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हिन्दी के विकास में भोजपुरी का योगदान -डॉ. उदयनारायण तिवारी

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लेखक- डॉ. उदयनारायण तिवारी

          वास्तव में व्यक्ति-बोली तथा बोली का समाजीकरण ही भाषा है। भाषा के भी कई स्तर होते हैं। इनमें से एक को साधु तथा मानक की संज्ञा प्राप्त होती है। यही भाषा शिष्टजनों द्वारा व्यवहृत होती है। प्राचीनकाल में मानक रूप संस्कृत का व्यवहार संपूर्ण भारत में था किंतु इसमें आर्यावर्त्त तथा मध्यदेश की भाषा ही शिष्ट भाषा के रूप में व्यवहृत होती थी। आज उसी मध्यदेश की भाषा हिन्दी संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा बन गई है। एक विशाल भू-भाग की भाषा बन जाने के कारण हिन्दी में स्वाभाविक रीति से बंगला, गुजराती, मराठी, उड़िया, असमिया, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ एवं मलयालम के अनुवाद रूप में मुहावरे एवं बहुप्रचलित शब्द अपने आप आ जाएँगे। आज अंग्रेजी के अनेक मुहावरों के अनुवाद हिन्दी में आ गए हैं। प्रेमचंद जैसे सशक्त लेखक ने एक स्थान पर लिखा है-'मैं फावड़े को फावड़ा कहूँगा।' यह अंग्रेजी के मुहावरों 'आइ विल काल ए स्पेड ए स्पेड' का स्पष्ट अनुवाद है। उर्दू-फ़ारसी के मुहावरे न मालूम कितने दिनों से हिन्दी में आ रहे हैं। अब पहाड़ी, राजस्थानी, मैथिली, मगही एवं भोजपुरी के समर्थ लेखकों द्वारा वहाँ के स्थानीय शब्द एवं मुहावरे प्रयोग में आएँगे और उन्हें रोका नहीं जा सकता। राहुल सांकृत्यायन एवं रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे लेखकों ने पोरषा, अगवाह, लाल-भभुक्का, तियन, मुरेठा एवं भोर जैसे स्थानीय एवं आंचलिक शब्दों का प्रयोग अपनी कृतियों में किया है।
          इसी क्रम में डॉ. कृष्णविहारी मिश्र का नामोल्लेख यहाँ आवश्यक है। आप पूर्वाचल स्थित बलिया संभाग के बलिहार गाँव के निवासी हैं। आपके गाँव के पास गंगा नदी बड़े वेग से प्रवाहित होती है। आप की कृति 'बेहया का जंगल' आपके ग्यारह ललित निबंधों का संग्रह है। 'बेहया' एक प्रकार की झाड़ीदार वनस्पति है जो पूर्वांलय के गाँवों में मिलती है। 'हया' अरबी-फ़ारसी का शब्द है जिसका अर्थ है, 'अज्जा'। 'बेहया' का अर्थ है, 'अज्जारहित', 'निर्लज्ज' या 'बेशर्म'। चूँकि यह वनस्पति थोड़े ही समय में चारों ओर परम कर फैल जाती है अत: उसे 'बेहया' नाम से अभिहित किया जाता है।

          डॉ. मिश्र की यह कृति नवंबर सन् 1981ई. में कलकत्ते से प्रकाशित हुई है। डॉ. मिश्र के इन ललित निबंधों की यह विशेषता है कि इसमें आपने खुलकर खाँटी भोजपुरी संज्ञा, नाम धातु, क्रियापदों एवं कृदंतों का प्रयोग किया है। 'भोजपुरी' पश्चिमी मागधी अपभ्रंश से प्रसूत भाषा है जो पश्चिमी मागधी अपभ्रंश से प्रसूत भाषा है जो पश्चिमी बिहार तथा उत्तर प्रदेश की दो कमिश्नरियों- गोरखपुर एवं वाराणसी में प्रचलित है। इसके बोलने वालों की संख्या साढ़े चार करोड़ है। यह इस अर्थ में अंतर्राष्ट्रीय भाषा है कि भारत के बाहर यह मारिशस, ट्रिनीडाड, गयाना, सूरीनाम एवं जमैदा में भी बोली जाती है। भोजपुरी-क्षेत्र में शिक्षा की माध्यम भाषा, हिन्दी है किंतु घरों में भोजपुरी ही व्यवहृत होती है। डॉ. मिश्र ने अपने इन निबंधों में साधु हिन्दी का भी प्रयोग किया है। किंतु बीच बीच में आपने खांटी भोजपुरी शब्दों का भी प्रयोग किया है। नीचे डॉ. मिश्र द्वारा प्रयुक्त भोजपुरी शब्द संदर्भ सहित दिए जाते हैं ताकि उनके आशय स्पष्ट हो सके। भोजपुरी शब्दों का साधु हिन्दी मे अर्थ देना कठिन काम है किंतु उनकी व्याख्या देने का मैंंने यहां प्रयत्न किया है:
          ‘कटान’ और ‘ढाही’ ये दोनों शब्द भोजपुरी के हैं। जिन क्षत्रों में गंगा की बाढ़ आती है वहां गांव के गांव कट कर गंगा में बह जाते हैं। इसी प्राकृतिक क्रिया-व्यापार से कटान शब्द का निर्माण हुआ है। इसी प्रकार गंगा के तट की जमीनें बाढ़ के दिनों में धीरे धीरे ढहती जातीं हैं और खेत के खेत ढाही की चपेट में आ जाते हैं। इसे भोजपुरी प्रदेश में ढाही कहते हैं।
          एक स्थान पर लेखक ने ढाही का प्रयोग व्यंजनात्मक रूप में किया है। आप लिखते हैं -‘मूल्यों में भंकर ढाही शुरू हो गई है’ लेकिन इस गिरावट शब्द से ढाही का अर्थ स्पष्ट नहीं होता क्योंकि गिरावट अमूर्त व्यापार है। जबकि ढाही मूर्त एवं प्रत्यक्ष व्यापार है।
          बेजाँय शब्द फारसी ‘बेजा’ से बना है। उदाहरण है- ‘महाराजा जहां पाप की बाढ़ में सारा जवार डूब गया है वहां गंगा जी का इतना उब होना बेजाँय क्या है?

टोकना- यह शब्द भोजपुरी है जिसका अर्थ है यकायक बोल पड़ना। उदाहरण- एक अधेड़ यात्री ने टोका।
भाखना- बुरे भाव से कहना। उदाहरण- पंडित जी यही भाखते हैं।
लहकना- लहलहा उठना। उदाहरण- यह बिना तप और साधना के लहकने वाली वनस्पति है।
जवार - इलाक़ा। इस संदर्भ में निम्नलिखित तीन मुहावरे भी दृष्टव्य हैं।
1-आंख की पुतली जुडा़ना (ठंडी करना)
2-दिन भर की खटनी (परिश्रम) के बाद घर पहुंचना।
3- आगे पीछे ताकना (देखना)।

बात करने के अर्थ में नाम धातु का प्रयोग बतियाना। उदाहरण- उनसे बतियाने मे सुख मिलता है।
दो और मुहावरे उल्लेखनीय हैं।
1- पसेरी भर का मुंह लटकाये रहते हैं। हिन्दी में इसका अनुवाद होगा- अपना भारी भरकम मुंह लटकाये रहते हैं।
2- मुंह विराना - का अर्थ है चिढ़ाना लेकिन चिढ़ाना शब्द क्रिया रूप है।

तपना - अर्थ है प्रभाव, बढ़ना उदाहरण- ‘जस जस कलि (कलियुग) तप रहा है।
लंगोटा का पक्का - पूर्ण ब्रह्मचर्य, उदाहरण- ‘पहले के लोग लंगोटे के पक्के होते थे।
भरभराना- अर्थ है फड़फड़ाना। उदाहरण- ‘कप्तान साहब की सफेद दाड़ी भरभरा जाती है।’
खेत पर चढ़ जाना - अर्थ है, क़ब्ज़ा कर लेना। उदाहरण- वह लाला वाले खेत पर अकेले चढ़ गया था।
कुलबोरन लाग देह और जान के फेर में रहते हैं। कुल को डुबोने वाला प्राण के चक्कर में रहता है।

इसी संदर्भ में निम्नलिखित वाक्य भी दृष्टव्य है। ‘जब जइसन तब तइसन इहे ना बूझल से मरद् कइसन? हिन्दी: जब जैसा तब तैसा यह न समझे तो मर्द कैसा?
टाॅसी - सुरीलीतान। उनकी टाॅसी से सरहे गूंजती है और राह कटती है।
मुंह जाबना- मुंह बंद करना। जाब एक प्रकार की रस्सी से बना जाल होता है जिसे जानवर के मुंह पर लगाते हैं ताकि कुछ खा न सके। उनका मुंह जाबते हैं।
झांझार- जो घना न हो। तब सघन बारी में दापहर को डर लगता था, अब कितनी झांझर हो गई है।
अगोरना- रखवाली करना। दिनरात अगोरती रहती थी।
भकसावन - डरावना। मकान में चिरई का पूत नहीं है, बड़ा भकसावन लगता है।
मटकी मारना- आंखों से इशारा करना। लड़के मटकी मारते हैं।
बांव - वयर्थ। वह बांव नहीं जाएगा।
न रुचना- न पसन्द आना। रुखर भाषा लागों को रुचती नहीं है।
रुखर - रुक्ष कठोर। रुखर भाषा लोगों को रुचती नहीं है।
कलम रेहन रखना: कलम गिरवी रखना। ऐसा न होता तो बुद्धि के देवता राजसत्ता के सामने अपनी कलम रेहन रखकर सुखी बन जाते।
लुत्ती - चिंगारी। शायद राख के भीतर कोई लुत्ती मिल जाए।
अन्ते - अन्यत्र। गांव के मूल बाशिन्दे कहीं अन्ते चले गए।
अगराना - प्रसन्न होना। अगराकर मौसा हम लोगों का दांत, पीसते दौड़ते थे।
उतान - अभिमान करना। जहां उतान हुए कि गांव की नई आबोहवा शहर की राह पकड़ने को मजबूर कर देगी।
धकियाना - बाहर निकाल देना। उद्वव के ज्ञान गुमाान को धकिया दिया था।
हाथ भांजना- लड़ने को तैयार। उसके विरुद्ध हाथ भांजता रहता है।
मेहराना- ठंडा पड़ना। उदास बयार बही नहीं कि मेरा मन मेहरा जाता है।
यह उल्लेखनीय है कि भाषा में दो तत्व होते हैं
(1) व्यक्त विचार (कंटेंट)
(2) भाषा (अभिव्यक्ति)।
ये दोनों एक दूसरे से संयुक्त रहते हैं। व्यक्त विचारों को संवहन करने वाली भाषा ही होती है। भाषा ही सार्थक ध्वनियों के माध्यम से विचारों को श्रोता या पाठक तक पहुचाती है। विचारों को ग्रहण करना श्रोता या पाठक की भाषिक क्षमता पर निर्भर करता है।
          ऊपर डॉ. मिश्र के ललित निबंधों की भाषा का ससंदर्भ विश्लेषण किया गया है क्योेंकि संदर्भ के अभाव में भाषा के अर्थ का ज्ञान नहीं होता। मिश्र द्वारा प्रयुक्त ऊपर के भोजपुरी शब्दों, पदबंधों एवं मुहावरों को हिन्दी से परिचित भोजपुरी भाषी शत प्रतिशत समझ लेंगे किंतु खड़ी बोली (हिन्दुस्तानी), ब्रज, कन्नौजी एवं बुंदेलखंडी भाषियों को इन्हें समझनें मे कठिनाई होगी। इनका भाव भारतीय समुद्र (इंडियन ओशेन) के मरीशस, गयाना, त्रिनिडाड एवं जमैका द्वीपों के हिन्दी से परिचित भोजपुरी भाषी सहजरूप से हृदयंगम कर लेंगे किंतु पंजाब, दिल्ली, मेरठ, बुलन्दशहर, फ़र्रुख़ाबाद तथा कानपुर के निवासियों के लिये इन्हें पूर्णतयः समझना कठिन होगा। हिन्दीभाषियों के लिए भोजपुरी के ये सभी शब्द, मुहावरे एवं पदबंध तभी ग्राह्य होंगे जब हिन्दी समाज इन्हें पूर्णतयः स्वीकार कर लेगा।
          पड़ोस तथा भारत की अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण कर हिन्दी धीरे धीरे विशाल एवं विराट भाषा बन रही है। इसके लिए प्रत्येक वर्ष ‘प्रयोग वार्षिकी कोश’ के निर्माण की आवश्यकता है जिससे हिन्दी की एकरूपता में बाधा न उपस्थित हो।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
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सम्मेलन संदर्भ
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स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे

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