ दूर पर स्थित द्रव्यों में भी हो सकता है। किन्तु संयोग में तो व्यवधानाभाव के साथ ही मेल होना भी आवश्यक है।

  • संयोग तीन प्रकार का होता है-
  1. अन्यतरकर्मज,
  2. उभयकर्मज और
  3. संयोगज-संयोगकर्मज।
  • संयोगनाश के दो कारण होते हैं-
  1. आश्रय का नाश और
  2. विभाग।
  • संयोग का यह वर्गीकरण वैशेषिक दृष्टि से है। नैयायिकों के अनुसार तो संयोग के दो भेद होते हैं- जन्य और अजन्य। जन्य संयोग के तीन उपभेद होते हैं-
  1. अन्यतर कर्मज,
  2. उभयकर्मज और
  3. संयोगज।
  • अजन्य संयोग विभु द्रव्यों में होता है और उसका कोइर अवान्तर भेद नहीं होता। वैशेषिक दर्शन आकाश, काल आदि विभु द्रव्यों के नित्य संयोग के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। विभु द्रव्यों में विप्रकर्ष भी नहीं है और विभुत्व के कारण उनमें संयोग मानना भी व्यर्थ है। आशय यह है कि वैशेषिक मत में नित्य एवं विभु द्रव्यों का परस्पर संयोग नहीं होता। फलस्वरूप आकाश का आत्मा के साथ अथवा दो आत्मा का परस्पर संयोग नहीं होता।

विभाग का स्वरूप
परस्पर मिले हुए पदार्थों के अलग-अलग हो जाने से संयोग का जो नाश होता है, उसको विभाग कहते हैं। वह सभी द्रव्यों में रहता है। केशव मिश्र के अनुसार 'यह द्रव्य से विभक्त है'- इस प्रकार के अलगाव की प्रतीति का असाधारण कारण विभाग कहलाता हे। वह संयोगपूर्वक होता है और दो द्रव्यों में होता है। विभाग तीन प्रकार का माना गया है- अन्यतरकर्मज, उभयकर्मज और विभागज।
परत्व और अपरत्व का स्वरूप
'यह पर है, यह अपर है'- इस प्रकार के व्यवहार का असाधारण कारण परत्व एवं अपरत्व है। वे दो प्रकार के हैं- दिक्कृत और (ख) कालकृत।

  1. दिक्कृत परत्व-अपरत्व- एक ही दशा में स्थित दो द्रव्यों में 'यह द्रव्य इस द्रव्य के समीप है'- इस प्रकार के ज्ञान के सहयोग से दिशा और वस्तु के संयोग द्वारा समीपस्थ वस्तु में अपरत्व उत्पन्न होता है। अपरत्व की उत्पत्ति का साधन सन्निकर्ष है। इसी प्रकार 'यह द्रव्य इस द्रव्य से दूर है'– ऐसी बुद्धि के सहयोग से दिग्द्रव्य के संयोग से विप्रकृष्ट द्रव्य में परत्व उत्पन्न होता है। परत्व की उत्पत्ति का साधन विप्रकर्ष है।
  2. कालकृत परत्व और अपरत्व

वर्तमान काल को आधार मानकर दो वस्तुओं या व्यक्तियों में एक अनियत दिशा में स्थित युवक तथा वृद्धि शरीरों में 'यह (युवक शरीर) इस (वृद्धि शरीर) की अपेक्षा अल्पतर काल से सम्बद्ध' है- इस प्रकार वृद्धिरूप निमित्तकारण के सहयोग से कालशरीर-रूप असमवायिकारण से युवा मनुष्य के शरीररूप आश्रय में अपरत्व उत्पन्न होता है तथा यह (वृद्ध शरीर) इस (युवक शरीर) की अपेक्षा अधिक काल से सम्बन्ध रखता है' इस प्रतीति से वृद्ध शरीर में परत्व उत्पन्न होता है। यह ज्ञातव्य है कि दिक्कृत परत्वापरत्व एक दिशा में स्थित दो द्रव्यों में ही उत्पन्न हुआ करते हैं, भिन्न-भिन्न दिशाओं में स्थित द्रव्यों में नहीं, किन्तु कालकृत परत्वापरत्व के लिए पिण्डों का एक ही दिशा में स्थित होना आवश्यक नहीं है।
गुरुत्व का स्वरूप
गुरुत्व उस धर्मविशेष (गुण) को कहते हैं, जिसके कारण किसी द्रव्य का प्रथम पतन होता है। किसी वस्तु की ऊपर से नीचे की ओर जाने की क्रिया का नाम पतन है। पतन-क्रिया जिस वस्तु में होती है, वह वस्तु पतन का समवायिकारण होती है और स्वयं उस वस्तु का जो अपना भारीपन है वह उस वस्तु में संयोग, वेग या प्रयत्न का अभाव हो जाता है। अत: पतन का समवायिकारण कोइर न कोई द्रव्य होता है, असमवायिकारण गुरुत्व होता है। परमाणु का गुरुत्व नित्य होता है। परमाणु से भिन्न पृथ्वी और जल का गुरुत्व अनित्य होता है। पहली पतन-क्रिया से वस्तु में जो वेग उत्पन्न होता है, वह बाद की पतन-क्रिया का असमवायिकारण है। वृन्त से टूट कर भूमि पर पहुँचने तक फल में अनेक क्रियाएँ होती हैं। उनमें पहली पतन-क्रिया का असमवायिकारण फल का गुरुत्व होता है और बाद की पतनक्रियाओं का असमवायिकारण पहली पतन-क्रिया से उत्पन्न फलगत वेग होता है।
द्रवत्व का स्वरूप
किसी तरल वस्तु के चूने, टपकने या एक स्थान से दूसरे स्थान तक बहकर पहुँचने में अनेक स्पन्दनक्रियाएँ होती है। उनमें से प्रथम स्पन्दन का असमवायिकारण द्रवत्व (तरलता) कहलाता है, जो कि भूमि, तेज़ और जल में रहता है। घृत आदि पार्थिव द्रवत्व तथा सुवर्ण आदि में जो द्रवत्व है, वह नैमित्तिक (अग्निसंयोगजन्य) होता है, जब कि जल में जो द्रवत्व है वह स्वाभाविक है। पहली क्रिया के बाद की जो स्पन्दन क्रियाएँ होती हैं, उनका असमवायिकारण वेग होता है।
स्नेह का स्वरूप
'चिकनापन' नामक जो गुण है, वह स्नेह कहलाता है। वह केवल जल में रहता है। स्नेह ऐसा गुण है, जिसके कारण पृथक्-पृथक् रूप से विद्यमान कण या अंश पिण्ड रूप में परिणत हो जाते हैं। स्नेह दो प्रकार का होता है- नित्य और अनित्य। जल के परमाणुओं में नित्य होता है और कार्यरूप जल में अनित्य। अनित्य स्नेह कारण गुणपूर्वक होता है और तभी तक रहता है, जब तक उसका आश्रय द्रव्य द्वयणुक आदि रहता है।
शब्द (गुण) का स्वरूप
शब्द वह गुण है जिसका ग्रहण श्रोत्र के द्वारा किया जाता है। शब्द का आश्रय द्रव्य आकाश है। अत: यह आकाश का विशेष गुण भी कहा जाता है। शब्द दो प्रकार का होता है- ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक। भेरी आदि से उत्पन्न शब्द ध्वन्यात्मक और कण्ठ से उत्पन्न शब्द वर्णात्मक कहलाता है। भेरी आदि दइश में उत्पन्न शब्द श्रोत्र तक कैसे पहुँचता है, इस सम्बन्ध में नैयायिकों ने मुख्यत: जिन दो न्यायों का उल्लेख किया है, वे हैं-

  1. वीचितरंगन्याय और
  2. कदम्बमुकुलन्याय।
  • न्यायकन्दली में श्रीधर ने वीचितरंगन्याय को अन्यातिकता निरूपित किया है।

बुद्धि का स्वरूप
गुणों में बुद्धि का भी परिगणन किया गया है। बुद्धि आत्मा का गुण है, क्योंकि आत्मा को ही मन तथा बाह्येन्द्रियों के द्वारा अर्थ का प्रकाश अर्थात ज्ञान होता है। सांख्य में बुद्धि को महततत्त्व कहा गया है किन्तु वैशेषिक यह मानते हैं कि बुद्धि ज्ञान का पर्याय है।

  • प्रशस्तपाद ने इस संदर्भ में ठीक वैसा ही विचार व्यक्त किया है, जैसा कि न्यायसूत्रकार गौतम ने किया था कि बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान पर्यायवाची शब्द हैं।[84]
  • शिवादित्य ने भी आत्माश्रय प्रकाश को बुद्धि कहा है।[85] बुद्धि का मानस प्रत्यक्ष होता है। बुद्धि के प्रमुख दो भेद हैं- विद्या और अविद्या।
  • विश्वनाथ पंचानन ने विद्या को प्रमा और अविद्या को अप्रमा कहा है।
  • अन्नंभट्ट ने सब प्रकार के व्यवहार हेतु को बुद्धि कहा है। उन्होंने बुद्धि के भेद बताये- स्मृति और अनुभव। अनुभव भी दो प्रकार का होता है- यथार्थ और अयथार्थ। यथार्थ अनुभव को ही प्रमा कहते हैं।

सुख का स्वरूप

  • जिसको सभी प्राणी चाहें या जो सब लोगों को अनुकूल लगे, वह सुख कहलाता है। सुख न्याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा का एक विशेष गुण है। कतिपय आचार्यों के मत में 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकार के अनुव्यवसाय में जिस ज्ञान की प्रतीति होती है, वह सुख कहलाता है। आत्मा के उस गुण को भी कतिपय आचार्यों ने सुख कहा है, जिसका असाधारण कारण धर्म है।
  • प्रशस्तपादभाष्य में कारण भेद से चार प्रकार के सुखों का उल्लेख किया गया है-
  1. सामान्यसुख, जो कि प्रिय वस्तुओं की उपलब्धि, अनुषंग आदि से प्राप्त होता है;
  2. स्मृतिसुख, जो कि भूतकाल के विषयों के स्मरण से होता है,
  3. संकल्पज, जो अनागत विषयों के संकल्प से होता है और
  4. विद्या शमसन्तोषादिजन्यसुख, जो कि पूर्वोक्त तीन प्रकार के कारणों से भिन्न विद्या आदि से जन्य एक विशिष्ट सुख होता है।
  • सुख का वर्गीकरण (क) स्वकीय और (ख) परकीय भेद से भी किया जा सकता है। अपने सुख का तो अनुभव होता है, किन्तु परकीय सुख तो अनुमान द्वारा होता है। एक अन्य प्रकार का वर्गीकरण। (क) लौकिक और (ख) पारलौकिक रूप से भी हो सकता है। लौकिक सुख के भी निम्नलिखित भेद माने जा सकते हैं-
  1. वैषयिक, जो सांसारिक वस्तुओं के भोग से मिलता है;
  2. मानसिक, जो कि इच्छित विषयों के अनुसरण से प्राप्त होता है;
  3. आभ्यासिक, जो किसी क्रिया के लगातार करते रहने से प्राप्त होता है; और
  4. आभिमानिक, जो वैदुष्य आदि धर्मों के आरोप की अनुभूति से प्राप्त होता है।

दु:ख का स्वरूप
गुणों में दु:ख की भी गणना की गई है। दु:ख साधारण: पीड़ा को कहते हैं, जिसको सामान्यत: कोई भी नहीं चाहता। न्यासूत्र में दु:ख की गणना बारह प्रमेयों में की गई है।
इच्छा का स्वरूप
केशव मिश्र ने राग को और अन्नंभट्ट ने काम को इच्छा कहा है। इच्छा का विस्तृत निरूपण प्रशस्तपादभाष्य में उपलब्ध होता है। सामान्यत: अप्राप्त को प्राप्त करने की अभिलाषा इच्छा कहलाती है, प्राप्ति की अभिलाषा अपने लिये हो चाहे दूसरे के लिए। यह आत्मा का गुण है। इसकी उत्पत्ति स्मृतिसापेक्ष या सुखादिसापेक्ष आत्ममन:संयोगरूपी असमवायिकरण से आत्मारूप समवायिकाकरण में होती हैं इसके दो प्रकार होते हैं: सोपाधिक तथा निरुपाधिक। सुख के प्रति जो इच्छा होती है, वह निरुपाधिक होती है और सुख के साधनों के प्रति जो इच्छा होती है, वह सोपाधिक होती है। इच्छा प्रयत्न, स्मरण, धर्म, अधर्म आदि का कारण होती है।
द्वेष का स्वरूप

  • अन्नंभट्ट के अनुसार क्रोध का ही दूसरा नाम द्वेष हैं।
  • प्रशस्तपाद के अनुसार द्वेष वह गुण है, जिसके उत्पन्न होने पर प्राणी अपने को प्रज्वलित-सा अनुभव करता है। यह दु:खसापेक्ष अथवा स्मृतिसापेक्ष आत्ममन:संयोग से उत्पन्न होता है और प्रयत्न, स्मृति, धर्म और अधर्म का कारण है। द्रोह के भी कई भेद होते हैं, जैसे कि
  1. द्रोह- उपकारी के प्रति भी अपकार कर बैठना,
  2. मन्यु- अपकारी व्यक्ति के प्रति अपकार करने में असमर्थ रहने पर अन्दर ही अन्दर उत्पन्न होने वाला द्वेष,
  3. अक्षमा दूसरे के गुणों को न सह सकना अर्थात् असहिष्णुता,
  4. अमर्ष- अपने गुणों के तिरस्कार की आशंका से दूसरे में गुणों के प्रति विद्वेष,
  5. अभ्यसूया- अपकार को सहन करने में असमर्थ व्यक्ति के मन में चिरकाल तक रहने वाला द्वेष। यह सभी द्वेष पुन: स्वकीय और परकीय प्रकार से हो सकते हैं। स्वकीय द्वेष का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष से और परकीय द्वेष का ज्ञान अनुमान आदि से होता है।

प्रयत्न का स्वरूप
अन्नंभट्ट ने 'कृति' को प्रयत्न कहा है। प्रशस्तपाद के अनुसार प्रयत्न, संरम्भ और उत्साह पर्यायवाची शब्द हैं। प्रयत्न दो प्रकार का होता है- (1) जीवनपूर्वक और (2) इच्छाद्वेषपूर्वक। सुप्तावस्था में वर्तमान प्राणी के प्राण तथा अपान वायु के श्वास-प्रश्वास रूप व्यापार को चलाने वाला और जाग्रदवस्था में अन्त:करण को बाह्य इन्द्रियों से संयुक्त करने वाला प्रयत्न जीवनयोनि प्रयत्न कहलाता है। इसमें धर्म तथा अधर्म रूप निमित्त कारण की अपेक्षा करने वाला आत्मा तथा मन का संयोग असमवायिकारण है। हित की प्राप्ति और अहित की निवृत्ति करानेवाली शरीर की क्रियाओं का हेतु इच्छा या द्वेषमूलक प्रयत्न कहलाता है। इसमें इच्छा अथवा द्वेषरूप निमित्त कारण की अपेक्षा करने वाला आत्मा तथा मन का संयोग असमवायिकारण है।
धर्म और अधर्म का स्वरूप
अन्नंभट्ट ने विहित कर्मों से जन्य अदृष्ट को धर्म और निषिद्ध कर्मों से उत्पन्न अदृष्ट को अधर्म कहा है। केशवमिश्र के अनुसार सुख तथा दु:ख के असाधारण कारण क्रमश: धर्म और अधर्म कहलाते हैं। इनका ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं, अपितु आगम या अनुमान से होता है। अनुमान का रूप इस प्रकार होगा-देवदत्त के शरीर आदि देवदत्त के विशेष गुणों से उत्पन्न होते हैं (प्रतिज्ञा), क्योंकि ये कार्य होते हैं (प्रतिज्ञा), क्योंकि ये कार्य होते हुये देवदत्त के भोग के हेतु हैं। (हेतु), जैसे देवदत्त के प्रयत्न से उत्पन्न होने वाली वस्तु वस्त्र आदि (उदाहरण), इस प्रकार शरीर आदि का निमित्त होने वाले विशेष गुण ही धर्म तथा अधर्म हैं।
संस्कार का स्वरूप

  • वरदराज के मतानुसार जिस गुण में वह कारण उत्पन्न होता है, जो कि उसी जाति का हो जिस का कार्य है, (यद्यपि वह विजातीय होता है) तो वह संस्कार कहलाता है। अर्थात जब भी कोई गुण या कर्म बाह्य सहायता के बिना आन्तरिक शक्ति से ही उसी प्रकार का कार्य उत्पन्न कर दे तो वह संस्कार होता है।
  • केशव मिश्र के अनुसार संस्कार सम्बन्धी व्यवहार का असाधारण कारण संस्कार कहलाता है। संस्कार तीन प्रकार का होता है- वेग, भावना और स्थितिस्थापक। संस्कार के इन तीन भेदों में वैसे तो भावना ही वस्तुत: संस्कार हैं शेष दो संस्कार नहीं हैं, किन्तु कतिपय विद्वानों का यह कथन भी ध्यान देने योग्य है कि इन तीनों में बाह्य कारणों के बिना स्वयं ही कार्य करने की क्षमता समानरूप से है।

द्रव्यों में गुण-बोधक चक्र
भारतीय दर्शनसार नामक ग्रन्थ (पृ.240) में आचार्य बलदेव उपाध्याय ने कारिकावली के आधार पर द्रव्य में गुणों के अवस्थान की तालिका निम्नलिखित रूप से दी है-

पृथ्वी

जल

तेज

वायु

आकाश

काल

दिक्

ईश्वर

जीवात्मा

मन

स्पर्श

स्पर्श

स्पर्श

स्पर्श

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

संख्या

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

परिमाण

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

पृथक्त्व

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

संयोग

विभाग

विभाग

विभाग

विभाग

विभाग

विभाग

वियोग

वियोग

वियोग

वियोग

शब्द

 

 

बुद्धि

बुद्धि

परत्व

परत्व

परत्व

परत्व

परत्व

 

 

 

इच्छा

इच्छा

अपरत्व

अपरत्व

अपरत्व

अपरत्व

अपरत्व

 

 

 

यत्न

यत्न

वेग

वेग

वेग

वेग

वेग

 

 

 

 

सुख

 

गुरुत्व

गुरुत्व

द्रवत्व

 

 

 

 

 

दु:ख

 

द्रवत्व

द्रवत्व

रूप

 

 

 

 

 

द्वेष

 

रूप

रूप

 

 

 

 

 

 

भावना

 

रस

रस

 

 

 

 

 

 

धर्म

 

गंध

स्नेह

 

 

 

 

 

 

अधर्म

 

14 गुण

14 गुण

11 गुण

9 गुण

6 गुण

5 गुण

5 गुण

8 गुण

14 गुण

8 गुण

कर्म का स्वरूप

कर्म का आशय है क्रिया या गति, जैसे चलना, फिरना आदि। कर्म मूर्त द्रव्य में ही रहता है।

  • कणाद के अनुसार एक समय एक द्रव्य में रहता हो, गुण से भिन्न हो तथा संयोग एवं विभाग के प्रति साक्षात कारण भी हो वह कर्म है।[86]
  • प्रशस्तपाद ने कणाद के मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि एक के चलने पर सब में चलने की उत्पत्ति नहीं होती और जिस स्थल में एक ही समय अनेकों की चलनक्रिया होती है, वहाँ भी कारण अनेक ही हैं, क्योंकि चलनक्रियाओं के कार्य अभिघात तथा आधार में भेद है। नोदन (ढकेलना), गुरुत्व (भारीपन), वेग और प्रयत्न ये चार कर्म के प्रेरक कारण हैं। कर्म के प्रमुख भेद पाँच हैं-
  1. उत्क्षेपण,
  2. अपेक्षेपण,
  3. आकुंचन,
  4. प्रसारण तथा
  5. गमन।

ऊर्ध्व देश के साथ होने वाले संयोग के प्रति कारणभूत क्रिया उत्क्षेपण और अधोदेश के साथ होने वाले संयोग के प्रति कारणभूत क्रिया अपक्षेपण कहलाती है। शरीर से सन्निकृष्ट संयोग का जनक कर्म आकुंचन तथा शरीर से विप्रकष्ट संयोग का जनक कर्म है- प्रसारण। इनके अतिरिक्त अन्य सब कर्म गमन कहलाते हैं। भ्रमण, रेचन आदि अन्य भी असंख्य कर्म हैं, किन्तु उनका गमन में ही अन्तर्भाव हो जाता है। उत्क्षेपण आदि कर्म नियत दिग्-देश-संयोगानुकूल होते हैं, जबकि भ्रमण, रेचन आदि अनियतदिग्देशसंयोगानुकूल होते हैं। इसके साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि उत्क्षेपण आदि इच्छा-सापेक्ष कर्म हैं, जब कि रेचन आदि पर यह नियम लागू नहीं होता। उदाहरण के रूप में गेंद को मैदान में पटकने के बाद जो उछाल उसमें आता है, वह उत्क्षेपण नहीं कहला सकता। क्योंकि वह उत्प्लवन स्वत: होता है, किसी की इच्छा से नहीं।

सामान्य का स्वरूप

  • केशव मिश्र के अनुसार अनुवृत्ति प्रत्यय के हेतु को सामान्य कहते हैं।[87]
  • विश्वनाथ पंचानन के मत में जो नित्य हो और अनेक (एक से अधिक) वस्तुओं में समवाय सम्बन्ध से रहता हो, वह सामान्य कहलाता है।[88]
  • अन्नंभट्ट का यही मत है, किन्तु उन्होंने लक्षण में समवाय शब्द के स्थान पर अनुगत शब्द का प्रयोग किया है।[89]
  • कणाद ने सामान्य और विशेष को बुद्धिसापेक्ष कहा है।[90]
  • कणाद ने जिन छ: पदार्थों के साधर्म्य (अनुगत धर्म) और वैधर्म्य (विपरीत धर्म) के ज्ञान के द्वारा उत्पन्न तत्त्वज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति का उल्लेख किया है, उनमें से सामान्य भी एक बताया है। उनका यह भी कथन है कि सामान्य के दो रूप होते हैं-
  1. सामान्य अर्थात केवल अनुवृत्ति बुद्धि से सम्बद्ध सामान्य तथा
  2. सामान्यविशेष अर्थात अनुवृत्ति और व्यावृत्ति रूप उभयविध बुद्धि से सम्बद्ध सामान्य। सूत्रकार कणाद ने सामान्य का कोई स्पष्ट लक्षण नहीं दिया।
  • प्रशस्तपाद ने कणाद के कथन को स्पष्ट करते हुए यह कहा कि सामान्य का उपर्युक्त प्रथम रूप परसामान्य कहलाता है और द्वितीय रूप अपरसामान्य। पर (व्यापक) सामान्य केवल सत्ता है जिसमें महाविषयत्व अर्थात सर्वाधिक देशवृत्तिता है। उससे केवल अनुगत प्रतीति ही होती है। सामान्याश्रय द्रव्यादि तीन पदार्थों में वह अनुगत बुद्धि को ही उत्पन्न करता है, न कि व्यावृत्तिबुद्धि को। जिस प्रकार परस्पर भिन्न चर्म, वस्त्र, कम्बल आदि द्रव्यों में 'नील-नील' इत्याकारक एकाकार ज्ञान होता है, उसी प्रकार से भिन्न-भिन्न पृथ्वी आदि नौ द्रव्यों, रूप आदि चौबिस गुणों और उत्पेक्षण आदि पाँच कर्मों में भी 'सत्-सत्' ऐसा एकाकार ज्ञान होता है। अपर सामान्य अनुगतबुद्धि और भेदबुद्धि दोनों का कारण होता है अत: वह सामान्यविशेष कहलाता है। उदाहरणतया द्रव्यत्व पृथ्वी, जल आदि नौ द्रव्यों में अनुगत बुद्धि का कारण है, किन्तु गुण और कर्म से वह भेदबुद्धि का कारण भी हैं अत: वह सामान्य तथा विशेष उभयरूप है। द्रव्यत्व, गुणत्व आदि सामान्य द्रव्य, गुण आदि पदार्थों से भिन्न होने के कारण ही सामान्य नित्य है; यदि दोनों में अभेद हो तो सामान्य का भी द्रव्यादि के समान उत्पत्ति तथा नाश होने लगे। अनुगताकार ज्ञानरूप सामान्य का लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में विलक्षण न होने से तथा भेद में प्रमाण न होने के कारण भी सामान्य अपने आधारभूत व्यक्तियों में एक ही है।
  • 'सामान्य' अपने विषय में समवाय सम्बन्ध से रहता है। यद्यपि सामान्य अनियतदेश होता है अत: सर्वत्र उत्पन्न होने वाले स्वविषय गो व्यक्तियों के सामान्य वहाँ पर वर्तमान अश्वादि व्यक्तियों में भी सम्बद्ध हो सकते हैं। किन्तु गोत्व जाति के अभिव्यंजक सास्नादि रूप अवयव-संस्थान के गोरूप व्यक्तियों में नियत होने के कारण गोत्व जाति का गो व्यक्तियों में ही समवाय है, न कि अश्व आदि पिण्डों में।[91]

विशेष का स्वरूप

घट आदि से लेकर द्वयणुकपर्यन्त प्रत्येक वस्तु का परस्पर भेद अपने-अपने अवयवों के भेद से माना जाता है, किन्तु अवयवों के आधार पर भेद करते-करते और स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते-जाते जब हम परमाणु तक पहुँचते हैं तो एक ऐसी भी स्थिति आ जाती है कि उसके भेद अवयव के आधार पर नहीं किये जा सकते, क्योंकि परमाणु का अवयव होता ही नहीं है। ऐसी स्थिति में परमाणु आदि का पारस्परिक भेद बताने के लिये वैशेषिक ने 'विशेष' नामक पदार्थ की कल्पना की है और न्याय के उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी उसकी चर्चा की गई है। संक्षेप में 'विशेष' के लक्षण में दो बातें मुख्य हैं।

  1. एक तो यह कि विशेष वस्तुओं में पारस्परिक व्यावर्तन का अन्तिम तत्त्व या धर्म है। विशेष का कोई विशेष नहीं होता अर्थात यह स्वतोव्यावर्तक अर्थात स्वयं को सबसे भिन्न करने वाला भी होता है इसी लिए इसको 'अन्त्य विशेष' कहा जाता है।
  2. दूसरी बात यह है कि विशेष केवल नित्य द्रव्यों अर्थात पृथ्वी आदि चार प्रकाहर के अणुओं और आकाशादि चार विभु द्रव्यों में रहता है। 'विशेष अन्तिम होता है'- इस प्रकार का आशय यह है कि जैसे सबसे अधिक देश वाली 'जाति' को सत्ता कहा जाता है, उसी प्रकार ऐसे सबसे छोटे धर्म को जो केवल एक ही पदार्थ में रहे, विशेष कहा जाता है। सामान्य-विशेष की सर्वाधिक व्यापक अन्तिम सीमा का नाम सत्ता है और निम्नतम सीमा का नाम विशेष है। विशेष केवल एक पदार्थ में रहता है, अत: वह सामान्य नहीं हो सकता। वह केवल विशेष ही रहता है। 'विशेष नित्य द्रव्यों में रहता है'- इस कथन का यह आशय है कि घट आदि कार्यों का सूक्ष्म से सूक्ष्मतम रूप ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हम अन्त में द्वयणुक तक पहुँचते हैं। द्वयणुक से भी सूक्ष्म 'अणु' है, वे अलग-अलग व्यक्ति हैं और नित्य हैं। विशेष उन्हीं भिन्न-भिन्न और नित्य व्यक्तियों में रहते हैं।
  • अणु का कोई अवयव नहीं होता, अत: यह प्रश्न उठता है कि एक परमाणु का दूसरे से भेद कैसे समझा जाए? अर्थात् परमाणुओं के पृथक्-पृथक् व्यक्तित्व का आधार क्या है? इसी आधार के रूप में विशेष की कल्पना की गई है। वैशेषिकों की यह मान्यता है कि द्वयणुक का संघटन करने वाले प्रत्येक परमाणु में एक विशेष नामक पदार्थ रहता है, जो आश्रयभूत परमाणु को दूसरे परमाणु से भी पृथक् करता है। एक विशेष का दूसरे विशेष से भेद करने वाला भी विशेष ही है। विशेष स्वयं अपना विभेदक है। विशेष का स्वभाव ही व्यावृत्ति है अत: उसके सम्पर्क से सजातीय परमाणु भी एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। विशेष को माने बिना परमाणुओं का एक दूसरे से भेद नहीं हो सकता। इस संदर्भ में एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि यदि एक विशेष का दूसरे विशेष से भेद स्वयं ही हो जाता है तो एक परमाणु का दूसरे परमाणु से भेद भी स्वयं ही क्यों नहीं हो जाता? इस शंका का समाधान प्रशस्तपाद ने यह कह कर कर दिया कि विशेष का तो स्वभाव ही व्यावृत्ति है, जबकि परमाणु का स्वभाव व्यावृत्ति नहीं है। इसके साथ एक परमाणु का दूसरे परमाणु से तादात्म्य है, जबकि एक विशेष का दूसरे विशेष से तादात्म्य नहीं है।
  • विशेष के सम्बन्ध में एक शंका यह भी उठाई जाती है कि योगजधर्म के सामर्थ्य से योगियों को जैसे अतीन्द्रिय पदार्थों का दर्शन होता हा, वैसे ही उन्हें बिना विशेष के ही ज्ञान हो जाएगा फिर उनको 'विशेष' की क्या आवश्यकता है? प्रशस्तपाद इस शंका का समाधान इस प्रकार करते हैं कि योगियों को भी जो ज्ञान होता है वह बिना निमित्त के नहीं हो सकता।

समवाय का स्वरूप

जिन दो पदार्थों में कोई विनश्यता की अवस्था को प्राप्त हुए बिना अपराश्रित ही रहता है, उनके बीच जो सम्बन्ध होता है, उसको समवाय कहते हैं। इन दो पदार्थों में से कोई एक पदार्थ (यथा पट) ही दूसरे (यथा तन्तु) पर आश्रित रहता है। दोनों का एक दूसरे पर आश्रित रहना आवश्यक नहीं है, क्योंकि उदाहरणतया तन्तु तो बिना पट के भी रह सकता है।

  • कणाद यह कहते हैं कि जिस सम्बन्ध के कारण अवयवों में अवयवी, व्यक्ति में जाति आदि का बोध होता है, वह समवाय कहलाता है।[92]
  • प्रशस्तपाद भी लगभग इसी कथन का अनुवर्तन करते हैं।[93]
  • वैशेषिकी के अनुसार समवाय एक नित्य सम्बन्ध है, जब कि संयोग अनित्य सम्बन्ध है। किन्तु अवयवों में अवयवी समवाय सम्बन्ध से रहता है। नव्यनैयायिक समवाय को नित्य नहीं मानते। वैसे प्राचीन नैयायिकों और वैशेषिकों की दृष्टि में भी नित्यत्व का आशय यहाँ पर यह है कि कार्य को उत्पन्न किये बिना सन् इसे उत्पन्न किया जा सकता है और न कार्य को नष्ट किये बिना इसे नष्ट किया जा सकता है।
  • समवाय गुण नहीं अपितु पदार्थ है और यह समवायियों में तादात्म्य सम्बन्ध से रहता है। प्राचीन नैयायिकों के मतानुसार समवाय का प्रत्यक्ष होता है, किन्तु वैशेषिकों के अनुसार इसका अनुमान होता है। अन्नंभट्ट भी यहाँ सपर वैशेषिक मत का ही अनुगमन करते हैं।
  • मीमांसक और वेदान्ती समवाय सम्बन्ध को नहीं मानते।
  • शंकराचार्य के अनुसार संयोग (गुण) द्रव्य में जिस सम्बन्ध से रहता है, वह समवाय है अत: समवाय पदार्थ नहीं है। यदि तादात्म्य सम्बन्ध से द्रव्य में समवाय की अवस्थिति मानी जाये तो संयोग की ही द्रव्य में तादात्म्य सम्बन्ध से अवस्थिति क्यों न मानी जाए?
  • जैसे कि पहले भी कहा गया, समवाय सम्बन्ध अयुतसिद्ध दो पदार्थों के बीच रहता है। अयुतसिद्ध का आशय है- जो न कभी संयुक्त सिद्ध किये जा सकें, और न विभाजित। ऐसे युग्मों के आधार पर अयुतसिद्ध सम्बन्ध पाँच प्रकार का माना गया है-
  1. अवयव और अवयवी में,
  2. गुण (रूप) और गुणी
  3. क्रिया और क्रियावान् में,
  4. जाति (घटत्व) और व्यक्ति (घट) में तथा
  5. विशेष और अधिकरण नित्य (आकाश, परमाणु आदि) द्रव्य में।
  • अन्नंभट्ट ने समवाय केवल एक प्रकार का ही माना है। समवाय सिद्धान्त के आधार पर ही न्याय-वैशेषिक दर्शनों को वस्तुवादी कहा जाता है। क्योंकि इसी पर कारणवाद और परमाणुवाद निर्भर करते हैं। बौद्धों के इस तर्क का कि अवयवी (वस्त्र) अवयवों (तन्तुओं) से भिन्न यानी परमाणु-पुंज के अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है, नैयायिक इस प्रकार खण्डन करते हैं कि परमाणु-पुंज का दर्शन नहीं होता, जबकि घट को देख कर यह प्रतीति होती है कि एक स्थूल घट है। अत: अवयव-अवयवी की पृथक् सत्ता अनुभवसिद्ध है।

अभाव का स्वरूप

प्रत्येक प्रतीति किसी सद्वस्तु पर आधारित होती है। अत: अभावात्मक प्रतीति का भी कोई आश्रय है, उसी को अभाव कहते हैं। प्राचीन नैयायिकों और वैशेषिकों ने केवल भाव पदार्थों का उल्लेख किया थां किन्तु उत्तरवर्ती प्रकरणग्रन्थकारों ने भी न्याय-वैशेषिक परम्पराओं को संयुक्त रूप में आगे बढ़ाया है और उनके ग्रन्थों में अभाव का भी विश्लेषण किया गया है। वैसे पदार्थ के रूप में अभाव का प्रमुख रूप से प्रतिपादन शिवादित्य ने किया है।

  • प्रशस्तपाद ने केवल यह उल्लेख किया कि अभाव को कुछ लोगों ने पृथक् प्रमाण माना, किन्तु वह भी अनुमान ही है।[94]
  • कतिपय विद्वानों का यह कथन है कि कणाद ने 'कारणाभावात्कार्याभाव:' और 'असत: क्रियागुणव्यपदेशाभावादर्थान्तरम्' जैसे सूत्रों में अभाव के पदार्थत्व को स्वीकार किया है।

वैसे अभाव का सामान्य अर्थ है- 'निषेध- मुखप्रमाणगम्यत्व' अर्थात् 'न' शब्द से अभिलाप किये जानेवाले ज्ञान का विषय।[95]

  • माधवाचार्य के अनुसार अभाव उस पदार्थ को कहते हैं, जो समवाय सम्बन्ध से रहित होकर समवाय से भिन्न हो। ज्ञातव्य है कि द्रव्यों का समवाय सम्बन्ध अपने पर आश्रित गुणादि के साथ होता है। गुण और कर्म अपने आश्रय द्रव्य के साथ या अपने पर आश्रित सामान्य के साथ समवाय सम्बन्ध रखते हैं। अत: अभाव के लक्षण में असमवायत्वे सति कहने से सभी पदार्थों की और 'असमवाय' कहने से स्वयं अभाव के समवायत्व की व्यावृत्ति हो जाती है।[96]
  • विश्वनाथ पंचानन ने अभाव के सर्वप्रथम दो भेद माने हैं- संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव; और संसर्गाभाव के तीन भेद किये हैं- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव तथा अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव। *अन्नंभट्ट के अनुसार जिसका आदि न हो किन्तु अन्त हो वह प्रागभाव है, जैसे पत्थर पर पड़ने से घड़े का फूटना। ध्वंस के बाद भी अर्थात् नष्ट होने के बाद भी जो कार्य उत्पन्न होता है, उसके सम्बन्ध में नैयायिकों का यह मत है कि वह तो नष्ट हुए कार्य से भिन्न कार्य होता है। अत्यन्ताभाव अनादि तथा अनन्त होता है, जैसे वायु में रूप का अभाव है। इन तीनों अभावों में घट आदि के संसर्ग (संयोग, समवाय) का अभाव प्रकट होता है। इसलिए ये संसर्गाभाव कहलाते हैं। दो वस्तुओं में तादात्म्य का जो अभाव होता है, उसको अन्योन्याभाव कहते हैं, जैसे घट पट नहीं है। अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव दोनों ही त्रैकालिक अर्थात नित्य हैं, किन्तु अत्यन्ताभाव संयोगसमवाय- सम्बन्ध पर निर्भर है, जबकि अन्योन्याभाव तादात्म्य-सम्बन्ध पर आधारित है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पदानाम् अर्थ: अभिधेय: पदार्थ:
  2. ऋच्छन्तीन्द्रियाणि यं सोऽर्थ:
  3. वैशेषिक सूत्र 1.1.4
  4. षण्णामपि पदार्थानां साधर्म्यम् अस्तित्व-अभिधेयत्व-ज्ञेयत्वानि। आश्रितत्वं चान्यत्र नित्यद्रव्येभ्य।-प्रशस्तपादभाष्यम्।
  5. यस्य वस्तुनो यत् स्वरूपं तदेव तस्यास्तित्वम्।-न्याय कन्दली पृ. 41
  6. अभिधेयत्वम् अभिधानयोग्यता। शब्देन संकेतलक्षण: सम्बन्ध: कि.; अभिधेय: पदार्थ:।-लक्षणावली
  7. अभिधेयत्वं पदार्थसामान्यलक्षणम्, त.दी. पृ.2
  8. प्रमितिविषया: पदार्था:-सप्तपदार्थी
  9. न्यायकन्दली पृ. 41
  10. न्यायकन्दली पृ. 42
  11. अर्थ इति द्रव्यगुणकर्मसु, वैशेषिक सूत्र, 8.2.3
  12. सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता, वैशेषिक सूत्र 1.2.7
  13. IP, Radhakrishnan, Vol II p.186
  14. प्रशस्तपादभाष्यम्, आरम्भ:
  15. Frauwallner, HIP Vol. II pp 79-80
  16. न्यायसिध्दान्तमुक्तावली पृ. 40
  17. प्रकरणपञ्जिका, पृ. 78
  18. सादृश्यम् उपाधिरूपं सामान्यम् स.प.पृ. 46
  19. तदेतत्सादृश्यमेतास्वेकां विद्यामासादयन्नतिरिच्यते। अनासादयन्न पदार्थीभूय स्थातुमुत्सहते, न्या.कृ.पृ. 399
  20. सादृश्यमपि न पदार्धान्तरं, किन्तु तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मत्वम्, न्या.सि.मु.,पृ.29-30
  21. विशेषोऽपि न पदार्थान्तर:, मानाभावात, रघु. पदार्थतत्त्वनिर्णय:, पृ. 43
  22. द्रष्टव्य- भारतीय न्यायशास्त्र (डॉ.चक्रधर बिजलवान) पृ. 438
  23. क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्, वैशेषिक सूत्र 1.1.5
  24. गुणाश्रयो द्रव्यम्, न्या. ली., पृ. 7; त. भा. पृ. 5
  25. तत्र गुणात्यन्ताभावानधिकरणं द्रव्यम् ल.व., पृ. 2
  26. तत्त्वसंग्रह:, श्लो. 564-574
  27. न च द्वाभ्याम् इन्द्रियाभ्याम् एकार्थग्रहणम् विना प्रतिसन्धानं न्याय्यम्; व्यो. पृ. 44
  28. तत्र समवायिकारणं द्रव्यम्, त.भा.पृ. 239
  29. कालाकाशादीनां संयोगविभागजनकत्वेन कर्मवत् सत्तेतरजातिमत्त्वसिद्धे:, न्या.ली. पृ. 94-97
  30. द्रव्यत्वजातिमत्त्वं गुणवत्त्वं वा द्रव्यसामान्यलक्षणम्, त.दी. पृ. 4
  31. चित्सुखी, पृ. 302
  32. वैशेषिकसूत्र 1.1.5
  33. प्र. भा. पृ. 4
  34. पृथिव्यप्तेजोवाय्यवात्मान इति पञ्चैव द्रव्याणि, व्योमादेरीश्वरात्मन्येवान्तर्भूतत्वात् मनसश्चासमवेतभूतेऽन्तर्भावादित्याहुर्नवीना:, दिनकरी न्या.सि.मु. पृ.46
  35. पदार्थमण्डन
  36. रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथ्वी, वैशेषिकसूत्र, 2.1.1
  37. क्षितावेव गन्ध:, प्र. भा. पृ. 29
  38. इन्द्रियं घ्राणत्वलक्षणम् भा. ष. का. 8
  39. शरीरेन्द्रियव्यतिरिक्तमात्मोपभोगसाधनं विषय:; न्या.क. पृ. 82
  40. तत्र गन्धवती पृथ्वी, त.सं.
  41. रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवा: हिनग्धा:, वै.सू. 2.1.2
  42. द्रवत्वं सांसिद्धकिरूपेण जलस्याधारणम्, सेतु पृ. 241
  43. किरणावली, पृ. 67-68
  44. धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री, न्या.सि.मु. व्याख्या, पृ. 200
  45. वै. सू. 2.1.3
  46. प्र. भा.
  47. C.F.-Sources of Energy: Bhauma=Celestial; Divya=Chemical or Terrestrial; Udarya= Abdominal; Akaraja=Minerar
  48. न्या.सि.मु. पृ. 133-136
  49. उष्णस्पर्शवत्तेज:, त.सं.
  50. स्पर्शवान् वायु:, वै.सू. 2.1.4
  51. प्र.भा. (वायु-निरूपण
  52. न्या.सि.मु. पृ. 44
  53. न्या.म. भाग-2 पृ. 48
  54. व्योमवती, पृ. 274; प.त.नि.पृ. 52-53; प.मां., पृ. 20
  55. त आकाशे न विद्यन्ते, वै.सू. 2.1.5
  56. शब्दगुणकमाकाशम्, त. सं.
  57. एकद्रव्यत्वान्न द्रव्यम्, वै.सू., 2.2.23
  58. अतीतानागतहेतु: काल:, स चैको विभुर्नित्यश्च, त.सं.
  59. अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि, वै.सू.
  60. युवस्थविरयों: शरीरावस्थाभेदेन तत्कारणतया कालसंयोगेऽनुमिते सति पश्चात्तयो: कालविशिष्टावगति:, न्या. क. पृ. 158
  61. एवं कालोऽपि सर्वत्राभिन्नाकारवर्तमानप्रत्ययवेद्य:, न्यायलीलावती, पृ. 310
  62. नित्येष्वभावात् अनित्येषु भावात् कारणं कालाख्येति, वै.सू. 2.2.9
  63. पदार्थतत्त्वनिर्णय:, पृ. 23
  64. प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक्, सा चैका, नित्या विभ्वी च, त.सं.
  65. वै.सू. 2.2.10-16
  66. प्र.पा.भा., पृ. 56
  67. प.त.नि.
  68. प.म.
  69. वै.सू. 2.2.4-21
  70. प्र.पा.भा., पृ. 59-66
  71. वै.सू. उपस्कार
  72. न्या. मं., भाग-2 पृ.6
  73. ज्ञानाधिकरणमात्मा, त. सं.
  74. न्या. क. पृ. 139
  75. वै.सू. 3.2.1.-3
  76. प्र.पा.भा. पृ. 69
  77. न्या.भा. 1.1.6
  78. न्या. क., पृ. 223
  79. वै.सू. 4.1.6
  80. द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगाविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्, वै.से. 1.1.16
  81. रूपादीनां गुणानां सर्वेषां गुणत्वाभिसम्बन्धों द्रव्याश्रितत्वं निर्गुणत्वं निष्क्रियत्वम्, प्र.पा.भा., पृ. 69
  82. सामान्यवान् असमवायिकारणम् अस्पन्दात्मा गुण: स च द्रव्याश्रित एव, त.भा. पृ. 260
  83. तर्कदीपिका, पृ. 16
  84. बुद्धिरुपलब्धिज्ञानं प्रत्यय इति पर्याय:, प्र. भा. पृ. 130
  85. आत्माश्रय: प्रकाशों बुद्धि:, स.ष. पृ. 76
  86. एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्, वै.सू. 1.1.17
  87. अनुवृत्तिप्रत्ययहेतु: सामान्यम्, त.भा. पृ. 224
  88. नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वं सामान्यम् न्या.सि. मु.
  89. नित्यमेकमनेकानुगतं सामान्यम्, त.सं.
  90. सामान्यं विशेष इति बुध्यपेक्षम्, वै.सू. 1.2.3
  91. प्र. पा. भा. श्रीनिवास व्याख्या पृ. 250
  92. इहेदमिति यत: कार्यकारणयो: स समवाय:, वै.सू. 7.2.24
  93. अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानां य: सम्बन्ध: इहप्रत्ययहेतु: स समवाय:, प्र.पा.भा. (श्रीनिवास संस्करण) पृ. 256
  94. नञ्पदप्रतीतिविषयत्वम् अभावत्वम् त.भा.
  95. स चासमवायत्वे सत्यसमवाय:, स.द.स. पृ. 444
  96. अभावोऽप्यनुमानमेव, प्र.भा. पृ. 180


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