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शहरे आशोब भाग-2 -नज़ीर अकबराबादी

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शहरे आशोब भाग-2 -नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी
कवि नज़ीर अकबराबादी
जन्म 1735
जन्म स्थान दिल्ली
मृत्यु 1830
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
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नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ
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कोई पुकारता है पड़ा भेज या ख़ुदा ।
अब तो हमारा काम थका भेज या ख़ुदा ।
कोई कहे है हाथ उठा भेज या ख़ुदा ।
ले जान अब हमारी तू या भेज या ख़ुदा ।
क्यूँ रोज़ी यूँ है कि मेरे परवरदिगार बंद ॥21॥

        मेहनत से हाथ पांव के कौड़ी न हाथ आये ।
        बेकार कब तलक कोई कर्ज़ों उधार खाये ।
        देखूँ जिसे वह करता है रो-रो के हाय ! हाय ! ।
        आता है ऐसे हाल पे रोना हमें तो हाय ।
        दुश्मन का भी ख़ुदा न करे कारोबार बंद ॥22॥

आमद न ख़ादिमों के तईं मक़बरों के बीच
बाम्हन भी सर पटकते हैं सब मन्दिरों के बीच ।
आज़िज़ हैं इल्म बाले भी सब मदरसों के बीच ।
हैरां हैं पीरज़ादे भी अपने घरों के बीच ।
नज़रो नियाज़ हो गई सब एक बार बंद ॥23॥

        इस शहर के फ़कीर भिखारी जो हैं तबाह ।
        जिस घर पे जा सवाल वह करते हैं ख़्वाहमख्वाह ।
        भूखे हैं कुछ भिजाइयो बाबा ख़ुदा की राह ।
        वाँ से सदा यह आती है 'फिर माँगो' जब तो आह ।
        करते हैं होंट अपने वह हो शर्म सार बंद ॥24॥

क्या छोटे काम वाले वह क्या पेशेवर नजीब
रोज़ी के आज हाथ से आज़िज़ हैं सब ग़रीब ।
होती है बैठे बैठे जब आ शाम अनक़रीब ।
उठते हैं सब दुकान से कहकर के या नसीब ।
क़िस्मत हमारी हो गई बेइख़्तियार बंद ॥25॥

        किस्मत से चार पैसे जिन्हें हाथ आते हैं ।
        अलबत्ता रूखी सूखी वह रोटी पकाते हैं ।
        जो ख़ाली आते हैं वह क़र्ज़ लेते जाते हैं ।
        यूं भी न पाया कुछ तो फ़कत ग़म ही खाते हैं ।
        सोते हैं कर किवाड़ को एक आह मार बंद ॥26।

क्यूँकर भला न माँगिये इस वक़्त से पनाह ।
मोहताज हो जो फिरने लगे दरबदर सिपाह।
याँ तक अमीर ज़ादे सिपाही हुए तबाह ।
जिनके जिलू में चलते थे हाथी व घोड़े आह।
बह दौड़ते हैं और के पकड़े शिकार बंद ॥।27॥

        है जिन सिपाहियों कने बन्दूक और सनां ।
        कुन्दे का उनके नाम न चिल्ले का है निशां ।
        चांदी के बंद तार तो पीतल के हैं कहां ।
        लाचार अपनी रोज़ी का बाअस समझ के हां ।
        रस्सी के उनमें बांधे हैं प्यादे सवार बंद ॥28॥

जो घोड़ा अपना बेच के ज़ीन को गिरूं रखें ।
या तेग और सिपर को लिए चौक में फिरें ।
पटका जो बिकता आवे तो क्या ख़ाक देके लें ।
वह पेश कबुज बिक के पड़े रोटी पेट में ।
फिर उसका कौन मोल ले वह लच्छेदार बंद ॥29॥

        जितने सिपाही याँ थे न जाने किधर गए ।
        दक्खिन के तईं निकल गए यो पेशतर गए ।
        हथियार बेच होके गदा घर ब घर गए ।
        जब घोड़े भाले वाले भी यूं दर बदर गए ।
        फिर कौन पूछे उनको जो अब हैं कटार बंद ॥30॥

ऐसा सिपाह मद का दुश्मन ज़माना है ।
रोटी सवार को है, न घोड़े को दाना है ।
तनख़्वाह न तलब है न पीना न ख़ाना है ।
प्यादे दिबाल बंद का फिर क्या ठिकाना है ।
दर-दर ख़राब फिरने लगे जब नक़ार बंद ॥31॥

        जितने हैं आज आगरे में कारख़ान जात ।
        सब पर पड़ी है आन के रोज़ी की मुश्किलात ।
        किस किस के दुख़ को रोइये और किस की कहिए बात ।
        रोज़ी के अब दरख़्त का हिलता नहीं है पात ।
        ऐसी हवा कुछ आके हुई एक बार बंद ॥32॥

है कौन सा वह दिल जिसे फरसूदगी नहीं ।
वह घर नहीं कि रोज़ी की नाबूदगी नहीं ।
हरगिज़ किसी के हाल में बहबूदगी नहीं ।
अब आगरे में नाम को आसूदगीं नहीं ।
कौड़ी के आके ऐसे हुए रह गुज़ार बंद ॥33॥

        हैं बाग़ जितने याँ के सो ऐसे पड़े हैं ख़्वार ।
        काँटे का नाम उनमें नहीं फूल दरकिनार ।
        सूखे हुए खड़े हैं दरख़्ताने मेवादार ।
        क्यारी में ख़ाक धूल, रविश पर उड़े-उड़े ग़ुबार ।
        ऐसी ख़िजां के हाथों हुई है बहार बंद ॥34॥

देखे कोई चमन तो पड़ा है उजाड़ सा ।
गुंचा न फल, न फूल, न सब्जा हरा भरा ।
आवाज़ कुमरियों की, न बुलबुल की है सदा।
न हौज़ में है आब न पानी है नहर का ।
चादर पड़ी है ख़ुश्क तो है आबशार बंद ॥35॥

        बे वारसी से आगरा ऐसा हुआ तबाह ।
        फूटी हवेलियां हैं तो टूटी शहर पनाह ।
        होता है बाग़बां से, हर एक बाग़ का निबाह ।
        वह बाग़ किस तरह न लुटे और उजड़े आह ।
        जिसका न बाग़बां हो, न मालिक न ख़ार बंद ॥36॥

क्यों यारों इस मकां में यह कैसी चली हवा ।
जो मुफ़्लिसी से होश किसी का नहीं बचा ।
जो है सो इस हवा में दिवाना सा हो रहा ।
सौदा हुआ मिज़ाज ज़माने को या ख़ुदा ।
तू है हकीम खोल दे अब इसके चार बंद ॥37॥

        है मेरी हक़ से अब यह दुआ शाम और सहर ।
        कर आगरे की ख़ल्क पै फिर मेहर की नज़र ।
        सब खावें पीवें, याद रखें अपने-अपने घर ।
        इस टूटे शहर पर इलाही तू फ़ज्ल कर ।
        खुल जावें एक बार तो सब कारोबार बंद ॥38॥

आशिक़ कहो, असीर कहो, आगरे का है ।
मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है ।
मुफ़्लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है ।
शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है ।
इस वास्ते यह उसने लिखे पांच चार बंद ॥39॥

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