श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 3 श्लोक 46-60

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तृतीय (3) अध्याय

श्रीमद्भागवत माहात्म्य: तृतीय अध्यायः श्लोक 46-60 का हिन्दी अनुवाद

यद्यपि भगवान अपने लीला परिकारों के साथ नित्य विहार करते रहते हैं, इसलिये गोपियों का श्रीकृष्ण से कभी भी वियोग नहीं होता; तथापि जो भ्रम से विरहवेदना का अनुभव कर रही थीं, उन गोपियों के प्रति भगवान ने मेरे मुख से भागवत का सन्देश कहलाया । उस सन्देश को अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर गोपियाँ तुरन्त ही विरह वेदना से मुक्त हो गयीं। मैं भागवत के इस रहस्य तो तो नहीं समझ सका, किन्तु मैंने उसका चमत्कार प्रत्यक्ष देखा । इसके बहुत समय के बाद जब ब्रम्हादि देवता आकर भगवान से अपने परम धाम में पधारने की प्रार्थना करके चले गये, उस समय पीपल के वृक्ष की जड़ के पास अपने सामने खड़े हुए मुझे भगवान ने श्रीमद्भागवत-विषयक उस रहस्य का स्वयं ही उपदेश किया और मेरी बुद्धि में उसका दृढ़ निश्चय करा दिया। उसी के प्रभाव से मैं बदरिकाश्रम रहकर भी यहाँ व्रज की लताओं और बेलों में निवास करता हूँ । उसी के बल से यहाँ नारदकुण्ड पर सदा स्वेच्छानुसार विराजमान रहता हूँ। भगवान के भक्तों को श्रीमद्भागवत सेवन से श्रीकृष्ण तत्व का प्रकाश प्राप्त हो सकता है । इस कारण यहाँ उपस्थित हुए इन सभी भक्तजनों के कार्य की सिद्धि के लिये मैं श्रीमद्भागवत का पाठ करूँगा; किन्तु इस कार्य में तुम्हें ही सहायता करनी पड़ेगी । सूतजी कहते हैं—यह सुनकर राजा परीक्षित् उद्धवजी को प्रणाम करके उनसे बोले। परीक्षित् ने कहा—हरिदास उद्धवजी! आप निश्चिन्त होकर श्रीमद्भागवत कथा का कीर्तन करें । इस कार्य में मुझे जिस प्रकार की सहायता करनी आवश्यक हो, उसके लिये आज्ञा दें। सूतजी कहते हैं—परीक्षित् का यह वचन सुनकर उद्धवजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और बोले । उद्धवजी ने कहा—राजन्! भगवान श्रीकृष्ण ने जब से इस पृथ्वीतल का परित्याग कर दिया है, तब से यहाँ अत्यन्त बलवान् कलियुग का प्रभुत्व हो गया है। जिस समय यह शुभ अनुष्ठान यहाँ आरम्भ हो जायगा, बलवान् कलियुग अवश्य ही इसमें बहुत बड़ा विघ्न डालेगा । इसलिये तुम दिग्विजय के लिये जाओ और कलियुग को जीतकर अपने वश में करो। इधर मैं तुम्हारी सहायता से वैष्णवी रीति का सहारा लेकर एक महीने तक यहाँ श्रीमद्भागवत कथा का रसास्वादन कराऊँगा और इस प्रकार भागवत कथा के रस का प्रसार करके इन सभी श्रोताओं को भगवान मधुसुदन के नित्य गोलोक धाम पहुँचाऊँगा । सूतजी कहते हैं—उद्धवजी की बात सुनकर राजा परीक्षित् पहले तो कलियुग पर विजय पाने के विचार से बड़े ही प्रसन्न हुए; परन्तु पीछे यह सोचकर कि मुझे भागवत कथा के श्रवण से वंचित ही रहना पड़ेगा, चिन्ता से व्याकुल हो उठे। उस समय उन्होंने उद्धवजी से अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया । राजा परीक्षित् ने कहा—हे तात! आपकी आज्ञा के अनुसार तत्पर होकर मैं कलियुग को तो अवश्य ही अपने वश में करूँगा, मगर श्रीमद्भागत की प्राप्ति मुझे कैसे होगी । मैं भी आपके चरणों की शरण में आया हूँ, अतः मुझ पर भी आपको अनुग्रह करना चाहिये। सूतजी कहते हैं—उनके इस वचन को सुनकर उद्धवजी पुनः बोले । उद्धवजी ने कहा—राजन्! तुम्हें तो किसी भी बात के लिये किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस भागवत शास्त्र इ प्रधान अधिकारी तो तुम्हीं हो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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