सदस्य:आशा चौधरी/Sandbox

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उत्पत्ति 1847 ई. में रौथ ने संकेत किया था कि शूद्र आर्यों के समाज से बाहर के रहे होंगे।[1] उस समय से सामान्यतया यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का चौथा वर्ण मुख्यतया आर्येतर लोगों का था, जिनकी वैसी स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी।[2] यूरोप के 'गौरांग' और एशिया तथा अफ़्रीका के 'गौरांगेतर' लोगों के बीच हुए संघर्ष से साम्य के आधार पर इस विचारधारा की पुष्टि की जाती रही है।

वेदों में शूद्र

यदि दास और दस्यु दोनों आर्येत्तर भाषा बोलने वाले भारत के मूल निवासी हों[3], तो उपर्युक्त विचारधारा के पक्ष में ऋग्वेद से प्रमाण प्रस्तुत करना सम्भव है। इस ग्रन्थ के अनेक सूक्तों में, जिन्हें अथर्ववेद में भी दुहराया गया है, आर्यों के देवता इन्द्र को दासों के विजेता के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दास मनुष्य ही रहे होंगे। वेदों में कहा गया है कि, इन्द्र ने अधम दास वर्ण को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था।[4] विश्व-नियंता की हैसियत से दासों को पराधीन बनाने का भार उनके ऊपर है[5], और उनसे यह अनुरोध भी किया जाता है कि वे इन दासों का विनाश करने के लिए तैयार रहें।[6] ऋग्वैदिक स्तुतियों में बार-बार इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे दास जनजाति (विशु) का विध्वंस करें।[7] इन्द्र के बारे में यह भी कहा गया है कि उसने दस्युओं को सभी अच्छे गुणों से वंचित रखा है और दासों को अपने वश में किया है।[8]

दस्यु और दास

वेदों में दासों की अपेक्षा दस्युओं के विनाश और उन्हें पराधीन बनाने की चर्चा अधिक है। कहा गया है कि दस्युओं को मारकर इन्द्र ने आर्य वर्ण की रक्षा की है।[9] स्तुतियों में उससे अनुरोध किया गया है कि वह दस्युओं से युद्ध करे, ताकि आर्यों की शक्ति बढ़ सके।[10] महत्व की बात है कि दस्युओं की हत्या की चर्चा कम से कम बारह जगहों पर हुई है, जिनमें से अधिकांश हत्याएँ इन्द्र के द्वारा ही बताई गई हैं।[11] इसके विपरीत यद्यपि दासों की हत्या के अलग-अलग प्रसंग भी आए हैं, किन्तु ‘दासहत्या’ शब्द कहीं पर भी नहीं मिलता है। इससे पता चलता है कि दास और दस्यु पर्यायवाची नहीं थे और आर्य दस्युओं का विनाश निर्ममतापूर्वक करते थे, पर दासों के प्रति उनकी नीति नरम थी।

आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें मुख्यत: शत्रुओं के क़िलों और दीवारों से घिरी बस्तियों को ध्वस्त किया गया। दासों और दस्युओं, दोनों ही के क़ब्ज़े में अनेक क़िलाबन्द बस्तियाँ थी[12] जिनका सम्बन्ध भी सामान्यतया आर्यों के शत्रुओं के साथ जोड़ा जाता है।[13] मालूम होता है कि घुम्मकड़ आर्यों की आँखें दुश्मनों की बस्तियों में संचित सम्पत्ति पर लगी हुई थी और उन्हें हड़पने के लिए दोनों में निरन्तर ही संघर्ष होता रहता था।[14] उपासक की कामना रहती थी कि सभी ऐसे लोगों को मार दिया जाए जो यज्ञ, हवन आदि नहीं करते हैं और उन्हें मार देने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति लोगों में बाँट दी जाए।[15] दस्युओं को सम्पत्तिशाली[16] होने पर भी यज्ञ न करने वाला[17] कहा गया है।[18] दो ऐसे दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है जो धनलोलुप माने गए हैं।[19] कामना की गई है कि इन्द्र[20] दासों की शक्ति को क्षीण करें और उनकी एकत्रित सम्पत्ति लोगों में बाँट दें। दस्युओं के पास स्वर्ण और हीरा - जवाहरात भी थे, जिनके चलते प्राय: आर्यों का मन और भी ललच गया।[21] किन्तु आर्य जैसी पशुपालक जाति को मुख्यतया अपने दुश्मनों के पशुधन का अधिक लोभ था। तर्क दिया जाता है कि ‘कीकट’[22] गाय को रखने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वे यज्ञ में गव्य[23] का उपयोग नहीं करते।[24] दूसरी ओर यह भी सम्भव है कि आर्यों के शत्रु उनके घोड़ों और रथों को अधिक महत्व देते थे। ऋग्वेद में एक कथा आई है कि असुरों ने राजर्षि दधीचि के नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया था, किन्तु जब असुर लौट रहे थे तो इन्द्र ने उन्हें घेरकर पराजित किया और उनसे मवेशी, घोड़े तथा रथ छीनकर राजर्षि को वापस कर दिए।[25]

आर्यों का जनजातीय जीवन

दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था।[26] आर्यों का जीवन प्रधानतया जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित हुआ है और जिसमें यज्ञ का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था। किन्तु दस्युओं को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं था। दासों के साथ भी यही बात थी, क्योंकि इन्द्र के बारे में बताया गया है कि वह दास और आर्य का विभेद करते हुए यज्ञस्थल में आता था।[27] ऋग्वेद के सातवें मंडल का एक सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे विशेषणों की शृंखला मात्र है। इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि उनको यज्ञ पसन्द नहीं था।[28] इन्द्र से कहा गया है कि वे यज्ञपरायण आर्य और यज्ञविमुख दस्युओं के बीच अन्तर करें।[29] ‘अनिंद्र’[30] शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, [31] और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी आर्यों का बोध होता है। आर्यों के कथनानुसार दस्यु तिलस्मी जादू करते थे।[32] ऐसा मत अथर्ववेद में विशेष रूप से व्यक्त किया गया है। यहाँ दस्युओं को भूत - पिशाच के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें यज्ञ - स्थल से भगाने की चेष्टा की गई है।[33] कहा जाता है कि ‘अंगिरस’ मुनि के पास एक परम शक्तिशाली रक्षा कवच[34] था, जिससे वह दस्युओं के क़िले को ध्वस्त कर सकते थे।[35] ऋग्वैदिक काल में उन्होंने जो लड़ाइयाँ लड़ी थीं, उनके कारण ही अथर्ववेद में दस्युओं को दुष्टात्मा के रूप में चित्रित किया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ईश्वर के निन्दक दस्युओं को बलि वेदी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए।[36] ऐसा विश्वास था कि दस्यु विश्वासघाती होते हैं, वे आर्यों की तरह धर्म-कर्म नहीं करते और उनमें मानवता नहीं होती।[37]

आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में अन्तर

आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में जो अन्तर है, उससे आर्यों के व्रत, जिसका अर्थ सामान्यत: जीवन का सुनिश्चित ढंग होता है, के प्रति दस्युओं की क्या दृष्टि थी, इसका पता चलता है।[38] यदि व्रत और व्रात, जिसका अर्थ जनजातीय दल या समूह होता है, के बीच सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव हो तो यह कहा जा सकता है कि व्रत शब्द का अर्थ जनजातीय क़ानून या प्रथा है। दस्युओं को साधारणत: अव्रत[39] और अन्यव्रत[40] कहा गया है। ‘अपव्रत’ शब्द का प्रयोग दो स्थलों पर हुआ है, जो प्राय: दस्युओं और भिन्न मत रखने वाले आर्यों के लिए है।[41] ध्यान देने की बात है कि दासों के लिए इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग नहीं हुआ है, जिससे मालूम होता है कि वे दस्युओं की अपेक्षा आर्यों के तौर-तरीक़े अधिक पसन्द करते थे।

रंग का अन्तर

ऐसा लगता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में रंग का अन्तर था। आर्य, जो मानव[42] कहे जाते थे और अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे, कभी-कभी काले रंग वाले मनुष्यों[43] की बस्तियों में आग लगा देते थे और वे लोग संघर्ष किए बिना ही अपना सर्वस्व छोड़कर भाग खड़े होते थे।[44] आर्य देवता सोम को काले वर्ण के लोगों का हिंसक कहा गया है, जो दस्यु होते थे।[45] इन्द्र को भी काले रंग के राक्षसों[46] से संघर्ष करना पड़ा था, [47] और एक स्थल पर उन्हें पचास हज़ार काले वर्ण वालों[48] की हत्या का श्रेय दिया गया है, जिन्हें काले वर्ण का राक्षस मानते हैं।[49] इन्द्र का असुरों की काली चमड़ी उधेड़ते हुए चित्रण किया गया है।[50] इन्द्र का एक वीरतापूर्ण कार्य, जिसका कुछ ऐतिहासिक आधार हो सकता है, कृष्ण नामक योद्धा के साथ उनका युद्ध है।

कहा जाता है कि जब कृष्ण ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या यमुना पर ख़ैमा गिराया तब इन्द्र ने मरुतों[51] को संगठित किया और पुरोहित देव बृहस्पति की सहायता से अदेवी: विश: के साथ युद्ध किया।[52] अदेवी: विश: का अर्थ सायण ने काले रंग का असुर बताया है।[53] कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।[54] यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।[55] इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है।[56] सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना[57] माना है, किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे। किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है। उपर्युक्त प्रसंगों से निस्संदेह यह स्पष्ट होता है कि अग्नि और सोम के उपासक आर्यों को भारत के काले लोगों से युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद में एक प्रसंग आया है, जिसमें ‘पुरुकुत्स’ का पुत्र ‘त्रसदस्यु’ नामक वैदिक योद्धा काले रंग के लोगों के नेता के रूप मे वर्णित है।[58] इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने उन लोगों पर अपनी धाक जमा रखी थी।

यदि दस्युओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त अनास[59] शब्द का अर्थ नासाविहीन या चिपटी नाकवाला किया जाए और दासों के प्रसंग में प्रयुक्त वृषशिप्र शब्द[60] का अर्थ ‘वृषभ ओष्ठवाला’ या उभरे ओठोंवाला माना जाए तो यह माजूल पड़ेगा कि मुखाकृतियों की दृष्टि से आर्यों के शत्रु उनसे भिन्न प्रकार के थे।

­ऋग्वेद में ‘मृध्रवाक’ शब्द का प्रयोग विभिन्न रूप में छ: स्थलों पर हुआ है, [61] जिससे पता चलता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में बोलचाल की रीति भिन्न थी। यह दो स्थलों पर दस्युओं का विशेषण है।[62] सायण ने इसका अर्थ ‘विद्वेषपूर्ण वचन’ वाला किया है, और गेल्डनर ने इसे ‘झूठ बोलने वाले’ का पर्याय माना है।[63] इससे पता चलता है कि आर्यों और दस्युओं में कोई भाषाजन्य अन्तर था और दस्यु अपनी अनुचित वाणी से आर्यों की भावना को चोट पहुँचाते थे। अत: आर्यों और उनके दुश्मनों के बीच युद्ध में यद्यपि मुख्य प्रश्न पशु, रथ और अन्य प्रकार की सम्पत्ति को दख़ल करने का रहता था, फिर भी जाति, धर्म और बोलचाल की रीति में अन्तर होने के कारण भी उनके सम्बन्ध कटु बने रहते थे।

यदि ऋग्वेद में दास और दस्यु शब्द के प्रयोग की आपेक्षिक मात्रा से कोई निष्कर्ष निकाला जा सके, तो जान पड़ता है कि दस्युगण, जिनकी चर्चा चौरासी बार हुई है, स्पष्टत: दासों से अधिक संख्या में थे, जिनका उल्लेख इकसठ बार हुआ है।[64] दस्युओं के साथ युद्ध में अधिक रक्तपात हुआ। अपने विस्तार की आरम्भिक अवस्था में आर्यों को जीविकोपार्जन के लिए पशुधन की अकांक्षा रहती थी। इसलिए स्वभावतया उन्होंने नागर जीवन और संगठित कृषि का महत्व समझा।[65] ऐसा जान पड़ता है कि आर्यों के आने के पहले की नगर बस्तियाँ पूर्णत: ध्वस्त हो गई थीं। युद्ध में शत्रुओं से अपहृत वस्तुओं, ख़ासकर मवेशियों के कारण सरदारों और पुरोहितों की शक्ति बढ़ी होगी और वे ‘विश्’ से ऊपर उठे होंगे। बाद में क्रमश: उन्होंने समझा होगा कि पुरानी संस्कृति के किसानों से श्रमिकों का कार्य लिया जा सकता है और उनसे कृषि कार्य कराया जा सकता है। साथ ही अपनी जनजाति के लोगों से भी श्रमिकों का काम लेना उन्होंने धीरे-धीरे आरम्भ किया होगा।

आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच तो संघर्ष चल ही रहा था, आर्य जनजातीय समाज में भी आन्तरिक द्वन्द्व विद्यमान था। एक युद्धगीत में ‘मन्यु’,-मूर्तिमान क्रोध से याचना की गई है कि वे आर्य और दास दोनों तरह के शत्रुओं को पराजित करने में सहायक हों।[66] इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे ईश्वर से आस्था नहीं रखने वालों दासों और आर्यों से युद्ध करें; ये इन्द्र के अनुयायियों के शत्रु के रूप में वर्णित है।[67] ऋग्वेद में एक स्थल पर कहा गया है कि इन्द्र और वरुण ने सुदास के विरोधी दासों और आर्यों का संहार कर उसकी रक्षा की।[68] सज्जन और धर्मपरायण लोगों की ओर से दो मुख्य ऋग्वैदिक देवताओं, अग्नि और इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वे आर्यों और दासों के दुष्टतापूर्ण कार्यों और अत्याचारों का शमन करें।[69] क्योंकि आर्य स्वयं मानवजाति के दुश्मन थे, अत: आश्चर्य नहीं की इन्द्र ने दासों के साथ-साथ आर्यों का भी विनाश किया होगा।[70] विल्सन ने ऋग्वेद के एक परिच्छेद का जैसा अनुवाद किया है, उसे यदि स्वीकार किया जाए तो उसमें इन्द्र की भरपूर प्रशंसा की गई है, क्योंकि उन्होंने सप्तसिंधु (सात नदियों) के तट पर राक्षसों और आर्यों से लोगों की रक्षा की। उनसे यह भी अनुरोध किया गया है कि वे दासों को अस्त्र-शस्त्र विहीन कर दें।[71] ऋग्वेद में आर्य शब्द का प्रयोग छत्तीस बार हुआ है, जिनमें से नौ स्थलों पर बताया गया है कि स्वयं आर्यों में भी आपसी मतभेद थे।[72] शत्रु आर्यों की दस्युओं के साथ एक स्थल पर चर्चा है और पाँच स्थलों पर दासों के साथ, जिससे यह पता चलता है कि आर्यों के एक समूह से दस्युओं की अपेक्षा दासों का सम्बन्ध अच्छा था। आर्यों के अपने आपसी संघर्ष में दास स्वभावत: आर्यों के मित्र और सहयोगी थे। इसीलिए आर्यों के समाज का जनजातीय आधार धीरे-धीरे क्षीण होने लगा और आर्यों तथा दासों के विलयन की क्रिया को बल मिला। ऋग्वेद के आरम्भिक भाग में ऐसे पाँच प्रसंग आए हैं, जिनसे पता चलता है कि आन्तरिक संघर्षों की परम्परा बहुत ही पुरानी थी।

आर्यों में बहुत पहले जो आन्तरिक संघर्ष हुए थे, उनका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण ‘दाशराज्ञ’ युद्ध है, जो ऋग्वेद में एकमात्र महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। गेल्डनर के अनुसार ऋग्वेद, मण्डल सात का तैंतीसवाँ सूक्त, जिसमें इस युद्ध की चर्चा की गई है, प्रारम्भिक काल से सम्बन्धित है।[73] दस राजाओं का युद्ध मुख्यत: ऋग्वेद कालीन आर्यों की दो मुख्य शाखाओं ‘पुरुओं’ और ‘भारतों’ के बीच हुआ था, जिसमें आर्येतर लोग भी सहायक के रूप में सम्मिलित हुए होंगे।[74] ऋग्वेद का सुविख्यात नायक सुदास् भारतों का नेता था और पुरोहित वसिष्ठ उसके सहायक थे। इनके शत्रु थे, पाँच प्रसिद्ध जनजातियाँ यथा, ‘अनु’, ‘द्रुह्यु’, ‘यदु’, ‘तुर्वशस्’ और ‘पुरु’ तथा पाँच गौण जनजातियाँ यथा, ‘अलिन’, ‘पक्थ’, ‘भलानस्’, ‘शिव’ और ‘विषाणिन’ के दस राजा। विरोधी गुट के सूत्रधार ऋषि विश्वामित्र थे और उसका नेतृत्व पुरुओं ने किया था। दास काले रंग के होते थे।[75] ऐसा प्रतीत होता है कि इस युद्ध में आर्यों की लघुतर जनजातियों ने अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने का स्मरणीय प्रयास किया। पर सुदास् के नेतृत्व में भारतों ने पुरुष्णि नदी (रावी नदी) के किनारे पर उन्हें पूरी तरह से हरा दिया। इन पराजित आर्यों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, इसका कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु अनुमान है कि उनके प्रति भी वैसा ही व्यवहार किया गया होगा, जैसा आर्येत्तर लोगों के साथ किया गया था।

यह असम्भव नहीं कि इस तरह के और भी कई अंतर्जातीय संघर्ष हुए हों, जिनका कोई वृत्तांत हमें उपलब्ध नहीं। ऐसे संघर्षों के संकेत उन प्रसंगों में मिलते हैं, जिनमें आर्यों को देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित व्रतों का भंजक माना गया है। पी. वी. काणे ने ऋग्वेद से पाँच अंश उद्धृत किए हैं, जिनका ऐसा अर्थ लगाया जा सकता है।[76] आदियुगीन ऋषि अथर्वण ने वरुण के साथ हुए संभाषण में यह दावा किया है कि मैं जो नियम बनाऊँगा उसका उल्लंघन कोई भी दास, जो आर्य से भिन्न हो, नहीं कर सकता चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो।[77] म्यूर ने ऋग्वेद से ऐसे अट्ठावन अंश उद्धृत किए हैं, जिनमें आर्य समुदाय के सदस्यों की धार्मिक शत्रुता या उदासीनता की भर्त्सना की गई है।[78] इनमें से बहुत-से परिच्छेद ऋग्वेद के मूल भाग (मंडल दो से आठ) में उपलब्ध हैं और उनसे पता चलता है कि आदिकाल में आर्यों की स्थिति कैसी थी। इनमें से कई अंश उन अनुदार व्यक्तियों के विरुद्ध हैं, जिन्हें अराधसम्[79] या अपृणत: [80] कहा गया है। एक स्थल पर इन्द्र को समृद्ध व्यक्तियों (एथमानद्विट्) का, सम्भवत: उन समृद्ध आर्यों का जिन्होंने उसकी कोई सेवा नहीं की थी, दुश्मन बताया गया है।[81] दास और आर्य अपनी सम्पत्ति छिपाकर रखते थे, जिसके चलते उनका विरोध होता था।[82] कहा जाता है कि अग्नि ने अपनी प्रजा की भलाई के लिए समतल भूमि और पहाड़ियों में स्थित सम्पत्ति को अपने अधिकार में कर लिया और अपनी प्रजा के दास तथा शत्रुओं को हराया।[83] इन अंशों में यह बताया गया है कि जो आर्य दुश्मन समझे जाते थे, उनकी सम्पत्ति भी (अनुमानत: मवेशी) छीन ली जाती थी और उन्हें आर्येतर लोगों की भाँति कंगाल बना दिया जाता था।

कई अनुच्छेदों में पणियों के रूप में विख्यात लोगों के प्रति सामान्यत: शत्रुतापूर्ण भाव देखने को मिलता है।[84] म्यूर ने उन्हें कंजूस माना है।[85] वैदिक इंडेक्स के प्रणेताओं के अनुसार ऋग्वेद में ‘पणि’ शब्द उस व्यक्ति का द्योतक है, जो कि सम्पत्तिवान हो, पर न तो ईश्वर को हव्य अर्पित करता हो और न ही पुरोहितों को दक्षिणा देता हो, फलत: संहिता के रचयिताओं की घृणा का पात्र हो।[86] एक अनुच्छेद में उन्हें ‘बेकनाट’ या सूदखोर (?) बताया गया है, जिन्हें इन्द्र ने पराजित किया था।[87] पणि यज्ञ करने के लिए सक्षम थे और वैरदेय (वरगेल्ड) पाने के अधिकारी भी थे। इन तथ्यों से ज्ञात होता है कि वे आर्य-समुदाय के ही सदस्य थे।[88] हिलब्रांट उन्हें पर्णियों से अभिन्न मानते हैं।[89] पर्णि दहे अर्थात् अश्वारोही और लड़ाकू सीथियन जनजातियों के विशाल समुदाय के अंग थे।[90] वैदिक इंडेक्स के प्रणेता समझते हैं कि यह शब्द इतना व्यापक है कि इससे आदिवासी या विद्वेषी आर्य जनजातियों का भी बोध होता है।[91] जिन परिच्छेदों में पणियों को कंजूस बताया गया है और साधारणत: अनुदार व्यक्तियों की निंदा की गई है, उनमें से कुछ दान लोभी पुरोहितों के इशारे पर लिखे गए होंगे। किन्तु उनसे सामान्यतया पता चलता है कि अपने बांधवों का गला दबाकर भी सम्पत्ति इकट्ठा करने की प्रवृत्ति कुछ आर्यों में पाई जाती थी। ऐसे लोगों से अपेक्षा की जाती थी कि वे अपनी एकत्रित सम्पत्ति में से इन्द्र तथा अन्य देवताओं को यज्ञ में धनराशि अर्पित करें, जिससे इस धन में दूसरों को कुछ हिस्सा मिल सके[92] और जनसमुदाय को बार-बार सहभोज का अवसर मिले। पर लूट के धन का अधिकांश अंश जब वे लोग अपने पास रखने लगे तो आर्थिक और सामाजिक विषमता का जन्म हुआ।

आर्यों के अन्य जनजातियों के साथ उनके अन्तर जनजातीय संघर्षों के कारण समाज विश्रृंखल होता गया और जैसे-जैसे पशुपालन की अपेक्षा कृषि ज़ोर पकड़ती गई, सामाजिक वर्गों की स्थापना हुई। यद्यपि ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग आर्य[93] और दास[94] के लिए हुआ है। किन्तु इससे किसी ऐसे श्रम-विभाजन का संकेत नहीं मिलता जो परवर्ती काल में समाज के व्यापक वर्गीकरण का आधार हुआ। आर्य वर्ण और दास वर्ण दो वृहद जनजातीय समूह थे, जो सामाजिक वर्गों के रूप में विघटित हो रहे थे। आर्यों के सम्बन्ध में इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। सेनार्ट की आलोचना करते हुए ओल्डेनबर्ग ने ठीक ही कहा है कि ऋग्वेद में जाति (कास्ट) की चर्चा नहीं है, [95] किन्तु इस संकलन से आरम्भिक अवस्था में सामाजिक वर्गभेद के धीरे-धीरे पनपने का आभास मिलता है। उसमें ‘ब्राह्मण’ शब्द का प्रयोग पन्द्रह बार और क्षत्रिय शब्द का प्रयोग नौ बार हुआ है। फिर भी, ‘जन’ और ‘विश्’[96] जैसे शब्दों के बार-बार दुहराये जाने और उनके रीति-रिवाजों से पता चलता है कि ऋग्वैदिक समाज जनजातीय था। हमें मालूम नहीं कि जब आर्य भारत में पहली बार आए तो उनके पास दास थे या नहीं। कीथ का विचार है कि वैदिक युग के भारतीय प्रधानतया पशुचारी थे।[97] कम से कम ऋग्वेद के आरम्भिक भागों में वर्णित आर्यों के बारे में यह समीचीन है। मानव संबंधी अनुसंधानों से पता चलता है कि कुछ पशुचारी जनजातियाँ भी दास रखती हैं, हालाँकि अपेक्षित अर्थ में दासप्रथा का अधिक विकसित रूप कृषक जनजातियों में दिखाई पड़ता है।[98]

इसमें सन्देह नहीं कि हड़प्पा समुदाय की शहरी आबादी में जो आर्थिक विषमता थी, वह लगभग वर्गभेद जैसी थी।[99] व्हीलर की राय है कि हड़प्पा और मेसोपोटामिया के निवासियों के बीच दास व्यापार भी हुआ करता था।[100] यह मानना युक्तिसंगत है कि हड़प्पा की शहरी आबादी का विकास निकटवर्ती देहातों के किसानों द्वारा अतिरिक्त कृषि उत्पादनों की आपूर्ति के बिना नहीं हो सकता था। सिंधु घाटी का राजनीतिक ढाँचा सुमेर के राजनीतिक ढाँचे जैसा माना गया है, जहाँ पुरोहित राजा आज्ञाशील प्रजा पर सुगठित अफ़सरशाही के माध्यम से राज्य करता था।[101] हमें मालूम नहीं कि हड़प्पा समाज के विभिन्न वर्गों और लोगों के साथ दस्युओं और दासों का कैसा सम्बन्ध था। जो भी हो, ऋग्वैदिक आर्यों के आने के पहले सैंधव सभ्यता प्राय: नष्ट हो चुकी थी। गंगा की घाटी में आर्य ज्यों-ज्यों पूरब की ओर बढ़ते गए, उन्हें सम्भवतया ताँबे के हथियार रखने वाले लोगों का मुकाबला करना पड़ा, जो उस क्षेत्र के प्राचीन निवासी थे।[102] हो सकता है कि ताम्रयुग के अन्य लोगों की भाँति ये लोग भी वर्गों में बँटे रहे होंगे। तथ्य उपलब्ध न रहने के कारण हड़प्पा समाज के बचे हुए लोगों और आर्यों के बीच क्या आदान-प्रदान हुए, यह कहना कठिन है। चाहे ये अनार्य जो भी हों, ऋग्वेद से तो लगता है कि उनके धन को आर्यों ने अवश्य लूटा। युद्ध में अपहरण की गई सम्पत्ति से जनजाति के नेताओं का ऐश्वर्य और सामाजिक दर्जा अवश्य ही बढ़ा होगा और उन्होंने मवेशी और दासियों का दान कर पुरोहितों का संरक्षण किया होगा। ऋग्वेद की दानस्तुति से यह स्पष्ट है। इस प्रकार ऋग्वेद में रथ पर जाते हुए यजमान को ‘धनवान, दाता और सभाओं में संस्तुत’ के रूप में चित्रित किया गया है।[103]

ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यों के विस्तार के पहले दौर में बस्तियों और दस्युओं जैसे लोगों का विनाश इतना अधिक किया गया कि नए समाज में आर्यों के विलयन हेतु उत्तर-पश्चिमी भारत में बहुत कम ही लोग बच रहे होंगे, हालाँकि बाद में उनके विस्तार के क्रमों में ऐसी स्थिति नहीं भी रही होगी। एक ओर तो बचे हुए लोगों में से अधिकांश लोगों और विशेषत: अपेक्षाकृत पिछड़े वर्ग के लोगों को दासता स्वीकार करनी पड़ी होगी तथा दूसरी ओर आर्यों के समाज में ‘विश्’ की सहज प्रवृत्ति यही रही होगी कि निम्न वर्ग में विलयन करें। आर्य पुरोहितों और योद्धाओं की प्रवृत्ति प्राचीन समाज के उच्च वर्ग से मिल जाने की रही होगी। दो ऐसे प्रसंग मिले हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि कुछ मामलों में आर्य के दुश्मनों को इस नए और मिश्रित समाज में ऊँचा दर्जा दिया गया था। एक स्थल पर कहा गया है कि इन्द्र ने दासों को आर्य में परिवर्तित किया।[104] सायण की टीका के अनुसार उन्हें आर्यों के जीवन के तौर-तरीके सिखाए जाते थे। एक अन्य प्रसंग में चर्चा आई है कि इन्द्र ने दस्युओं को आर्य की उपाधि से वंचित कर दिया।[105] क्या इससे यह अनुमान किया जाए कि कुछ दस्युओं को आर्य की हैसियत देकर फिर उन्हें अपने आर्यविरोधी कार्यकलापों के कारण उससे वंचित कर दिया गया होगा ? इन तथ्यों के आधार पर हम अनुमान करते हैं कि बैरियों के बचे हुए पुरोहितों और प्रमुखों को आर्यों के नए समाज में उनके उपयुक्त स्थान (सम्भवत: निम्नतर कोटि का) दिया गया होगा।

कहा गया है कि ब्राह्मणवाद आर्यों से पूर्व की संस्था है।[106] सारे पुरोहित वर्ग के विषय में यह कहना कठिन है। लैटिन फ्लामेन रोमन राजाओं द्वारा स्थापित एक प्रकार के पुरोहित पद का अभिधान है, जिसका समीकरण ब्राह्मण शब्द से किया गया है।[107] इस समानता के अतिरिक्त वेदकालीन भारत के अथर्वन पुरोहित और ईरान के अथर्वन की सुपरिचित समानता है। किन्तु फिर भी एक प्रमुख आपत्ति का उत्तर देना शेष रह जाता है। कीथ का कहना है कि ऋग्वैदिक मान्यता और वैदिक देवताओं की अपेक्षाकृत बहुलता पुरोहितों के कठिन प्रयास और अपरिमित समन्वयवाद का परिणाम रही होगी।[108] इतना ही नहीं वेदों और महाकाव्यों की परम्परा से पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं, जिनसे पता चलता है कि इन्द्र ब्राह्मणघाती थे और उनका मुख्य दुश्मन ‘वृत्र’ ब्राह्मण था।[109] इससे यह परिकल्पना पुष्ट होती है कि विकसित पुरोहित प्रथा आर्यों के पहले की प्रथा थी, जिससे निष्कर्ष निकल सकता है कि जो लोग पराजित हुए वे सभी दास या शूद्र नहीं बना लिए गए। अतएव, यद्यपि ब्राह्मणवाद भारोपीय संस्था था, फिर भी आर्य विजेताओं के पुरोहित वर्ग में अधिकांश विजित जाति के लोग लिये गए होंगे।[110] उनका अनुपात क्या रहा होगा, यह बताने के लिए कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आर्यपूर्व पुरोहितों को इस नए समाज में स्थान मिला था। यह सोचना ग़लत होगा कि सभी काले लोगों को शूद्र बना लिया गया था, क्योंकि ऐसे प्रसंग आए हैं, जिनमें काले ऋषियों की भी चर्चा है। ऋग्वेद में ‘अश्विनी’ के सम्बन्ध में जो वर्णन किया गया है, उसके अनुसार उन्होंने काले वर्ण के (श्यावाय) कण्व को गौरवर्ण की स्त्रियाँ प्रदान की थीं।[111] सम्भवत: कण्व को कृष्ण भी कहा गया है[112] और वे इन युग्म देवों को सम्बोधित सूक्तों (ऋग्वेद के मंडल आठ, सूक्त पचासी और छियासी) के द्रष्टा हैं। शायद कण्व को ही पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में कृष्ण ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है।[113] इसी प्रकार ऋग्वेद की एक ऋचा में गायक के रूप में वर्णित ‘दीर्घतमस’ काले रंग का रहा होगा, अगर यह नाम उसे काले वर्ण के कारण मिला हो।[114] यह महत्त्वपूर्ण है कि ऋग्वेद के कई अनुच्छेदों में वह केवल मातृमूलक नाम ‘मामतेय’ से ही चर्चित है। बाद की एक अनुश्रुति यह भी है कि उसने उशिज से विवाह किया, जो एक दास की लड़की थी और उससे काक्षीवंत् उत्पन्न हुआ।[115] पुन: ऋग्वेद के प्रथम मंडल में ऋषि दिवोदास को, जिनके नाम से ध्वनित होता है कि वे दास वंश के थे, [116] नई ऋचाओं का रचयिता बताया गया है[117] तथा दसवें मंडल में उसके सूक्त बयालिस-चौवालिस के लेखक अंगिरस को कृष्ण कहा गया है।[118] चूँकि ऊपर बताए गए अधिकांश निर्देश ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पड़ते हैं, इसीलिए यह स्पष्ट होगा कि ऋग्वैदिक काल के अन्तिम चरण में नवगठित आर्य समुदाय में कुछ काले ऋषियों और दास पुरोहितों का प्रवेश हो रहा था।

इसी प्रकार मालूम पड़ता है कि कुछ पराजित सरदारों को नए समाज में उच्च स्थान दिया गया था। दास के प्रमुखों - यथा बलबूथ और तरुक्ष से पुरोहितों ने जो उपहार ग्रहण किया, उसके चलते इन लोगों की बड़ी सराहना हुई और नए समाज में उनका दर्जा भी बढ़ा। दास उपहार प्रस्तुत करने की स्थिति में थे और उन्हें दानी समझा जाता था। यह निष्कर्ष 'दश् धातु' के अर्थ से ही निकाला जा सकता है, जिससे दास संज्ञा का निर्माण हुआ है।[119] बाद में भी विलयन की प्रक्रिया चलती रही, क्योंकि बाद के साहित्य में इस अनुश्रुति का उल्लेख है कि प्रतर्दन दैवोदासि इन्द्रलोक गए[120], और ऐतिहासिक दृष्टि से इन्द्र आर्य आक्रमणकारियों के नामधारी शासक थे।

प्राचीन ग्रन्थ इस तथ्य पर विशेष प्रकाश नहीं डालते कि सामान्य आर्यजन (विश्) और प्राचीन समाज के अवशिष्ट लोगों का आत्मसातीकरण किस प्रकार हुआ। सम्भवत: अधिकांश लोग आर्यों के समाज के चौथे वर्ण में मिला लिये गए। किन्तु पुरुष सूक्त को छोड़कर ऋग्वेद में शूद्र वर्ण का कोई प्रमाण नहीं है। हाँ, ऋग्वैदिक काल के आरम्भ में दासियों का छोटा सा आज्ञानुवर्ती समुदाय विद्यमान था। अनुमानत: आर्यों के जो शत्रु थे, उनमें पुरुषों के मारे जाने पर उनकी पत्नियाँ दासता की स्थिति में पहुँच गईं। कहा गया है कि पुरुकुत्स के बेटे त्रसदस्यु ने उपहार के रूप में पचास दासियाँ दीं।[121] अथर्ववेद के आरम्भिक अंशों में भी दासियों के सम्बन्ध में प्रमाण मिलते हैं। उसमें दासी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उसके अनुसार उसके हाथ भीगे रहते थे, वह ओखल - मूसल कूटती थी[122] तथा गाय के गोबर[123] पर पानी छिड़कती थी। इससे पता चलता है कि वह घरेलू कार्य करती थी। इस संहिता में काली दासी का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है।[124] सन्दर्भों से पता चलता है कि आरम्भिक वैदिक समाज में दासियों से गृहकार्य कराया जाता था। दासी शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि वे पराजित दासों की स्त्रियाँ थीं।

ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग अधिकांशत: ऋग्वेद के परवर्ती भागों में पाया जाता है। प्रथम मंडल में दो जगह[125] दशम मंडल में एक जगह[126] और अष्टम मंडल में जो अतिरिक्त सूक्त (बालखिल्य) जोड़े गए हैं, उनमें से एक जगह[127] इसका प्रसंग आया है। इस प्रकार का एकमात्र प्राचीन प्रसंग आठवें मंडल में पाया जाता है।[128] ऋग्वेद में कोई दूसरा शब्द नहीं मिलता, जिसका अर्थ दास लगाया जा सकता हो। इससे स्पष्ट है कि आरम्भिक ऋग्वेद काल में शायद ही पुरुष दास रहे होंगे।

उत्तर-ऋग्वेद काल में दासों की संख्या और स्वरूप के बारे में जो प्रसंग आए हैं, उनसे केवल धुँधला-सा चित्र उभरता है। बालखिल्य में सौ दासों की चर्चा आई है, जिन्हें गदहे और भेड़ की कोटि में रखा गया है।[129] बाद के एक अन्य प्रसंग में आए ‘दासप्रवर्ग’ का अर्थ सम्पत्ति या दासों का समूह किया जा सकता है।[130] इससे यह स्पष्ट है कि ऋग्वेद काल के अन्त में दासों की संख्या बढ़ रही थी। किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उन्हें किसी उत्पादन कार्य में लगाया जाता था। सम्भवत: उन्हें घरेलू नौकर की तरह रखा जाता था, जिसका मुख्य कार्य अपने मालिक की सेवा करना था, जो या तो सरदार या फिर पुरोहित होते थे। सामान्यत: ऐसे मालिक दीर्घतमस के पास दास थे।[131] इन दासों को मुक्त हाथ से किसी के भी हाथ सौंपा जा सकता था।[132] ऐसा प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति ऋण नहीं चुका पाता था, तो उसे दास बना लिया जाता था, [133] पर ऋण में पैसे नहीं दिए जाते थे, क्योंकि सिक़्क़े का प्रचलन नहीं था। वास्तव में दास नाम से ही प्रकट होता है कि वैदिक काल में दासता का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत युद्ध था। दास जनजाति के लोग युद्ध में विजित होने पर भी दास के नाम से ही पुकारे जाते थे, पर इससे उनकी ग़ुलामी का बोध होता था।

दास कौन थे? साधारणत: दासों और दस्युओं को एक मान लिया जाता है। किन्तु दस्युहत्या शब्द के प्रयोग तो हैं, पर दासहत्या शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। आर्यों के अंतर्जातीय युद्धों में दासों को सहायक सेना के रूप में दिखाया गया है। अपव्रत, अन्यव्रत आदि के रूप में उनका वर्णन नहीं किया गया है। तीन स्थलों पर ‘दासों विशों’ का उल्लेख किया गया है; [134] और सबसे बढ़कर तो यह कि एक सीथियन जनजाति - ईरानी दहे[135] से उनको अभिन्न दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से दासों और दस्युओं का अन्तर स्पष्ट है : दस्युओं और वैदिक आर्यों में समानता की बात बहुत ही कम आती है।[136] इसके विपरीत, दास सम्भवत: उन मिश्रित भारतीय आर्यों के अग्रिम दस्ते थे, जो उसी समय भारत आए, जब केसाइट बेबीलोनिया पहुँचे थे (1750 ई. पू.)। पुरातात्विकों का अनुमान है कि उत्तर फ़ारस से भारत की ओर लोगों का प्रस्थान या तो निरन्तर होता रहा अथवा उनका आगमन मुख्यत: दो बार हुआ था, जिनमें पहला आगमन 2000 ई. पू. के तुरन्त बाद हुआ था।[137] शायद इसी कारण से आर्यों ने दासों के प्रति मेल-मिलाप की नीति अपनाई और दिवोदास, बलबुथ एवं एवं तरुक्ष जैसे उनके सरदार आर्यों के दल में आसानी से आत्मसात किए जा सके। अंतर्जातीय संघर्षों में अधिकतर आर्यों के सहायक के रूप में दासों के उल्लेख का भी यही कारण है। इससे लगता है कि ग़ुलाम के अर्थ में दास शब्द का प्रयोग भारत के आर्येतर निवासियों के बीच नहीं, बल्कि भारतीय आर्यों से सम्बद्ध लोगों के बीच प्रचलित था। ऋग्वेद के उत्तरवर्ती काल में दास शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में होने लगा था, जिससे न केवल मूल भारोपीय दासों के वंशजों, बल्कि दस्यु और राक्षस जैसे आर्य पूर्व लोगों और आर्य समुदाय के उन सदस्यों का भी बोध होता होगा, जो अपने आन्तरिक संघर्षों के कारण अकिंचनता या ग़ुलामी की स्थिति में पहुँच गए थे।

यदि आर्यों की संख्या कम होती तो पराजित लोगों पर नए अल्पसंख्यक उच्च वर्गीय शासक के रूप में अपने को स्थापित करते जैसा कि हित्तियों (हिट्टाइट), कसाइटों और मितन्नी ने पश्चिम एशिया में किया था। किन्तु ऋग्वैदिक प्रमाण इस बात के प्रतिकूल हैं।[138] न केवल पराजित लोगों की जन-हत्या, बल्कि कितनी ही आर्य जनजातियों की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है।[139] फिर, भारत के बहुत बड़े हिस्से में आर्य भाषाओं के प्रचलन से भी यह अनुमान किया जा सकता है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बड़ी तादाद में आए थे। आगे चलकर बताया गया है कि उत्तर भारत की आबादी में वैश्यों के साथ-साथ शूद्रों की संख्या बहुत अधिक थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि वे आर्येतर भाषाएँ बोलते थे। दूसरी ओर, शूद्र के लिए यज्ञ में प्रयुक्त सम्बोधन से स्पष्ट है कि उत्तर वैदिक काल में शूद्र आर्यों की भाषा समझते थे।[140] इस सम्बन्ध में महाभारत की एक अनुश्रुति महत्त्वपूर्ण है : ‘ब्रह्मा ने वेद के प्रतीकस्वरूप सरस्वती का निर्माण पहले चारों वर्णों के लिए किया, किन्तु शूद्र धनलिप्सा में पड़कर आज्ञानांधकार में डूब गए और वेद के प्रति उनका अधिकार जाता रहा।’ [141] वेबर की दृष्टि में इस कंडिका से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन युग में शूद्र आर्यों की भाषा बोलते थे।[142] सम्भव है कि कुछ स्वस्थानिक जनजातियों ने अपनी बोली के बदले आर्यों की बोली अपना ली हो, जैसे आधुनिक युग में बिहार की कई जनजातियों ने अपनी भाषा को छोड़कर कुर्माली और सदाना जैसी आर्य बोलियाँ अपना ली हैं। किन्तु उन्होंने जिन लोगों की भाषा अपनाई, उनकी अपेक्षा इन आदिवासियों की संख्या अवश्य ही कम रही होगी। आधुनिक युग में भी, जबकि आर्यभाषा बोलने वालों को अपनी भाषा और संस्कृति का प्रसार करने के लिए अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं, वे आर्येतर भाषाओं को मिटा नहीं पाए हैं। इन आर्येतर भाषाओं में कुछ तो अपनी सशक्त वर्णनशीलता सिद्ध कर चुकी हैं।

ऊपर बताये गए तथ्यों के आधार पर यह कहना दुस्साहस नहीं होगा कि आर्य बड़ी तादाद में भारत आए। बैरी जनजातियों के साथ मिश्रण के बावजूद, आर्य सरदारों और पुरोहितों की संख्या बहुत कम रही होगी। कालक्रम से आर्य जनजातियों के अधिकांश लोग पशुपालक और किसान बन गए और कुछ लोग श्रमिक बन गए। पर ऋग्वेद काल में आर्थिक और सामाजिक विशिष्टीकरण की प्रक्रिया अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में थी। इस जनजातिप्रधान समाज में सैनिक नेताओं को अतिरिक्त अनाज या मवेशी प्राप्त करने के नियत और नियमित साधन प्राय: नहीं थे, जिससे वे और उनके धार्मिक समर्थक अपना निर्वाह और समुन्नति कर सकते। यह समाज मुख्यत: घुमन्तु और पशुचारी था, और इसमें कृषि अथवा एक जगह बसने की प्रधानता नहीं थी। अतएव अनाज की चर्चा दान के रूप में भी नहीं आई है, और कर देने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। युद्ध में पराजित लोगों से उपहार के रूप में या लूटपाट से जो सम्पत्ति आर्य समुदाय को प्राप्त होती थी, वही उनकी आमदनी थी और प्राय: इस सम्पत्ति में भी उन्हें जनजाति के सदस्यों को हिस्सा देना पड़ता था।[143] ऋग्वेद में केवल बलि ही एक शब्द है, जो एक प्रकार से कर का द्योतक है। साधारणतया इसका तात्पर्य है, ‘देवता को अर्पित चढ़ावा’,[144] किन्तु इसका प्रयोग राजा को दिये गए उपहार के रूप में किया जाता है।[145] अनुमान है कि बलि का भुगतान करना ऐच्छिक था, [146] क्योंकि लोगों से इसकी वसूली के लिए कोई करवसूली संगठन नहीं था। जनजातीय राजा द्वारा अपने योद्धाओं और पुरोहितों को अनाज या भूमि के दान का दृष्टान्त नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह था कि भूमि पूरे जनसमुदाय की सम्पत्ति थी। ऋग्वैदिक समाज एक प्रकार का समतावादी समाज था, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि पुरुष या स्त्री, प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक ही वैरदेय प्राप्त करने का परंपरासिद्ध अधिकार प्राप्त था, [147] जो एक सौ गायों के बराबर था।[148]

सारांश यह कि ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वर्णित समाज में गहरे वर्गभेद का अभाव था, जैसा सामान्यतया प्रारम्भिक आदिम समाजों में देखने को मिलता है।[149] प्राय: पुराणों में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के विषय में जो अनुमान किये गए हैं, वे उस स्थिति का ही उल्लेख करते हैं। इन अनुमानों के अनुसार त्रेता युग का आरम्भ होने तक न तो कोई वर्णव्यवस्था थी, न कोई व्यक्ति लालची था और न ही लोगों में दूसरे की वस्तु चुरा लेने की प्रवृत्ति थी।[150] किन्तु अति प्राचीन काल में भी सैनिकों, नेताओं और पुरोहितों के मंथर उदभव के साथ-साथ खेतिहर किसान और हस्तकलाओं का व्यवसाय करने वाले कारीगर या शिल्पी जैसे वर्गों का भी उदभव हुआ। बुनकर (जुलाहे), चर्मकार, बढ़ई और चित्रकार के लिए एक ही ढंग के शब्दों का प्रयोग उनके भारोपीय उदभव का संकेत देता है।[151] रथ के लिए एक भारोपीय शब्द के व्यापक प्रयोग से पता चलता है कि भारोपीय लोग रथ का निर्माण करना जानते रहे होंगे।[152] किन्तु ऋग्वेद में जहाँ पहले के अनेकानेक परिच्छेदों में बढ़ई के कार्य की चर्चा हुई है, वहीं रथकार शब्द का प्रयोग नहीं दिखाई पड़ता।[153] अथर्ववेद से संकेत मिलता है कि रथनिर्माता (रथकार) और धातुकर्म करने वाले (कर्मार) को समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। इसी ग्रन्थ के आरम्भिक भाग में नवनिर्वाचित राजा पर्णमणि (पादपीयताबीज) से प्रार्थना करता है कि वह आसपास रहने वाले कुशल रथ निर्माताओं और धातुकर्म करने वालों के बीच उसकी स्थिति सुदृढ़ करने में सहायक हों। प्रार्थना का उद्देश्य शिल्पियों को राजा का सहायक बनाना है[154] और इस दृष्टि से वे राजाओं, राजविधाताओं, सूतों और दलपतियों (ग्रामणी) के समकक्ष मालूम पड़ते हैं, [155] जो सब राजा के आसपास रहते हैं और जो राजा के सहायक माने जाते हैं।[156]

स्पष्ट है कि आर्य समुदाय के सदस्य (विश्) ऊपर बताए गए शिल्पों का व्यवसाय करते थे और उन्हें किसी भी प्रकार से हीन नहीं समझा जाता था। ऋग्वेद की एक परवर्ती ऋचा में बढ़ई का वर्णन इस रूप में किया गया है कि वह सामान्यतया अपना काम तब तक झुककर करता रहता है, जब तक उसकी कमर टूटने न लग जाए।[157] इससे आभास मिलता है कि उसका कार्य कठिन था। पर इससे हमारे मन में उसके प्रति घृणा के भाव नहीं जगते हैं। वैदिक काल के संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता कि बढ़ई नीची जाति के थे या उनका अपना एक पृथक वर्ग था।[158] किन्तु कर्मार, बढ़ई (तक्षन्), चर्मम्[159], जुलाहे और अन्य लोग, जिनका व्यवसाय ऋग्वेद में सम्मानजनक माना गया है और जिनका विश् के सम्मानित सदस्य भी आदर करते थे, पालि ग्रन्थों में शूद्र माने गए हैं।[160] सम्भव है कि आर्येतर लोगों ने भी स्वतंत्र रूप से इन शिल्पों को अपनाया हो, [161] पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि आर्य शिल्पियों के अनेक वंशज, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में ही लगे रहे, शूद्र समझे जाने लगे।

चतुर्वर्ण की उत्पत्ति के बारे में प्राचीनतम अनुमान ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में वर्णित सृष्टि सम्बन्धी पुराकथा में पाया जाता है। समझा जाता है कि इस संहिता के दशम मंडल में यह विषय बाद में अंतर्वेशित किया गया है। लेकिन उत्तर वैदिक साहित्य[162] में और गाथाकाव्य[163] पुराण[164] तथा धर्मशास्त्र[165] की अनुश्रुतियों में भी इसे कुछ हेरफेर के साथ प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति आदिमानव (ब्रह्मा) के मुख से, क्षत्रिय की उत्पत्ति उनकी भुजाओं से, वैश्य की उनकी जाँघों से और शूद्र की उनके पैरों से हुई थी।[166] इससे या तो यह स्पष्ट होता है कि शूद्र और अन्य तीन वर्ण एक ही वंश के थे और इसके फलस्वरूप वे आर्य समुदाय के अंग थे, अथवा इसके द्वारा विभिन्न जातियों को ब्राह्मणीय समाज में उत्पत्ति की कहानी के द्वारा मिलाने का प्रयास किया गया। पुरुषसूक्त अथर्ववेद के अन्तिम अंश में है[167] और इसे कालक्रम की दृष्टि से अथर्ववैदिक युग के अन्त का माना जा सकता है।[168] यह जनजातियों के सामाजिक वर्गों में विघटित होने का सैद्धान्तिक औचित्य प्रस्तुत करता है। श्रम का विभाजन ऋग्वैदिक काल में ही काफ़ी विकसित हो चुका था। किन्तु, यद्यपि एक ही परिवार के विभिन्न सदस्य कवि, भिषक और पाठक (पिसाई करने वाले) का काम करते थे, [169] इससे कोई सामाजिक भेदभाव उत्पन्न नहीं होता था। पर अथर्ववैदिक काल के अन्त में कार्यों की भिन्नता के आधार पर सामाजिक हैसियत में भी अन्तर किया जाने लगा और इस प्रकार जनजातियों तथा कुनबों का सामाजिक वर्गों में विघटन शुरू हुआ। मालूम होता है कि शूद्र या दासकर्म करने वाले कुछ आर्य चतुर्थ वर्ण की श्रेणी में आ गए। इस अर्थ में चारों वर्णों की समान उत्पत्ति की कथा में आर्य शूद्रों के वंशजों की संख्या गंगा की नई उर्वर घाटियों में बढ़ती गई हो। साथ ही वैदिक काल से लेकर आगे तक विभिन्न प्रकार के विभिन्न वर्णों के आर्येतर आदिवासी धीरे-धीरे बड़ी संख्या में शूद्र वर्ण में सम्मिलित किये गए।[170] वर्णों की समान उत्पत्ति के बारे में चली आ रही परम्परा से यह स्पष्ट नहीं हो सका कि आर्येतर जनजातियाँ किस प्रकार ब्राह्मणीय समाज में प्रवेश पा सकीं, लेकिन यह कल्पना उपयोगी सिद्ध हुई। यह विभिन्न प्रकार के लोगों को मिलाने और उन्हें साथ ले चलने में सहायक हो सकी, और चूँकि शूद्रों को प्रथम मानव के चरण से उत्पन्न माना गया है, इससे ब्राह्मणप्रधान समाज में उनकी ग़ुलामों जैसी स्थिति को न्यायसिद्ध माना और बताया जा सका।

तीन उच्च वर्णों की सेवा करने वाले सामाजिक वर्ग के रूप में शूद्रों का सर्वप्रथम उल्लेख कब किया गया है? ऋग्वैदिक कालीन समाज में कुछ दास-दासियाँ होती थीं, जो घरेलू नौकर के रूप में काम करती थीं, पर उनकी संख्या इतनी नहीं थी कि उनको मिलाकर शूद्रों का दास वर्ण बन पाता। समाज के वर्ग के रूप में शूद्रों का प्रथम और एकमात्र उल्लेख ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में आया है, जिसकी पुनरावृत्ति अथर्ववेद के उन्नीसवें भाग में हुई है।[171] इसी भाग के दो अन्य परिच्छेदों में भी चार वर्णों का संकेत किया गया है। इसमें से एक परिच्छेद में दर्भ (घास) से प्रार्थना की गई है कि वह प्रार्थी को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और आर्य का प्रियपात्र बनाए।[172] यहाँ आर्य शब्द का प्रयोग प्राय: वैश्य के लिए किया गया है। दूसरे परिच्छेद में देवों और राजाओं के साथ-साथ शूद्र तथा आर्य दोनों के ही प्रियपात्र बनने की इच्छा व्यक्त की गई है।[173] मालूम होता है कि यहाँ देव ब्राह्मण के लिए और आर्य वैश्य के लिए प्रयुक्त हुआ है।[174] हमें स्मरण रखना है कि ये सभी परिच्छेद उन्नीसवें भाग में आए हैं, जो बीसवें भाग को मिलाकर अथर्ववेद के मुख्य संकलन का परिशिष्ट है।[175] इसके पूर्व के एक परिच्छेद में ब्राह्मण, राजन्य या शूद्र द्वारा किये गए जादू-टोने (या उनके द्वारा बनाये गए ताबीज) का उल्लेख है और एक मंत्र में बताया गया है कि प्रयोग करने वाले को भी जादू का झटका लग सकता है।[176] यह परिच्छेद अथर्ववेद के द्वितीय खण्ड (भाग आठ-बारह) में है, जिसके सम्बन्ध में व्हिटने की राय है कि इसकी रचना स्पष्टत: पुरोहितों ने की होगी।[177] इससे यह संकेत मिलता है कि वर्ण व्यवस्था का विकास पुरोहितों के प्रभाव में हुआ। हमारे काम का केवल एक प्रसंग ऐसा है, जिसे व्हिटने के अनुसार अथर्ववेद के आरम्भिक काल का कहा जा सकता है। इसमें ब्राह्मण, राजन्य और वैश्य का उल्लेख तो हुआ है, [178] किन्तु शूद्र को छोड़ दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि अथर्ववेद काल के अन्त में ही शूद्रों को समाज के एक वर्ग के रूप में चित्रित किया गया है। इसी अवधि में उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुरुषसूक्त में उल्लिखित उक्ति का समावेश ऋग्वेद के दशम मंडल में किया गया होगा।

लोग जानना चाहेंगे कि चतुर्थ वर्ण शूद्र क्यों कहलाने लगा। मालूम होता है कि जिस प्रकार सामान्य यूरोपीय शब्द ‘स्लेव’ और संस्कृत शब्द ‘दास’ विजित जनों के नाम पर बने थे, उसी प्रकार शूद्र शब्द उक्त नामधारी पराजित जनजाति के नाम पर बना था। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में शूद्र नाम की जनजाति थी, क्योंकि डियोडोरस ने लिखा है कि सिकन्दर ने आधुनिक सिंध के कुछ इलाकों में रहने वाली सोद्रई नामक जनजाति पर चढ़ाई की थी।[179] ग्रीक लेखकों ने जिन जातियों का उल्लेख किया है, उनका अस्तित्व अतिप्राचीन काल में भी देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ, एरियन द्वारा चर्चित अबस्तनोई (जिसे डियोडोरस ने संबस्तई कहा है) को ऐतरेय ब्राह्मण के अंबष्ठों का समरूप माना गया है।[180] इस ब्राह्मण में एक अंबष्ठ राजा की चर्चा है।[181] यही बात शूद्र जाति पर भी लागू होती है और इस तरह लगभग ई.पू. 10वीं शताब्दी की शूद्र जाति और चौथी शताब्दी की शूद्र जनजाति में साम्य देखा जा सकता है। अथर्ववेद के आरम्भिक भाग में शूद्रों के तीन उल्लेखों की इस दृष्टि से विवेचना की जा सकती है। व्हिटने का कथन है कि ये अथर्ववेद के प्रथम खण्ड (भाग1-7) में आते हैं, जो परम लोकमूलक हैं और सभी प्रकार से उस संहिता का अत्यन्त अभिलाक्षणिक अंश है।[182] इनमें से दो सन्दर्भों में पुजारी चाहता है कि हर किसी को, चाहे वह आर्य हो या शूद्र, जड़ी-बूटी की सहायता से परखे ताकि जादूगर का पता चल जाए।[183] इस सम्बन्ध में ब्राह्मण या राजन्य का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। अब प्रश्न यह है कि यहाँ आर्य और शूद्र दो सामाजिक वर्गों (वर्णों) के प्रतीक हैं, या दो जनजातियों के। इनमें से उत्तरवर्ती कल्पना युक्तियुक्त लगती है। पहले आर्य और दास या दस्यु के बीच जो विरोध रहता था, वह अब बदलकर आर्य और शूद्र के बीच का हो गया। यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि ये निर्देश सामाजिक विभेद या अशक्तताओं का ऐसा आभाव नहीं देते, जो वर्ण की कल्पना में अंतर्निहित हैं। उनकी तुलना उसी संहिता के एक अन्य परिच्छेद से की जा सकती है, जिसमें आर्य और दास की चर्चा है और जिसमें पुरोहित या वरुण ने यह दावा किया है कि उसने जिस मार्ग का अनुसरण किया है, उसे कोई दास या आर्य विनष्ट नहीं कर सकता।[184]

ऋग्वेद में इसी तरह की अन्य ऋचाएँ भी आई हैं, जिनमें पुरोहित चाहता है कि वह अपने दुश्मन आर्यों और दासों या दस्युओं को परास्त करे। वैदिक ग्रन्थों में आए हुए सामाजिक सम्बन्धों के प्रत्यक्ष निर्देशों का सही अर्थ लगाने में ब्राह्मण टीकाकार इसलिए सफल नहीं हो सके कि उनका ध्यान सदा बाद में होने वाली घटनाओं की ओर लगा रहता था। ऋग्वेद में आर्य और दास शब्दों का अर्थ जिस रूप में किया गया है, वह इस आशय का उदाहरण कहा जा सकता है। सायण आर्य को प्रथम तीन वर्णों का और दास को शूद्र वर्ण का मानते हैं।[185] स्पष्ट है कि सायण ने यह टीका बाद में समाज के चार वर्णों में विभक्त होने के आधार की, जिनका औचित्य वह सिद्ध करना चाहते हैं। इसी प्रकार यहाँ जिस अथर्ववैदिक प्रसंग का विवेचन किया जा रहा है, उसमें सायण ने आर्य की व्याख्या तीन वर्णों के सदस्य के रूप में की है,[186] जिससे सहज ही शूद्र चौथे वर्ण के प्रतिनिधि हो जाते हैं। किन्तु धर्मशास्त्रों में आर्य और शूद्र के प्रति जो दृष्टि अपनाई गई है, उसके आधार पर पहले के ग्रन्थों का सही अर्थ लगाना बहुत कठिन हो जाता है।

अथर्ववेद के आरम्भिक भाग में शूद्र को जनजाति माना गया है। इस आशय का निष्कर्ष इसमें उपलब्ध तीसरे प्रसंग से भी निकाला जा सकता है, जिसमें ‘तक्मन्’ ज्वर से कहा गया है कि वह मुजवंतों, बल्हिकों और महावृषों के साथ-साथ कुलटा शूद्र महिलाओं को भी ग्रसित करे।[187] मालूम है कि ये सभी जन उत्तरपूर्व भारत के निवासी थे,[188] जहाँ शूद्र जनजाति आभीरों के साथ रहती थी,[189] जैसा कि महाभारत में बताया गया है। एक अन्य ऋचा में भी इस इच्छा की पुनरावृत्ति की गई है कि ज्वर विदेशियों को ग्रसित करे।[190] इससे आभास मिलता है कि शूद्र महिलाओं का उल्लेख जिस सन्दर्भ में हुआ है वह अथर्ववेदकालीन आर्यों के उस बैर-भाव का द्योतक है जो उनके मन में भारत के उत्तर-पश्चिम भाग के विजातीय निवासियों के प्रति रहता था। अत: यहाँ सम्भवत: शूद्र शब्द का अर्थ है शूद्र जाति की महिला। पैप्लाद शाखा की एक ऐसी ही ऋचा में शूद्रा की जगह ‘दासी’ शब्द का प्रयोग हुआ है,[191] जिससे लेखक की राय में यह प्रकट होता है कि ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। अत: अथर्ववेद के आरम्भिक भाग में जो शूद्र शब्द का प्रयोग हुआ है उसे वर्ण के अर्थ में नहीं, बल्कि जाति के अर्थ में लेना चाहिए, जो प्रसंग की दृष्टि से अधिक समीचीन मालूम पड़ता है।

महाभारत में आभीरों के साथ शूद्रों की चर्चा बार-बार जनजाति के रूप में हुई है, जिससे ई.पू. दसवीं शताब्दी की परम्पराओं का आभास मिलता है। इस महाकाव्य में शूद्र कुल का उल्लेख क्षत्रिय और वैश्य कुल के साथ हुआ है,[192] और शूद्र जनजाति का वर्णन आभीरों, दरदों, तुखारों, पहलवों आदि के साथ हुआ है,[193] तथा कुल एवं जाति के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है। नकुल ने अपनी दिग्विजय-यात्रा के क्रम में जिन जातियों को पराजित किया, उनकी सूची में[194] तथा राजसूय यज्ञ के अवसर पर युधिष्ठिर को जिन लोगों ने उपहार प्रस्तुत किए उनकी सूची में[195] भी शूद्र का उल्लेख जनजाति के रूप में हुआ है। इनका कालक्रम निर्धारित करने के लिए सम्भवत: एक ओर भारत युद्ध के समय विद्यमान शूद्रों और आभीरों तथा दूसरी ओर बाद में इस सूची में प्रक्षिप्त शकों, तुखारों, पहलवों, रोमकों, चीनी और हूणों आदि जनों के बीच विभेद करना पड़ेगा।[196] भारतीयेतर स्रोतों से ऐसा कुछ पता नहीं चलता कि ईस्वी सन के पूर्व या पश्चात की कुछ आरम्भिक शताब्दियों में शूद्रों और आभीरों का बाहरी देशों से भी कोई सम्बन्ध था। इस बात के समर्थक तथ्य शायद ही उपलब्ध हैं कि आभीर ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में भारत आए। मालूम होता है कि भारत युद्ध के समय वे जनजाति के रूप में रहते थे,[197] पर उस महायुद्ध के पश्चात जो अस्त-व्यस्तता की अवधि आई उससे वे पंजाब में बिखर गए।[198] आभीरों के साथ शूद्रों का भी बार-बार उल्लेख हुआ है, उससे संकेत मिलता है कि वे पुरानी जनजाति के थे और युद्ध के समय सुखी एवं सम्पन्न थे। अथर्ववेद के आरम्भिक अंश में शूद्र शब्द के जनजाति स्वरूप किए गए अर्थ के वह सर्वथा उपयुक्त है।

दूसरा प्रश्न यह है कि शूद्र आर्य थे या आर्य-आगमन से पहले की जनजाति थे और यदि वे आर्य थे, तो भारत में किस समय आए। शूद्र जनजाति के मानवजातीय वर्गीकरण (एथनोलॉजिकल क्लासीफ़िकेशन) के विषय में परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किये गए हैं। पहले यह माना जाता था कि पहले-पहल जो आर्य आए उनमें से कुछ शूद्र जनजाति के थे,[199] बाद में यह माने जाने लगा कि शूद्र आर्यपूर्व जनों की एक शाखा थे,[200] किन्तु दोनों विचारों में से किसी के भी पक्ष में कोई सबल प्रमाण नहीं है। उपलब्ध तथ्यों के आधार पर सोचा जा सकता है कि शूद्र जनजाति का आर्यों के साथ कुछ सादृश्य था। शूद्रों की चर्चा हमेशा आभीरों के साथ हुई है,[201] जो आर्यों की एक ऐसी बोली ‘आभीरी’ बोलते थे।[202] ब्राह्मणकाल में शूद्र आर्यों की भाषा समझने में समर्थ थे, जिससे परोक्ष रूप में सिद्ध होता है कि वे आर्यों की भाषा जानते थे। इतना ही नहीं, शूद्र को आर्य पूर्व लोगों, यथा द्रविड़, पुलिंद, शबर आदि की सूची में कभी शामिल नहीं किया गया है। उन्हें बराबर उत्तर-पश्चिम का निवासी माना गया है,[203] जहाँ आगे चलकर मुख्यत: आर्य ही निवास करते थे।[204] आभीर और शूद्र सरस्वती नदी के निकट रहते थे।[205] कहा जाता है कि इन लोगों के प्रति बैर-भाव के कारण सरस्वती मरुभूमि में विलीन हो गई।[206] ये सन्दर्भ महत्त्वपूर्ण है क्योंकि दृषद्वती के साथ सरस्वती उस प्रदेश की एक सीमा स्थिर करती थी, जो आर्य देश कहलाता था। ‘दहे’ शब्द भारतीय ‘दास’ शब्द का ईरानी पर्याय है, किन्तु शूद्र के लिए ऐसा तादाम्य स्थापन कठिन है। यह कहा जा सकता है कि ग्रीक ‘कुद्रोस’ शब्द का समानार्थक है,[207] जिसे होमर ने (ई.पू. दसवीं-नवीं शताब्दी) ‘महान’ के अर्थ में प्रयुक्त किया है और इसका प्रयोग सामान्यतया मर्त्यलोक के प्राणियों के लिए नहीं, बल्कि देवलोकवासियों की विशेषता बताने के लिए किया गया है।[208] भारत में, बाद में, शूद्र शब्द अपमानसूचक माना जाने लगा और उन लोगों के लिए व्यवहृत होता था, जिनसे ब्राह्मण अप्रसन्न थे। इसके विपरीत होमरकालीन ग्रीस में ‘शूद्र’ शत्द (कुद्रोस) प्रशंसात्मक था। हम यह कह सकते हैं कि ‘कुद्र’ नामक एक भारोपीय जनजाति थी, जिसकी शाखाएँ ग्रीस और भारत दोनों देशों में गई। ग्रीस में इस शाखा को महत्व का स्थान मिला, लेकिन इस जाति के जो लोग भारतवर्ष में आए, उन्हें अनेक सहआक्रमणकारियों ने हराकर अपने अधीन कर लिया। इस कारण ग्रीस में कुद्रों का ऊँचा स्थान हुआ और भारत में शूद्रों का नीचा। एक ही शब्द के विभिन्न सन्दर्भ में विपरीत अर्थ होते हैं, जैसा कि असुर शब्द के उदाहरण से स्पष्ट है। भारत में असुर अनिष्टकर (शैतान) माना जाता है, किन्तु उसके प्रतिरूप ‘अहुर’ को ईरान में देवता माना जाता है। भारत और ग्रीस में शूद्र शब्द का प्रयोग-भेद भी इसी प्रकार का माना जा सकता है, किन्तु उपरोक्त व्याख्या को तब तक निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता, जब तक कि यह प्रमाणित न हो जाए कि कुद्रोस ग्रीस की एक जनजाति थी। यह सम्भव प्रतीत होता है कि दासों के समान शूद्र भी भारतीय आर्यवंश के लोगों से सम्बन्धित थे।

यदि शूद्र भारतीय आर्यों से सम्बद्ध थे, तो वे भारत में कब आये? कहा गया है कि वे भारत में आने वाले आर्यों के किसी आरम्भ के दल के थे।[209] किन्तु चूँकि ऋग्वेद में उनका उल्लेख नहीं हुआ है, इसीलिए सम्भव है कि शूद्र उन विदेशी जनजातियों में से थे, जो ऋग्वैदिक काल का अन्त होते-होते उत्तर-पश्चिम भारत में आईं। पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य के आधार पर ऐसा सम्भव मालूम होता है कि 2000 ई.पू. के पश्चात हज़ार वर्षों तक लोगों का भारत में आना जारी रहा।[210] इस परिकल्पना का समर्थन भाषाजन्य प्रमाणों से भी होता है।[211] अतएव अनुमान किया जाता है कि शूद्र ई. पू. दूसरे सहस्राब्द के अन्त में भारत आए, जबकि उन्हें वैदिककालीन आर्यों ने पराजित किया और वैदिक काल के उत्तरवर्ती समाज ने उन्हें चतुर्थ वर्ण के रूप में अपनाया।

यह ज़ोर देकर कहा गया है कि ब्राह्मणों के साथ दीर्घकाल तक संघर्ष करते रहने के फलस्वरूप क्षत्रियों को शूद्र की स्थिति में पहुँचा दिया गया और ब्राह्मणों ने अपने शत्रु क्षत्रियों को अन्तत: उपनयन (यज्ञोपवीत संस्कार) के अधिकार से वंचित कर दिया।[212] महाभारत के शान्तिपर्व में वर्णित एकमात्र अनुश्रुति के आधार पर पैजवन शूद्र राजा था, यह दावा किया जाता है कि शूद्र आरम्भ में क्षत्रिय थे।[213] इस तरह की धारणा का कोई तथ्यगत आधार नहीं है।

  • प्रथमत:, ऋग्वेद काल में क्षत्रियों का ऐसा वर्णन कहीं नहीं मिलता है, जिससे पता चले की उनका एक निश्चित वर्ण था तथा उनके कर्तव्य और अधिकार अलग थे। सम्पूर्ण जनजाति के लोग युद्ध और सार्वजनिक कार्यों के प्रबन्ध को अपना कर्तव्य समझते थे। यह कुछ गिने-चुने योद्धाओं का काम नहीं समझा जाता था। आरम्भ से ही विकसित हो रहे योद्धाओं और पुरोहितों के समुदाय ने आर्यों और आर्येतर लोगों के साथ युद्ध में विश् का मार्गदर्शन किया और उन्हें सहायता दी। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, सरदार और योद्धागण पुरोहितों को उदारतापूर्वक भेंट-उपहार देने लगे और धार्मिक कर्मकांड जटिल होता गया, जिससे कर्मकांड का निष्पादन करने वाले पुरोहितों और उन पुरोहितों को संरक्षण देने वाले योद्धाओं की शक्ति सामान्य जन की शक्ति की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ी।
  • दूसरे, यद्यपि उत्तरवैदिक काल में, परशुराम और विश्वामित्र की कथाओं में पुरोहितों और योद्धाओं का संघर्ष ध्वनित होता है, फिर भी इसका कोई प्रमाण नहीं है कि विवाद का विषय उपनयन था, जिसका निर्णय क्षत्रियों के विपक्ष में हुआ। उत्तरवैदिक काल के अन्त में कृषि के आरम्भ हो जाने से किसानों से अनाज वसूल किया जाने लगा। इस वसूली में किसका कितना हिस्सा होगा, इसे लेकर सरदारों और पुरोहितों में संघर्ष अवश्यंभावी था। संघर्ष सामाजिक आधिपत्य को लेकर हुआ करता था, जिसके आधार पर विशेषाधिकारों का निर्णय होता था। ज्ञान के क्षेत्र में ब्राह्मणों के एकाधिकार के विषय में भी कुछ विवाद उठे और क्षत्रियों ने इसे चुनौती दी और उसमें सफल भी हुए। ऐसा जान पड़ता है कि अश्वपति कैकेय और प्रवाहण जैवलि सम्भवत: ब्राह्मणों के अध्यापक थे।[214] मिथिला के क्षत्रिय शासक जनक ने उपनिषदीय चिंतन को आगे बढ़ाने में योगदान दिया तथा क्षत्रिय राजा विश्वामित्र ने ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया। उत्तर-पूर्व भारत में क्षत्रियों का विद्रोह गौतम बुद्ध और वर्द्धमान महावीर के उपदेशों के रूप में अपनी चरम सीमा पर आया। उनके अनुसार समाज में प्रमुख स्थान क्षत्रियों का था और ब्राह्मण उसके बाद थे। झगड़ा इस प्रश्न को लेकर आया कि समाज में प्रथम स्थान ब्राह्मणों को मिले या क्षत्रियों को। न तो उत्तर-वैदिक और मौर्य-पूर्व गन्थों में ही कहीं ऐसा संकेत है कि ब्राह्मण चाहते थे कि क्षत्रियों को तृतीय या चतुर्थ वर्ण में रखा जाए, या क्षत्रियों की यह इच्छा थी कि ब्राह्मणों की वह गति हो।
  • तीसरी बात, ऐसा सोचना ग़लत है कि आरम्भ में उपनयन संस्कार का न होना शूद्रता का निश्चित प्रमाण माना जाता था। इस मामले में आज के न्यायालयों का निर्णय[215] उस समय की परिस्थितियों का द्योतक नहीं बन सकता, जब शूद्र वर्ण का उदभव हुआ। शूद्रों को उपनयन-च्युत केवल उत्तर-वैदिक काल में पाया जाता है और तब भी शूद्रों की दासतासूचक एकमात्र अशक्तता केवल यही नहीं थी कि उन्हें यज्ञोपवीत से वंचित रखा गया, इस तरह की अन्य कई आवश्यकताएँ थीं। ऐसा नहीं था कि उपनयन नहीं होने के कारण आर्य शूद्र में परिवर्तित हो गए थे, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के चलते वे इस अधोगति में पहुँचे थे।
  • चौथी बात यह है कि शान्तिपर्व की इस अनुश्रुति की प्रामाणिकता को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करना कठिन है कि पैजवन शूद्र था। उसे सुदास् से अभिन्न माना गया है, जो भारत जनजाति का प्रधान था, और कहा जाता है कि दस राजाओं के युद्ध का यह सुप्रसिद्ध नायक शूद्र ही था।[216] वैदिक ग्रन्थों में ऐसे तथ्य नहीं हैं, जिनसे इस विचार की पुष्टि होती हो और शान्तिपर्व की अनुश्रुति को किसी अन्य स्रोत से, चाहे वह महाकाव्य हो या पुराण, बल नहीं मिलता है। इस अनुश्रुति के अनुसार शूद्र पैजवन यज्ञ करते थे। यह बात भी ऐसे प्रसंग में आई है, जहाँ पर कहा गया है कि शूद्र पाँच महायज्ञ कर सकते थे और दान दे सकते थे।[217] यह निर्णय करना कठिन है कि यह अनुश्रुति सच है या झूठ। किन्तु इसका उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि शूद्र यज्ञ और दान-पुण्य कर सकते थे। ऐसा दृष्टिकोण शान्तिपर्व की उदारवादी भावना के अनुकूल था, और तब पैदा हुआ, जब शूद्र किसानों की संख्या बढ़कर काफ़ी हो गई। यह भी ध्यातव्य है कि परवर्ती काल में ब्राह्मण ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए, जो उनका विरोध करता था, व्यापक रूप से शूद्र या वृषल शब्द का प्रयोग करने लगते थे। हमें मालूम नहीं कि शूद्र पैजवन के साथ भी ऐसी ही बात थी या नहीं। प्राय: ऐसे कथनों का अर्थ यह नहीं कि क्षत्रिय और ब्राह्मण शूद्र की स्थिति में पहुँच गए थे, बल्कि वे मात्र इतना संकेत देते हैं कि इन मान्य व्यक्तियों की उत्पत्ति शूद्रों से हुई थी, ख़ासकर मातृकुल की ओर से।[218]

स्पष्ट है कि आर्य जनजातियों और उनकी संस्थाओं की ही तरह शूद्र जनजाति भी सैनिक कृत्यों का निर्वाह करती थी।[219] महाभारत में शूद्रों की सेना का उल्लेख अंबष्ठों, शिवियों, शूरसेनों आदि के साथ हुआ है।[220] किन्तु, जैसा कि हम जानते हैं, इससे पूरी जनजाति क्षत्रिय वर्ण नहीं बन सकी और न उसके कर्तव्य और विशेषाधिकार सुनिश्चित हो सके। अत: इस सिद्धान्त में शायद ही कोई बल है कि क्षत्रियों को शूद्र की स्थिति में पहुँचा दिया गया था।

शूद्र शब्द का व्युत्पत्यर्थ निकालने के जो प्रयास हुए हैं, वे अनिश्चित से लगते हैं और उनसे वर्ण की समस्या सुलझाने में शायद ही कोई सहायता मिलती है। सबसे पहले वेदान्त सूत्र में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था। इसमें शूद्र शब्द को दो भागों में विभक्त कर दिया गया है- ‘शुक्’ (शोक) और ‘द्र’, जो ‘द्रु’ धातु से बना है और जिसका अर्थ है, दौड़ना।[221] इसकी टीका करते हुए शंकर ने इस बात की तीन वैकल्पिक व्याख्याएँ की हैं कि जानश्रुति[222] शूद्र क्यों कहलाया -

  1. ‘वह शोक के अन्दर दौड़ गया’, - ‘वह शोक निमग्न हो गया’ (शुचम् अभिदुद्राव)
  2. ‘उस पर शोक दौड़ आया’, - ‘उस पर संताप छा गया’ (शुचा वा अभिद्रुवे)
  3. ‘अपने शोक के मारे वह रैक्व दौड़ गया’ (शुचा वा रैक्वम् अभिदुद्राव)। [223] शंकर का निष्कर्ष है कि शूद्र शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्या करने पर ही उसे समझा जा सकता है, अन्यथा नहीं।[224] बादरायण द्वारा शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति और शंकर द्वारा उसकी व्याख्या दोनों ही वस्तुत: असंतोषजनक हैं।[225] कहा जाता है कि शंकर ने जिस जानश्रुति का उल्लेख किया है, वह अथर्ववेद में वर्णित उत्तर-पश्चिम भारत के निवासी महावृषों पर राज्य करता था। यह अनिश्चित है कि वह शूद्र वर्ण का था। वह या तो शूद्र जनजाति का था या उत्तर-पश्चिम की किसी जाति का था, जिसे ब्राह्मण लेखकों ने शूद्र के रूप में चित्रित किया है।

पाणिनि के व्याकरण में उणादिसूत्र के लेखक ने इस शब्द की ऐसी ही व्यत्पत्ति की है, जिसमें शूद्र शब्द के दो भाग किए गए हैं, अर्थात् धातु शुच् या शुक्+र।[226] प्रत्यय ‘र’ की व्याख्या करना कठिन है और यह व्युत्पत्ति भी काल्पनिक और अस्वाभाविक लगती है।[227]

पुराणों में जो परम्पराएँ हैं, उनसे भी शूद्र शब्द शुच् धातु से सम्बद्ध जान पड़ता है, जिसका अर्थ होता है, संतप्त होना। कहा जाता है कि ‘जो खिन्न हुए और भागे, शारीरिक श्रम करने के अभ्यस्त थे तथा दीन-हीन थे, उन्हें शूद्र बना दिया गया’।[228] किन्तु शूद्र शब्द की ऐसी व्याख्या उसके व्युत्पत्यर्थ बताने की अपेक्षा परवर्ती काल में शूद्रों की स्थिति पर ही प्रकाश डालती है। बौद्धों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या भी ब्राह्मणों की व्याख्या की ही तरह काल्पनिक मालूम होती है। बुद्ध के अनुसार जिन व्यक्तियों का आचरण आतंकपूर्ण और हीन कोटि का था (लुदआचारा खुद्दाचाराति), वे सुद्द (संस्कृत-शूद्र) कहलाने लगे और इस तरह सुद्द (संस्कृत-शूद्र) शब्द बना।[229] यदि मध्यकाल के बौद्ध शब्दकोश में शूद्र शब्द क्षुद्र का पर्याय बन गया, [230] और इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि शूद्र शब्द क्षुद्र से बना है।[231] दोनों ही व्युत्पत्तियाँ भाषाविज्ञान की दृष्टि से असंतोषजनक हैं, किन्तु फिर भी महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनसे प्राचीन काल में शूद्र वर्ण के प्रति प्रचलित धारणा का आभास मिलता है। ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत व्युत्पत्ति में शूद्रों की दयनीय अवस्था का चित्रण किया गया है, किन्तु बौद्ध व्युत्पत्ति में समाज में उनकी हीनता और न्यूनता का परिचय मिलता है। इन व्युत्पत्तियों से केवल इतना पता चलता है कि भाषा और व्युत्पत्ति सम्बन्धी व्याख्याएँ भी सामाजिक स्थितियों से प्रभावित होती हैं। हाल में एक लेखक ने शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति इस रूप में की है- धातु ‘श्वी’ (मोटा होना)+धातु ‘द्रु’ (दौड़ना)। उसकी राय है कि इस शब्द का अर्थ है कि, ‘ऐसा व्यक्ति जो स्थूल जीवन की ओर दौड़े।’ अतएव उसकी दृष्टि में शूद्र ‘ऐसा गंवार है जो शारीरिक श्रम करने के लिए ही बना है।’ [232] यह बहुत ही अदभुत बात है कि यहाँ दो धातुओं के मेल से ‘शूद्र’ शब्द की उत्पत्ति की गई है और तब जब उसका कोई पुराना व्युत्पत्यात्मक आधार नहीं है। इस शब्द को लेखक जो अर्थ देना चाहता है, वह शूद्रों के प्रति केवल परम्परावादी मनोवृत्ति को चित्रित कर पाता है। उससे शूद्रों की उत्पत्ति पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता।

उत्पत्ति के समय शूद्र वर्ण की स्थिति दयनीय और उपेक्षित थी, यह बात ऋग्वेद और अथर्ववेद में वर्णित समाज के चित्रण से शायद ही सिद्ध होती है। इन संहिताओं में कहीं पर भी न तो दास और आर्य के बीच और न शूद्र और उच्च वर्गों के बीच भोजन और वैवाहिक प्रतिबंध का प्रमाण मिलता है।[233] वर्णों के बीच सामाजिक भेदभाव बताने वाला एकमात्र पूर्वकालीन सन्दर्भ अथर्ववेद में पाया जाता है, जिसमें यह दावा किया गया है कि ब्राह्मण को, राजन्य और वैश्य की तुलना में, किसी नारी का पहला पति बनने का अधिकार प्राप्त है।[234] और भी कहीं-कहीं ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों की चर्चा की गई है, यथा कहा गया है कि उनकी गाय अथवा स्त्री को कोई हाथ नहीं लगा सकता। पर इस सम्बन्ध में कहीं शूद्र की चर्चा नहीं मिलती, क्योंकि प्राय: उस समय यह वर्ण विद्यमान नहीं था। इसका कोई आधार नहीं कि दास और शूद्र अपवित्र समझे जाते थे और न ही इसका कोई प्रमाण मिलता है कि उनके छू जाने से उच्च वर्णों के लोगों का शरीर और भोजन दूषित हो जाता था।[235] अपवित्रता का सारा ढकोसला बाद में खड़ा किया गया, जब समाज कृषिप्रधान होने के बाद वर्णों में बँट गया और ऊपर के वर्ण अपने लिए तरह-तरह की सुविधाएँ और विशेषाधिकार माँगने लगे।[236]

शूद्र वर्ण के उदभव के विषय में सारांश यह है कि आंतरिक और बाहरी संघर्षों के कारण आर्य या आर्य-पूर्व लोगों की स्थिति ऐसी हो गई है।[237] चूँकि संघर्ष मुख्यतया मवेशी के स्वामित्व को लेकर और बाद में भूमि को लेकर होता था, अत: जिनसे ये वस्तुएँ छीन ली जाती थीं, और जो अशक्त हो जाते थे, वे नए समाज में चतुर्थ वर्ण कहलाने लगते थे। फिर जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक ज़मीन हो गई कि वे स्वयं सम्भाल नहीं पाते थे, तो उन्हें मज़दूरों की आवश्यकता हुई और वैदिककाल के अन्त में ये शूद्र कहलाने लगे।

यह मंतव्य है कि शूद्र वर्ण का निर्माण काल आर्य-पूर्व लोगों से हुआ था, उतना ही एकांगी और अतिरंजित मालूम पड़ता है, जितना यह समझना कि उस वर्ण में मुख्यत: आर्य ही थे।[238] वास्तविकता यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर, दोनों के अन्दर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। साधारणतया मान्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त है कि वर्गविभाजन बराबर सजातीय असमानताओं से मूलतया सम्बद्ध होता है, [239] किन्तु इस सिद्धान्त से शूद्रों और दासों की उत्पत्ति पर आंशिक प्रकाश ही पड़ता है। बहुत सम्भव है कि दासों और शूद्रों का नाम क्रमश: इन्हीं नामों की जनजातियों के आधार पर रखा गया हो, जो भारतीय आर्यों के निकट सम्पर्क में रही हों। लेकिन कालक्रम से आर्य-पूर्व आबादी के लोग और विपन्न आर्य भी इन वर्गों में शामिल हो गए होंगे। यह बहुत स्पष्ट है कि वैदिक काल के आरम्भिक लोगों में शूद्रों और दासों की जनसंख्या बहुत सीमित थी और उत्तरवर्ती वैदिक काल के अन्त से लेकर आगे तक शूद्र जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं, वे आदिवैदिक काल में विद्यमान नहीं थीं।

टीका टिप्पणी

  1. आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84
  2. वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10
  3. जे. म्यूर: ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स’, 2, पृष्ठ 387. म्यूर का विचार है कि यह बताने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि वे आर्यों से भिन्न थे।
  4. ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’ अथर्ववेद, XX, 34. 4.
  5. ऋग्वेद, V. 34.6-‘यशावशं नयति दासमार्य:’
  6. ऋग्वेद, II. 13.8.-‘दासवेशाय चाव:’ सायण ने इसकी टीका दासों के विनाश के रूप में की है, किन्तु वैदिक इंडेक्स, I, 358, इसे दास का नाम मानता है।
  7. ऋग्वेद, II. 11.4; VI. 25.2; और X. 148.2
  8. ऋग्वेद, IV. 28.4
  9. ऋग्वेद, III. 34.9- हत्वी दस्यून प्रार्यं वर्णमावत; अथर्ववेद, XX. 11.9 (पिप्पलाद संस्करण में नहीं)
  10. ऋग्वेद, I, अथर्ववेद XX. 20.4
  11. ऋग्वेद, I. 51.5-6, 103.4; X.95.7, 99.7 में दस्यता शब्द आया है, दस्युधुन शब्द ऋग्वेद, VI. 16.10 में, दस्युहन शब्द ऋग्वेद, X. 47.4 में दस्युहंतम् शब्द ऋग्वेद, IV. 16.15, VIII. 39.8 में आया है और वाजसनेयी संहिता, XI. 34 में उसकी पुनरावृत्ति की गई है। आर्यों और दस्युओं में शत्रुता के कई प्रसंग आए हैं, यथा, ऋग्वेद, V. 7.10, VII. 5.6 आदि। ऋग्वेद, 1.100. 12, VI. 45.24; VIII. 76.11, 77.3 में इंद्र को दस्युहा कहा गया है। इंद्र द्वारा दस्युओं की हत्या के ऐसे ही कई प्रसंग अथर्ववेद III. 10-12; VIII. 8.5, 7; IX. 2.17 और 18; X. 3. 11; XIX. 46.2, XX. 11.6; 21.4, 29.4, 34.10, 37.4, 42.2, 64.3, 78.3 में आए हैं और अग्नि द्वारा दस्युओं की हत्या के प्रसंग अथर्ववेद में I. 7. 1. XI. 1.2 में आए हैं। अथर्ववेद, VI. 32.3 में मन्यु को दस्युहा कहा गया है।
  12. ऋग्वेद, I. 103.3; II. 19.6; IV. 30.20; VI. 20.10, 31.4.
  13. ऋग्वेद, I. 33.13, 53.8; VIII. 17.4.
  14. ऋग्वेद, IV. 30.13; V. 40.6; X. 69.6.
  15. ऋग्वेद, 176.4, 'अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदो हते'.
  16. धनिन:
  17. अक्रतु
  18. ऋग्वेद, I. 33.4.
  19. ऋग्वेद,VI. 47.21.
  20. ऋग्वेद, VIII. 40.6, 'वयं तदस्य सम्भृतं वसु इद्रेण विभजेमहि'.
  21. ऋग्वेद, I. 33.7-8.
  22. हरियाणा में रहने वाली एक जाति
  23. दुग्धोत्पादित वस्तुओं
  24. ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्'
  25. ऋग्वेद, II. 15.4.
  26. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I पृ. 90-91.
  27. ऋग्वेद, X. 86.19; अथर्ववेद, XX. 126.19.
  28. ऋग्वेद, VII. 6.3.
  29. ऋग्वेद, I. 51.8.
  30. इन्द्र को न मानने वाला
  31. ऋग्वेद, I. 133.1; V. 2.3; VII. 1.8.16; X. 27.6; X. 48.7.
  32. ऋग्वेद, IV. 16.9.
  33. अथर्ववेद, II. 14.5.
  34. ताबीज
  35. अथर्ववेद, X. 6.20.
  36. अथर्ववेद, XII. 1.37.
  37. ऋग्वेद, X. 22.8.
  38. पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. पृ. 12.
  39. ऋग्वेद, I. 51.8-9; I. 101.2; I. 175.3; VI. 14.3; IX. 41.2. किन्तु ‘अव्रत’ शब्द का प्रयोग कहीं पर भी दास के लिए नहीं किया गया है।
  40. ऋग्वेद, VIII. 70.11; X. 22.8.
  41. ऋग्वेद, V. 42.9; V. 40.6 में ‘अपव्रत’ शब्द का अर्थ काला माना गया है।
  42. मानुषी प्रजा
  43. असिक्नीविश:
  44. ऋग्वेद, VII. 5.2-3.। गेल्डर का अनुवाद; बी. लाल : ‘एनशियंट इण्डिया’, 9, पृ. 88. राणा घुंडई III. में हड़प्पा संस्कृति का अन्त भीषण अग्निकांड में हुआ।
  45. ऋग्वेद, IX, 41.1-2. ‘ध्नन्त: कृष्णं आप त्वचं....साह्वाम्से दास्युमव्रतम्’.
  46. त्वचमसिक्नीम्
  47. ऋग्वेद, IX. 73.5.
  48. कृष्ण
  49. ऋग्वेद, IV. 16.13. किन्तु गेल्डनर ने इस सन्दर्भ में राक्षस का ज़िक्र नहीं किया है।
  50. ऋग्वेद, I. 130.8.
  51. आर्यविश्
  52. ऋग्वेद, VIII, 96.13-15. ‘अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे धारयतल्वम्, तित्विषाण:; विशो अदेविर्भ्या चरन्तिर् बृहस्पतिना युजेन्द्र: ससाहे’.
  53. कृष्णरूपा: असुरसेना:।
  54. कोसंबी : ‘जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी’, बम्बई, न्यू सीरीज, XXVII, 43.
  55. ऋग्वेद, I. 101.1. ‘य: कृष्णगर्भनिरहन्नृजिश्वाना’.
  56. ऋग्वेद, 20.7. ‘सवृत्रहेन्द्र: कृष्णयोनि: पुरन्दर ओदासीरैर्याद्वि’....सायण की टीका.। किन्तु गेल्डनर का सुझाव है कि दासों में पुर: अंतर्निहित है और कवि गर्भाधान की बात सोचता है।
  57. निकृष्ट जाती:.....आसुरी: सेना:
  58. ऋग्वेद, VIII. 19.36-37.
  59. ऋग्वेद, V. 29.10. सायण अनास की व्याख्या वाणीविहीन (आस्यरहित) के अर्थ में करते हैं।
  60. ऋग्वेद, VII 99.4.
  61. ऋग्वेद, I. 174.2; V. 29.10, 32.8; VII. 6.3, 18.13. चार स्थानों पर नहीं, जैसा कि ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 71 में है।
  62. ऋग्वेद, V. 29.10; VII. 6.3.
  63. ऋग्वेद, I. 174.2.
  64. यह गिनती विश्वबंधु शास्त्री के वैदिक कोश पर आधारित है।
  65. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I, पृष्ठ 8. व्हीलर की राय है कि असभ्य खानाबदोशों (अर्थात् आर्यों) की चढ़ाई के कारण संगठित कृषि बिखर गई, पर अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनक आधार पर कहा जाए कि सैंधव शहरी सभ्यता के लोगों और आर्यों के बीच जमकर लड़ाई हुई।
  66. ऋग्वेद, X 83.1. ‘साह्यम दासमार्यं त्वयायुजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता’, जो अथर्ववेद, IV. 32.1 जैसा ही है।
  67. ऋग्वेद, X. 38.3; देखें अथर्ववेद, XX. 36.10.
  68. ऋग्वेद, VII. 83.1. ‘दासाच वृत्रा हतमार्याणि च सुदासम् इन्द्रावरुणावसावतम्’।
  69. ऋग्वेद, VI. 60.6.
  70. ऋग्वेद, VI. 33.3; ऋग्वेद X. 102.3.
  71. ऋग्वेद, VIII. 24.27. ‘य ऋक्षादंहसो मुचद्योवार्यात् सप्तसिन्धुषु; वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम्;’ गेल्डनर इस परिच्छेद का अर्थ लगाते हैं कि इंद्र ने दासों के अस्त्रों को आर्यों से विमुख कर दिया है।
  72. ऋग्वेद, VI. 33.3; 60.6; VII. 83.1; VIII. 24.27 (विवादास्पद कंडिका); X. 38.3, 69.6, 83.1, 86.19, 102.3. इनमें से चार निर्देशों को अंबेडकर ने सही रूप में उद्धृत किया है। अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़ पृष्ठ 83-4.
  73. वैदिक इंडेक्स, I. , ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’
  74. ऋग्वेद, VII. 33.2-5, 83.8. वास्तविक युद्ध-स्तुति ऋग्वेद, VII. 18 में है।
  75. आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 245.। अन्य आर्यों के प्रति बैरभाव के कारण पुरुओं को ऋग्वेद, XII. 18.13 में मृध्रवाच: कहा गया है।
  76. पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. 11.)
  77. अथर्ववेद, V. 11.3; पैप्पलाद, VIII. 1.3. ‘नमे दासोनार्यों महीत्वा व्रतं मीमाय यदहम् धरिष्ये’।
  78. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.
  79. ऋग्वेद, I. 84.8.
  80. ऋग्वेद, VI. 44.11.
  81. ऋग्वेद, VI. 47.16; जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.)
  82. ऋग्वेद, VIII. 51.9. ‘यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवाधिपा अरि:’ इस अनुच्छेद पर सायण की टिप्पणी में, और वाजसनेयी संहिता, XXXIII. के एक ऐसे ही अनुच्छेद पर उवट तथा महीधर की टिप्पणी में भी दास को ‘आर्य’ का विशेषण माना गया है, किन्तु गेल्डनर (ऋग्वेद, VIII. 51.9) आर्य और दास को दो अलग-अलग संज्ञा मानते हैं। हर हालत में यह स्पष्ट है कि आर्यों का भी विरोध होता था।
  83. ऋग्वेद, X. 69.6. ‘समज्रया पर्वत्या वसूनि दासा वृत्राण्यार्या जिगेथ’
  84. ऋग्वेद, I. 124.10; 182.3; IV. 25.7, 51.3; V. 34.7; VI. 13.3, 53.6-7.
  85. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294.
  86. वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 471.
  87. जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड, लंदन, न्यू सीरीज, II. पृष्ठ 286-294., ऋग्वेद, VIII. 66.10.
  88. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  89. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  90. गीर्समन, ईरान, पृष्ठ 243.
  91. वैदिक इंडेक्स, I. 472.
  92. ऋग्वेद, VIII. 40.6.
  93. ऋग्वेद, III. 34.9.
  94. ऋग्वेद, I. 104.2; III. 34.9. ‘देवासो मन्युं दासस्य श्चमन्ते न आवक्षन्त्सुविताय वर्णम्’
  95. साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्ग्रेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, II. 272.
  96. जन का उल्लेख लगभग 275 बार और विश् का उल्लेख 170 बार हुआ है।
  97. ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, पृष्ठ 99.
  98. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ दी सोशल क्लासेज’, पृष्ठ 230.
  99. चाइल्ड : द मोस्ट एनशिएंट ईस्ट, पृष्ठ 175.
  100. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, (सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I), पृष्ठ 94.
  101. मैके : ‘अर्ली इंडस सिविलिजेशंस’, पृष्ठ XII-XIII.
  102. लाल : ‘एनशिएंट इण्डिया’, सं. 9, पृष्ठ 93.
  103. ऋग्वेद, II. 27.12.
  104. ऋग्वेद, VI. 22.1. ‘यया दासार्न्याणि वृत्र करो वज्रिन्त्सुलूका नाहुषाणि’।
  105. ऋग्वेद, X. 49.3. ‘अहं शूष्णस्य श्नथिता वधर्यमं न यो रर आर्य नाम दस्यवे’।
  106. पार्जिटर : ‘एनशिएंट इण्डियन हिस्टारिकल ट्रेडीशन’, पृष्ठ 306-8.
  107. ड्युमेजिल : ‘फ्लामेन ब्राह्मण’, अध्याय II. और III. एक अन्य निर्देश के लिए देखें, पाल थिमे; (साइटशिफ्ट डेर डोय्वेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, एन. एफ. 27 पृष्ठ 91-129)
  108. ई. जे. रैप्सन : द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, I. 103
  109. डब्ल्यू, रयूबेन : ‘इन्द्राज़ फाइट अगेन्स्ट वृत्र इन द महाभारत’ (एस. के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वॉल्यूम, पृष्ठ 116-8), धर्मानंद कोसंबी, ‘भगवान बुद्ध’, पृष्ठ 24
  110. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXII. 35)
  111. ऋग्वेद I. 117-8. किन्तु सायण ‘श्यावाय’ को ‘कुष्ठरोगेण श्यामवर्णाय’ बताते हैं।
  112. ऋग्वेद, VIII. 85.3-4. ऋग्वेद, VIII. 50.10 में भी कण्व का उल्लेख है।
  113. ऋग्वेद, I. 116-23; ऋग्वेद I. 117.7 । पार्जिटर मानते हैं कि काण्वायन ही वास्तविक ब्राह्मण हैं : डायनेस्टीज़ ऑफ़ द कलि एज, पृष्ठ 35.
  114. ऋग्वेद, I. 158.6. अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़?, पृष्ठ 77.
  115. ‘वैदिक इंडेक्स’, I. 366.। शतपथ ब्राह्मण, XIV. 9.4.15 में एक ऐसी माँ का वर्णन आया है, जो काले रंग के बालक की आकांक्षा रखती है, जिसे वेद का ज्ञान हो।
  116. वैदिक इंडेक्स, I. 363., हिलब्रांट का सुझाव
  117. ऋग्वेद, I. 130.10.
  118. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ एशियाटिक सोसायटी, बम्बई न्यू सीरीज, XXVI. 44.)
  119. मोनियर-विलियम्स : संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी, देखें दास, दाश।
  120. कौषतकि उपनिषद III. 1. वैदिक इंडेक्स में उद्धृत, II. 30.
  121. ऋग्वेद, VIII. 19.36.
  122. अथर्ववेद, XII. 3.13; पैप्पलाद, XVII. 37.3, ‘यद्वा दास्यार्द्रहस्ता समंत उलूखलं मुसलम् शुम्भताप:’।
  123. अथर्ववेद, XII. 4.9; पैप्पलाद. के एक ऐसे ही परिच्छेद XVII. 16.9 में दासी शब्द के स्थान पर देवी लिया गया है।
  124. अथर्ववेद, V. 13.8.
  125. ऋग्वेद, I. 92.8, 158.5 गेल्डनर के अनुवाद के अनुसार।
  126. ऋग्वेद, X. 62.10.
  127. ऋग्वेद, VIII. 56.3.
  128. ऋग्वेद, VII. 86.7.। हिलब्रांट इसे संदिग्ध मानते हैं। उन्होंने ग़लत ढंग से VII. 86.3 में ‘कदाचित’ जोड़ दिया है, जो होना चाहिए VII. 86.7. ‘साइटश्रिफ्ट फ्यूर इंडोलोगिअ उंड ईरोनिस्टिक लाइपत्सिख्’ III. 16.
  129. ऋग्वेद, VIII. 56.3. ‘शतं में गर्दभानां शतमूर्णावतीनां, शत दासा अति स्रज:’ 100 रूढ़ संख्या हो सकती है।
  130. ऋग्वेद, I. 92.8. ‘उषसिआमस्यां यषसंसुवीरं दासप्रवर्ग रयिमश्व बुध्यम्’।
  131. ऋग्वेद, I. 158.5-6.
  132. ऋग्वेद, X. 62.10. ‘उत् दासा परिविधेऽस्मद् दिष्टि गोपरिणसा: यदुस् तुर्वश् च मामहे’।
  133. ऋग्वेद, X. 34.4.
  134. ऋग्वेद, II. 11.4, IV. 28.4 और VI. 25.2; दत्त : ‘स्टडीज़ इन हिन्दू सोशल पालिटी’, पृष्ठ 334, बी.एन. दत्त का विचार है कि ऋग्वेद VI. 25.2 में दासविश् का जो उल्लेख हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि दास को वैश्य कोटि में रखा गया है। किन्तु चूँकि उस समय वैश्य समाज के एक वर्ग के रूप में नहीं थे, इसीलिए यहाँ विश् को एक जनजाति विशेष माना जा सकता है।
  135. ऋग्वेद, VI, I, 357, ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्', जाति और भाषा की दृष्टि से दहे ईरानियों के बहुत निकट रहे होंगे, किन्तु यह बहुत स्पष्ट रूप से प्रमाणित नहीं हो पाया है; वही, त्सिम्मर ने हेरोडोट्स के दआई या दाअई, i. 126 को तूरानियन जनजाति का बताया है।
  136. शेफर : ‘एथनोग्राफ़ी इन एनशिएंट इण्डिया’, पृष्ठ 32, कहा गया है कि सामाजिक स्तर पर दास और आर्य का स्थान दस्यु भीलों से ऊपर था।
  137. स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, जिल्द XXIV, सं. 96, 218 लाल : एनशिएंट इण्डिया, दिल्ली, सं. 9, पृष्ठ 90-91. लाल का कथन है कि दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के पूर्वार्द्ध में शाही टुंप (आधनिक बलूचिस्तान) में और दूसरी सहस्राब्दी ई. पू. के उत्तरार्द्ध में फ़ोर्ट मुनरो (अफ़ग़ानिस्तान) में लोग झुंड के झुंड आए।
  138. वैदिक इंडेक्स, ii, पृष्ठ 255, ऋग्वेद, VI. 44.11, देखें, वर्ण शब्द।
  139. आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, ऋग्वैदिक जातियों के लिये देखें, पृष्ठ 245-248 और वैदिक कालीन जातियों के लिए पृष्ठ 252-262.
  140. शतपथ ब्राह्मण, I. 1.4.11-12.
  141. महाभारत, शान्ति पर्व, 181.15, ‘वर्णश्चत्वार : एते हि येषां ब्राह्मी सरस्वती, विहिता ब्रह्मणा पूर्वा लोभात्वज्ञानतां गत:’।
  142. वेबर, इंडिश स्टुडियेन, II, 94 पाद टिप्पणी
  143. आर.एस. शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 434-5; XXXIX, 418-9).
  144. ऋग्वेद, I. 70.9; V. 1.10; VIII. 100.9.
  145. ऋग्वेद, VII. 6.5; X. 173.6, बलिहृत (कर देना).
  146. वैदिक इंडेक्स, II. 62. त्सिम्मर के विचार।
  147. मैक्समूलर : ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ़ द ईस्ट’, XXXII. 361. ऋग्वेद का अनुवाद, V. 61.8.
  148. वैदिक इंडेक्स, II. 331.
  149. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ द सोशल क्लासेज’,, पृष्ठ 5-12 में दिए गए उदाहरण। उन्होंने पूर्व भारत के नागाओं और कूकियों में वर्गभेद के अभाव का भी उल्लेख किया है (पृष्ठ 11)।
  150. वायु पुराण, I. VIII. 60; देखें, दीघ निकाय, अगञ्ञसुत्त, ‘वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च न तदासन्नसंकर: न लिप्सन्ति हि तेऽन्योन्यन्नानुगृहणन्ति चैव हि’।
  151. कार्ल डार्लिंग : ‘ए डिक्शनरी ऑफ़ सिलेक्टेड सिनोनिम्स इन द प्रिंसिपल इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज’, चर्म (चर्मन् के लिए देखें पृष्ठ 40, बुनाई के लिए पृष्ठ 408, तक्षन् के लिए पृष्ठ 589-90 और वेणीकार के लिए पृष्ठ 621-22; चाइंल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86.)
  152. चाइल्ड : द एरियंस, पृष्ठ 86 और 92.
  153. ऋग्वेद, IV. 35.6, 36.5; VI. 32.1.
  154. अथर्ववेद, III 5.6; ‘ये धीवानो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण: उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वम् सर्वानकृण्वभितो जनान्’। यहाँ ब्लूमफ़ील्ड के अनुवाद का अनुसरण किया गया है। व्हिटने ने ब्लूमफ़ील्ड जैसा ही अनुवाद प्रस्तुत किया है, किन्तु उन्होंने सायण के विचारानुसार उपस्तिन् को प्रजा के अर्थ में लिया है। सायण धीवान: और मनीषिण: को अलग-अलग संज्ञा मानते हैं, जिनका अर्थ मछुआ और बुद्धिजीवी किया गया है। पैप्पलाद. ग्रन्थ में थोड़ा सा पाठभेद है, ‘ये तक्षाणो रथकारा: कर्मारा ये मनीषिण:, सर्वांस तान्पर्ण रंघयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’। III. 13.7.
  155. ‘वेदिक इंडेक्स’, I. पृष्ठ 247; सम्भवत: वह असैनिक और सैनिक, दोनों प्रकार के कार्यों के लिए गाँव का प्रधान था।
  156. अथर्ववेद, III. 5.7.
  157. ऋग्वेद, I. 105.18.
  158. वैदिक इंडेक्स, I. पृष्ठ 297.
  159. ऋग्वेद, VIII. 5.38.
  160. वैदिक इंडेक्स, II. पृष्ठ 265-6.
  161. फिक : ‘द सोशल आर्गेनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इण्डिया’, पृष्ठ 326-7.
  162. पंचविश ब्राह्मण, VI. I. 6-10; वाजसनेयी संहिता, XXXI, 11; तैत्तिरीय आरण्यक, III. 12.5 और 6.
  163. महाभारत, XII. 73.4-8.
  164. वायुपुराण, I. VIII. 155.9; मार्कण्डेय पुराण, अध्याय 49; विष्णु पुराण, I. अध्याय VI.
  165. वसिष्ठ धर्मसूत्र, IV. 2; बौधायन धर्मसूत्र, I. 10. 19. 5-6; देखें आपस्तम्ब धर्मसूत्र, I. 1. 1.7; मनुस्मृति, I. 31; यजुर्वेद III. 126.
  166. ऋग्वेद, X. 90-12.
  167. व्हिटने : ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज’, VIII. पृष्ठ CXLI; VIII. 895-898.
  168. अथर्ववेद, XIX. 6.6.
  169. ऋग्वेद, IX. 112.3.
  170. ओल्डेनबर्ग (साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, 1i. 286.).
  171. अथर्ववेद, XIX. 6.6.
  172. अथर्ववेद, XIX. 32.8; पैप्लाद., XII. 4.8.
  173. अथर्ववेद, XIX. 62.1; पैप्लाद, II. 32.5.
  174. हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज, VIII. 1003; अथर्ववेद के अनुवाद पर व्हिटने की टिप्पणी, XIX. 62.1.
  175. व्हिटने : ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज’, VIII., पृष्ठ 33.
  176. अथर्ववेद, X. 1.3.
  177. व्हिटने : ‘हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज’, VII. पृष्ठ. CLV.
  178. अथर्ववेद, V. 17.9; पैप्लाद. IX. 16.7.
  179. माक्रिण्डल : ‘इनवेजन ऑफ़ इण्डिया’, पृष्ठ 293. एरियन सोगदोई (‘इनवेजन ऑफ़ इण्डिया पृष्ठ 157) का उल्लेख करते हैं, जो ग़लत हो सकता है। मैक्रिण्डल : ‘ऐनशिएंट इण्डिया ऐज डिस्क्राइब्ड बाइ टालमी’, पृष्ठ 317. फिर टालमी ने स्पष्ट लिखा है (VI. 20.3) कि सिद्रोई आर्केसिया के मध्य भाग में रहते थे, जिसके अन्तर्गत पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान का काफ़ी बड़ा हिस्सा पड़ता है, और जिसकी पूर्वी सीमा पर सिंधु है।
  180. एच.सी. रायचौधरी : पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ एनशिएंट इण्डिया, पृष्ठ 255.
  181. ऐतरेय ब्राह्मण, VIII. 21.
  182. हार्वर्ड ओरिएंटल सिरीज, VII. पृष्ठ CXLVIII और CLV.
  183. अथर्ववेद, IV. 20.4, 8; पैप्प. VIII. 6.8. ‘तयाहं सर्व पश्यामि यश्च शूद्र उतार्य:’
  184. अथर्ववेद, V. 11.3.
  185. ऋग्वेद की टीका, II. 12.4.
  186. अथर्ववेद की टीका, IV. 20.4.
  187. अथर्ववेद, V. 22.7 और 8.
  188. मजूमदार और पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 258-9.
  189. महाभारत, VI. 10.66, 46 जहाँ क्रिटिकल एडिशन ऑफ़ महाभारत में अपरान्ता की जगह अशुद्ध पाठ अपरंध्रा है। ‘शूद्राभीराथ दरदा: काश्मीरा पशुभि: सह’।
  190. अथर्ववेद, V. 22.12, 14.
  191. पैप्लाद, XIII. 1.9.
  192. पैप्लाद, II. 29.8-9. पह्लव और बर्बर का भी उल्लेख हुआ है। पैप्लाद, II. 29.15.
  193. महाभारत, VI. 10.65.
  194. महाभारत, VI. 10.66.
  195. महाभारत, VI. 47.7.
  196. महाभारत, II. 47.7 एवं आगे।
  197. पी. बनर्जी : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, पटना, x1i, 160-1).
  198. बुधप्रकाश: जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, पटना, X1, 255, 260-3).
  199. वेबर : साइटिशृफ्ट डेर मेर्गेलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, iv, 301, वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10; रौथ : शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, I, 84.
  200. फिक : ‘द सोशल आर्गेनाइजेशन इन नार्थ ईस्ट इण्डिया’, पृष्ठ 315; कीथ : कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया, I. 86; लैसेन : इण्डिया आल्टरटुम्स्कुंड, II. 174. देखें वेबर, इण्डिया स्टुडियेन, xvii, 85-86 और 255. त्सिम्मर टॉलेमी द्वारा उल्लिखित शूद्रों को ब्राहई से अभिन्न मानते हैं (अल्ट. लेवेन, पृष्ठ 435), किन्तु ऐसे अनुमान का कोई आधार नहीं दिखता है। हॉपकिन्स: रिलिजन्स ऑफ़ इण्डिया, पृष्ठ 548. जे. म्यूर: ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स,2, पृष्ठ 387: मार्कण्डेय पुराण, अनुवाद पृष्ठ 313-14, पार्जिटर का मत है कि शूद्र और आभीर परस्पर सम्मिलित और समबद्ध आदिम जाति के थे।
  201. महाभारत, VI. 10. 45 और 46; 65 और 66; महाभारत के आलोचनात्मक संस्करण VII. 19.7 में शूराभीर पाठ अशुद्ध मालूम पड़ता है। यह शूद्रभरा : होना चाहिए जैसा कि अन्य हस्तलिपियों में पाया जाता है (VII. 19.7 पर पाद टिप्पणी)। पतंजलि आन पाणिनिज़ ग्रामर, I. 2. 72.6; पतंजलि के महाभाष्य में शूद्रों और आभीरों का एक साथ उल्लेख हुआ है।
  202. पी.डी. गुने : भविसयत्तकहा, पृष्ठ 50-51, आभीरोक्ति के प्राचीनतम उदाहरण भरत के नाट्यशास्त्र में मिलते हैं, जो ई. सन की दूसरी या तीसरी शताब्दी की रचना है। ये स्पष्टत: संस्कृत के बहुत निकट हैं।
  203. महाभारत की सूची लगभग उसी रूप में पुराणों में भी आई है, जिसमें शूद्रों को आभीरों, कालतोयकों, अपरांतों, पह्लवों (जिन्हें आलोचनात्मक संस्करण VI. 10.66 में ग़लत रूप में पल्ल्व कहा गया है) और अन्य लोगों के साथ एक जाति के रूप में चित्रित किया गया है। मार्कण्डेय पुराण, अध्याय 57.35-36 और मत्स्य पुराण, अध्याय 113.40. मालूम पड़ता है कि गुप्त काल में शूद्र जनजाति का अपना एक नियत राज्यक्षेत्र था, जिसे विष्णु पुराण (IV. 24.18) में सौराष्ट्र, अवंति और अर्बुद राज्यक्षेत्रों के साथ सूचीबद्ध किया गया है। दीक्षितार ने (गुप्त पालिटी, पृष्ठ 3-4 में) सूर के रूप में जो पाठ प्रस्तुत किया है, उसका कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि ग्रन्थ में शूद्र राज्यक्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख है।
  204. म्यूर : ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स, 2, 355-357.
  205. महाभारत, II. 29.9. ‘शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्’।
  206. महाभारत (कल), IX. 37.1, ‘शूद्रभीरान् प्रति द्वेषाद यत्र नष्टा सरस्वती’।
  207. वैकरनैगेल, इंड्वायरेनिश्चे : सितजुंगबेरिक्टे डेर कोनिग्लिश प्रेसिस्वेन अकैडेमी डेर विसेनशाफ्टेन, 1918, 410-411.
  208. कुद्रोस : लिडेल ऐंड स्काट, ए ग्रीक-इंगलिश लेक्सिकन, i.
  209. वेबर : साइटशृफ्ट डेर डोय्चेन् मेर्गेनलैंडिशेनगेज़ेलशाफ्ट, बर्लिन, iv. 301, वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10; आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84.
  210. स्टुअर्ट पिगाट : एंटिक्विटी, IV. सं. 96, 218.
  211. टी. बरो : द संस्कृत लैंग्वेज, पृष्ठ 31.
  212. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 239.
  213. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 139-42. लैसेन ने इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि प्राचीन राजा सुदास को महाभारत में शूद्र कहा गया है, इंडिश् आल्टर. I. 169.
  214. कोसंबी : जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रायल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई, न्यू सीरीज, XXIII, 45.
  215. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 185-90.
  216. अंबेडकर : हू वेयर द शूद्राज़, पृष्ठ 139.
  217. महाभारत, XII. 60. 38-40.
  218. ऐसे ऋषियों की चर्चा भविष्य पुराण, I. 42.22-26 में की गई है, जिनकी माँ शूद्र वर्ण के किसी-न-किसी वर्ग की समझी जाती थी। यह सूची कई अन्य पुराणों और महाभारत, पृष्ठ 70 में भी दी गई है।
  219. आर.एस.शर्मा : जर्नल ऑफ़ द बिहार रिसर्च सोसायटी, XXXVIII, 435-7; XXXIX, 416-7).
  220. महाभारत, VII. 6.6; देखें 19.7.
  221. वेदान्त सूत्र, 1.3.34, ‘शुगस्य तदनादर श्रवणात् तदाद्रवणत्: सूच्यते’।
  222. छांदोग्य उपनिषद्, IV. 2.3 में राजा के रूप में वर्णित।
  223. शंकर्स कमेंट्री टू वेदान्त सूत्र, 1.3.34.
  224. शंकर्स कमेंट्री टू वेदान्त सूत्र, 1.3.34., शूद्र अवयवार्थ-सम्भावात् रूढ़ार्थस्य चासम्भवात्।
  225. (इण्डियन एण्टीक्वेरी बंबई, 1, i. 137-8).
  226. शुचेर दश्च, II. 19.
  227. इण्डियन एंटीक्वेरी बंबई, 1i. 137-8).
  228. वायु पुराण, I. VIII. 158. ‘शोचन्तंश्च परिचर्यासु ये रता: निस्तेजसो अल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानव्रवीन्तु स:’। भविष्य पुराण, I. 44.23 एवं आगे में कहा गया है कि शूद्रों को इसलिए शूद्र कहा जाता है कि उन्हें वैदिक ज्ञान का महज उच्छिष्ट प्राप्त होता था : ‘ये ते श्रुतेद्रुर्ति प्राप्ता: शूद्रास्तेनेह कीर्तिता:’।
  229. दीघ निकाय, III, 95. ‘सुद्धा त्वेव अक्खरं उपनिब्बतम्’।
  230. देखें शूद्र शब्द, ‘महाव्युत्पत्ति’।
  231. इण्डियन एंटीक्वेरी, बंबई, 1i. 138-9).
  232. सूर्यकान्त : कीकट, फलिगा और पणि, (एस.के. बेल्वल्कर कमेमोरेशन वाल्यूम, पृष्ठ 44).
  233. इण्डियन कल्चर, कलकत्ता, XII, 179, एन.एन. घोष ने ग़लत कहा है कि आर्य और दास के बीच ऐसा प्रतिबंध ऋग्वेद द्वारा प्रमाणित है।
  234. अथर्ववेद, V. 17.8-9.
  235. दत्त : ओरिज़न एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट सिस्टम, पृष्ठ 20 और 62.
  236. आजकल कई यूरोपीय समाजशास्त्री, जैसे लुई दूगो, अपवित्रता ही के कारण वर्ण या जातिप्रथा का उदय मानते हैं, पर किस आर्थिक और सामाजिक परिस्थिति में अपवित्रता की भावना बढ़ी, इस पर विचार करने का कष्ट नहीं करते।
  237. जी.जे.हेल्ड : ‘एथनालॉजी ऑफ़ महाभारत’, पृष्ठ 89-95; बी.एन. दत्त; ‘स्टडीज़ इन इण्डियन सोशल पालिटी’, पृष्ठ 28-30; अम्बेडकर : ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 239.
  238. वैदिक इंडेक्स, II. 265.
  239. लैंटमैन : ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ सोशल इनइक्वेलिटीज़ ऑफ़ दी सोशल क्लासेज’, पृष्ठ 38.