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==मल्ल युद्ध==
 
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चाणूर और मुष्टिक ने दोनों भाईयों को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा। नीति विचारक श्रीकृष्ण ने अपने समान आयु वाले मल्लों से लड़ने की बात कही। किन्तु चाणूर ने श्रीकृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम जी को बड़े दर्प से, महाराज कंस का मनोरंजन करने के लिए ललकारा। [[श्रीकृष्ण]] और [[बलराम]] तो ऐसा चाहते ही थे। इस प्रकार मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया। [[चाणूर]] का मुकाबला कृष्ण और [[मुष्टिक]] का मुकाबला बलराम कर रहे थे। वहाँ पर बैठी हुई पुर–स्त्रियाँ उस अनीतिपूर्ण मल्ल्युद्ध को देखकर वहाँ से उठकर चलने को उद्यत हो गई। श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का दर्शनकर कहने लगीं- अहो! सच पूछो तो [[ब्रज|ब्रजभूमि]] ही परम पवित्र और धन्य है। वहाँ परम पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। देवादिदेव महादेव [[शंकर]] और [[लक्ष्मी]] जिनके चरणकमलों की [[पूजा]] करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ [[रंग]]-बिरंगे [[पुष्प|पुष्पों]] की माला धारणकर [[गौ|गऊओं]] के पीछे-पीछे सखाओं और बलरामजी के साथ [[बाँसुरी]] बजाते और नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए आनन्द से विचरण करते हैं। श्रीकृष्ण की इस रूपमधुरिमा का आस्वादन केवल ब्रजवासियों एवं विशेषकर [[गोपी|गोपियों]] के लिए ही सुलभ है। वहाँ के [[मयूर]], शुक, सारी, गौएँ, बछड़े तथा नदियाँ सभी धन्य हैं। वे स्वच्छन्द रूप से श्रीकृष्ण की विविध प्रकार की माधुरियों का पान करके निहाल हो जाते हैं।
 
चाणूर और मुष्टिक ने दोनों भाईयों को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा। नीति विचारक श्रीकृष्ण ने अपने समान आयु वाले मल्लों से लड़ने की बात कही। किन्तु चाणूर ने श्रीकृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम जी को बड़े दर्प से, महाराज कंस का मनोरंजन करने के लिए ललकारा। [[श्रीकृष्ण]] और [[बलराम]] तो ऐसा चाहते ही थे। इस प्रकार मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया। [[चाणूर]] का मुकाबला कृष्ण और [[मुष्टिक]] का मुकाबला बलराम कर रहे थे। वहाँ पर बैठी हुई पुर–स्त्रियाँ उस अनीतिपूर्ण मल्ल्युद्ध को देखकर वहाँ से उठकर चलने को उद्यत हो गई। श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का दर्शनकर कहने लगीं- अहो! सच पूछो तो [[ब्रज|ब्रजभूमि]] ही परम पवित्र और धन्य है। वहाँ परम पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। देवादिदेव महादेव [[शंकर]] और [[लक्ष्मी]] जिनके चरणकमलों की [[पूजा]] करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ [[रंग]]-बिरंगे [[पुष्प|पुष्पों]] की माला धारणकर [[गौ|गऊओं]] के पीछे-पीछे सखाओं और बलरामजी के साथ [[बाँसुरी]] बजाते और नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए आनन्द से विचरण करते हैं। श्रीकृष्ण की इस रूपमधुरिमा का आस्वादन केवल ब्रजवासियों एवं विशेषकर [[गोपी|गोपियों]] के लिए ही सुलभ है। वहाँ के [[मयूर]], शुक, सारी, गौएँ, बछड़े तथा नदियाँ सभी धन्य हैं। वे स्वच्छन्द रूप से श्रीकृष्ण की विविध प्रकार की माधुरियों का पान करके निहाल हो जाते हैं।
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====चाणूर और मुष्टिक का वध====
 
====चाणूर और मुष्टिक का वध====
 
रंगशाला में चाणूर ने कृष्ण पर प्रहार पर प्रहार किए, किंतु उसके प्रहार कृष्ण पर ऐसे लग रहे थे, जैसे [[हाथी]] के शरीर पर [[फूल]] फेंककर मारे जा रहे हों, भगवान श्रीकृष्ण ने अंततः उसकी बाँह पकड़ी और वमन करता हुआ चाणूर यमलोक पहुँच गया। तभी बलराम ने भी मुष्टिक के मस्तक पर प्रहार करके उसकी खोपड़ी तोड़ दी। शेष रंगभूमि में जितने भी मल्लयोद्धा थे, उनका या तो कृष्ण-बलराम ने संहार कर डाला या फिर वे वहाँ से भाग निकले। इसके तदनन्तर कूट, शल, तोषल आदि भी मारे गये।
 
रंगशाला में चाणूर ने कृष्ण पर प्रहार पर प्रहार किए, किंतु उसके प्रहार कृष्ण पर ऐसे लग रहे थे, जैसे [[हाथी]] के शरीर पर [[फूल]] फेंककर मारे जा रहे हों, भगवान श्रीकृष्ण ने अंततः उसकी बाँह पकड़ी और वमन करता हुआ चाणूर यमलोक पहुँच गया। तभी बलराम ने भी मुष्टिक के मस्तक पर प्रहार करके उसकी खोपड़ी तोड़ दी। शेष रंगभूमि में जितने भी मल्लयोद्धा थे, उनका या तो कृष्ण-बलराम ने संहार कर डाला या फिर वे वहाँ से भाग निकले। इसके तदनन्तर कूट, शल, तोषल आदि भी मारे गये।

08:35, 3 अप्रैल 2013 का अवतरण

चाणूर और मुष्टिक मथुरा के राजा कंस के राज्य में उसके प्रमुख मल्ल (पहलवान) थे, जो बहुत ही बलशाली थे। 'चाणूर', 'मुष्टिक', 'शल' तथा 'तोषल' आदि मल्लों और कुबलयापीड नाम के एक हाथी को विशेष प्रशिक्षण दिलाकर कृष्ण और बलराम को मार डालने के लिए रखा गया था। किंतु मल्ल युद्ध के समय बलराम द्वारा मुष्टिक और श्रीकृष्ण द्वारा चाणूर का वध कर दिया गया।

कथा

मथुरा के दक्षिण में श्री रंगेश्वर महादेवजी क्षेत्रपाल के रूप में अवस्थित हैं। भेज-कुलांगार महाराज कंस ने श्रीकृष्ण और बलराम को मारने का षड़यन्त्र कर इस तीर्थ स्थान पर एक रंगशाला का निर्माण करवाया था। अक्रूर के द्वारा छलकर गोकुल से श्रीकृष्ण और बलदेव को लाया गया। श्रीकृष्ण और बलराम नगर भ्रमण के बहाने ग्वालबालों के साथ लोगों से पूछते–पूछते इस रंगशाला में प्रविष्ट हुये। रंगशाला बहुत ही सुन्दर सजायी गई थी। सुन्दर-सुन्दर तोरण-द्वार पुष्पों से सुसज्जित थे। सामने भगवान शिव का विशाल धनुष रखा गया था। मुख्य प्रवेश द्वार पर मतवाला कुबलयापीड हाथी झूमते हुए, बस संकेत मात्र से ही दोनों भाइयों को मार डालने के लिए तैयार था। रंगेश्वर महादेव की छटा भी निराली थी। उन्हें विभिन्न प्रकार से सुसज्जित किया गया था। रंगशाला के अखाड़े में चाणूर, मुष्टिक, शल, तोषल आदि बड़े-बड़े भयंकर पहलवान दंगल के लिए प्रस्तुत थे। महाराज कंस अपने बडे़-बड़े नागरिकों तथा मित्रों के साथ उच्च मञ्च पर विराजमान था।

कुबलयापीड का वध

अब रंगशाला में प्रवेश करते ही श्रीकृष्ण ने अनायास ही धनुष को अपने बायें हाथ से उठा लिया। पलक झपकते ही सबके सामने उसकी डोरी चढ़ा दी तथा डोरी को ऐसे खींचा कि वह धनुष भयंकर शब्द करते हुए टूट गया। धनुष की रक्षा करने वाले सारे सैनिकों को दोनों भाईयों ने ही मार गिराया। कुबलयापीड का वध कर श्रीकृष्ण ने उसके दोनों दाँतों को उखाड़ लिया और उससे महावत एवं अनेक दुष्टों का संहार किया। कुछ सैनिक भाग खड़े हुए और महाराज कंस को सारी सूचनाएँ दीं, तो कंस ने क्रोध से दाँत पीसते हुए चाणूर, मुष्टिक को शीघ्र ही दोनों बालकों का वध करने के लिए इंगित किया। इतने में श्रीकृष्ण एवं बलराम अपने अंगों पर रक्त के कुछ छींटे धारण किये हुए हाथी के विशाल दातों को अपने कंधे पर धारण कर सिंहशावक की भाँति मुसकुराते हुए अखाड़े के समीप पहुँचे।

मल्ल युद्ध

चाणूर और मुष्टिक ने दोनों भाईयों को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा। नीति विचारक श्रीकृष्ण ने अपने समान आयु वाले मल्लों से लड़ने की बात कही। किन्तु चाणूर ने श्रीकृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम जी को बड़े दर्प से, महाराज कंस का मनोरंजन करने के लिए ललकारा। श्रीकृष्ण और बलराम तो ऐसा चाहते ही थे। इस प्रकार मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया। चाणूर का मुकाबला कृष्ण और मुष्टिक का मुकाबला बलराम कर रहे थे। वहाँ पर बैठी हुई पुर–स्त्रियाँ उस अनीतिपूर्ण मल्ल्युद्ध को देखकर वहाँ से उठकर चलने को उद्यत हो गई। श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का दर्शनकर कहने लगीं- अहो! सच पूछो तो ब्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। वहाँ परम पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। देवादिदेव महादेव शंकर और लक्ष्मी जिनके चरणकमलों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे पुष्पों की माला धारणकर गऊओं के पीछे-पीछे सखाओं और बलरामजी के साथ बाँसुरी बजाते और नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए आनन्द से विचरण करते हैं। श्रीकृष्ण की इस रूपमधुरिमा का आस्वादन केवल ब्रजवासियों एवं विशेषकर गोपियों के लिए ही सुलभ है। वहाँ के मयूर, शुक, सारी, गौएँ, बछड़े तथा नदियाँ सभी धन्य हैं। वे स्वच्छन्द रूप से श्रीकृष्ण की विविध प्रकार की माधुरियों का पान करके निहाल हो जाते हैं।

कृष्ण-बलराम मल्ल युद्ध करते हुए

चाणूर और मुष्टिक का वध

रंगशाला में चाणूर ने कृष्ण पर प्रहार पर प्रहार किए, किंतु उसके प्रहार कृष्ण पर ऐसे लग रहे थे, जैसे हाथी के शरीर पर फूल फेंककर मारे जा रहे हों, भगवान श्रीकृष्ण ने अंततः उसकी बाँह पकड़ी और वमन करता हुआ चाणूर यमलोक पहुँच गया। तभी बलराम ने भी मुष्टिक के मस्तक पर प्रहार करके उसकी खोपड़ी तोड़ दी। शेष रंगभूमि में जितने भी मल्लयोद्धा थे, उनका या तो कृष्ण-बलराम ने संहार कर डाला या फिर वे वहाँ से भाग निकले। इसके तदनन्तर कूट, शल, तोषल आदि भी मारे गये।

कंस का अंत

अपने मल्ल योद्धाओं का इस प्रकार अंत होते देख कंस के होश उड़ गए। उसने तत्काल अपने रक्षक सैनिकों को आदेश दिया- "सैनिकों मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि वसुदेव के इन दोनों पुत्रों को पकड़कर मथुरा से निष्कासित कर दिया जाए और नन्द को पकड़कर बंदीगृह में डाल दिया जाए। इस नन्द के कारण ही हमारे धनुर्यज्ञ और मल्ल युद्ध के आयोजन का सर्वनाश हुआ है। इसके साथ ही सभी गोपों की समस्त धन-संपत्ति को लूट लिया जाए। दुष्ट वसुदेव का बिना विलंब किए वध कर दिया जाए तथा मेरे पिता उग्रसेन का, जो इनका समर्थक है, उसकी भी हत्या कर दी जाए। इस प्रकार का आदेश होते ही रंगशाला में जैसे प्रलय सी टूट पड़ी। क्रोधित भगवान श्रीकृष्ण रंगभूमि-स्थल से कूदकर तुरंत कंस के आसन के सम्मुख पहुँच गए। कंस को जैसे पहले से ही इस प्रकार आशंका थी। उसने तुरंत म्यान से तलवार निकाल ली और भगवान श्रीकृष्ण पर तलवार का वार करना चाहा, किंतु वे तीव्रता से कंस के वार को बचा गए। उन्होंने बड़े वेग के साथ कंस के सीने पर एक ठोकर मारी। कृष्ण के चरणों का आघात पाकर कंस भूमि पर गिर पड़ा। उसके मस्तक का राजमुकुट भूमि पर गिर गया। कृष्ण ने उसकी केश मुट्ठी में जकड़कर उसे मल्ल युद्ध के मंच पर खींच लिया। असहाय पापात्मा कंस मात्र चीखने-पुकारने के सिवाय कुछ न कर सका। फिर कृष्ण ने उसके सीने पर सवार होकर मुष्टि-प्रहार करने आरंभ कर दिए। रक्त वमन करता हुआ नराधम कंस अंत में यमराज के पाश का शिकार हो गया। उसके प्राण पखेरू उड़ गए।[1]

कंस की मृत्यु से मथुरा के ब्राह्मणों, सुधिजनों, सुसभ्य नागरिकों तथा भगवद्-भक्तों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। आकाश में देवताओं ने पुष्प-वर्षा की और भगवान श्रीकृष्ण की कंस पर विजय को अन्याय, अधर्म और अत्याचार पर विजय घोषित करते हुए देव-दुंदुभि बजाई गई। कंस के वध के पश्चात कृष्ण ने मथुरा के सिंहासन पर पुनः महाराज उग्रसेन को बिठा दिया तथा अपनी माता देवकी और पिता वसुदेव को कंस के बंदीगृह से मुक्त करवाया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृष्ण नीति (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 03 अप्रैल, 2013।

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