स्वतन्त्र प्रान्तीय राज्य

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भारत में अनेक प्रान्तीय राज्यों की स्थापना भिन्न-भिन्न शासकों के द्वारा की गई। इन शासकों ने अपने समय में कई महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न किया। इन शासकों के द्वारा भारत में स्थापत्य की दृष्टि से अनगिनत इमारतों का निर्माण किया गया। इस समय भारत की राजनीति और इसमें होने वाले परिवर्तनों को सारे संसार के द्वारा बड़ी एकाग्र दृष्टि से देखा जा रहा था। भारत में जो स्वन्त्र राज्य राज कर रहे थे, उनमें से कुछ निम्नलिखित थे-

जौनपुर (आज़ादी से पूर्व)

बनारस के उत्तर पश्चिम में स्थित जौनपुर राज्य की नींव फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने डाली थी। सम्भवतः इस राज्य को फ़िरोज ने अपने भाई 'जौना ख़ाँ' या 'जूना ख़ाँ' (मुहम्मद बिन तुग़लक़) की स्मृति में बसाया था। यह नगर गोमती नदी के किनारे स्थापित किया गया था। 1394 ई. में फ़िरोज तुग़लक़ के पुत्र सुल्तान महमूद ने अपने वज़ीर ख्वाजा जहान को ‘मलिक-उस-शर्क’[1] की उपाधि प्रदान की। उसने दिल्ली पर हुए तैमूर के आक्रमण के कारण व्याप्त अस्थिरता का लाभ उठा कर स्वतन्त्र शर्की राजवंश की नींव डाली। इसने कभी सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। 1399 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसके राज्य की सीमाएँ 'कोल', 'सम्भल' तथा 'रापरी' तक फैली हुई थीं। उसने 'तिरहुत' तथा 'दोआब' के साथ-साथ बिहार पर भी प्रभुत्व स्थापित किया। शर्की वंश के प्रमुख शासकों के नाम इस प्रकार से हैं-

  1. मलिक करनफूल मुबारकशाह
  2. इब्राहिमशाह शर्की
  3. महमूदशाह शर्की
  4. मुहम्मदशाह शर्की
  5. हुसैनशाह शर्की

कश्मीर (आज़ादी से पूर्व)

सुहादेव नामक एक हिन्दू ने 1301 ई. में कश्मीर में हिन्दू राज्य की स्थापना की। सुहादेव के शासन काल में 1320 ई. में मंगोल नेता ने कश्मीर पर आक्रमण कर लूट-पाट की। 1320 ई. में ही तिब्बती सरदार 'रिनचन' ने सुहादेव से कश्मीर को छीन लिया। रिनचन ने शाहमीर नामक एक मुसलमान को अपने पुत्र एवं पत्नी की शिक्षा के लिए नियुक्त किया। रिनचन के बाद 1323 ई. में उदयनदेव सिंहासन पर बैठा, परन्तु 1338 में उदयनदेव के मरने के बाद उसकी विधवा पत्नी 'कोटा' ने शासन सत्ता को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। उचित अवसर प्राप्त कर शाहमीर ने कोटा को उसके अल्पायु बच्चों के साथ क़ैद कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया तथा 1339 ई. में शम्सुद्दीन शाह ने कोटा से विवाह कर इन्द्रकोट में शाहमीर राज्य की स्थापना की।

1342 ई. में शम्सुद्दीन शाह की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र जमशेद सिंहासन पर आरूढ़ हुआ, जिसकी हत्या उसके भाई अलाउद्दीन ने कर दी और सत्ता अपने क़ब्ज़े में कर ली। उसने लगभग 12 वर्ष तक शासन किया। उसने अपने शासन काल में राजधानी को इन्द्रकोट से हटाकर ‘अलाउद्दीन’ (श्रीनगर) में स्थापित की। अलाउद्दीन के बाद उसका भाई शिहाबुद्दीन गद्दी पर बैठा, उसने लगभग 19 वर्ष शासन किया। यह शाहमीर वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उसकी मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन सिंहासन पर बैठा। 1389 ई. में कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका लड़का गद्दी पर बैठा।

सुल्तान सिकन्दर

सिकन्दर के शासन काल 1398 ई. में तैमूर का आक्रमण भारत पर हुआ। सिकन्दर ने तैमूर के कश्मीर आक्रमण को असफल किया। धार्मिक दृष्टि से सिकन्दर असहिष्णु था। उसने अपने शासन काल में हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार किया और सर्वाधिक ब्राह्मणों को सताया। उसने ‘जज़िया’ कर लगाया। हिन्दू मंदिर एवं मूर्तियों को तोड़ने के कारण उसे ‘बुतशिकन’ भी कहा गया है। इतिहासकार जॉन राज ने लिखा है, “सुल्तान अपने सुल्तान के कर्तव्यों को भूल गया और दिन-रात उसे मूर्तियों को नष्ट करने में आनन्द आने लगा। उसने मार्तण्ड, विश्य, इसाना, चक्रवत एवं त्रिपुरेश्वर की मूर्तियों को तोड़ दिया। ऐसा कोई शहर, नहर, गाँव या जंगल शेष न रहा, जहाँ ‘तुरुष्क सूहा’ (सिकन्दर) ने ईश्वर के मंदिर को न तोड़ा हो।” 1413 ई. में सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त अलीशाह सिंहासन पर बैठा। उसके वज़ीर साहूभट्ट ने सिकन्दर की धार्मिक कट्टरता को आगे बढ़ाया।

जैनुल अबादीन

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1420 ई. में अलीशाह का भाई ख़ाँ जैन-उल-अबादी सिंहासन पर बैठा। उसे ‘बुदशाह’ व 'महान सुल्तान' भी कहा जाता था। धार्मिक रूप से आबादीन सिकन्दर के विपरीत सहिष्णु था। इसकी धर्मिक सहिष्णुता के कारण ही इसे ‘कश्मीर का अकबर’ कहा गया।

अबादीन के बाद हाजीख़ाँ ‘हैदरशाह’ की उपाधि से सिंहासन पर बैठा, पर उसके समय में कश्मीर में इस वंश का पतन हो गया। 1540 ई. में मुग़ल बादशाह बाबर का रिश्तेदार 'मिर्ज़ा हैदर दोगलत' गद्दी पर बैठा। उसने 'नाज़ुकशाह' की उपाधि धारण की। 1561 में कश्मीर में चक्कों का शासन हो गया, जिसका अन्त 1588 ई. में अकबर ने किया। इसके बाद कश्मीर मुग़ल साम्राज्य का अंग बन गया।

बंगाल (आज़ादी से पूर्व)

12वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में 'इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार ख़िलजी' ने बंगाल को दिल्ली सल्तनत में मिलाया। बीच में बंगाल के स्वतंत्र होने पर बलबन ने इसे पुनः दिल्ली सल्तनत के अधीन किया। बलबन के उपरान्त उसके पुत्र बुगरा ख़ाँ ने बंगाल को स्वतंत्र घोषित कर लिया। ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने बंगाल को तीन भागों- ‘लखनौती[2], ‘सोनारगांव’ [3] तथा ‘सतगाँव’[4] में विभाजित किया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ के अन्तिम दिनों में फ़खरुद्दीन के विद्रोह के कारण बंगाल एक बार पुनः स्वतंत्र हो गया। 1345 ई. में हाजी इलियास बंगाल के विभाजन को समाप्त कर 'शम्सुद्दीन इलियास शाह' के नाम से बंगाल का शासक बना।

इलियासशाह (1342-1357 ई.)

अपने शासनकाल में इसने 'तिरहुत' तथा उड़ीसा पर आक्रमण कर उसे बंगाल में मिला लिया। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने इलियासशाह के विरुद्ध अभियान किया, किन्तु असफल रहा। उसने सोनारगाँव तथा लखनौती पर भी आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर लिया। 1357 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। इसकी मृत्यु के बाद सिकन्दरशाह शासक बना।

सिकन्दरशाह (1357-1398 ई.)

इसके शासनकाल में फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने बंगाल पर आक्रमण किया, किन्तु असफल रहा। उसने पांडुआ में ‘अदीना मस्जिद’ का निर्माण करवाया।

ग़यासुद्दीन आजमशाह(1389-1409 ई.)

सिकन्दर शाह के बाद अगले शासक के रूप में ग़यासुद्दीन आजमशाह बंगाल का शासक बना। वह अपनी न्याय प्रियता के लिए प्रसिद्ध था। प्रसिद्ध फ़ारसी कवि ‘हाफिज षीरजी’ एवं अनेक विद्धानो से उसका सम्पर्क था। उसने अपने समकालीन चीन के ‘मिगवंश’ के सम्राट 'चुई-ली' से कूटनीतिक सम्बन्ध क़ायम किए। 1409 ई. में चीनी सम्राट ने सुल्तान ग़यासुद्दीन से बौद्ध भिक्षुओं को चीन भेजने का प्रार्थना की थी। 1410 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

1410 ई. में ग़यासुद्दीन की हत्या के बाद उसके कमज़ोर उत्तराधिकारियों को उठाकर एक हिन्दू ज़मींदार राजा गणेश ने 1415 ई. मे बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। फ़ारसी पांडुलिपियों में राजा गणेश को ‘केस’ नाम से जाना जाता है। उसने ‘दनुजमर्दन’ की उपाधि धारण की। 1418 ई. मे उसकी मृत्यु हो गई। इसी वर्ष पाण्डुआ और चटगांव से ‘चण्डी के उपासक महेन्द्रदेव’ नामक राजा द्वारा बंगला-अक्षरांकित सिक्के चलाये गये। सम्भवतः वह गणेश का छोटा बेटा था। राजा गणेश एक हिन्दू शासक था। इसलिए वहाँ के सूफ़ी सन्तों और उलेमाओं ने उसका विरोध किया था। इस अराजकता की स्थिति से निपटने के लिए गणेश के पुत्र जदुसेन को इस्लाम धर्म में दीक्षित कर 'जलालुद्दीन' के नाम से बंगाल का शासक बनाया गया। 1431 ई. में जलालुद्दीन की मृत्यु हो गयी। जलालुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शमसुद्दीन अहमद बंगाल की गद्दी पर बैठा। शमसुद्दीन के शासनकाल में जौनपुर के इब्राहीम शर्की ने बंगाल पर आक्रमण कर दिया। शमसुद्दीन ने 1442 ई. तक शासन किया।

नसीरुद्दीन अबुल मुजफ्फर महमूद (1442-1448 ई.)

इसने बंगाल में 'इलियास शाही राजवंश' की स्थापना की। इसने 1458 ई. तक शासन किया और गौड़ को अपनी राजधानी बनाया।

रूक्नद्दीन बारबक शाह (1459-74 ई.)

रूक्नद्दीन बारबक शाह एक योग्य शासक था। इसने अपने शासन काल में प्रसारवादी नीति अपनाई तथा राज्य की सीमाएँ गंगा नदी के उत्तर में बरनर तथा दक्षिण में जैस्सोर खुलना तक बढ़ाई। इस नीति में उसने अबीसीनियाई सैनिकों की सहायता प्राप्त की 1794 ई. में अबीसीनिया के सेनापति सैफ़ुद्दीन फ़िरोज ने बंगाल की सत्ता पर अधिकार कर लिया। रुक्नुद्दीन बारबक के समय में मालधर बसु ने 'श्रीकृष्ण विजय' नामक ग्रन्थ लिखा। बारबक शाह ने मालधर बसु को गुणराज ख़ान की उपाधि से सम्मानित किया।

अलाउद्दीन हुसैनशाह (1493-1519 ई.)

बंगाल के अमीरों ने 1493 ई. में मुस्लिम सुल्तानों में योग्य अलाउद्दीन हुसैनशाह को बंगाल की गद्दी पर बैठाया। उसने अपनी राजधानी को पांडुआ से गौड़ स्थानान्तरित किया। हिन्दुओ को ऊँचे पदों जैसे- वज़ीर, मुख्य चिकित्सक, मुख्य अंगरक्षक एवं टकसाल के मुख्य अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया। वह एक धर्म निरपेक्ष शासक था। चैतन्य महाप्रभु अलाउद्दीन के समकालीन थे। उसने ‘सत्यपीर’ नामक आन्दोलन की शुरुआत की। उसके समय में बंगाली साहित्य काफ़ी विकसित हुआ। दो विद्वान वैष्णव भाई रूप एवं सनातन उसके प्रमुख अधिकारी थे। अहोमो के सहयोग से सुल्तान कामताराजा को नष्ट किया। हिन्दू लोग उसे कृष्ण अवतार मानते थे। उसने ‘नृपति तिलक’ एवं ‘जगतभूषण’ आदि की उपाधियाँ धारण कीं। 1518 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

नुसरतशाह (1519-1532 ई.)

अलाउद्दीन का पुत्र नसीब ख़ाँ नासिरुद्दीन नुसरत शाह की उपाधि से सिंहासन पर बैठा। उसके समय में ‘महाभारत’ का बांग्ला भाषा में अनुवाद करवाया गया। उसने गौड़ में बड़ा सोना एवं क़दम रसूल मस्जिद का निर्माण करवाया। 1533 ई. में नुसरतशाह की मृत्यु हो गई। इस वंश के अन्तिम शासक ग़यासुद्दीन महमूदशाह को 1538 ई. में शेरशाह ने बंगाल से भगाकर समस्त बंगाल पर अधिकार कर लिया।

मालवा (आज़ादी से पूर्व)

1310 ई. में अलाउद्दीन ने मालवा को अपने अधिकार में कर लिया। फ़िरोज़शाह तुग़लक़ के समय में लगभग 1390 ई. में दिलावर ख़ाँ मालवा का सूबेदार बनाया गया। 1401 ई. में मालवा को स्वतंत्र घोषित कर वह वहाँ का स्वाधीन शासक बना। उसने धार को अपनी राजधानी बनाया। उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। 1405 ई. में दिलावर ख़ाँ की मृत्यु एवं तैमूर के भारत से वापस चले जाने पर दिलावर ख़ाँ का पुत्र अल्प ख़ाँ 'हुशंगशाह' की उपाधि धारण कर 1405 ई. में मालवा का सुल्तान बना।

हुशंगशाह (1408-1468 ई.)

हुशंगशाह ने अपनी राजधानी को धार से मांडू को स्थानान्तरित की। धर्मनिरपेक्ष नीति का पालन करते हुए उसने प्रशासन में अनेक राजपूतों को शामिल किया| नरदेव सोनी (जैन) हुसंगशाह के प्रशासन में ख़ज़ांची था। उसके समय में ‘ललितपुर मंदिर’ का निर्माण किया। हुशंगशाह महान् विद्वान और रहस्यवादी सूफ़ी सन्त शेख़ बुरहानुद्दीन का शिष्य था। 1435 ई. में अलप ख़ाँ की मृत्यु के बाद उरका पुत्र गजनी ख़ाँ मुहम्मदशाह की उपाधि धारण कर गद्दी पर बैठा। उसकी अयोग्यता के कारण इसके वज़ीर महमूद ख़ाँ ने उसे अपदस्थ कर ‘महमूदशाह’ की उपाधि धारण कर और गद्दी पर बैठा।

महमूद ख़िलजी (1436-1468 ई.)

महूदशाह ख़िलजी ने 1436 ई. में मालवा में ख़िलजी वंश की नींव डाली। महमूदशाह एक पराक्रामी शासक था, उसने मेवाड़ के राणा कुम्भा के विरुद्ध अभियान में सफलता का दावा किया तथा मांडु में सात मंज़िला विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया। दूसरी तरफ़ राणा कुम्भा ने अपनी विजय का दावा करते हुए विजय की स्मृति में चित्तौड़ में विजयस्तम्भ का निर्माण करवाया। महमूदशाह ने मांडू में सात मंजिलो वाले महल का निर्माण करवाया। निसन्देह महमूद ख़िलजी मालवा के मुस्लिम शासको में सबसे योग्य था। मिस्र के ख़लीफ़ा ने उसका पद स्वीकार किया। महमूद ख़िलजी ने सुल्तान अबू सईद के यहाँ से आये एक दूतमंडल का स्वागत किया। फ़रिश्ता उसके गुणो की प्रशंसा करते हुए उसे न्यायी एवं प्रजाप्रिय सम्राट बताता है। कोई भी ऐसा वर्ष नहीं बीतता था, जिसमें वह युद्ध नहीं करता रहा हो। फलस्वरूप उसका ख़ैमा उसका घर बन गया तथा युद्धक्षेत्र उसका विश्राम स्थल। उसने व्यापार वाणिज्य की उन्नति के लिए जैन पूँजीपतियों को संरक्षण दिया। माण्डू में एक चिकित्सालय तथा एक आवासीय विद्यालय बनवाया। उसने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार दक्षिड़ में सतपुड़ा, पश्चिम में गुजरात की सीमाओं, पूरब में बुंदेलखण्ड और उत्तर में मेवाड़ एवं बूँदी तक विस्तृत किया। 1469 में महमूदशाह की मृत्यु हो गयी।

ग़यासुद्दीन (1469-1500 ई.)

1469 ई. में महमूदशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र ग़यासुद्दीन गद्दी पर बैठा। 1500 ई. के लगभग ग़यासुद्दीन को उसके पुत्र ने ज़हर देकर मार दिया।

अब्दुल कादिर नासिरुद्दीनशाह (1500-1510 ई.)

ग़यासुद्दीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अब्दुल कादिर नासिरुद्दीनशाह की उपाधि धारण कर मालवा की गद्दी पर बैठा। बुख़ार के कारण 1512 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद इस वंश का अन्तिम शासक 'आजम हुमायूँ', महमूदशाह द्वितीय की उपाधि ग्रहण कर सिंहासन पर बैठा। उसने अमीरों के षडयंत्र से बचने के लिए चन्देरी के राजपूशात सक मेदनी राय को अपना वज़ीर नियुक्त किया। गुजरात के बहादुरशाह ने महमूदशाह द्वितीय को युद्ध में परास्त कर उसकी हत्या कर दी। इसी के साथ 1531 ई. में मालवा का गुजरात में विलय हो गया। अन्तिम रूप से मालवा को मुग़लों ने बाजबहादुर से जीत लिया।

गुजरात (आज़ादी से पूर्व)

गुजरात के शासक राजा कर्ण[5] को पराजित कर अलाउद्दीन ने 1297 ई. में इसे दिल्ली सल्तनत के अन्तर्गत कर लिया। 1391 ई. में मुहम्मदशाह तुग़लक़ द्वारा नियुक्त गुजरात के सूबेदार जफ़र ख़ाँ ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता को त्याग दिया। जफ़र ख़ाँ ‘सुल्तान मुजफ़्फ़र शाह’ की उपाधि ग्रहण कर 1407 ई. में गुजरात का स्वतंत्र सुल्तान बना। उसने मालवा के राजा हुशंगशाह को पराजित कर उसकी राजधानी धार को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। 1411 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

अहमदशाह (1411-1443 ई.)

तातार ख़ाँ का पुत्र अहमद ‘अहमदशाह’ की पदवी ग्रहण कर सिंहासन पर बैठा। उसे गुजरात के स्वतंत्र राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। वह बड़ा ही पराक्रामी एवं योग्य शासक था। उसने अपने शासन काल में मालवा, असीरगढ़ एवं राजपूताना के अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की थीं। अहमदशाह ने असाबल के समीप अहमदनगर नामक नगर की स्थापना की। कालान्तर में उसने अपनी राजधानी को पटना से अहमदनगर स्थानान्तरित किया। 1443 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसने गुजरात में प्रथम बार हिन्दुओ पर जज़िया कर लगाया। प्रशासन के पदों पर दासों को बड़ी मात्रा में नियुक्ति किया। अहमदशाह के काल में मिस्र के प्रसिद्ध विद्वान 'बद्रुद्दीन दामामीनी' गुजरात की यात्रा की। अहमद की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुहम्मदशाह द्वितीय गद्दी पर बैठा। 1451 ई. में मुहम्मद की मृत्यु को गई। लोग मुहम्मदशाह को उसकी दानी प्रवृत्ति के कारण 'जरबख्श' अर्थात् 'स्वर्णदान करने वाला' कहते थे। अपने मृदुल स्वभाव के कारण उसने 'करीम या दयालु' की उपाधि प्राप्त की। फलस्वरूप इसी वर्ष कुतुबुद्दीन अहमद सिंहासन पर बैठा। उसने 1458 ई. तक शासन किया। कुतुबुद्दीन के बाद फ़तह ख़ाँ ‘बुल-फ़तह महमूद’ की उपाधि ग्रहण कर गुजरात का सुल्तान बना। इतिहास में उसका नाम महमूद बेगड़ा के नाम से उल्लिखित है।

सुल्तान महमूद बेगड़ा (1458-1511 ई.)

महमूद को ‘बेगड़ा’ की उपाधि गिरिनार व जूनागढ़ तथा चम्पानेर के क़िलों को जीतने के बाद मिली। वह अपने वंश का सर्वाधिक प्रतापी शासक था। उसने गिरिनार के समीप ‘मुस्तफ़ाबाद’ की स्थापना कर उसे अपनी राजधानी बनाया। चम्पानेर के समीप बेगड़ा ने 'महमूदबाद' की स्थापना की। वह धार्मिक रूप से असहिष्णु था। बेगड़ा ने गुजरात के समुद्र तटों पर बढ़ रहे पुर्तग़ाली प्रभाव को कम करने के लिए मिस्र के शासक से नौ-सेना की सहायता लेकर पुर्तग़ालियो से संघर्ष किया, परन्तु महमूद को सफलता नहीं मिली। संस्कृत का विद्वान 'उदयराज' महमूद बेगड़ा का दरबारी कवि था तथा उसने 'महमूद चरित' नामक काव्य लिखा। बार्थेमा एवं बारबोसा ने महमूद के विषय में अनेक रोचक जानकारी उपलब्ध करायी है। अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में उसने द्वारिका की विजय की। 23 नवम्बर, 1511 को इसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र खलील ख़ाँ मुजफ़्फ़र शाह द्वितीय की पदवी ग्रहण कर सिंहासन पर बैठा। उसका मुख्य संघर्ष मेवाड़ के राणा सांगा से हुआ। उसने मेदनी राय के ख़िलाफ़ मालवा के शासक महमूद ख़िलजी की सहायता की थी। अप्रैल, 1526 ई. में उसकी मृत्यु के बाद बाहदुरशाह (1526 से 1537 ई.) गुजरात के सिंहासन पर बैठा। 1531 ई. में उसने मालवा को जीतकर गुजरात में मिला लिया। इसे उसकी महान् सैनिक उपलब्धि में गिना जाता था। 1534 ई. में उसके द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया गया। 1535 ई. में मुग़ल शासक हुमायूँ ने उसे बुरी तरह पराजित कर गुजरात के बाहर खदेड़ दिया। परन्तु हुमायूँ के वापस होने पर बहादुर शाह ने पुनः गुजरात पर अधिकार कर लिया। 1537 ई. में उसकी हत्या पुर्तग़ालियो द्वारा कर दी गई। 1572-1573 ई. में अकबर ने गुजरात को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया।

मेवाड़ (आज़ादी से पूर्व)

अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई. में मेवाड़ के गुहिलौत राजवंश के शासक रतनसिंह को पराजित कर मेवाड़ को दिल्ली सल्तनत में मिलाया। गुहिलौत वंश की एक शाखा ‘सिसोदिया वंश’ के हम्मीर देव ने मुहम्मद तुग़लक़ के समय में चित्तौड़ को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीर देव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में उसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय दिया। उसके शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मन्दिरों का जीर्णोंद्धार कराया तथा एकलिंग मन्दिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया। उसकी गुजरात शासक के विरुद्ध किये गये अभियान के समय हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में उसकी मृत्यु के बाद राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा।

राणा कुम्भा

कुम्भकरण व राणा कुम्भा के शासन काल में उसका एक रिश्तेदार रानमल काफ़ी शक्तिशाली हो गया। रानमल से ईषर्या करने वाले कुछ राजपूत सरदारों ने उसकी हत्या कर दी। राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मालवा के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक ‘कीर्ति स्तम्भ’ की स्थापना की।

स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्य युग के शासकों में राणा कुम्भा एक महान् शासक था। वह स्वयं विद्वान तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य का ज्ञाता था। उसने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेव कृत ‘गीत गोविन्द’ पर 'रसिक प्रिया' नामक टीका लिखा। उसने कुम्भलगढ़ के नवीन नगर एवं क़िलों में अनेक शानदार इमारतें बनवायीं। उसने अत्री और महेश को अपने दरबार में संरक्षण दिया था। जिन्होंने प्रसिद्ध 'विजय स्तम्भ' की रचना की थी। उसने बसन्तपुर नामक स्थान को पुनः आबाद किया। 1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदय ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदय अधिक दिनो तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उदय के बाद उसका छोटा भाई राजमल (1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'राणा संग्राम सिंह' या राणा सांगा (1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई में खानवा के युद्ध में वह मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में जहाँगीर ने इसे मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। मेवाड़ की स्थापना राठौर वंशी शासक चुन्द ने की थी। जोधपुर की स्थापना चुन्द के पुत्र जोधा ने की थी।

उड़ीसा (आज़ादी से पूर्व)

मुग़ल शासकों द्वारा उड़ीसा पर अधिकार करने से पूर्व वहाँ अनेक क्षेत्रीय राजवंशों का शासन था। यह राज्य गंगा नदी के डेल्टा से लेकर गोदावरी नदी के मुहाने तक फैला था। उड़ीसा को अवन्तिवर्मन चोडगंग ने एक शक्तिशाली राज्य के रूप में संगठित किया था। अवन्तिवर्मन ने 1076 से 1148 ई. तक, लगभग 70 वर्ष तक शासन किया। उड़ीसा पर निम्न तीन वंश के शासकों ने राज्य किया-

  1. पूर्वी गंग वंश
  2. सूर्यवंशी गजपति वंश
  3. भोई वंश

पुर्वी गंग वंश

पूर्वी गंग वंश में जो शासक हुए, उनका विवरण इस प्रकार से है-

  • अनंतवर्मन चोडगंग (1076-1148 ई.) - अनंतवर्मन ने लगभग 70 वर्ष तक शासन किया। उसने एक शक्तिशाली राज्य के रूप में उड़ीसा का संगठन किया। उसने पुरी में जगन्नाथ मंदिर पुरी तथा भुवनेश्वर में लिंगराज मन्दिर का निर्माण करवाया। अपने शासन काल में उसने संस्कृत और तेलुगु भाषा के साहित्य को संरक्षण प्रदान किया।
  • राजराज तृतीय (1197-1211 ई.) - इसके शासन काल में बख्तियार ख़िलजी के दो भाइयों- मोहम्मद और अहमद के नेतृत्व में उड़ीसा पर आक्रमण किया गया।
  • अनंगभीम तृतीय (1211-1238 ई.) - चाटेश्वर अभिलेख से प्राप्त जानकारी के अनुसार अनंगभीम ने ग़यासुद्दीन एवज को पराजित किया था।
  • भानुदेव प्रथम - इसने अपने शासन काल में मुहम्मद तुग़लक़ के आक्रमण का सामना किया।
  • भानुदेव द्वितीय (1352-1378 ई.) - इसके शासन काल में फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने उड़ीसा पर आक्रमण किया था। इसी के काल में जगन्नाथ मन्दिर का विध्वंस किया गया था।
  • भानुदेव तृतीय (1414-1435 ई.) - भानुदेव तृतीय पूर्वी गंग वंश का अन्तिम शासक था।

सूर्यवंशी गजपति वंश

पूर्वी गंग वंश के बाद उड़ीसा में सूर्यवंशी गजपति वंश का शासन आरम्भ हुआ। इस वंश के शासकों में प्रमुख थे-

  • कपिलेन्द्र (1435-1467 ई.) - इसने गजपति वंश की स्थापना की तथा उड़ीसा की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। कपिलेन्द्र ने बीदर के बहमनी शासकों तथा विजयनगर के शासकों से अनेक युद्ध किए। उसका राज्य गंगा नदी से कावेरी नदी तक फैला हुआ था। इसने बंगाल के शासक नासिरूद्दीन को हरा कर 'गौड़ेश्वर' की उपाधि धारण की।
  • पुरुषोत्तम (1467-1497 ई.) - इसका शासन काल पराभव का काल था। इसके शासन काल के दौरान गोदावरी नदी के दक्षिण का आधार भाग उसके राज्य से पृथक् हो गया।
  • प्रतापरुद्र (1497-1540 ई.) - यह उड़ीसा का अन्तिम शक्तिशाली हिन्दू शासक था। इसके शासन काल में राज्य पर विजयनगर के कृष्णदेव राय तथा गोलकुण्डा के कुतुबशाही राज्य ने आक्रमण करके बहुत-सा हिस्सा हथिया लिया था।

भोई वंश

गजपति वंश के बाद उड़ीसा पर भोई वंश का शासन स्थापित हुआ। इस वंश की स्थापना "गोविन्द विद्यासागर" ने की थी। भोई वंश ने उड़ीसा पर 1539 ई. तक राज्य किया। इस वंश का अन्त कर मुकुन्द हरिचन्दन ने नये राजवंश की स्थापना की। अन्ततः 1586 में बंगाल के सुल्तान ने उड़ीसा को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।

कामरूप (आज़ादी से पूर्व)

कामरूप (जिसे अब असम के नाम से जाना जाता है), उस समय 'कामत राज्य' के नाम से प्रसिद्व था। वह पूर्व में अहोम तथा पश्चिम में बंगाल के सुल्तानो द्वारा घिरा हुआ था। 13वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में ब्रह्मपुत्र की घाटी में अनेक स्वतंत्र राज्य थे, जिनमें कामरूप सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था। 15वीं शताब्दी में खेन लोगों ने कामरूप पर अपना अधिकार कर लिया। उसने कूच बिहार के दक्षिण में कुछ मील की दूरी पर स्थित कामतपुर को अपनी राजधानी बनाया।

  • सिंधुराज (1260-85 ई.) - कामरूप पर अहोम की सैनिक गतिविधियो का हमेशा प्रभाव रहा। अहोम राजा सुखांग्फा ने सिंधुराज को पराजित कर उसे अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
  • प्रतापध्वज (1300-1305 ई.) - प्रतापध्वज ने कूटनीति के द्वारा अहोम से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया।
  • दुर्लभ नारायण (1305-1350 ई.) - इसने भी अहोमों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया।
  • अरिमत्ता (1365-1385 ई.) - यह राय पृथु वंश का अन्तिम शासक था। भुयान सरदारों के खेन वंश ने इसकी मृत्यु के बाद राय वंश को उखाड़ फेका।
  • नीलध्वज (1440-1460 ई.) - यह खेन वंश का पहला शासक था।
  • नीलाम्बर (1480-1498 ई.) - यह खेन वंश का सर्वाधिक योग्य शासक था। नीलाम्बर खेन वंश का अंतिम शासक था। 1498 ई. में बंगाल के अलाउद्दीन हुसैनशाह ने नीलाम्बर को पराजित कर स्वंय वहाँ शासक बन गया। इसके साथ ही खेन वंश समाप्त हो गया।

1498 ई. के बाद कामरूप में कोई योग्य शासक नहीं हुआ। 1515 ई. में विषमसिंह कामरूप का शासक बना। वह कूच जाति का था। कूच जाति के महानतम शासक नारायण थे, जिनके शासन काल में राज्य में सुख और समृद्धि का विकास हुआ। इसी काल में शासक और सामन्तो के बीच युद्ध छिड़ जाने के कारण राज्य का दो भागों में विभाजन हो गया- (1) कुच बिहार और (2) कुच हाजो। विभाजन के बाद राज्य में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी, जिसका फ़ायदा अहोमों और मुसलमानों ने उठाया। 1639 ई. में कामरूप के पश्चिमी भाग पर मुसलमानो तथा पूर्वी भाग पर अहोमों का अधिकार हो गया। इन लोगों ने छह सौ वर्षों तक असम में शासन किया।

प्रान्तीय शैलियों का स्थापत्य कला में योगदान

प्रान्तीय शैलियों का स्थापत्य कला में भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। जिसका कुछ विवरण इस प्रकार से है-

जौनपुर

शर्की वंश के लगभग सौ वर्ष के शासन काल में यहाँ पर बहुत सी इमारतों जैसे- महल, मस्जिद, मक़बरों आदि का निर्माण किया गया। शर्की सुल्तानों द्वारा निर्मित इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का सुन्दर मिश्रण दिखाई पड़ता है। शर्की सुल्तानों के निर्माण कार्य अपनी बड़ी-बड़ी ढलुवाँ एवं तिरछी दीवारों, वर्गाकार स्तम्भों, छोटी गैलरियों एवं कोठरियों के कारण काफ़ी प्रसिद्ध हैं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने शर्की शासकों के निर्माण कार्यों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, "जौनपुर के सम्राट कला और विद्या के महान् संरक्षक थे, जिन भवनों का निर्माण इन शासकों ने कराया है, वे उनकी स्थापत्य कला की अभिरुचि के प्रमाण हैं, ये भवन सुदृढ़, प्रभावयुक्त तथा सुन्दर हैं। इनमें हिन्दू-मुस्लिम निर्माण कला शैली के विचारों का वास्तविक एवं प्रारम्भिक समन्वय है"। शर्की सुल्तानों के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्य निम्नलिखित हैं-

स्पष्ट है कि, शर्की शासकों की स्थापत्य कला में हिन्दू और इस्लामी शैलियों का अच्छा समन्वय है। विशाल ढलवा दीवारों, वर्गाकार स्तंभ, छोटे बरामदे और छायादार रास्ते हिन्दू कारीगरों द्वारा निर्मित होने के कारण स्पष्टतः हिन्दू विशेषताएँ हैं। मीनारों का अभाव इस कला की मुख्य विशेषता है। ये मस्जिदे ध्वस्त हिन्दू स्थलो पर बनायी गयी हैं। इनकी रचना शैली मुहम्मद बिन तुग़लक़ द्वारा बनवायी गयी बेगमपुरी मस्जिद (जामा मस्जिद) से बहुत अधिक प्रभावित है।

बंगाल

बंगाल शैली के अन्तर्गत निर्मित अधिकांश इमारतों में पत्थर के स्थान पर ईंट का प्रयोग किया गया है। बंगाली स्थापत्य कला की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

  1. छोटे-छोटे खम्भों पर नुकीली मेहराबें बनवाई गई थीं।
  2. बाँस की इमारतों से ली गयी हिन्दू मन्दिरों की लहरियेदार कार्निसों की परम्परागत शैली का मुसलमानों द्वारा अनुकरण किया गया।
  3. कमल जैसे सुन्दर खुदाई के हिन्दू सजावट के प्रतीक चिह्यें को अपनाया गया।

इस समय में निर्मित कुछ महत्त्वपूर्ण इमारतें निम्नलिखित हैं-

  • पाण्डुआ की अदीना मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण 1364 ई.में सुल्तान सिकन्दरशाह ने करवाया था। इस मस्जिद के नमाज़ अदा करने वाले भवन का मुख्य कक्ष सर्वाधिक अलंकृत है। मस्जिद की पिछली दीवार और उत्तर हाल से सटे वर्गाकार कक्ष में सुल्तान सिकन्दरशाह की क़ब्र है। इस मस्जिद को बंगाल में संसार के आश्चर्यों में गिना जाता है। इस विशाल मस्जिद में हज़ारों लोग एक साथ नमाज़ पढ़ सकते थे।
  • जलालुद्दीन मुहम्मदशाह का मक़बरा- पाण्डुआ में स्थित इस मक़बरे को ‘लक्खी मक़बरे’ के नाम से भी जाना जाता है। हिन्दू भवनों की ईंटो से निर्मित यह मक़बरा एक गुम्बद की वर्गाकार इमारत है। इसमें मेहराब और धरन का बखूबी इस्तेमाल किया गया है।
  • दाख़िल दरवाज़ा गौड़ में स्थित यह दरवाज़ा भारतीय शैली के अन्तर्गत ईंट से निर्मित इमारतों में सर्वोत्कृट माना जाता है। इसका निर्माण 1465 ई. में हुआ। गौड़ में स्थित फ़िरोज मीनीर जिसमे बंगाली शैली के अन्तर्गत नुकीली छत का प्रयोग किया गया है, 5 मंजिलों की 84 फीट ऊँची मीनार है। कुछ अन्य निर्माण कार्य इस प्रकार हैं- गौड़ स्थित ‘छोटा सोना मस्जिद’ (1510 ई.), गौड़ की ‘तान्तीपुरा मस्जिद’ (1475 ई.), बड़ा सोना मस्जिद (1526 ई.), लोटन मस्जिद (1480 ई.), दरसवारी मस्जिद (1480 ई.), क़दम रसूल मस्जिद, ‘चककट्टी मस्जिद’ आदि। छोटा सोना मस्जिद का निर्माण हुसैनशाह के शासन काल में वली मुहम्मद ने कराया था। बड़ा सोना मस्जिद एवं क़दम रसूल मस्जिद का निर्माण कार्य नुसरतशाह द्वारा करवाया गया। चूंकि बंगाल में पत्थर का अभाव था, इसलिए यहाँ कि अधिकांश इमारतों का निर्माण ईंटों से किया गया। यही कारण था कि, इन इमारतों की आयु बहुत कम रही।

मालवा

मालवा पर मुस्लिम शासकों के अधिकार के बाद एक महत्त्वपूर्ण स्थापत्य शैली का जन्म हुआ, जो दिल्ली वास्तुकला से प्रेरित थी। यहाँ पर निर्मित इमारतों में दिल्ली के कारीगरों का उपयोग किया गया था। मालवा वास्तुकला शैली में उनकी ढालदार दीवारें, नुकीले मेहराब, मेहराबों में लिंटर व तोड़ों का प्रयोग (तुग़लक़ परम्परा), गुम्बद व पिरामिड के आकार की छत (लोदी शैली से प्रभावित), ऊँची चौकियों पर निर्मित इमारतें एवं उनके प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए बनाई गई सीढ़ियों की साज-सज्जा में विभिन्न प्रकार के रंग प्रयोग की बहुलता आदि इसकी विशेषता है। रंग-बिरंगे पत्थर, संगमरमर एवं टाइलों के प्रयोग से यहाँ की इमारतें अधिक आकर्षक बन गई हैं। मालवा शैली के अन्तर्गत निर्मित अधिकांश इमारतों का केन्द्र बिन्दु मांडू एवं धार है। मार्शल के अनुसार, ‘मांडू की इमारतें वास्तव में जानदार एवं उद्देश्यपूर्ण हैं और जिन इमारतों से उन्होंने प्रेरणा ग्रहण की है, उन्हीं की तरह रचनात्मक प्रतिभा से परिपूर्ण हैं। उनकी अपनी मौलिकता के कारण उनकी रचना और सजावट की अपनी विशेषता, उनके विभिन्न अंगो का सुन्दर अनुपात अथवा अन्य बारीक काम हैं, जिनका निरूपण करना लाट मस्जिद, दिलावर ख़ाँ मस्जिद एवं मलिक मुगीस मस्जिद आदि कुछ ऐसे निर्माण कार्य हैं। जिनका निर्माण नष्ट किये गये हिन्दू मंदिरो के अवशेषों से किया गया है और जिसमें हिन्दू प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। कमाल मौला मस्जिद का निर्माण धार में 1405 ई. में किया गया। दिलावर ख़ाँ मस्जिद का निर्माण मांडू में 1405 ई. में किया गया। मलिक मुगीस की मस्जिद का निर्माण मांडू में 1442 ई. में किया गया। 150 फुट लम्बी एवं 132 फुट चौड़ी यह मस्जिद एक ऊँचे चबूतरे पर बनाई गई है। इस मस्जिद के विषय में पर्सी ब्राउन का कहना है कि, ‘यह प्रमुख मस्जिद इस युग की भव्य एवं अपने आकार की अद्दभुत रचना है।’

  • मांडू का क़िला- हुशंगशाह द्वारा निर्मित मांडू के क़िले की सर्वाधिक आकर्षक इमारत जामी मस्जिद एवं अशरफ़ी महल है। जामी मस्जिद का निर्माण कार्य 1454 ई. में हुशंगशाह द्वारा प्रारंभ किया गया, किन्तु इसको पूरा कराने का श्रेय महमूद ख़िलजी को है। अशरफ़ी महल का निर्माण 1439-1469 ई. के मध्य महमूद ख़िलजी के द्वारा किया गया। क़िलें में प्रवेश के लिए गया द्वार मेहराबदार है, जिनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दिल्ली दरवाज़ा है। वर्गाकार आकार में बनी मस्जिद की एक भुजा 288 फुट की है। मस्जिद के सामने निर्मित अशरफ़ी महल का निर्माण 1439-1469 ई. के मध्य महमूद ख़िलजी ने कराया था। अशरफ़ी महल में निर्मित कई इमारतों में हुशंगशाह द्वारा निर्मित एक मदरसा भी है।
  • बाज बहादुर एवं रूपमती का महल- इस इमारत का निर्माण सुल्तान नासिरुद्दीन शाह द्वारा 1508-1509 ई. में करवाया गया। यह महल पहाड़ी के ऊपर निर्मित है। इसमें कलात्मकता का अभाव है, दूसरी ओर रूपमती का महल पहाड़ी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। इस महल की छत पर बांसुरीदार गुम्बदों से युक्त खुले मण्डपों का निर्माण रानी रूपमती के निरीक्षण में हुआ था।
  • हुशंगबाद का मक़बरा- जामी मस्जिद के पीछे बने हुशंगशाह के मक़बरे का निर्माण कार्य 1440 ई. में महमूद प्रथम ने पूर्ण कराया। मक़बरे के मेहराबदार प्रवेश मार्ग के दोनो तरफ़ छोटी-छोटी जालीदार पर्देवाली खिड़कियाँ बनी हैं। मक़बरे के ऊपर भद्दा एवं निर्जीव गुम्बद बना है।
  • हिंडोला महल- ‘दरबार हाल’ के नाम से भी जाना जाने वाला यह महल 1425 ई. में ‘हुशंगशाह’ द्वारा बनवाया गया। पर्सी ब्राउन ने हिंडोला महल की प्रशंसा में कहा है कि, ‘भारत की कुछ इमारतें इस आश्चर्यजनक इमारत से अधिक सुन्दर व रचना में अधिक ठोस लगती हैं। इमारत का आकार अंग्रेज़ी के अक्षर 'आई' के समान है, जिसमें नीचे के भाग में मुख्य हाल है एवं दो मंजिले कमरों की कतार उसकी ऊपर की काटने वाली रेखा है।’ अपने बारीक एवं स्वच्छ निर्माण के कारण यह महल अत्यधिक आकर्षक लगता है।
  • जहाज़ महल- ग़यासुद्दीन ख़िलजी के समय में निर्मित यह महल मांडू में स्थित है। यह महल कपूर तालाब एवं मुंजे तालाब के मध्य में स्थित है। तालाब के जल में यह महल जहाज़ की तरह दिखाई देता है। यह जहाज़ महल अपनी मेहराबी दीवारों, छाये हुए मण्डपों एवं सुन्दर तालाबों के कारण मांडू की सुन्दर इमारतों में स्थान रखता है। डॉ.. राधा कुमुद मुखर्जी ने जहाज़ महल एवं हिंडोला महल की प्रशंसा में लिखा है कि, ‘मांडू के हिंडोला महल, जहाज़ महल मध्ययुगीन भारतीय वास्तुकला के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। इनमें इस्लामी प्रभावजन्य संरचनात्मक आधार की भव्यता अति विशालता तथा हिन्दू अलंकरण की सुन्दरता, परिष्कृति व सुक्ष्मता का विवेकपूर्ण समन्वय है।’
  • कुश्क महल- महमूद ख़िलजी प्रथम द्वारा 1445 ई. में निर्मित यह महल चन्देरी के फ़तेहाबाद नामक स्थान पर स्थित है। यह महल सात मंजिलों का है। इसके अतिरिक्त चन्देरी में भी जामी मस्जिद नामक मस्जिद का निर्माण किया गया था।

गुजरात

प्रान्तीय शैलियों में सबसे अधिक विकसित शैली गुजरात की वास्तुकला शैली थी। इस शैली को ‘सर्वाधिक स्थानीय भारतीय शैली’ माना जाता है। डॉ. सरस्वती के अनुसार, ‘इनके अनोखेपन को इस उच्च श्रेणी की विशिष्ट शैली और एक विभिन्न प्रकार की इस्लामिक संरक्षणता की संयुक्त उपज कहकर इसकी सबसे अच्छी व्याख्या की जा सकती है।’ गुजरात शैली में पत्थर की कटाई का काम बड़ी कुशलता से किया जाता था। जहाँ पहले लकड़ी के खम्भे, थोड़े नक़्क़ाशी करके लगये जाते थे, वहाँ पर अब पत्थर का उपयोग होने लगा था। यहाँ पर अहमदशाही वंश के शासकों के संरक्षण में कई महत्त्वपूर्ण इमारतों का निर्माण किया गया। अहमदशाह ने अहमदाबाद की नींव डाली थी।

  • बाबा फ़रीद का मक़बरा- यह प्रसिद्ध सूफ़ी संत 'फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शकर' का मक़बरा है। यह मक़बरा गुजरात की मुस्लिम स्थापत्य शैली का प्रथम उदाहरण है।
  • जामा मस्जिद- इस मस्जिद का निर्माण अहमदशाह ने 1423 ई. में अहमदाबाद में करवाया। इस मस्जिद को गुजरात वास्तुकला शैली का सर्वोत्कृष्ट नमूना माना जाता है। डॉ. वर्गेस ने, जिसने आर्कियालॉजिकल सर्वे आफ़ वेस्टर्न इंडिया की अपनी पाँच जिल्दों में प्राचीन एवं मध्यकालीन वास्तुकला के इतिहास एवं विशेषताओं का पूरा वर्णन किया है, लिखा है कि, ‘‘यह शैली स्वदेशी कला की सारी सुन्दरता तथा परिपूर्णता की उस एश्वर्य के साथ मिलावट थी, जिसकी अपनी कृतियों में ही कमी थी’’। यह एक ऐसे वर्गाकार भू-भाग पर निर्मित है, जिसके चारों ओर 4 खानकाह निर्मित हैं। मस्जिद के मेहराबों मिम्बर में क़रीब 260 खम्भे लगे हैं। मस्जिद के खम्भों एवं गैलरियों पर सघन खुदाई हुई है। पर्सी ब्राउन का मत है कि, ‘पूरे देश में नहीं तो, कम से कम पश्चिमी भारत में यह मस्जिद निर्माण कला का श्रेष्ठतम नमूना है।’ फ़र्ग्युसन ने इस मस्जिद की तुलना रामपुर के राणा कुम्भा के मंदिर से की है। मस्जिद क़िले में प्रवेश के लिए बने चौड़े रास्ते में तीन 37 फुट ऊँचे दरवाज़ों का निर्माण किया गया है।
  • भड़ौच की जामा मस्जिद- 1300 ई. में निर्मित यह मस्जिद हिन्दू मंदिरों के अवशेष से बनाई गई थी।
  • खम्भात की जामा मस्जिद- 1425 ई. में निर्मित इस मस्जिद के पूजागृह की तुलना दिल्ली की कुतुब मस्जिद एवं अजमेर के अढ़ाई दिन के झोपड़े से की जाती है।
  • हिलाल ख़ाँ क़ाज़ी की मस्जिद- ढोलका में स्थित इस मस्जिद का निर्माण 1333 ई. में हुआ। इस मस्जिद में पूर्णतः स्थानीय शैली में दो ऊँची मीनारों का निर्माण हुआ है।
  • टंका मस्जिद- ढोलका में स्थित इस मस्जिद का निर्माण 1361 ई. में किया गया। अलंकृत स्तम्भों वाली इस मस्जिद में हिन्दू शैली की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है।
  • अहमदशाह का मक़बरा- इस मक़बरे का निर्माण जामा मस्जिद के पूर्व में स्थित अहाते में मुहम्मदशाह ने करवाया। इस वर्गाकार इमारत का प्रवेश द्वार दक्षिण भाग में है। मक़बरे के ऊपर बड़े गुम्बद का निर्माण किया गया है। कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण इमारतों में पाटन में स्थित शेख़ फ़रीद का मक़बरा, अहमदाबाद में सैय्यद आलम की मस्जिद, कुतुबुद्दीनशाह की मस्जिद, रानी रूपवती की मस्जिद आदि उल्लेखनीय है।

गुजरात में इस्लामी स्थापत्य कला का गौरवपूर्ण आरंभ महमूद बेगड़ा के सिंहासनारूढ़ (1149-1511 ई.) होने से होता है, जिसने तीन नगरों - चंपानेर, जूनागढ़, और खेदा की स्थापना की। इन स्थानों पर उसने शानदार इमारतें बनवायीं। उसके द्वारा निर्मित इमारतों में चंपानेर की जामी मस्जिद, मनोहर इमारतें आदि हैं। इसके अतिरिक्त सीदी सैय्यद मस्जिद, सैय्यद उस्मान का रोजा मुहम्मद गौस की मस्जिद इत्यादि गुजरात स्थापत्य कला के अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य हैं।

कश्मीर

कश्मीरी स्थापत्य कला के अन्तर्गत स्थानीय शासकों ने हिन्दुओं के प्राचीन परम्परागत पत्थर एवं लकड़ी के प्रयोग को महत्व दिया। यहाँ की वास्तुकला शैली में भी हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला शैली का समन्वय हुआ है। मार्शल के अनुसार, ‘कश्मीर के भवन हिन्दू-मुस्लिम कला के सम्मिश्रण के परिचायक हैं।’’ यहाँ के महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्य हैं- श्रीनगर का ‘मन्दानी का मक़बरा’ जामा मस्जिद, जिसे बुतशिकन सिकन्दर ने बनवाया था। कालान्तर में इसका विस्तार जैनुल अबादीन ने किया। इस मस्जिद को पूर्व मुग़ल शैली का शिक्षाप्रद उदाहरण माना जाता है। शाह हमदानी की मस्जिद पूर्णतः इमारती लकड़ी से निर्मित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पूर्व का स्वामी
  2. उत्तरी बंगाल
  3. पूर्वी बंगाल
  4. दक्षिणी बंगाल
  5. रायकरन