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कृष्ण का स्पर्श जब जब हुआ
मुझे ज्ञात हुआ
जन्म से अब तक
मैंने अपने कई दुराग्रही, हठी,
आक्रोशित मैं" का
अपने ही हाथों संहार किया है
मुक्त किया है ....
स्वयं का ही अवतार लिया
नए दृष्टिकोणों के साथ समग्रता का आह्वान किया !
मैंने महसूस किया -
किसी भी बात को देखने का
समझने का
मानने का नजरिया
हमेशा एक सा नहीं होता
समय चक्र परिवर्तन का द्योतक है
परिभाषा बदलती है
मान्यतायें बदलती है
अपनी अपनी धुरी से
एक ही दृश्य के कई अर्थ निकलते हैं !
जीवन के आरम्भ में
जिसने बिना वजह अपमान से स्नान किया हो
वह बर्फ में या आग में
गहरे पैठ सकता है
उसके मौन को
उसकी उद्विग्न पुतलियों के भावों को समझना
आसान नहीं !!
परम्परा जब चुप्पी साध लेती है
रिश्ते जब भाषा बदल देते हैं
तब अपमान की बूंदों से भीगता शरीर
और मन
पत्थर हो जाता है
स्थिति यह
कि तराशने के लिए उठो तो वही पत्थर ईश्वर है
हीरा है
अन्यथा सिर्फ पत्थर
और पत्थर को वही पढता है
जो जौहरी हो …
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