वैष्णवन की वार्ता

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महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के पुष्टि सम्प्रदाय में इन वार्ताओं का बड़ा महत्त्व है। इनमें पुष्टि-सम्प्रदाय के भक्तों की, जिनमें हिन्दी के आठ प्रमुख कवि भी सम्मिलित हैं, जीवनियाँ संकलित हैं।

  • 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में वल्लभाचार्य के शिष्यों की कथाएँ संकलित हैं और
  • 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्यों की कथाएँ संकलित हैं।

इन वार्ताओं के रचयिता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। सामान्यत: इनके रचयिता गोस्वामी गोकुलनाथ माने जाते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' के संवत् 1986 के संस्करण में इसे गोकुलनाथकृत माना है। वे लिखते हैं, 'ये दोनों वार्ताएँ वल्लभाचार्य के पौत्र और विट्ठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथ की लिखी है'[1] परन्तु सम्भवत: जब डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का 'हिन्दुस्तान' पत्रिका के अप्रैल सन् 1932 के अंक में इस मत का सप्रमाण विरोध प्रकाशित हुआ तो आचार्य शुक्ल ने भी अपनी सम्मति में संशोधन कर लिखा... 'इनमें से प्रथम आचार्य श्री वल्लभाचार्य के पौत्र और विट्ठलनाथ के पुत्र गोकुलनाथजी की लिखी कही जाती है, पर गोकुलनाथ के किसी शिष्य की लिखी जान पड़ती है, क्योंकि इसमें गोकुलनाथ का कई जगह बड़े भक्त भाव से उल्लेख है' [2] हिन्दी साहित्य के प्रथम फाँसीसी इतिहासकार गार्सा द तासी ने इन्हें गोकुलनाथ कृत माना है। मिश्रबन्धुओं ने भी तासी का समर्थन किया है।


डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा को 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' को गोकुलनाथकृत मानने में विशेष आपत्ति नहीं जान पड़ती, किन्तु 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' को वे गोकुलनाथकृत मानने में झिझकते हैं। उनका कथन है, 'चौरासी वार्ता' तथा दो सौ बावन वार्ता' के इस समय के डाकोर के संस्करण प्रामाणिक हैं किन्तु इनके मुखपृष्ठ पर इनके गोकुलनाथकृत होने का उल्लेख नहीं है। 'चौरासी वार्ता' 'चौरासी वार्ता में कोई ऐसे विशेष उल्लेख देखने में नहीं आते हैं, जो इसके गोकुलनाथकृत होने में सन्देह उत्पन्न करते हों किन्तु 'दो सौ बावन वार्ता' में अनेक ऐसी बातें मिलती हैं, जिनसे इसका गोकुलनाथ कृत होना अत्यन्त संदिग्ध हो जाता है' [3] सबसे पहली बात तो यह है कि इस वार्ता में अनेक स्थलों पर गोकुलनाथ का नाम इस तरह आया है, जिस तरह कोई भी लेखक अपना नाम नहीं लिख सकता। उदाहरणार्थ- 'जब कहते कहते अर्ध रात्र बीती तब, श्री गुसाई जी पौढ़े। गोविन्द स्वामी घर कूं चले। तब श्रीबालकृष्ण जी तथा श्री गोकुलनाथ जी तथा श्रीरघुनाथ जी तीनों भाई वैष्णवन के मण्डल में विराजते हैं। जब गोविन्द स्वामी ने जाय के दण्डवत करी। तब श्रीगोकुलनाथ जी ने पूछे जो श्रीगुसाईजी के यहाँ कहा प्रसंग चलतों हतो।' ऐसे अनेक गोकुलनाथजी के प्रति आदर-सूचक उल्लेख 'वार्ताओं' में मिलने के कारण डॉ. धीरेन्द्र वर्मा और बाद में पं. रामचन्द्र शुक्ल को संदेह हुआ कि इनके रचयिता गोस्वामी गोकुलनाथ नहीं हो सकते। घटनाओं में ऐतिहासिक उल्लेखों से भी उनके गोकुलनाथ कृत होने में संदेह दृढ़ हो जाता है। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में ऐसा पहला स्थल श्री गुसाईं जी की सेवक लाड़बाई तथा धारबाई शीर्षक 199 वीं वार्ता में है। वे कदाचित वेश्याएँ थीं। उन्होंने अपने जीवन भर की कमाई "नव लक्ष रुपया" पहले विट्ठलनाथ को तथा कुछ दिनों बाद उनके पुत्र गोकुलनाथ को अर्पण करना चाहा, किन्तु दोनों ने आसुरी धन समझकर अंगीकार नहीं किया। 'तब गोकुलनाथ के अधिकारी ने गोकुलनाथ के पूछे बिना एक छात में द्रव्य बिछाय के ऊपर काकर डराय के चूनो लगाय दियो सो वा छात में रह्यो आयो। फेर साठ वर्ष पीछे औरंगजेब बादशाह की जुल्मी के समय में म्लेच्छ लोक लूटवे कूं आये तब श्री गोकुल में सुं सब लोग भाग गये और मन्दिर सब ख़ाली हो गए। कोई मनुष्य गाँव में रह्यो नहीं तब गाँव में जितने मन्दिर हते सब मन्दिरन की छात खुदाय डारी।'

प्रमाण

  • उक्त घटना से डॉ. वर्मा ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इतिहासकार स्मिथ के अनुसार औरंगज़ेब ने मन्दिर तुड़वाने की नीति सन् 1669 में प्रारम्भ की और खोज के अनुसार गोकुलनाथ का समय सन् 1551 से 1647 ई. तक माना गया है। इस तरह गोकुलनाथ कृत ग्रन्थ में औंरगजेब के राज्य की इस घटना का उल्लेख सम्भव नहीं है। इस उल्लेख से यह भी ध्वनि निकलती है कि वार्ता कदाचित औंरगजेब के राज्यकाल के बाद लिखी गयी है।
  • दूसरा स्थल गुसाई जी के सेवक 'गंगाबाई क्षत्राणी' शीर्षक 51वीं वार्ता में है, उसमें गंगाबाई का जन्म-समय "सोले से अट्ठाईस और भूतलदास सत्रे सो छत्तीस" उल्लिखित है। गंगाबाई का श्रीनाथ जी के साथ मेवाड़ जाने का उल्लेख 'श्री गोवर्धननाथ जी के प्रागटय की वार्ता' शीर्षक में इस प्रकार आया है, 'मिति असाढ़ सुदी 15 शुक्ल संवत् 1726 के पहिली पहर रात्रि श्रीवल्लभजी महाराज पयान सिद्ध कराए, अरोगाए। पीछे रथ हाके चले नहीं तब श्री गोस्वामि बिनती कीउ तब श्री जी का आज्ञा की जो गंगाबाई को गाड़ी में बैठाय के संग लै चलौ।" यह घटना भी इस प्रमाण के अनुसार 1669 ई. में ही पड़ती है। गंगाबाई के सम्बन्ध में निश्चित उल्लेख से भी यही सिद्ध होता है कि 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' गोकुलनाथ कृत नहीं हो सकती । *तीसरा प्रमाण डॉ. वर्मा ने वार्ताओं के व्याकरणिक रूप का दिया है और यह निष्कर्ष निकाला है कि एक ही लेखक अपनी दो कृतियों में व्याकरण के इन छोटे-छोटे रूपों में इस तरह भेद नहीं कर सकता।
  • यद्यपि डॉ. वर्मा ने 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' के गोकुलनाथकृत होने में विशेष सन्देह व्यक्त नहीं किया, पर आचार्य शुक्ल उसे" गोकुलनाथ के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना" मानते हैं। हिन्दी के कुछ अन्वेषक तो समग्र 'वार्ता साहित्य' को ही अप्रामाणिक मानते हैं। इसके विपरीत द्वारिकादास पारिख और कण्ठमणि शास्त्री उसे प्रामाणिक सिद्ध करते हैं। इन दोनों विद्वानों के तर्कों के आधार पर प्रभुदयाल मीतल ने उपर्युक्त विद्वानों की शंकाओं का समाधान करने का प्रयत्न किया है। वे दोनों 'वार्ताओं' को गोकुलनाथकृत मानते है; दोनों ग्रन्थों को गोकुलनाथ के मुख से नि:सृत प्रवयने मानते हैं जो "बाद में हरिराय द्वारा सम्पादित होकर चौरासी और दो सौ वैष्णवन की वार्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए। "ऐसा ज्ञात होता है कि चौरासी वार्ता वाले प्रवचन पहले लिपिबद्ध किये गये और दो सौ बावनवाले बाद को। इन प्रवचनों की मूल प्रतियाँ भी लिखित रूप में इधर-उधर मिल जाती हैं। उनका मत है, "सम्भवत: किसी गुजराती लेखक की लिपिबद्ध चौरासी वार्ता की पुस्तक शुक्ल जी ने देखी होगी, जिसके कारण उनकी उक्त धारणा हो गयी होगी।" 'वार्ता' के पाठक से यह छिपा नहीं है कि उसमें गोकुलनाथ की अपेक्षा गोसाई जी के ज्येष्ठ पुत्र गिरिधर की विशेष प्रशंसा मिलती है। यदि यह पुस्तक गोकुलनाथ के किसी शिष्य की लिखी होती तो उसमें ऐसा होना सम्भव नहीं था, क्योंकि गोकुलनाथ के शिष्य अपने गुरु से बढ़कर किसी को भी नहीं मानते हैं। दो सौ बावन वार्ता में गोकुलनाथ का नाम इस प्रकार उल्लिखित हुआ है कि यह उनकी रचित ज्ञात नहीं होती। इस तर्क के सम्बन्ध में मीतल का कथन है कि हरिराय ने उनके सम्पादन में प्रसंगवश गोकुलनाथ के प्रवचन ही हैं।

दो सौ बावन वार्ता में गोकुलन के बाद की घटनाओं के उल्लेख के सम्बन्ध में उनका कहना है कि उनका समावेश हरिराय ने अपने 'भाव-प्रकाश' में किया था। उन्होंने प्रसंग की पूर्णता और भावों की स्पष्टता के लिए अनेक घटनाएँ अपने अनुभव के आधार पर वार्ताओं की टिप्पणी स्वरूप 'भाव-प्रकाश ' में व्यक्त की थीं। ये घटनाएँ गोकुलनाथ के प्रवचन अथवा वार्ताओं के अंगरूप से नहीं लिखी गयीं, अत: उनको गोकुलनाथ की कृति समझना ठीक नहीं है। वे हरिराय के शब्द हैं, जिनके लिए गोकुलनाथ उत्तरदायी नहीं हैं। हरिराय का देहावसान सं0 1772 में हुआ था। अत: उनके समय में घटित औंरंगजेब के मन्दिर तोड़ने अथवा अन्य इसी प्रकार की घटनाओं से वार्ताओं की प्रामाणिकता में सन्देह नहीं होना चाहिए। हरिराय के बाद के लेखकों की असावधानी से मूल वार्ता और भाव-प्रकाश का सम्मिश्रण हो गया है, जिसके कारण हरिराय द्वारा लिखी हुई गोकुलनाथ के बाद की घटनाएँ भी गोकुलनाथ की लिखी हुई सी ज्ञात हो सकती हैं।

व्याकरणिक विभिन्नता

'चौरासी' और 'दो सौ बावन वार्ताओं' के रूपों की व्याकरणिक विभिन्नता के सम्बन्ध में उनका कथन है कि चौरासी वार्ता के मूल प्रवचनों को पहले लिपिबद्ध किया गया था और दो सौ बावन के प्रवचनों को बाद में। फिर इन प्रवचनों को भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने भिन्न-भिन्न समय में लिपिबद्ध किया था और यह लिपि-प्रतिलिपि का ग्रम बहुत समय तक चलता रहा। प्रत्येक लेखक ने अपनी रुचि और विद्याबुद्धि के कारण भी 'वार्ताओं' के रूपों में कुछ उलट-फेर कर दिया होगा। इसलिए दोनों वार्ता- पुस्तकों की व्याकरणसम्बन्धी विभिन्नता कोई आश्चर्य की बात नहीं है। वार्ताओं की प्राचीनता के सम्बन्ध में उन्होंने अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उनमे से कतिपय इस प्रकार हैं-

  1. चौरासी वार्ता की प्राप्त प्रतियों में सं0 1617 की चैत्र शुक्ल 5 लिखी हुई प्रति सबसे प्राचीन है, जो कांकरौली में सुरक्षित है। यह प्रति गोकुलनाथ के देहावसान के 11 महीने पूर्व उनकी विद्यमानता में गोकुल में लिखी गयी थी। इस प्रति को डॉ. दीनदयाल गुप्त आदि विद्वानों ने प्राचीन और प्रामाणिक माना है। इस प्रति से सिद्ध होता है कि वार्ताएँ सं0 1617 तक लिखित रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं।
  2. वार्ताओं पर गोकुलनाथ के समकालीन शिष्य हरिराय का 'भाव प्रकाश' प्राप्त है। इससे सिद्ध होता है कि वार्ताओं की रचना 'भाव प्रकाश' से पहले हो चुकी थी। 'भाव प्रकाश' की रचना का अनुमान सं0 1721 के बाद और सं0 1750 के पूर्व किया गया है। सं0 1752 की लिखी हुई चौरासी और 'अष्टसखान की वार्ता' की संयुक्त प्रति 'पाटन' से प्राप्त हो चुकी थीं इससे सिद्ध होता है कि सं0 1752 तक 'भाव प्रकाश' की रचना हो चुकी थी। हरिराय जी गोकुलनाथ के अतिरिक्त किसी सामान्य व्यक्ति की रचना पर शायद 'टीका' का श्रम नहीं करते।
  3. वार्ताएँ पुष्टि-सम्प्रदाय में 'गुरु-वाक्य' के समान श्रद्धास्पद मानी जाती हैं। यदि उनकी रचना साधारण वैष्णव द्वारा होती तो ऐसी सम्भव न था।
  4. गोकुलनाथ के समकालीन देवकीनन्दन कृत 'प्रभुचरित्र चिन्तामणि' में वार्ताओं का उल्लेख है। श्री नाथभट्ट ने सं0 1727 के लगभग चौरासी वार्ता का 'संस्कृत मणिमाला' नामक ग्रन्थ में संस्कृत में अनुवाद किया है।
  5. हरिराय के शिष्य विट्ठलनाथ भट्ट ने सं0 1729 में 'सम्प्रदाय कल्पद्रुम' में गोकुलनाथ के रचे ग्रन्थों में वार्ताओं का उल्लेख किया है।

उपर्युक्त प्रमाणों से 'चौरासी वार्ता' का गोकुलनाथ के समय में रचित होना सिद्ध हो जाता है, पर 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' की मूल या अतिप्राचीन प्रति न उपलब्ध हो सकने से उसकी प्रामाणिकता अभी सन्दिग्ध बनी हुई है। वार्ताओं का साहित्यिक महत्त्व इसलिए है कि उनमें सत्रहवीं शती के प्राचीन ब्रजभाषा-गद्य का रूप मिलता है और उनसे कई वैष्णव कवियों के जीवन-चरित्र पर प्रकाश भी पड़ता है। कृष्ण-भक्त-साहित्य की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि समझने के लिए भी इनका अध्ययन उपयोगी सिद्ध हो सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास(पृ0 481
  2. संस्करण 2014,पृ0 371)।
  3. डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा 'विचारधारा', द्वितीयसंस्करण, पृ0 113)।

[सहायक ग्रन्थ-

  1. विचारधारा : डॉ. धीरेन्द्र वर्मा;
  2. अष्टछाप: मीतल और डॉ. दीनदयाल गुप्त;
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास : रामचन्द्र शुक्ल:
  4. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : डॉ. रामकुमार वर्मा
  5. प्राचीन वार्ता रहस्य (द्वितीय भाग), विद्या विभाग, कांकरोली।]