हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता -डॉ. जगदीश गुप्त

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लेखक- डॉ. जगदीश गुप्त

हिन्दी साहित्य जिस प्रदेश में शताब्दियों से रचा जा रहा है उसकी भावनात्मक प्रकृति और भाषिक चेतना प्रारंभ से ही सामासिक एवं समन्वयात्मक रही है। उसका एक प्रमाण तो यही है कि जहां हिन्दीतर प्रदेश अपनी पहचान गुजराती, मराठी, बंगाली प्रादेशिक नामों से कराते हैं। वही वे हिन्दी भाषी लोगों के लिए ‘हिन्दुस्तानी’ शब्द का प्रयोग करते हे। वास्तव में यह सही है कि मध्यदेश के निवासियों ने अपनी अस्मिता का कभी देश के इतर भागों से अलग करके प्रस्तुत नहीं किया। यह भी आकस्मिक नहीं है कि वैदिक काल से आज तक भारतवर्ष की सार्वजनिक चेतना को व्यक्त करने का दायित्व जिस भाषा पर भी आया वह अधिकतर इसी क्षेत्र से संबद्ध रही है। संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश के जो रूप देशव्यापी संपर्क के साधन बने, वे इसी क्षेत्र से संबंधित रहे हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि भारत देश का सांस्कृतिक संतुलन-बिंदु गंगा यमुना की घाटी में विशेषतः केंद्रित रहा है। राम, कृष्ण और बुद्ध जैसे अवतारी पुरुषों की जन्मभूमि तथा काशी, मथुरा, मायापुरी (हरिद्वार), नैमिषारण्य और प्रयाग की पुण्य भूमि देशव्यापी आकर्षण का केन्द्र रही है। ‘मथुरा’ के साथ दक्षिण की ‘मदुरा’ और ‘काशी’ के साथ ‘कांची’ का नाम अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। पद्मनाभरम् के चित्रों में एक ओर विश्वनाथ और दूसरी ओर रामेश्वरम् के शिवलिंग का समरूप आलेखन इस बात का प्रमाण है कि हीनता और श्रेष्ठता से सर्वथा भिन्न, समता का एक व्यापक मनोभाव सदा सम्मानजनक माना गया है। भागवतकार से कावेरी-तटवसी वैष्णवों का जितना आत्मीयतापूर्ण परिचय रहा, उससे कम आत्मीयता वृन्दावन के परिचय की प्रगाढ़ता में नहीं मिलती। इसी वृन्दावन ने नदिया द्वीप के चैतन्य महाप्रभु जुड़ हुए हैं, जिनके व्यक्तित्व में एक ओर गीत गोविन्द की पदावली और दूसरी ओर चंडीदास और विद्यापति के पद ऐसे अभिन्न रूप से संग्रथित हुए हैं कि उन्हें अलग करना संभव प्रतीत नहीं होता। गुजरात के नरसी मेहता और सूरदास तथा मीरा का जितना घनिष्ठ संबंध है उतना साहित्य की सामासिक चेतना के बिना किसी प्रकार कल्पित नही किया जा सकता। महाराष्ट्र के एकनाथ, नामदेव और तुकाराम के पदों में जो ज्ञान, वैराग्य और भक्ति की समन्वित भावना व्यक्त हुई, वह गोरखनाथ, कबीर और नानक की वाणी से जुड़ी दिखाई देती है। नाथों और सिद्धों का साहित्य पूर्वी परंपरा और रासो तथा वीरगाथाओं का साहित्य पश्चिमी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हुए हिन्दी की विशाल चेतना में एकान्वित हो गया है। दोहा, चौपाई तथा अन्य समरूप छंदों ने इसे एक सूत्र में बँधा हुआ है। ‘विनयपत्रिका’ का ‘हरिशंकरी’ पद इसका अन्यतम उदाहरण है। दक्षिण के अनेक वैष्णव आचार्यों ने वृदावन को अपना केंद्र बनाकर भागवत माहात्म्य की उस वृद्धा भक्ति की कथा को सार्थक कर दिया है जो ज्ञान वैराग्य रूपी अपने शाश्वत पुत्रों को लेकर द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी, गुजरात में बूढ़ी हुई किंतु वृंदावन तक आते आते ‘नवीनेव सुरूपिणी’ हो गई। उसी भक्ति का नवोन्मेष हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, जायसी जैसे सांप्रदायिकता रहित उदार एवं उदात्त प्रेम भाव से परिपूर्ण संतों की वाणी हिन्दी साहित्य को दे गया। कश्मीर की समृद्ध काव्यशास्त्रीय परंपरा संस्कृत से होती हुई हिन्दी तक आई और रीति काव्य के रूप में सौदर्यात्मक अभिव्यक्ति से युक्त अद्भुत मुक्तक साहित्य दे गई, जिसने रत्नाकर और उनके बाद मुझ तक अपना प्रभाव जीवंत बनाए रखा। रसखान, रहीम, जायसी जैसे कवियों की रचनाओं को देखकर कहीं यह नहीं लगता कि हिन्दू और मुसलमान के बीच में कभी कोई सांप्रदायिक वैमनस्य रहा हो। रामचरितमानस की प्रशस्ति में लिखा गया रहीम का यह दोहा, जो मानस के गुजराती अनुवादक द्वारा उद्धृत किया गया है, साहित्य के स्तर पर मानवीय एकता का असाधारण उद्घोष करता है।

राचरितमानस विमल, संतन जीवन प्रान।
हिन्दुआन को वेद सम, जवनहि प्रकट क़ुरआन।

यह रहीम का ही साहस था कि मानस जैसे काव्य ग्रंथ पर रीझकर उन्होंने उसे अपने लिए क़ुरआन के समान प्रिय मान लिया। कृष्ण भक्ति और राम भक्ति ने भाषा भेद, जाति भेद, संप्रदाय भेद तथा प्रदेश भेद सबका अतिक्रमण किया है और भक्ति के जिस स्वरूप की स्थापना इन्होंने की, उसमें ऊंच नीच और छुआछूत का कहीं कोई स्थान नहीं है। सूर ने लिखा है-

बड़ी है राम नाम की ओट
बैठत सभा सबै हरि जू की कौन बड़ो को छोट।।

इसी तरह हरिराम व्यास ने लिखाः

भगति में कहाँ जनेऊ जाति।

तुलसी जो भुजा उठाकर इस बात का राम के द्वारा उद्घोष कराते रहे कि राम नाम सबको पावन करने में सक्षम हैः

स्वपच, सबर, खस, जमन जड़, पावन कोल किरात।
राम कहत पावन परम, होत भुवन बिख्यात।

उन्होंने यह भी लिखा हैः

भगतिवन्त अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रान प्रिय अस मम बानी।

प्रारंभ से ही हिन्दी साहित्य ने जिस आदर्श को प्रतिष्ठित किया वह सांस्कृतिक एकता, मानवीय समता तथा सारे संसार को अपने भावनात्मक विस्तार में समेट लेने की, देशव्यापी ही नहीं, विश्वव्यापी सामासिक चेतना से युक्त हो रहा है।
महाराजा छत्रसाल के गुरु महामति प्राणनाथ ने खड़ी बोली हिन्दी में क़ुरआन तथा इतर धर्मग्रंथों के श्रेष्ठ तत्वों का ज्ञान प्रस्तुत करके जो समन्वय किया है वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संस्कारों में प्रकट होकर स्वतंत्रता संग्राम का सशक्त हथियार बना। स्वामी प्राणनाथ के द्वारा ‘ईश्वर अल्ला तेरे नाम’ की भावना कबीर से अधिक प्राणनाथ की देन है। कबीर की तरह ही प्राणनाथ ने भी धर्मों के आडंबरों और संकीर्णताओं की आलोचना भी की।

हिन्दी मुसलमान रे फिरंगी के जाने होदी बोदी जैन अपार।
बादें सों बोध बधारिया करि अगनी उदेकार ।।

श्री नानकदेव द्वारा समर्थित एवं सम्मानित संत वाणियों का संग्रह व्यापक हिन्दी भाषा की विविध छवियों से युक्त गुरु ग्रंथ साहब पहला धर्म ग्रंथ है जिसने हिन्दी को इतना बड़ा गौरव प्रदान किया। रामचरितमानस अवधी की काव्य रचना होकर भी सारे भारत में धर्मग्रंथों की तरह पूजित हुआ दौर आज देश विदेश की अनेकानेक भाषाओं में उसके अनुवाद उपलब्ध हैं। लोकप्रियता की दृष्टि से बाइबिल के बाद मानस का स्थान आता है, किंतु बाइबिल काव्य ग्रंथ नहीं है, जबकि मानस एक अत्यन्त उत्कृष्ट काव्यग्रंथ है। मेरे गुरु भाई स्वर्गीय फादर कामिल बुल्के ने अपने व्यक्तित्व के द्वारा इस विभेद को भावनात्मक स्तर पर मिटा दिया, जिसकी साहित्यिक महत्ता उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और आज भी बढ़ती जा रही है। मारिशस, सूरीनाम आदि देशों में जो भारतीय मूल के लोग गए, वे अपने साथ रामचरितमानस की प्रति और प्रेरणा लेते गए, जो अपराजेय सिद्ध हुई। आज भी ऐसे अनेक देशों में भारत की महत्ता रामचरितमानस के कारण मानी जाती है जिसका गौरव हिन्दी को मिलता है। महामति प्राणनाथ का ‘कलजमस्वरूप’ भी प्रणमी संप्रदाय द्वारा धर्म ग्रंथ के रूप में पूजा जाता है। इसकी प्रसिद्धि उतनी नहीं हुई, किंतु इसके द्वारा भी हिन्दी काव्य का महत्व प्रतिष्ठित हुआ, इसमें कोई संदेह नहीं। अब यह ग्रंथ प्रकाशित होकर सर्वसुलख हो चुका है। गुजरात में जन्मे स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने धार्मिक विचारों को गुजराती में न लिखकर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के नाम से हिन्दी में लिखा। उनके द्वारा प्रविर्तित आर्य समाज के अनुयायियों द्वारा यह भी धर्म ग्रंथ के रूप में पूजा जाता है। उपर्युक्त चारों ग्रंथ अखिल भारतीय प्रभाव रखते हैं और उनकी केन्द्रीय भावना सामासिक संस्कृति को प्रेरणी देती है। हिन्दी का वर्चस्व जिन लोगों के द्वारा बढ़ा वे सभी हिन्दी क्षेत्र के निवासी नहीं थे और न हिन्दी सदा सबकी मातृभाषा ही रही अतएव आज हिन्दी को हिन्दीतर भाषाभाषी लोगों द्वारा पराई भाषा के रूप में देखा जाना राजनीतिक कारणों का ही द्योतक सिद्ध होता है। उसके लिए कोई सांस्कृतिक आधार नहीं है।

भारतेंदु से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य का जो विकास हुआ है, वह भी मूल इस धारा से विच्छिन्न नही है। भारतेंदु हिन्दी में स्वभाषा की चेतना के नए संदर्भ में आदि प्रवर्तक कहे जा सकते हैं क्योंकि उन्होने पहली बार अंग्रेजों की और अंग्रेजी की ग़ुलामी के विरुद्ध देशवासियों को सचेत किया। आज का भारत अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त हो चुका है परंतु अंग्रेजी की ग़ुलामी अभी तक उसे जकड़े हुए हैं। विदेशों के कुत्सिव प्रभाव ने छद्म संस्कृति और झूठी आधुनिकता के मोहन ने तथा भारतीय भाषा के प्रति स्वाभिमान की कमी ने उसे इस विडंबनापूर्ण स्थिति से अभी तक उबरने नहीं दिया है, जबकि वर्षों से हिन्दी राजभाषा का पद दे दिया गया है। बुल्के जी ने ठीक ही कहाथा कि ‘‘भारत में अंग्रेजी ‘बहुरानी’ और हिन्दी ‘नौकरानी’ बनाकर रखी जा रही है।’’ द्विवेदी युग में ‘भारत भारती’ के माध्यम से गुप्त जी ने जिस गहरी राष्ट्रीय भावना के साथ देश के पुनरुद्वार का संकल्प किया था वह आज भी ढूँढने से नहीं मिल रहा है। गाँधीजी ने अंग्रेजों के संदर्भ में रवीन्द्रनाथ के प्रश्नों का स्वमरण करते जो कुछ लिखा था वह आज भी स्मरणीय तथा मननीय हैः ‘‘ कवि सम्राट के बराबर मुझे भी खुली हवा पर श्रद्धा है। मै नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाज़े और खिड़िकियाँ बन्द कर दी जाएँ। मै भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आस पास देश विदेश की संसकृति की हवा बहती रहे। पर मै यह नहीं चाहता कि उस हवा में जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ और मै औंधे मुँह गिर पड़ूँ। मै चाहता हूँ कि हमारे देश के जवान लड़के लड़कियों को साहित्य में रस हो तो वे भले ही दुनिया की दूसरी भाषा की तरह अंग्रेजी भी जी भरकर पढ़ें। फिर मै उनसे आशा रखूँगा कि वे अपने अंग्रेजी पढ़ने के लाभ डॉ. बोस, राय और खुद कवि सम्राट की तरह हिन्दुस्तान को और दुनिया को दें, लेकिन मुझसे यही नहीं बर्दाश्त होगा कि हिन्दुस्तान का एक भी आदमी मातृभाषा को भूल जाए, उसकी हँसी उड़ाए या उससे शर्माए या उसे यह भी लगे कि वह अच्छे से अच्छा विचार अपनी भाषा में नहीं रख सकता।’’ महात्मा जी का चह वक्तव्य राष्ट्रभाषा के बिना देश को गूँगा कहने से कम महत्व नहीं रखता। वस्तुतः आधुनिक हिन्दी साहित्य में परंपरा, प्रयोग और प्रगति का नई कविता, नई कहानी और नई आलोचना आदि के क्षेत्र में, जो समन्वित रूप मिलता है उसका कारण यही सजगता है कि अंग्रेजी भाषा की तरह भारतीय साहित्य की आधुनिकता भी मानसिक ग़ुलामी का कारण न बने। जनवादी चेतना की भी दो धाराएँ मिलती है, एक राहुल और यशपाल की है जिसमें हिन्दी के सांस्कृतिक गौरव की आस्थापूर्ण प्रतिष्ठा है। दूसरी धारा मुल्कराज आनंद और सज्जाद जहीर जैसे लोगों की है, जो अंग्रेजी और उर्दू के आगे हिन्दी को पिछड़़ा हुआ समझते हैं। उन्हें हिन्दी की लोक चेतना और लोक भाषा एवं लोक काव्यरूपों से युक्त प्रकृति की महत्ता, प्रभावशक्ति तथा व्याप्ति पर आस्था नहीं है, जबकि हिन्दी अपनी इन्ही विशेषताओं के कारण उर्दू से कहीं अधिक समृद्ध सिद्ध हुई है। देवनागरी लिपि ने उसे और अधिक व्यापक बनाने में अद्वितीय सहयोग दिया है। स्वर्गीय सुनीति कुमार चटर्जी जैसे भाषाविद् भी हिन्दी के लिए रोमन लिपि की वकालत करने लगे थे। आज हम राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन का आदर के साथ स्मरण करते हैं, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीयता के नाम पर नागरी लिपि के अंकों के बहिष्कार का विरोध किया था। भले ही वे सफल न हुए हों पर उनका दृष्टिकोण सांस्कृतिक स्वाभिमान की दृष्टि से सही था। राजनीतिक समझौते से बनी ‘हिन्दुस्तानी’ जैसी कृत्रिम सिद्ध हुई वैसे ही अंकों की बात भी स्वाभाविक प्रतीत नहीं होती। कलाकार के नाते मै तो इसे असुंदर भी मानता हूँ। हर भाषा और लिपि की एक प्रकृति होती है जिसको विकृत न करना संस्कृति का द्योतक है। सामासिकता और समन्वय के नाम पर राजनीतिक दबावों से भाषा के रूप को विकृत करना हिन्दी की तेजस्विता अंततः कभी स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि उसे अन्य भाषाओं के गौरव और प्रकृति के सम्मान का भी ध्यान है।

राहुल जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 35वें अधिवेशन पर सभापति पद से 1947 में बंबई में जो भाषण दिया था उसमें उन सवालों का सटीक उत्तर दिया गया है जो आज तक राजनीतिक कारणों से बराबर उछाले जाते हैं। उन्होंने लिखा ‘‘हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने के लिए जब कहा जाता है तो कहीं न कहीं से आवाज निकलती हैं कि हिन्दी वाले सारे भारत पर हिन्दी का साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं। यह उनका झूठा प्रचार है और वे हिन्दीतर भाषाभाषियों के मन में यह भाव पैदा करना चाहते हैं कि हिन्दी को संघ भाषा बनाने पर उनकी भाषा का साहित्य और अस्तित्व ही मिट जाएगा, यह विचार सर्वथा निर्मूल है। अपने क्षेत्र में वहाँ की भाषा ही सर्वेसर्वा होगी। इस तरह उड़ीसा, आंध्र, शिमला, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और आसाम में वहाँ की भाषाओं का साहित्यिक और राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में निर्बाध राज्य रहेगा। हिन्दी का काम तो वहाँ ही पड़ेगा जहाँ एक प्रांत दूसरे प्रांत से संबंधित होगा। इसको कौन नहीं स्वीकार करेगा कि बँगला, उड़िया, मराठी, गुजराती, तेलुगु और मलयालम भाषाभाषी जब एक जगह अधिकाधिक मिलेंगे तो उनके आपसी व्यवहार के लिए कोई एक भाषा होनी चाहिए।’ कहना न होगा कि वर्तमान परिस्थिति में हिन्दी के अतिरिक्त अन्य कोई भारतीय भाषा यह कार्य करने में सक्षम नहीं है। राहुल जी ने इतिहास का साक्ष्य देकर इस बात को सिद्ध किया है कि अशोक के समय से हर्ष के समय तक उत्तर भारत में लोक-भाषा की शक्ति के कारण ही राजनीतिक केंद्र सांस्कृतिक केंद्र का गौरव पाते रहे। इसका अर्थ देव-भाषा संस्कृति की अवमानना नहीं है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हिन्दी की परंपरा अंतरप्रांतीय साधु संस्थाओं से जुड़ी है, जो कुंभ के मेले के समय ‘हिन्दी में और सिफ हिन्दी में’ आपस में बातचीत करते हैं। उन्होंने ये भी कहा कि इसका गांधीजी के दक्षिण में हिन्दी भाषा प्रचार से कोई संबंध नहीं है। हमारी आज की हिन्दी संस्थाओं में सदियों पहले यह काम हो रहा है। उन्हीं अखाड़ों के एक प्रतिनिधि अतिकेचनगिरि ने संवत् 1866 में सोवियत के बाकू नगर के पास ज्वाला जी के मन्दिर पर जो शिलालेख खुदवाकर लगाया वह खड़ी बोली हिन्दी में है। राहुल जी ने साधुओं के अखाड़ों की ऐतिहासिक महत्ता को राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही स्तरों पर महत्वपूर्ण माना है। उनका कहना है कि साहित्य स्तर पर भी उनका योगदान उपेक्षणीय नहीं है यह कहना भ्रामक है कि हिन्दी के पक्षधर केवल उत्तर भारतीय रहे हैं और हिन्दी वालों ने अपनी भाषा और साहित्य को असाधारण महत्व दिया है। दक्षिण भारतीय लोगों से उसे मनवाने का दुराग्रह कर रहे हैं। वस्तु सत्य यह है कि जिस तरह हिन्दी मध्यदेश से उद्भूत होकर पूर्व और पश्चिम में फैली उसी तरह उसकी व्याप्ति उत्तर और दक्षिण में भी हुई। यह बात दूसरी है कि कहीं कुछ अधिक हुई तो और कहीं कम। इसका एक प्रमुख कारण तो यही है कि दक्षिण की भाषाएँ आर्येतर भाषा समूह से संबंधित हैं और उनकी आन्तरिक संरचना संस्कृत और उसकी अनुवर्ती एवं उससे प्रभावित भाषाओं से भिन्न है। यह बात मानते हुए भी इस तथ्य की अपेक्षा करना उचित नहीं है कि संस्कृत शब्दावली की प्रचुरता तमिल को छोड़कर शेष दक्षिण भाषाओं में पर्यापत मात्रा में मिलती है। तेलुगु में तो वह सर्वाधिक है। हिन्दी के साहित्यिक रूप में तत्सम शब्दावली की प्रचुरता इसीलिए स्वाभाविक लगती है कि अखिल भारतीय स्तर पर बँगला, मराठी, गुजराती और तेलुगु से उसका अधिक साहचर्य सिद्ध होता है। तमिल के भक्ति साहित्य से हिन्दी साहित्य सीधे तो नहीं किंतु अनुवादों के माध्यम सेअवश्य प्रभावित हुआ। कुछ तमिलभाषियों ने स्वयं हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया, इसमें भी संदेह नहीं। मलयालम के साहित्य में त्रावनकोर के जनप्रिय कविराज स्वातितिरुनाल (जन्म 1813 ई.) में हिन्दी में अनेक मौलिक कविताओं तथा नाटकों की रचना की। वे मराठी तथा अन्य भारतीय भाषा के ज्ञाता थे और भारतेंदु के अग्रणी थे, यह ऐतिहासिक सत्य है - सुदूर दक्षिण साहित्य के सृजन का यह प्रमाण दक्खिनी हिन्दी से कम महत्वपूर्ण नहीं कहा जा सकता। केरलियों को हिन्दी को देन’ नामक पुस्तक के तीसरे अध्याय में जी. गोपीनाथन ने इसका विस्तार से वर्णन किया। तमिल के महान् साहित्यकार सुब्रहमण्यम भारती ने भारतेंदु की तरह राष्ट्रीय चेतना से युक्त अनेक रचनाएँ की और हिन्दी में भी उनकी गति थी। हिन्दी साहित्य में देश का संपूर्ण स्वरूप भौगोलिक स्तर पर प्रतिबिंबित होता, इसके अनेक प्रमाण हैं। रामचरितमानस रामेश्वरम् का स्मरण करता है। पद्माकर पंडितराज जगन्नाथ की तरह तैलंग ब्राह्मण थे अपनी कविता में मीनागढ़, बंबई और कलकत्ते से लेकर मंदराज (मद्रास) तक फिरंगियों की फौज को पराभूत देखना चाहते थे। भूषण शिवाजी के यश के विस्तार का वर्णन करते हुए कहते हैं, “कर्नाटक लौं सबदेश बिगूँजे।” हिन्दी के अन्य सेवी सेठ गोविन्ददास ने 1965 में अपने विशेष हिन्दी सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में इस बात को स्पष्ट किया है। दक्षिण में सभी अंग्रेजी के पक्षपाती नहीं है। उन्होंने इसका उदाहरण दिया है कि दक्षिण में भी देव भाषा की चेतना है और अंग्रेजी का विरोध करने वाले तेजस्वी पुरुष है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के दीक्षांत समारोह के अवसर पर डॉ. मोटूरि सत्यनारायण ने हिन्दी का जितने बल के साथ सामना किया वह अनेक हिन्दी भाषियों के लिए भी प्रेरक कहा जा सकता है। वे सार्वदेशिकता एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक रूप में हिन्दी की दस भूमिकाएँ मानते हैं - प्रदेशिकता, राष्ट्रीयता, प्रशासनिकता, सार्वदेशिकता, जनपदीयता, अंतप्रदिशिकता, सांस्कृतिक सामासिकता, अंतर्राष्ट्रीयता, भारतीयता, सांस्कृतिक प्रतीकात्मका तथा अंतर्राष्ट्रीय माध्यम होने की भूमिका द्वारा उन्हें अभिहित किया जा सकता है। डॉ. शंकरराजू नायडू ‘कब रामायण’ और ‘रामचरितमानस’ की तुलना करके इस बात के अनेक प्रमाण पस्तुत करते हैं कि तुलसी पर कंबन का निश्चित प्रभाव पड़ है। निराला की महाकाव्योपमा कविता नाम की शक्ति-पूजा कृत्तिवास की बँगला रामायण से अनुप्रेरित है यह बात सुविज्ञात है। वस्तुतः साहित्य और संस्कृति को खंडित रूप में आकलित नहीं किया जा सकता। लिपि में भेद के कारण भारतीय साहित्य में जो अलगाव अभी भी बना हुआ है वह धीरे-धीरे मिटता जा रहा है। ऐसी अनेक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं जिनमें विभिन्न भारतीय भाषाओं का साहित्य देवनागरी लिपि में लिया जाता है और हिन्दी में उसका अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है। यह कार्य बड़े पैमाने पर होना चाहिए, भारतीय साहित्य को भाषा-भेद से ऊपर उठाकर एकात्मक रूप में देखना वस्तुतः यथार्थ दृष्टि परिचायक कहा जाएगा। मैंने गुजराती और ब्रजभाषा कृष्ण-काव्य का तुलनात्मक अध्ययन करके यह पाया कि लिपि और भाषा का अंतर उतना बड़ा नहीं है, जितना सांस्कृतिक एकता का भाव। समस्य भारतीय साहित्य में जितनी उदात भावनाएँ और जितनी मानवीय संवेदनाएँ व्यक्त हुई है वे विदेशी साहित्य से तुलना करने पर अलग पहचानी जा सकती हैं। भारतीय साहित्य की यह बहुआयामी एकता हिन्दी की सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता का मूल आधार है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
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