सनातन गोस्वामी और हुसैनशाह

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सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। हुसैनशाह के दरबार में रूप-सनातन किस प्रकार राज-मन्त्री हुए, इस सम्बन्ध में श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने 'सप्त गोस्वामी' ग्रन्थ में लिखा है-"शैशव में सनातन और उनके भाई बाकला से रामकेलि अपने पितामह मुकुन्ददेव के पास ले जाये गये। उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया। मुकुन्ददेव राज दरबार में किसी उच्च पद पर आसीन थे। दरबार में उनका बड़ा सम्मान था। उनके पौत्रों ने अपनी असामान्य प्रतिभा और विद्या-बुद्धि के कारण सबका ध्यान सहज ही आकर्षित किया। कुछ दिन पश्चात् गौड़ में भागीरथी के तीर पर मुकुन्द को परलोक-प्राप्ति हुई (सन् 1483)। उस समय सनातन की आयु 18 वर्ष थी। उसी समय उन्हें पितामह का पद प्राप्त हुआ।[1] यह मत ठीक नहीं लगता। हुसैनशाह गौड़ के सुल्तान हुए 1492 ई. में। इसलिये 1483 ई. में रूप-सनातन का उनके मन्त्री पर पर नियुक्त होना नहीं बनता।

मन्दिरा

कई लेखकों ने इस सम्बन्ध में एक किवदन्ती का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है। हुसैनशाह ने अपने राजमिस्त्री पीरू को एक मन्दिरा-स्तम्भ[2] बनाने का आदेश दिया। जब उसका निर्माण पूरा होने को आया, उसने पीरू के साथ ऊपर चढ़कर उसका निरीक्षण किया। उसे देख वह बहुत प्रसन्न हुआ, पीरू की प्रशंसा की और उसे इनाम देने को कहा। पीरू ने कहा- "जहाँ पनाह, मैं इससे भी और अच्छा बना सकता हूँ।" यह सुन हुसैनशाह को क्रोध आया। उसने कहा- "नमकहराम, जब तू इससे अच्छा बना सकता है, तो क्यों नहीं बनाया? तुझे प्राण दण्ड मिलेगा।" तत्काल उसे मन्दिर के ऊपर से धक्का देने का अपने सिपाही को आदेश दिया। पर वह पहले उसे इनाम देने को कह चुका था, इसलिये मरने के पहले उससे इनाम भी मांगने को कहा। पीरू ने कहा-"मुझे जब मरना ही है तो और इनाम लेकर क्या करूँगा। इस मन्दिरा का नाम मेरे नाम पर 'पीरूसा-मन्दिरा' रख दिया जाय।" हुसैनशाह ने उसे मन्दिरा के ऊपर से गिराकर मरवा दिया, पर मन्दिरा का नाम रख दिया "पीरूसा-मन्दिरा।"

मन्त्री पद

मन्दिरा का शिरावरण अभी नहीं बना था। एक दिन हुसैनशाह हिंगा नामक एक प्यादे को साथ लेकर उसे देखने गया। शिरावरण को अधूरा देख वह बहुत दु:खी हुआ। हिंगा से कहा-"हिंगा, तू मोरगाँय (मोरग्राम) जा।" उसी समय उसका मुरशिद आ गया। उसकी अभ्यर्थना कर उसके साथ वार्तालाप में लग जाने के कारण वह यह न बता सका कि किस कार्य के लिये जाना है। हिंगा भी कुपित गौड़पति से यह पूछने का साहस न कर सका कि वह मोरगाँव किसलिये जाय। बस वह मोरगाँव चला गया। वहाँ विषष्ण मन से इधर-उधर फिरता रहा। सनातन गोस्वामी को जब उसकी दयनीय अवस्था का पता चला, तो उन्होंने उसे कुछ सुदक्ष मिस्त्रयों को साथ ले गौड़ जाने की सलाह दी। वह उन्हें लेकर गौड़ चला गया। हुसैनशाह मिस्त्रियों को देखकर प्रसन्न हुआ। उसे आश्चर्य हुआ कि हिंगा ने बिना बताये उसका अभिप्राय कैसे जान लिया। इस सम्बन्ध में उसे सनातन की कुशाग्र बुद्धि का पता चला। वह पहले भी अपने मुरशिद से रूप-सनातन दोनों भाईयों की प्रशंसा सुन चुका था। उसने तुरन्त उन्हें पालकी में बिठाकर आदर सहित ले आने का अपने कुतवाल केशव क्षत्री को आदेश दिया। उनके आने पर उसने मन्त्री पद स्वीकार कर राज्य-भार ग्रहण करने को कहा। राजाज्ञा उल्लंघन के भीषण परिणाम के भय से उन्हें मन्त्री पद स्वीकार करना पड़ा।[3] श्रीसतीशचन्द्र मिश्र के मत और उपरोक्त किंवदंती में कितना तथ्य है नहीं कहा जा सकता। पर इतना निश्चित है कि सनातन गोस्वामी को मन्त्री पद पर नियुक्त किया गया उनकी असाधारण बुद्धिमत्ता के कारण ही। यह भक्तिरत्नाकर में नरहरि चक्रवर्ती के इस विवरण से स्पष्ट है-

"राजा ने जब शिष्ट लोगों के मुख से सुना कि सनातन और रूप की रंग-रंग में महामन्त्रीत्व भरा है, तो उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग कर उन्हें अपने निकट बुलवाया और राज्य भार उन पर सौंप दिया।"[4]

सनातन गोस्वामी अपने असाधारण व्यक्तित्व, विचक्षणता और कर्मठता के कारण हुसैनशाह के दक्षिण हस्त बन गये। राज्य के शासन और प्रतिरक्षा आदि का कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य हुसैनशाह सनातन गोस्वामी के परामर्श के बिना न करते। उनके अनुज रूप और वल्लभ भी उनके प्रभाव से उच्च राज पद पर नियुक्त कर दिये गये। सनातन को उपाधि दी गयी 'साकर मल्लिक' और रूप को 'दबीर ख़ास'।[5] 'मल्लिक' अरबी के 'मलिक' शब्द उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'राजा'। 'साकर' अरबी के 'सागिर' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है 'छोटा' या 'उप'। 'साकर मल्लिक' का अर्थ है छोटा राजा अर्थात् प्रधानमन्त्री, जिसका राजा के बाद स्थान है। 'दबीर ख़ास' फारसी के 'दबिर-इ-ख़ास' शब्द से उत्पन्न है, जिसका अर्थ है निजस्व-सचिव या प्राइवेट-सेक्रेटरी।

आत्म-ग्लानि

सनातन गोस्वामी की यह मनोवृत्ति उनके वंशगत वैशिष्ठ्य के कारण थी, जो अब तक दबी हुई थी। उनके जटिल राजकार्य के दायित्वपूर्ण भार के कारण। दबी होते हुए भी यह भट्टे की अग्नि की तरह भीतर-भीतर सुलग रही थी। हवा का एक झोंका लगते ही इसे धधककर बाहर आ जाना था। झोंका आया जब हुसैनशाह की सेना ने निर्ममता से उड़ीसा के देव-देवियों की मूर्त्तियों को ध्वंस कर दिया। सनातन से यह न देखा गया। अनुताप की अग्नि उनके अन्तर में धूं-धूंकर जलने लगी। उन्हें अपने आपसे ग्लानि होने लगी। वह प्रधान-मन्त्रीत्व किस काम का, जिसमें अपने वैषयिक वैभव के लिये अपनी आत्मा को विधर्मी राजा के हाथों गिरवीं रख देना पड़े? वह वैभव सुख-सम्पत्ति और मान-सम्मान किस काम का, जिसमें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति को विकास का अवसर न मिले? वह जीवन किस काम का, जिसके आन्तरिक और बाह्य स्वरूपों में दिन और रात के अन्तर को कम करने का कोई उपाय ही न हो? वे इस विषम स्थिति से परित्राण पाने का उपाय खोजने लगे।

मन्त्रीत्व-त्याग और कारागार

इसी बीच हुआ महाप्रभु का रामेकेलि शुभागमन और रूप-सनातन के नवजन्म का शुभारम्भ। उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही उनके कृष्ण-प्रेम में ऐसी बाढ़ आयी कि उनके सभी सांसारिक बन्धनों को छिन्न-भिन्न करती -दबीर ख़ास से प्रभु कहने लगे-अब समझ लो कि तुम्हें प्रेम-भक्ति प्राप्त हो गयी।" इससे पूर्व अर्द्वताचार्य ने दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहा था-

"काय, मन और वचन से मेरा यह आशीर्वाद है कि इन दोनों को प्रेम-भक्ति हो।"[6]

इन पंक्तियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि उपरोक्त पंक्तियों में महाप्रभु ने अद्वैताचार्य के आशीर्वाद के परिणाम स्वरूप केवल सनातन गोस्वामी के प्रेम-भक्ति नाभ करने की बात कही हो। स्पष्ट है कि यहाँ 'दबीर ख़ास' शब्द का प्रयोग दोनों के लिये किया गया है। इससे यह संभव जान पड़ता है कि 'साकर मल्लिक' केवल सनातन की उपाधि रही हो और 'दबीर ख़ास' दोनों को पुकारा जाता रहा है। डॉ. जाना ने जयानन्द के चैतन्यमंगल से निम्न पंक्तियों को उद्धृत करके भी सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दबीर ख़ास दोनों को कहा जाता था-

हेन काले दबीर ख़ास भाइ दुइ जने।

देखिञा चैतन्य चिनिलेन ततक्षणे॥

श्रीकृष्ण चैतन्य रहिलेन कुतूहले।

दबिर ख़ास हुइ भाइ गेला नीलाचले॥

हुई, उन्हें बहा ले गयी कृष्ण-प्रेम के अनन्त अगाध सागर की ओर। महाप्रभु के रामकेलि से जाते ही दोनों भाईयों का सांसारिक जीवन असंभव हो गया। इससे परित्राण पाने के उद्देश्य से उन्हीं दो शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों को बहुत-सा धन देकर उनसे कृष्ण-मन्त्र के दो पुरश्चरण करवाये[7] पुरश्चरण के पश्चात् दोनों ने संसार त्यागकर वृन्दावन जाने का निश्चय किया। सनातन के ऊपर राजकार्य का दायित्व अधिक था। इसलिये दोनों ने आपस में परामर्श कर स्थिर किया कि पहले रूप गुप्त रूप से वृन्दावन की यात्रा करेंगे। फिर कुछ दिन बाद सनातन उनसे वृन्दावन में जा मिलेंगे। पर रूप-सनातन पर आत्मीय स्वजन और आश्रित ब्राह्मण, पंडित साधु-सज्जन आदि के भरण-पोषण का दायित्व भी कम न था। संसार त्याग करने के पूर्व उन्हें उन सबकी समुचित व्यवस्था करनी थी। तदर्थ रूप स्वोपार्जित विपुल धनराशि लेकर फतेहाबाद चले गये। उन्होंने अपने परिवार के लोगों को पहले ही फतेहाबाद और चन्द्रद्वीप भेज दिया था।[8] चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि उन्होंने अपने संचित धन का आधा ब्राह्मण और वैष्णवों में बांट दिया। बाक़ी में से आधा परिवार के लोगों को उनके पोषण के लिये देकर दस हज़ार मुद्रायें एक बनिये के पास सनातन गोस्वामी के ख़र्च के लिये जमा कर दी। जो बचा उसे सज्जन ब्राह्मणों के पास आकस्मिक विपत्तियों के लिये जमा कर दिया। जयानन्द ने चैतन्यमंगल में लिखा है कि इस प्रकार उन्होंने बाइस लाख स्वर्ण मुद्राओं का बँटवारा कर स्वयं वैराग्य वेष धारण कर परमार्थ पथ का अनुसरण किया।

रूप के राजसभा त्यागने के पश्चात् सनातन ने भी राजसभा जाना बन्द कर दिया। हुसैनशाह से कहना भेजा-"मेरा स्वास्थ्य ठीक, नहीं रहता। मैं अब राजकार्य करने के योग्य नहीं हूँ।" हुसैनशाह को संदेह होना स्वाभाविक था। उसने सोचा दबीर ख़ास तो बिना कुछ कहे सुने कहीं चला गया ही है, शाकर मलिक भी भाग निकलने की तैयारी में है। उस समय राज्य के चारों ओर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। ऐसे समय सनातन जैसे कुशल प्रधानमन्त्री का घर बैठे रहना उसे कब अच्छा लग सकता था? उसने तत्काल राजवैद्य को भेजा सनातन की परीक्षा करने। राजवैद्य ने लौटकर सनातन के निरोग होने का संवाद दिया। हुसैनशाह को क्रोध आया। दूसरे दिन वह स्वयं गया सनातन के रामकेलि प्रासाद में उन्हें देखने। उसने देखा उन्हें प्रसन्न मुद्रा में साधु-वैष्णवों के बीच बैठे धर्म-चर्चा करते। भ्रकुटी तानते हुए, उसने कहा-'सनातन! जानते नहीं इस समय राज्य की कैसी परिस्थिति है? ऐसे समय बीमारी का बहाना कर तुम्हारा घर बैठे रहना क्या राज-विद्रोह का सूचक नहीं है? छोड़ो इस पागलपन को और राज्य की बागडोर पूर्ववत् हाथ में लो। नहीं तो राजाज्ञा की अवहेलना का दण्ड भोगने के लिये तैयार रहो।" पर सनातन अपने हृदय-सिंहासन पर गौड़ेश्वर के बदले परमेश्वर को बिठा चुके थे। उन्होंने दृढ़ता के स्वर में उत्तर दिया-

"जहाँ पनाह, मैं अब भगवान् का दास हूँ, और किसी का नहीं। भगवान् की सेवा छोड़कर अब मेरे लिये और किसी की सेवा सम्भव ही नहीं। दरबार का कार्य अब मैं नहीं करूँगां मुझे क्षमा करें।"

हुसैनशाह को अपने प्रधानमन्त्री से अपनी आज्ञा की अवहेलना कब बरदास्त हो सकती थी? उसने तत्काल उन्हें बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया। उड़ीसा के युद्ध में हुसैनशाह का सेनापति हार खाकर लौट आया। इस बार हुसैनशाह ने सव्यं सेना लेकर राजा प्रतापरुद्र का मुक़ाबला करने का निश्चय किया। सनातन जैसे तीक्ष्ण बुद्धि वाले सहायक की आवश्यकता पड़ी। उन्हें कारागार से बुलाकर उसने कहा-

"सनातन! मेरी बात मानो, हट छोड़ दो। अपना दायित्वपूर्ण कार्य फिर से सम्हालो और मेरे साथ उड़ीसा के युद्ध में चलो।"

सनातन ने दो टूक जवाब दिया-

"नहीं, जहाँ पनाह, यह मुझसे नहीं होगा। आपकी सेना मार्ग के सभी देव-मन्दिरों को ध्वंस करती और देव-मूर्तियों को कलुषित करती जायेगी। यह मैं अपने नेत्रों से न देख सकूंगा। मैं इस पापकार्य में साझी न बनूँगा।"

सनातन को फिर कारागार में डाल हुसैनशाह ने ससैन्य उड़ीसा के लिए प्रस्थान किया। सनातन कारागार में पड़े निरन्तर महाप्रभु का चिन्तन करते रहे और उनसे प्रार्थना करते रहे-

"गौर सुन्दर! तुमने रूप पर कृपा की। उसे भव-बन्धन से मुक्त कर दिया मेरे ऊपर कब कृपा करोगे नाथ? तुम्हारे सिवा अब मेरा कौन है, जिसकी कृपा का भरोसा रख प्राण धारण कर सकूं?"

कारागार से मुक्ति

कुछ ही दिन बाद उन्हें मिला रूप का एक गुप्त पत्र। उसमें सांकेतिक भाषा में लिखा था-

"महाप्रभु ने वृन्दावन की यात्रा प्रारम्भ कर दी है। मैं और वल्लभ भी वृन्दावन जा रहे हैं। अमुक बनिये के पास दस हज़ार मुद्रा छोड़े जा रहे हैं। आप उन्हें काराध्यक्ष को उत्कोच में देकर कारागार से मुक्ति पाने का उपाय करें और यथाशीघ्र वृन्दावन चले आयें।[9] सनातन ने ऐसा ही किया। काराध्यक्ष पर उन्होंने पहले अनुग्रह किया था। वह उनका अहसानमन्द था। पर हुसैनशाह का उसे भय था, इसलिये सनातन गोस्वामी को मुक्त करने में असमर्थ था। सनातन गोस्वामी ने उससे कहा-"हुसैनशाह यदि उड़ीसा के युद्ध से जीवित लौट आये, तो उससे कहना-

"सनातन बेड़ी पहने लघुशंका के लिये बाहर गये और गंगा में डूबकर मर गये।" इतना कह, जब उन्होंने मुद्राओं की थैली उसके सामने रखी, उसे लोभ आ गया। उसने बेड़ी काटकर स्वयं उन्हें गंगा के पार पहुँचा दिया।[10][11]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सप्त गोस्वामी, पृ0 67।
  2. उन दिनों प्राय: राजा अपनी राजधानी में एक ऊँचा मीनार बनवाया करते थे, जिस पर चढ़कर वे दूर तक निरीक्षण कर सकते थे। उसे 'मन्दिरा' कहा जाता था।
  3. डॉ. नरेशचन्द्र जाना : छय गोस्वामी, पृ0 25; कृष्णदास बाबा: उज्ज्वल नीलमणी, भूमिका, पृ0 9-11।
  4. "सनातन रूप महामन्त्री सर्वाशेते।
    शुनिलेन राजा शिष्ट लोकेर मुखे ते॥
    गौड़ेर राजा जवन अनेक अधिकार।
    सनातन रूपे आनि दिल राज्य भार॥"(भक्ति रत्नाकर, 1।581-82
  5. कई विद्वानों के मत से दबीर ख़ास सनातन की उपाधि थी और साकर मल्लिक रूप की। पर चैतन्य चरितमृत और चैतन्यभागवत में सनातन की साकर मल्लिक उपाधि के सम्बन्ध में स्पष्ट प्रमाण है।
  6. "कायमनोवचने मोहार एई कथा।
    ए-दुइर प्रेम भक्ति होउक सर्वथा॥"(चैतन्य-भागवत 3।10।261
  7. चैतन्य चरित 2।19।4-5
  8. भक्ति रत्नाकर 1।648-49
  9. चैतन्य चरित 2।19।30-34
  10. चैतन्य चरित 2।20।14
  11. काराध्यक्ष का नाम था, शेख हबू। आज भी गौड़ के इंगलिहार ग्राम में शेख हबू के घर और सनातन के कारागृह के अवशेष विद्यमान हैं। (गौड़ेर इतिहास खण्ड2, पृ0 109।

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