संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार -डॉ. महेन्द्र मधुकर

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लेखक- डॉ. महेन्द्र मधुकर

भारतीय काव्यशास्त्र में अलंकार के प्रति मुख्य रूप से दो प्रकार के दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। प्रथम के अनुसार अलंकार को व्यापक और द्वितीय के अनुसार संकीर्ण उपमादि अलंकारों के रूप में ग्रहण किया गया है। अपने व्यापक अर्थ में अलंकार काव्यगत सौंदर्य के पर्याय के रूप में स्वीकृत हुआ है। यह सौंदर्य केवल अलंकार के ग्रहण से नहीं अपितु दोष-त्याग और गुणोत्पादन से संभव होता है, यह वामन का मत है।[1] भामह, दंडी, वामन आदि ने सभी प्रकार के काव्य सौंदर्य को अलंकार रूप में देखा हैं।[2] प्रारंभिक काव्यशास्त्रीय चिंतन में अलंकार रमणीयता और काव्यात्मक चमत्कार के रूप में देखे गए। इसी दृष्टि इन आचार्यों ने समस्त रस-प्रपंच को रसवदादि अलंकार-चक्र में अंतर्भूत कर लिया। भामह के मत से काव्य का प्रस्तुत पक्ष अमरणीय या चमत्कार रहित होने पर काव्य न होकर वार्ता मात्र रह जाता है।[3] भामह ने अलंकार को काव्य शोभा का आधायक तत्त्व स्वीकार किया था।[4]

यह स्मरणीय तथ्य है कि भामह के समय में या उनके बाद भी अलंकार के शब्द का प्रयोग केवल उपमा, रूपक आदि के संकुचित अर्थ में न होकर काव्य सौंदर्य के निष्पादक सभी तत्वों के लिए होता था। दंडी ने भी अपने कथ्य द्वारा अलंकार को एक व्यापक परिवेश प्रदान किया। उन्होंने गुण और अलंकार में भेद नहीं मानते हुए मुख आदि पांच संधियों, उपक्षेप आदि चौंसठ संध्यंगों, कैशिकी आदि चार वृत्तियों, नर्म आदि सोलह वृत्यंगों और भूषण आदि छत्तीस लक्षणों को भी अलंकार में गिन लिया।[5] वस्तुत: भारतीय काव्यशास्त्र में दंडी की मनीषा प्रयोगात्मक और विशद रूप में प्रकट हुई है।

अपने संकीर्ण अर्थ में अलंकार उपमादि अलंकारों का वाचक है, जो वामन की दृष्टि में काव्यगत शाभा में अतिशय लाने वाला धर्म है।[6] अलंकार का यह संकीर्ण रूप क्रमश: महत्त्व प्राप्त करता गया और उसके व्यापक रूप की मान्यता घटती गई। यद्यपि बाद के कुछ आचार्यों भोज, जयदेव आदि ने पुन: उसके व्यापक रूप को स्वीकार किया।[7]
काव्यात्म-तत्त्व के अन्वेषण-क्रम में उपमादि अलंकारों को एक नवीन आधार पर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करता है। प्रारंभिक स्थिति में काव्य की अभिव्यक्ति पर ही अधिक बल दिया गया था, बाद में अभिव्यक्ति प्रसाधनों पर भी ध्यान दिया गया। अत: रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, रसादि को जब काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया तो अलंकार काव्य के प्राणभूत सौंदर्य से संबद्ध न होकर उसके शरीर से संबद्ध हो गए। रुद्रट और आनंदवर्द्धन ने अभिधान प्रकार विशेष को अलंकार[8] माना तथा मम्मट और विश्वनाथ ने उन्हें 'हारादिवत्' या 'अंगदादिवत्' काव्य के शरीर शब्दार्थ की शोभा बढ़ाने वाला और अंग द्वार से कभी कभी रस का उत्कर्ष करने वाला अस्थिर या अनित्य धर्म मान लिया।[9]

हिन्दी के आचार्यों ने भी अलंकार का लक्षण-निरूपण संस्कृत के आचार्यों के समान ही किया है। हिन्दी में अलंकारों के प्रथम विवेचक आचार्य केशवदास ने भी अलंकारहीन कविता को नग्न माना है। देव ने भी केशव के समान 'मृतक काव्य बिनु अर्थ को' कहा है। दूलह ने भी इसे 'बिन भूषण नहिं भूषई कविता' और भिखारीदास ने 'भूषन है भूषण सकल' कहा है। स्पष्ट है कि हिन्दी के रीति कालीन आचार्यों के मत में अलंकार शोभावर्द्धक चमत्कारशाली और अनिवार्य तत्त्व के रूप में प्रस्तुत होते हैं। निश्चय ही इसके पीछे, अभिव्यक्ति को अत्यधिक रमणीय बनाने का आग्रह और कौशल निहित है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रुद्रट तथा आनंदवर्धन के ही मत का आश्रय ग्रहण करते हुए अनेक चमत्कारपूर्ण शैलियों का नाम अलंकार माना है। उनकी दृष्टि में अलंकार प्रस्तुत या वर्ण्य वस्तु नहीं, बल्कि वर्णन की भिन्न प्रणालियाँ हैं, कहने के ख़ास-खास ढंग हैं।[10] उन्होंने भावों का उत्कर्ष और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी कभी सहायक होने वाली उक्ति को अलंकार माना है। वस्तुत: चमत्कारयुक्त सफल अभिव्यंजना से अधिक रमणीय शब्द और अर्थ के सामंजस्य काव्य निहित है। स्पष्ट है कि अलंकार काव्य के भाव पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष को रमणीय बनाने के अस्थित साधन हैं।

कवि अपनी काव्यगत उक्ति को प्रभावात्मक बनाने के लिए अलंकारों का प्रयोग करता है। वह इष्टार्थ के साथ बाह्य जगत की वस्तुओं के सादृश्य की स्थापना करके उनका प्रेषण करता है। अलंकार हमारे भावों की प्रेषणीयता के सफल माध्यम होते हैं। कवि अर्थ को अतिशयोक्ति के रूप में प्रकट करके पाठक के मन का विस्तार करता है, वैषम्य द्वारा आश्चर्य का उद्भावन और साम्य की ओर आकर्षण होता है। औचित्य के द्वारा पाठक की वृत्तियाँ अन्वित होती हैं। बात की वक्रता पाठक की जिज्ञासा चढ़ाती है तथा चमत्कार द्वारा मन में कुतुहल और आनंद की प्राप्ति होती है।

वस्तुत: काव्यानुभूति सामंजस्यमयी होती है। स्वभावत: इस सामंजस्य से एक अभिनव लयात्मकता की सृष्टि होती है। शब्दगत नादों की लयात्मकता पर आधारित शब्दालंकार अपने ध्वनि साम्य या श्रुतिमधुर पद-योजना से हमें प्रभावित ही नहीं करते अपितु अपनी झंकृति से मन की एकाग्रता में भी पूरी सहायता प्रदान करते हैं। अर्थ की सघनता के लिए श्लेष का प्रयोग किया जाता है, श्लेष एक प्रकार से हमारे श्लिष्ट मनोभावों का संग्रह है। प्रयोग-वैचित्र्य की नूतनता यमक अलंकार के रूप में अभिव्यक्त होती है। समान नाद योजना से भी अर्थगत वैभिन्न को प्रकट करना आश्चर्यामिश्रित प्रसन्नता और प्रसादन के निमित्त होता है। विरोध की इस विचित्रता में मन की 'कौतुकवृत्ति' (प्ले इंस्टिंक्ट) की झलक दिखाई पड़ती है। यह ऐसी अपूर्व स्थिति में भी भिन्नता की प्रतीति होती है। इस भाव-दशा में अभिव्यक्ति अतिशयता से युक्त होती है।

सभी अलंकारों के मूल में किसी एक अलंकार की मान्यता की वैचारिक अवतारणा स्वाभाविक रूप से हुई है। भारतीय चिंतन अनेकता में एकता का अन्वेषक रहा है। संसार की प्रतीयमान विविधता में आत्म-तत्त्व का संधान इसी तथ्य का द्योतक है। अनेक प्रकार की आलंकारिक शैलियाँ अलग अलग प्रवृत्ति या मानसिक स्थिति की प्रेरणा से उत्पन्न होती है, किंतु उन सबके मूल में एक मौलिक वृत्ति पाई जा सकती है या नहीं, यह प्रश्न भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्यों के विचार-मंथन का विषय बना और उन्होंने इस मूल तत्त्व का अभिधान देने की चेष्टा नहीं की अपितु अनेक अलंकारों में उसकी व्याप्ति दिखाने का भी प्रयास किया। भारतीय काव्यशास्त्र में इस मूल तत्त्व को लेकर मत-वैभिन्न पाया जाता है। किसी ने वक्रता को, किसी ने अतिशयता को तो किसी ने साम्य को सभी अलंकारों के मूल में देखा। जिन्होंने साम्य अथवा औपम्य को सभी अलंकारों के मूल में लक्षित किया, उनके मतानुसार सारे अलंकार 'उपमा-प्रपंच' प्रतीत हुए। इस दृष्टि से उपमा ही सर्वालंकार बीज के रूप में सभी आचार्यों द्वारा मान्य नहीं हुई, कुछ दूसरे पक्ष भी प्रस्तुत हुए।

भामह से पूर्व भारतीय काव्यशास्त्र का अत्यंत व्यवस्थित और सुचिंतित शास्त्रीय प्रयत्न नहीं प्राप्त होता। भरत के नाट्यशास्त्र में काव्यशास्त्रीय सूचानाएँ और प्रारंभिक चिंतक के मर्यादित सूत्र अवश्य प्राप्त हैं, किंतु उनमें वर्गीकरण विभाजन या अन्वेषणात्मक तथा कल्पनात्मक व्यापक दृष्टि की न्यूनता मिलती है। भामह के पूर्वकाल में अलंकारों का वर्गीकरण या अनेक अलंकारों के मूल में किसी एक अलंकार की स्थिति सिद्धि नहीं दिखाई पड़ती। इसका स्पष्ट कारण है कि उस युग में अलंकारों की अत्यल्पता। भरत के नाट्यशास्त्र में केवल चार अलंकारों- उपमा, रूपक, दीपक और यमक की चर्चा प्राप्त होती है, ऐसी स्थिति में उपमा की सर्वालंकारबीजता का प्रश्न ही नहीं उठता। सर्वालंकारबीजता का प्रश्न वस्तुत: मानव की क्रमश: विकसनशील चेतना और मनीषा से संबद्ध है। अलंकारों का प्रकल्प और विस्तार उसके सूक्ष्म चिंतन के निष्कर्ष रूप हैं। सभी अलंकारों के मूल में किसी एक अलंकार को स्थिर करने का प्रयत्न उस केंद्र के अनुसंधान का प्रयत्न था, जहाँ से विविध रागात्मक अनुभूतियाँ व्यक्त होती हैं। काव्य की आत्मा के अन्वेषण में जिस मौलिक बुद्धि से काम लिया गया था, लगभग उसी मौलिकता का प्रयोग सर्वालंकारबीजता के संधान के विषय में हुआ। सामान्यतया सर्वालंकारबीजता के अनुसंधायक आचार्यों में भामह, दंडी, वामन, आनंदवर्धन, कुंतक, अप्पयदीक्षित, आचार्य केशवदास, कुलपति मिश्र, देव, डॉक्टर शशि भूषण दासगुप्त आदि आचार्य और विचारक प्रमुख हैं, तो अलंकारों के वर्गीकरण और विभाजन की दृष्टि से रुद्रट, रुय्यक आदि महत्त्वपूर्ण हैं।

यद्यपि साम्य, विरोध तर्कन्याय आदि के आधार पर अलंकारों के वर्ग निरूपित हो सकते हैं और उस वर्गीकरण से अलंकारों की प्रकृति पर उपयोगी प्रकाश पड़ सकता है, किंतु सभी अलंकारों के मूल में किसी एक अलंकार की स्थिति या किसी एक सामान्य मूल प्रवृत्ति की सत्ता का अनुसंधान हमारे यहाँ के काव्यशास्त्रीय चिंतन की सूक्ष्मता और गहराई को देखते हुए उचित ही नहीं, आवश्यक है। आलंकारिक अभिव्यक्ति के मूल में मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ रहती हैं और उन सारी प्रवृत्तियों में किसी एक मौलिक वृत्ति की प्रेरणा और व्याप्ति देखना और दिखाना अलंकारों के अध्ययन का पर्याप्त महत्त्वपूर्ण अंग है, इसलिए भारतीय काव्यशास्त्र के जिन आचार्यों ने किसी एक अलंकार को सर्वालंकार के रूप में देखा है, उनकी प्रतिभा अधिक सूक्ष्म-मौलिक और सारग्रहिणी रही है- यह सहज ही कहा जा सकता है। अलंकारों का वर्ग-विभाजन उनकी मौलिक वृत्ति के अनुसंधान की तुलना में स्थूल ही कहा जाएगा। यह स्पष्ट होता है कि आचार्यों ने मुख्य रूप से अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति एवं उपमा को प्राय: सभी अलंकारों के मूल में देखा है। अतिशयोक्ति का पक्ष प्रतिष्ठित करने वाले आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा आदि। वक्रोक्ति के पक्ष में भामह और कुंतक हैं। उपमा के पक्ष में वामन, अप्पयदीक्षित, नरेंद्रप्रभसूरि और डॉक्टर शशिभूषण दासगुप्त हैं।

यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि उपमा को सर्वालंकारबीज कहने का अर्थ उपमा अलंकार के रूप में साधर्म्य का जो वाच्य ढाँचा है, उसे स्वीकार करना नहीं है, अपितु इसका अर्थ मूल तत्त्व साधर्म्य की सर्वालंकारबीज के रूप में स्वीकृति है। जैसे 'मुख चाँद सा है' में साध्यर्म्य को वाच्य बनाकर व्यक्त करने का जो ढंग है, वही उत्प्रेक्षा में भी नहीं है, लेकिन मुख और चाँद के साधर्म्य की अनुभूति दोनों में है। यहाँ पर एक प्रश्न उठता है कि तब उपमा को ही क्यों, किसी भी दूसरे सादृश्य मूलक अलंकार को सर्वालंकारबीज का श्रेय क्यों नहीं दिया जा सकता है, तो इसका समाधान यही है कि सादृश्य की अभिव्यक्ति की सबसे सीधी और प्रत्यक्ष विधि उपमा है, इसलिए वह उसका आद्य रूप है। इसी प्रकार अतिशयोक्ति और वक्रोक्ति के साथ भी समझा जाना चाहिए। यहाँ अतिशयोक्ति और वक्रोक्ति विशिष्ठ अलंकार के रूप में गृहीत नहीं है। यहाँ अतिशयोक्ति का अर्थ है अतिशयता और वक्रोक्ति का वक्रता। दोनों को स्पष्ट करते हुए आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा के अनुसार कहा जा सकता है कि अतिशयोक्ति का लक्ष्य है 'गुणातिशय योग' और वक्रोक्ति का अभिव्यंजना।[11] स्पष्ठ है कि अतिशयोक्ति और वक्रोक्ति के अर्थ विशिष्ठ अलंकारों के रूप में ही सीमित नहीं हैं।

अतिशयोक्ति पक्ष

काव्य की उक्ति असाधारण होती है। इस असाधारणता में आतिशय्य रहता है। आलंकारिक अभिव्यक्ति के मूल में यही असाधारणता और अतिशयता होती है। प्रत्येक अलंकार में इसकी व्याप्ति दिखाई जा सकती है, चाहे वे साम्य मूलक अलंकार हों या विरोध मूलक अलंकार या अन्य कोई।

आचार्य दंडी ने मूलत: इसी अतिशयोक्ति को अलंकारों का मूलाधार माना है। आनंदवर्धन ने इसकी उपादेयता को स्वीकार करते हुए कहा है कि सभी अलंकारों में अतिशयोक्तिगर्भता को स्वीकृत किया जा सकता है (ध्वन्यालोक, पृष्ठ 59)। काव्यप्रकाश के दशम उल्लास में विशेष अलंकार के निरूपण-प्रसंग में मम्मट ने भी अतिशयोक्ति को अलंकारों का प्राण स्वीकार किया है। (काव्यप्रकाश, पृष्ठ 549)। यह अतिशयोक्ति अतिशयोक्ति नामक अलंकार नहीं, बल्कि अलंकारत्व का बीजभूत तत्त्व है। अतिशयोक्ति नामक अलंकार में अतिशयोक्ति शब्द योगरूढ़ है और यहाँ यौगिक।

अतिशयोक्ति के महत्त्व और उसके व्यापक परिवेश की चर्चा करते हुए डॉक्टर नगेंद्र[12] ने निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए हैं- 1- भावोदृदीपन से हमारी वाणी उद्दीप्त और अलंकृ4 हो जाती है। 2- ओज भावना के उद्दीपन का मूल कारण होता है, जो मन के साथ वाणी को भी उद्दीप्त करता है। 3- मन के ओज का सहज माध्यम आवेग है, और 4- वाणी के ओज का सहज माध्यम है अतिशयोक्ति 5- आत्मदर्शन की भावना अलंकरण के प्रति रुचि जगाती है और प्रदर्शन में अतिशय का तत्त्व अनिवार्यत: होता है। 6- इस प्रकार अलंकृत वाणी (स्पष्ट शब्दों में) अलंकार का रूप अतिशयोक्ति ठहरती है। 7- अतिशयोक्ति का अर्थ है – असाधारण उक्ति।

आचार्य देवेंद्रनाथ शर्मा उपमा की व्यापकता के मूल में सभी अलंकारों में व्याप्त सादृश्य भावना को स्वीकार करते तथा उपमा के मूल में भी अतिशयोक्ति को महत्त्व देते हैं। वे अतिशयोक्ति के बिना अलंकार की कल्पना भी नहीं करते। उपमा के प्रसंग में कहा गया है कि सारे अर्थालंकारों का बीज उपमा ही है और वही भिन्न भिन्न रूप धारण कर भिन्न भिन्न नामों से पुकारी जाती है, पर यदि अतिशयोक्ति पर ध्यान दें तो यह सिद्ध हो जाता है कि उपमा की जड़ में भी अतिशयोक्ति ही काम करती है। अतिशयोक्ति के बिना अलंकार संभव ही नहीं है। उपमा की व्यापकता में केवल इतना ही तथ्य है कि सभी अलंकारों में सादृश्य की भावना व्याप्त रहती है पर उपमा का भी अलंकारत्व अतिशयोक्ति के कारण ही निष्पन्न होता है।[13]
वक्रोक्ति पक्ष : वक्रोक्ति पक्ष असाधारणता का आतिशय्य अर्थन होकर भंगिमा या विच्छित्ति से उसे संबद्ध मानता है। वक्रोक्ति के काव्य में चमत्कार और रमणीयता दोनों की पुष्टि होती है। इसलिए भामह ने वक्रोक्ति को काव्यत्व के निष्पादक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है। उनके अनुसार वक्रोक्ति में अतिशयोक्ति अवश्य रहती है, पर रमणीयता उत्पन्न करना अतिशयोक्ति का नहीं वक्रोक्ति का व्यापार है। इसे उन्होंने 'अनयार्थो विभाव्यते' और 'कोऽलंकारोंऽनयाबिना' से स्पष्ट किया है। आचार्य कुंतक ने भी 'वैदग्ध्य-भणिति' को वक्रोक्ति माना है। वक्रोक्ति को उन्होंने प्रसिद्ध कथन से भिन्न विलक्षण प्रकार की वर्णन शैली कहा है। कुंतक ने वक्रोक्ति को ही सभी अलंकारों के मूल में माना है।
 

औपम्य पक्ष

काव्य और काव्यशास्त्र में प्रयुक्त और विवेचित उपमा की प्राचीनता और प्रधानता निर्विवाद है। उपमा के वैदिक प्रयोग उसके प्राचीन, आदिम और ऐतिहासिक रूप का संकेत देते हैं। उपमा, रूपक, दीपक, यमक ये अलंकार वैदिक आर्य काव्य युग के प्रिय अलंकार रहे हैं। इस सूची में भी औपम्य पक्ष ही प्रबल है।

औपम्य की इसी विशेषता और प्रयोग बाहुल्य की इसी सतर्कता को देखकर वामन ने उपमा को सभी अलंकारों के मूल में मान लिया (तन्मूलं चोपमेति) और तर्कपूर्ण दृष्टि से सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया। दंडी ने 'उपमा प्रपंच'[14] के द्वारा सादृश्यमूलक अलंकारों के मूल में उपमाबीज का संकेत दिया था। यह बीज ही वामन की धारणाओं में पुष्पित और फलित हुआ है। नरेंद्रप्रभसूरि ने अपने 'अलंकार-महोदधि' (पृष्ठ 234) में उपमा को सभी अलंकारों का बीजभूत माना है (अथातिशयोक्ति सौरभ तरंगितामेव सकलालंकार बीजभूतामुपमां लक्षयति)। 'सर्वालंकृतिउपादानकारण' का अर्थ रूपकादि अलंकार से जोड़ा गया है- इससे 'सकलालंकार बीजभूत की शंका का निवारण होता हुआ प्रतीत होता है और उपमा रूपकादि सादृश्यमूलक अलंकारों का मूल ठहरती है।[15]

अप्पयदीक्षित ने भी 'चित्रमीमांसा' में उपमा को सभी सादृश्यमूलक अलंकारों के मूल में मानते हुए इसे 'उपमा शैलूषी'[16] की संज्ञा दी है। उपमा-नटी ही रूप बदल-बदल कर विभिन्न भूमिकाओं में काव्य मंच पर अवतीर्ण होती और आनंद प्रदान करती है। उपमा की महत्ता के प्रतिपादन में उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया है कि ब्रह्मज्ञान से जैसे विचित्र विश्व का ज्ञान होता है, वैसे ही उपमा के ज्ञान से भी उसका ज्ञान होता है (तदिदं चित्रं विश्वं ब्रह्म ज्ञानादिवोपमा ज्ञानात्। ज्ञातं भवति...)।

हिन्दी अलंकारशास्त्र में भी आचार्यों ने उपमा की महत्ता को स्वीकार किया है। आचार्य केशवदास ने तो उपमा को 'विविध प्रकारवती' कहकर प्रकारांतर से उसे अनेकालंकारवर्तिनी' माना है। आचार्य कुलपति मिश्र ने अपने 'रस-रहस्य' में उपमा अलंकार को 'सिरमौर' कहा है। उपमा अलंकारों की सिरमौर है, यह कथन राजशेखर का अनुवाद-सा जान पड़ता है। शिरोरत्न के स्थान पर उन्होंने 'सिरमौर' का प्रयोग किया है। उपमा से उनका अभिप्राय उपमामूलक (साम्यमूलक) सभी अलंकारों के साथ उपमा अलंकार से भी है। देव ने भी अपने शब्द रसायन (काव्य रसायन) में उपमा चक्र का उल्लेख किया है, किंतु लक्षण न होने से ये उपमा भेद मौलिक विवेचन न होकर पिष्टपेषण मात्र रह गए हैं। देव ने उपमा योग्य स्थलों की चर्चा करते हुए उपमा की भाव व्याप्ति अभय दिखाई है। वे स्थल हैं- वैर, प्रीति, मद, ईर्ष्या, क्रीड़ा, वचन-विलास, स्तुति, निंदा, करुणा, दया, हर्ष, हास, उपहास, स्मृति, संदेह आदि (शब्द रसायन, पृष्ठ 96)। उपर्युक्त वर्णित भाव किसी न किसी रूप में मनोवैज्ञानिक आधारों के निर्माण में सहयोग देते हैं। देव ने उपमा को प्राथमिक महत्ता दी है।

संस्कृत और हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकार बीजता की चर्चा के समाहार स्वरूप कहा जा सकता है कि उपमा की प्राचीनता, श्रेष्ठता, सादृश्यमूलक अलंकारों के काव्यात्मक और शास्त्रीय प्रयोगों के बाहुल्य द्वारा प्रतिपादित उसकी शक्ति रीतिकालीन आचर्यों द्वारा समर्थित उपमा की श्रेष्ठता की स्वीकृति में सबका मतैक्य हो सकता है, पर जब सभी अलंकारों के मूल में उपमा के सादृश्य को देखा जाता है तो स्थिति संगतिपूर्ण नहीं रह जाती। विरोधमूलक अलंकारों के असादृश्य को भी सादृश्य और साधर्म्य का दूसरा पहलू मानने वाले तथा उपमा को वासनालोक से संबद्ध करने वाले डॉ. दासगुप्त के रहस्यात्मक काव्य तत्त्व को तार्किक दृष्टि से स्वीकार करन संभव नहीं हो पाता। वस्तुत: अतिशयता साम्य में भी है और साम्य प्रदर्शन के मूल में भी निहित है। किसी वस्तु के रूप, गुण और क्रिया आदि की अतिशयता दिखाते हुए प्रकृतभाव का उद्दीपन कराया जाता है, किंतु ऐसी हर स्थिति में सादृश्य अनिवार्यत: नहीं होता। इसलिए सादृश्य की अपेक्षा अतिशयता अलंकार का अधिक व्यापक गुण है। उसके क्षेत्र में सभी अलंकार समाहित हो सकते हैं। अलंकारों की अलग अलग विशेषता उनके अलग अलग अभिव्यक्ति प्रकार में है, पर, अतिशयता उनका सामान्य मूल तत्त्व या धर्म है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि उपमा के सादृश्य को इसकी अपेक्षा किंचित सीमित व्यापकता प्राप्त है, इसलिए उसे सादृश्यमूलक अलंकारों का सामान्य मूल धर्म (वैशिष्ट्य) ही मानना उचित है, सर्वालंकारबीजता का पद उसे देना संभव नहीं।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सदोष गुणालंकार हानादानाभ्याम्। - काव्यालंकार सूत्रवृत्ति, 1/1/3
  2. (क) काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते – काव्यादर्श – 2/1, (ख) सौंदर्यअलंकार : 1 – काव्यालंकार – सूत्रवृत्ति -1/2
  3. काव्यालंकार, 2/86
  4. काव्यालंकार, 1/14
  5. काव्यादर्श, 2/367
  6. तदतिशय हेतवस्त्वलंकारा : 1 – काव्यालंकार सूत्रवृत्ति – 3/1/2
  7. सरस्वती कंठाभरण – 5/11 तथा चंद्रालोक, 1/8
  8. (क) अभिधान प्रकारविशेषा एव चालंकारा : 1 (अ. स. 6), (ख) ध्वन्यालोक – 3/37 वृत्ति
  9. सदोष गुणालंकार हानादानाभ्याम्। - काव्यालंकार सूत्रवृत्ति, 1/1/3
  10. रस-मीमांसा – आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 27
  11. भामह विरचित काव्यालंकार – प्रो. देवेंद्रनाथ शर्मा – भूमिका, पृष्ठ 42
  12. रीतिकाव्य की भूमिका – डॉक्टर नगेंद्र, पृष्ठ 86
  13. अलंकार मुक्तावली – देवेंद्रनाथ शर्मा, पृष्ठ 72
  14. काव्यादर्श – दंडी, द्वितीय परिच्छेद : 57-65
  15. अलंकार-महोदधि – नरेंद्रप्रभसूरि, पृष्ठ 234
  16. चित्र मीमांसा, पृष्ठ 20

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44. कश्मीर में हिन्दी : स्थिति और संभावनाएँ प्रो. चमनलाल सप्रू
45. भारत की राजभाषा नीति और उसका कार्यान्वयन श्री देवेंद्रचरण मिश्र
46. भाषायी समस्या : एक राष्ट्रीय समाधान श्री नर्मदेश्वर चतुर्वेदी
47. संस्कृत-हिन्दी काव्यशास्त्र में उपमा की सर्वालंकारबीजता का विचार डॉ. महेन्द्र मधुकर
48. द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन : निर्णय और क्रियान्वयन श्री राजमणि तिवारी
49. विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का स्थान डॉ. रामजीलाल जांगिड
50. भारतीय आदिवासियों की मातृभाषा तथा हिन्दी से इनका सामीप्य डॉ. लक्ष्मणप्रसाद सिन्हा
51. मैं लेखक नहीं हूँ श्री विमल मित्र
52. लोकज्ञता सर्वज्ञता (लोकवार्त्ता विज्ञान के संदर्भ में) डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा
53. देश की एकता का मूल: हमारी राष्ट्रभाषा श्री क्षेमचंद ‘सुमन’
विदेशी संदर्भ
54. मारिशस: सागर के पार लघु भारत श्री एस. भुवनेश्वर
55. अमरीका में हिन्दी -डॉ. केरीन शोमर
56. लीपज़िंग विश्वविद्यालय में हिन्दी डॉ. (श्रीमती) मार्गेट गात्स्लाफ़
57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे