"देवगिरि का यादव वंश" के अवतरणों में अंतर

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यादव वंश भारतीय इतिहास में बहुत प्राचीन है, और वह अपना सम्बन्ध प्राचीन यदुवंशी क्षत्रियों से मानता था। [[राष्ट्रकूट साम्राज्य|राष्टकूटों]] और [[चालुक्य साम्राज्य|चालुक्यों]] के उत्कर्ष काल में यादव वंश के राजा अधीनस्थ सामन्त राजाओं की स्थिति रखते थे। पर जब चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई तो वे स्वतंत्र हो गए, और वर्त्तमान [[हैदराबाद]] के क्षेत्र में स्थित देवगिरि ([[दौलताबाद]]) को केन्द्र बनाकर उन्होंने अपने उत्कर्ष का प्रारम्भ किया।  
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'''यादव वंश''' [[भारतीय इतिहास]] में बहुत प्राचीन है और यह अपना सम्बन्ध प्राचीन यदुवंशी क्षत्रियों से मानता है। [[राष्ट्रकूट साम्राज्य|राष्टकूटों]] और [[चालुक्य साम्राज्य|चालुक्यों]] के उत्कर्ष काल में [[यादव वंश]] के राजा अधीनस्थ सामन्त राजाओं की स्थिति रखते थे, लेकिन जब चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई तो वे स्वतंत्र हो गए और वर्त्तमान [[हैदराबाद]] के क्षेत्र में स्थित [[देवगिरि]] (आधुनिक [[दौलताबाद]]) को केन्द्र बनाकर उन्होंने अपने उत्कर्ष का प्रारम्भ किया।
*1187 ई. में यादव राजा '''भिल्लम''' ने अन्तिम चालुक्य राजा [[सोमेश्वर चतुर्थ]] को परास्त कर [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] पर भी अधिकार कर लिया। इसमें सन्देह नहीं, कि भिल्लम एक अत्यन्त प्रतापी राजा था, और उसी के कर्त्तृत्व के कारण यादवों के उत्कर्ष का प्रारम्भ हुआ था।  
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==भिल्ल्म तथा बल्लाल का संघर्ष==
*पर शीघ्र ही भिल्लम को एक नए शत्रु का सामना करना पड़ा। द्वारसमुद्र ([[मैसूर]]) में यादव क्षत्रियों के एक अन्य वंश का शासन था, जो [[होयसाल वंश|होयसाल]] कहलाते थे। चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर दक्षिणापथ में जो स्थिति उत्पन्न हो गई थी, होयसालों ने भी उससे लाभ उठाया, और उनके राजा वीर बल्लाल द्वितीय ने उत्तर की ओर अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए भिल्लम के राज्य पर भी आक्रमण किया। वीर बल्लाल के साथ युद्ध करते हुए भिल्लम ने वीरगति प्राप्त की, और उसके राज्य पर जिसमें कल्याणी का प्रदेश भी शामिल था, होयसालों का अधिकार हो गया। इस प्रकार 1191 ई. में भिल्लम द्वारा स्थापित यादव राज्य का अन्त हुआ।  
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1187 ई. में यादव राजा 'भिल्लम' ने अन्तिम चालुक्य राजा [[सोमेश्वर चतुर्थ]] को परास्त कर [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] पर भी अधिकार कर लिया। इसमें सन्देह नहीं कि भिल्लम एक अत्यन्त प्रतापी राजा था और उसी के कर्त्तृत्व के कारण यादवों के उत्कर्ष का प्रारम्भ हुआ था। पर शीघ्र ही भिल्लम को एक नए शत्रु का सामना करना पड़ा। [[द्वारसमुद्र]] ([[मैसूर]]) में यादव क्षत्रियों के एक अन्य वंश का शासन था, जो [[होयसाल वंश|होयसाल]] कहलाते थे। चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर दक्षिणापथ में जो स्थिति उत्पन्न हो गई थी, होयसालों ने भी उससे लाभ उठाया और उनके राजा वीर बल्लाल द्वितीय ने उत्तर की ओर अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए भिल्लम के राज्य पर भी आक्रमण किया। इस प्रकार बल्लाल और भिल्लम के मध्य एक ज़ोरदार संघर्ष हुआ। वीर बल्लाल के साथ युद्ध करते हुए भिल्लम ने वीरगति प्राप्त की और उसके राज्य पर, जिसमें कल्याणी का प्रदेश भी शामिल था, होयसालों का अधिकार हो गया। इस प्रकार 1191 ई. में भिल्लम द्वारा स्थापित यादव राज्य का अन्त हुआ।
*पर इस पराजय से यावद वंश की शक्ति का मूलोच्छेद नहीं हो गया। भिल्लम का उत्तराधिकारी '''जैत्रपाल प्रथम''' था, जिसने अनेक युद्धों के द्वारा अपने वंश के गौरव का पुनरुद्धार किया। होयसालों ने कल्याणी और देवगिरि पर स्थायी रूप से शासन का प्रयत्न नहीं किया था, इसलिए जैत्रपाल को फिर से अपने राज्य के उत्कर्ष का अवसर मिल गया। उसका शासन काल 1191 से 1210 तक था। अपने पड़ोसी राज्यों से निरन्तर युद्ध करते हुए जैत्रपाल प्रथम ने यादव राज्य की शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर लिया।  
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====जैत्रपाल की वीरता====
*जैत्रपाल प्रथम का पुत्र '''सिंघण''' (1210-1247) था। वह इस वंश का सबसे शक्तिशाली प्रतापी राजा हुआ है। 37 वर्ष के अपने शासन काल में उसने चारों दिशाओं में बहुत से युद्ध किए, और देवगिरि के यादव राज्य को उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा दिया। होयसाल राजा वीर बल्लाल ने उसके पितामह भिल्लम को युद्ध में मारा था, और यादव राज्य को बुरी तरह से आक्रान्त किया था। अपने कुल के इस अपमान का प्रतिशोध करने के लिए उसने द्वारसमुद्र के होयसाल राज्य पर आक्रमण किया, और वहाँ के राजा '''वीर बल्लाल द्वितीय''' को परास्त कर उसके अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। होयसाल राजा कि विजय के बाद सिंघण ने उत्तर दिशा में विजय यात्रा के लिए प्रस्थान किया। [[गुजरात]] पर उसने कई बार आक्रमण किए, और [[मालवा]] को अपने अधिकार में लाकर [[काशी]] और [[मथुरा]] तक विजय यात्रा की। इतना ही नहीं, उसने [[कलचुरी राज्य]] को परास्त कर अफ़ग़ान शासकों के साथ भी युद्ध किए, जो उस समय उत्तरी भारत के बड़े भाग को अपने स्वत्व में ला चुके थे।  
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भिल्लम की इस पराजय से यादव वंश की शक्ति का मूलोच्छेद नहीं हो सका। भिल्लम का उत्तराधिकारी 'जैत्रपाल प्रथम' था, जिसने अनेक युद्धों के द्वारा अपने वंश के गौरव का पुनरुद्धार किया। होयसालों ने कल्याणी और [[देवगिरि]] पर स्थायी रूप से शासन का प्रयत्न नहीं किया था, इसलिए जैत्रपाल को फिर से अपने राज्य के उत्कर्ष का अवसर मिल गया। उसका शासन काल 1191 से 1210 तक था। अपने पड़ोसी राज्यों से निरन्तर युद्ध करते हुए जैत्रपाल प्रथम ने यादव राज्य की शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर लिया।
*कोल्हापुर के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब और पांड्य देश के राजाओं को भी सिंघण ने आक्रान्त किया, और अपनी इन दिग्विजयों के उपलक्ष्य में कावेरी नदी के तट पर एक विजयस्तम्भ की स्थापना की। इसमें सन्देह नहीं, कि यादव राज सिंघण एक विशाल साम्राज्य का निर्माण करने में सफल हुआ था, और न केवल सम्पूर्ण दक्षिणापथ अपितु कावेरी तक का दक्षिणी भारत और विंध्याचल के उत्तर के भी कतिपय प्रदेश उसकी अधीनता में आ गए थे। सिंघण न केवल अनुपम विजेता था, अपितु साथ ही विद्वानों का आश्रयदाता और विद्याप्रेमी भी था। संगीतरत्नाकर का रचयिता सारंगधर उसी के आश्रय में रहता था। प्रसिद्ध ज्योतिषी चांगदेव भी उसकी राजसभा का एक उज्जवल रत्न था। भास्कराचार्य द्वारा रचित सिद्धांतशिरोमणि तथा ज्योतिष सम्बन्धी अन्य ग्रंथों के अध्ययन के लिए उसने एक शिक्षाकेन्द्र की स्थापना भी की थी।  
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==सिंघण द्वारा राज्य विस्तार==
*सिंघण के बाद उसके पोते '''कृष्ण''' (1247-1260) ने और फिर कृष्ण के भाई '''महादेव''' (1260-1271) ने देवगिरि के राजसिंहासन को सुशोभित किया। इन राजाओं के समय में भी गुजरात और शिलाहार राज्य के साथ यादवों के युद्ध जारी रहे। महादेव के बाद '''रामचन्द्र''' (1271-1309) यादवों का राजा बना। उसके समय में 1294 ई. में [[दिल्ली] के प्रसिद्ध अफ़ग़ान विजेता [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने दक्षिणी भारत में विजय यात्रा की। इस समय देवगिरि का यादव राज्य दक्षिणापथ की प्रधान शक्ति था। अतः स्वाभाविक रूप से अलाउद्दीन ख़िलज़ी का मुख्य संघर्ष यादव राजा '''रामचन्द्र''' के साथ ही हुआ। अलाउद्दीन जानता था, कि सम्मुख युद्ध में रामचन्द्र को परास्त कर सकना सुगम नहीं है। अतः उसने छल का प्रयोग किया, और यादव राज के प्रति मैत्रीभाव प्रदर्शित कर उसका आतिथ्य ग्रहण किया। इस प्रकार जब रामचन्द्र असावधान हो गया, तो अलाउद्दीन ने उस पर अचानक हमला कर दिया। इस स्थिति में यादवों के लिए अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखना असम्भव हो गया, और रामचन्द्र ने विवश होकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी के साथ सन्धि कर ली। इस सन्धि के परिणामस्वरूप जो अपार सम्पत्ति अफ़ग़ान विजेता ने प्राप्त की, उसमें 600 मन मोती, 200 मन रत्न, 1000 मन चाँदी, 4000 रेशमी वस्त्र और उसी प्रकार के अन्य बहुमूल्य उपहार सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र ने अलाउद्दीन ख़िलज़ी को वार्षिक कर भी देना स्वीकृत किया। यद्यपि रामचन्द्र परास्त हो गया था, पर उसमें अभी स्वतंत्रता की भावना अवशिष्ट थी। उसने ख़िलज़ी के आधिपत्य का जुआ उतार फैंकने के विचार से वार्षिक कर देना बन्द कर दिया। इस पर अलाउद्दीन ने अपने सेनापति [[मलिक काफ़ूर]] को उस पर आक्रमण करने के लिए भेजा। काफ़ूर का सामना करने में रामचन्द्र असमर्थ रहा, और उसे गिरफ़्तार करके [[दिल्ली]] भेज दिया गया। वहाँ पर ख़िलज़ी सुल्तान ने उसका स्वागत किया, और उसे '''रायरायाओ''' की उपाधि से विभूषित किया। अलाउद्दीन रामचन्द्र की शक्ति से भली-भाँति परिचित था, और इसीलिए उसे अपना अधीनस्थ राजा बनाकर ही संतुष्ट हो गया। पर यादवों में अपनी स्वतंत्रता की भावना अभी तक भी विद्यमान थी।  
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जैत्रपाल प्रथम का पुत्र 'सिंघण' (1210-1247 ई.) था। वह इस वंश का सबसे शक्तिशाली प्रतापी राजा हुआ। 37 वर्ष के अपने शासन काल में उसने चारों दिशाओं में बहुत से युद्ध किए और देवगिरि के यादव राज्य को उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा दिया। होयसल राजा वीर बल्लाल ने उसके पितामह भिल्लम को युद्ध में मारा था और यादव राज्य को बुरी तरह से आक्रान्त किया था। अपने कुल के इस अपमान का प्रतिशोध करने के लिए सिंघण ने [[द्वारसमुद्र]] के होयसाल राज्य पर आक्रमण किया और वहाँ के राजा वीर बल्लाल द्वितीय को परास्त कर उसके अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। होयसल राजा कि विजय के बाद सिंघण ने उत्तर दिशा में विजय यात्रा के लिए प्रस्थान किया। [[गुजरात]] पर उसने कई बार आक्रमण किए और [[मालवा]] को अपने अधिकार में लाकर [[काशी]] और [[मथुरा]] तक विजय यात्रा की। इतना ही नहीं, उसने [[कलचुरी वंश|कलचुरी राज्य]] को परास्त कर [[अफ़ग़ान]] शासकों के साथ भी युद्ध किए, जो उस समय [[उत्तर भारत]] के बड़े भाग को अपने स्वामीत्व में ला चुके थे।
*रामचन्द्र के बाद उसके पुत्र '''शंकर''' ने ख़िलज़ी के विरुद्ध विद्रोह किया। एक बार फिर मलिक काफ़ूद देवगिरि पर आक्रमण करने के लिए गया, और उससे लड़ते-लड़ते शंकर ने 1312 ई. में वीरगति प्राप्त की। 1316 में जब अलाउद्दीन की मृत्यु हुई, तो रामचन्द्र के जामाता '''हरपाल''' के नेतृत्व में यादवों ने एक बार फिर स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। हरपाल को गिरफ़्तार कर लिया गया, और अपना रोष प्रकट करने के लिए सुल्तान मुबारक ख़ाँ ने उसकी जीते-जी उसकी ख़ाल खिंचवा दी।  
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*इस प्रकार देवगिरि के यादव वंश की सत्ता का अन्त हुआ, और उनका प्रदेश दिल्ली के अफ़ग़ान साम्राज्य के अंतर्गत आ गया।  
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[[कोल्हापुर]] के [[शिलाहार वंश|शिलाहार]], बनवासी के [[कदम्ब वंश|कदम्ब]] और [[पांड्य साम्राज्य|पांड्य]] देश के राजाओं को भी सिंघण ने आक्रान्त किया और अपनी इन दिग्विजयों के उपलक्ष्य में [[कावेरी नदी]] के तट पर एक विजय स्तम्भ की स्थापना की। इसमें सन्देह नहीं कि यादव राज सिंघण एक विशाल साम्राज्य का निर्माण करने में सफल हुआ था और न केवल सम्पूर्ण दक्षिणापथ अपितु कावेरी तक का दक्षिणी भारत और [[विंध्याचल]] के उत्तर के भी कतिपय प्रदेश उसकी अधीनता में आ गए थे। सिंघण न केवल अनुपम विजेता था, अपितु साथ ही विद्वानों का आश्रयदाता और विद्याप्रेमी भी था। 'संगीतरत्नाकर' का रचयिता सारंगधर उसी के आश्रय में रहता था। प्रसिद्ध ज्योतिषी चांगदेव भी उसकी राजसभा का एक उज्ज्वल [[रत्न]] था। [[भास्कराचार्य]] द्वारा रचित 'सिद्धांतशिरोमणि' तथा ज्योतिष सम्बन्धी अन्य ग्रंथों के अध्ययन के लिए उसने एक शिक्षाकेन्द्र की स्थापना भी की थी।
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==सिंघण के उत्तराधिकारी==
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सिंघण के बाद उसके पोते 'कृष्ण' (1247-1260) ने और फिर कृष्ण के भाई 'महादेव' (1260-1271) ने देवगिरि के राजसिंहासन को सुशोभित किया। इन राजाओं के समय में भी [[गुजरात]] और शिलाहार राज्य के साथ यादवों के युद्ध जारी रहे। महादेव के बाद 'रामचन्द्र' (1271-1309) यादवों का राजा बना। उसके समय में 1294 ई. में [[दिल्ली]] के प्रसिद्ध [[अफ़ग़ान]] विजेता [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] ने दक्षिणी भारत में विजय यात्रा की। इस समय देवगिरि का यादव राज्य दक्षिणापथ की प्रधान शक्ति था। अतः स्वाभाविक रूप से अलाउद्दीन ख़िलज़ी का मुख्य संघर्ष यादव राजा रामचन्द्र के साथ ही हुआ। अलाउद्दीन जानता था कि सम्मुख युद्ध में रामचन्द्र को परास्त कर सकना सुगम नहीं है। अतः उसने छल का प्रयोग किया और यादव राज के प्रति मैत्रीभाव प्रदर्शित कर उसका आतिथ्य ग्रहण किया। इस प्रकार जब रामचन्द्र असावधान हो गया तो अलाउद्दीन ने उस पर अचानक हमला कर दिया। इस स्थिति में यादवों के लिए अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखना असम्भव हो गया और रामचन्द्र ने विवश होकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी के साथ सन्धि कर ली।
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==अलाउद्दीन द्वारा रामचन्द्र का स्वागत==
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इस सन्धि के परिणामस्वरूप जो अपार सम्पत्ति अफ़ग़ान विजेता ने प्राप्त की, उसमें 600 मन मोती, 200 मन रत्न, 1000 मन [[चाँदी]], 4000 रेशमी वस्त्र और उसी प्रकार के अन्य बहुमूल्य उपहार सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र ने अलाउद्दीन ख़िलज़ी को वार्षिक कर भी देना स्वीकृत किया। यद्यपि रामचन्द्र परास्त हो गया था, फिर भी उसमें अभी स्वतंत्रता की भावना अवशिष्ट थी। उसने ख़िलज़ी के आधिपत्य का जुआ उतार फैंकने के विचार से वार्षिक कर देना बन्द कर दिया। इस पर अलाउद्दीन ने अपने सेनापति [[मलिक काफ़ूर]] को उस पर आक्रमण करने के लिए भेजा। काफ़ूर का सामना करने में रामचन्द्र असमर्थ रहा और उसे गिरफ़्तार करके [[दिल्ली]] भेज दिया गया। वहाँ पर ख़िलज़ी सुल्तान ने उसका स्वागत किया और उसे 'रायरायाओ' की उपाधि से विभूषित किया। अलाउद्दीन रामचन्द्र की शक्ति से भली-भाँति परिचित था और इसीलिए उसे अपना अधीनस्थ राजा बनाकर ही संतुष्ट हो गया। पर यादवों में अपनी स्वतंत्रता की भावना अभी तक भी विद्यमान थी।
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==अंत==
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रामचन्द्र के बाद उसके पुत्र 'शंकर' ने अलाउद्दीन ख़िलज़ी के विरुद्ध विद्रोह किया। एक बार फिर मलिक काफ़ूर [[देवगिरि]] पर आक्रमण करने के लिए गया और उससे लड़ते-लड़ते शंकर ने 1312 ई. में वीरगति प्राप्त की। 1316 में जब अलाउद्दीन की मृत्यु हुई तो रामचन्द्र के जामाता 'हरपाल' के नेतृत्व में यादवों ने एक बार फिर स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। हरपाल को गिरफ़्तार कर लिया गया और अपना रोष प्रकट करने के लिए सुल्तान मुबारक ख़ाँ ने उसकी जीते-जी उसकी ख़ाल खिंचवा दी। इस प्रकार देवगिरि के यादव वंश की सत्ता का अन्त हुआ और उनका प्रदेश दिल्ली के [[अफ़ग़ान]] साम्राज्य के अंतर्गत आ गया।
  
 
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07:10, 16 मई 2012 के समय का अवतरण

यादव वंश भारतीय इतिहास में बहुत प्राचीन है और यह अपना सम्बन्ध प्राचीन यदुवंशी क्षत्रियों से मानता है। राष्टकूटों और चालुक्यों के उत्कर्ष काल में यादव वंश के राजा अधीनस्थ सामन्त राजाओं की स्थिति रखते थे, लेकिन जब चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई तो वे स्वतंत्र हो गए और वर्त्तमान हैदराबाद के क्षेत्र में स्थित देवगिरि (आधुनिक दौलताबाद) को केन्द्र बनाकर उन्होंने अपने उत्कर्ष का प्रारम्भ किया।

भिल्ल्म तथा बल्लाल का संघर्ष

1187 ई. में यादव राजा 'भिल्लम' ने अन्तिम चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर भी अधिकार कर लिया। इसमें सन्देह नहीं कि भिल्लम एक अत्यन्त प्रतापी राजा था और उसी के कर्त्तृत्व के कारण यादवों के उत्कर्ष का प्रारम्भ हुआ था। पर शीघ्र ही भिल्लम को एक नए शत्रु का सामना करना पड़ा। द्वारसमुद्र (मैसूर) में यादव क्षत्रियों के एक अन्य वंश का शासन था, जो होयसाल कहलाते थे। चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर दक्षिणापथ में जो स्थिति उत्पन्न हो गई थी, होयसालों ने भी उससे लाभ उठाया और उनके राजा वीर बल्लाल द्वितीय ने उत्तर की ओर अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए भिल्लम के राज्य पर भी आक्रमण किया। इस प्रकार बल्लाल और भिल्लम के मध्य एक ज़ोरदार संघर्ष हुआ। वीर बल्लाल के साथ युद्ध करते हुए भिल्लम ने वीरगति प्राप्त की और उसके राज्य पर, जिसमें कल्याणी का प्रदेश भी शामिल था, होयसालों का अधिकार हो गया। इस प्रकार 1191 ई. में भिल्लम द्वारा स्थापित यादव राज्य का अन्त हुआ।

जैत्रपाल की वीरता

भिल्लम की इस पराजय से यादव वंश की शक्ति का मूलोच्छेद नहीं हो सका। भिल्लम का उत्तराधिकारी 'जैत्रपाल प्रथम' था, जिसने अनेक युद्धों के द्वारा अपने वंश के गौरव का पुनरुद्धार किया। होयसालों ने कल्याणी और देवगिरि पर स्थायी रूप से शासन का प्रयत्न नहीं किया था, इसलिए जैत्रपाल को फिर से अपने राज्य के उत्कर्ष का अवसर मिल गया। उसका शासन काल 1191 से 1210 तक था। अपने पड़ोसी राज्यों से निरन्तर युद्ध करते हुए जैत्रपाल प्रथम ने यादव राज्य की शक्ति को भली-भाँति स्थापित कर लिया।

सिंघण द्वारा राज्य विस्तार

जैत्रपाल प्रथम का पुत्र 'सिंघण' (1210-1247 ई.) था। वह इस वंश का सबसे शक्तिशाली प्रतापी राजा हुआ। 37 वर्ष के अपने शासन काल में उसने चारों दिशाओं में बहुत से युद्ध किए और देवगिरि के यादव राज्य को उन्नति की चरम सीमा पर पहुँचा दिया। होयसल राजा वीर बल्लाल ने उसके पितामह भिल्लम को युद्ध में मारा था और यादव राज्य को बुरी तरह से आक्रान्त किया था। अपने कुल के इस अपमान का प्रतिशोध करने के लिए सिंघण ने द्वारसमुद्र के होयसाल राज्य पर आक्रमण किया और वहाँ के राजा वीर बल्लाल द्वितीय को परास्त कर उसके अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। होयसल राजा कि विजय के बाद सिंघण ने उत्तर दिशा में विजय यात्रा के लिए प्रस्थान किया। गुजरात पर उसने कई बार आक्रमण किए और मालवा को अपने अधिकार में लाकर काशी और मथुरा तक विजय यात्रा की। इतना ही नहीं, उसने कलचुरी राज्य को परास्त कर अफ़ग़ान शासकों के साथ भी युद्ध किए, जो उस समय उत्तर भारत के बड़े भाग को अपने स्वामीत्व में ला चुके थे।

कोल्हापुर के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब और पांड्य देश के राजाओं को भी सिंघण ने आक्रान्त किया और अपनी इन दिग्विजयों के उपलक्ष्य में कावेरी नदी के तट पर एक विजय स्तम्भ की स्थापना की। इसमें सन्देह नहीं कि यादव राज सिंघण एक विशाल साम्राज्य का निर्माण करने में सफल हुआ था और न केवल सम्पूर्ण दक्षिणापथ अपितु कावेरी तक का दक्षिणी भारत और विंध्याचल के उत्तर के भी कतिपय प्रदेश उसकी अधीनता में आ गए थे। सिंघण न केवल अनुपम विजेता था, अपितु साथ ही विद्वानों का आश्रयदाता और विद्याप्रेमी भी था। 'संगीतरत्नाकर' का रचयिता सारंगधर उसी के आश्रय में रहता था। प्रसिद्ध ज्योतिषी चांगदेव भी उसकी राजसभा का एक उज्ज्वल रत्न था। भास्कराचार्य द्वारा रचित 'सिद्धांतशिरोमणि' तथा ज्योतिष सम्बन्धी अन्य ग्रंथों के अध्ययन के लिए उसने एक शिक्षाकेन्द्र की स्थापना भी की थी।

सिंघण के उत्तराधिकारी

सिंघण के बाद उसके पोते 'कृष्ण' (1247-1260) ने और फिर कृष्ण के भाई 'महादेव' (1260-1271) ने देवगिरि के राजसिंहासन को सुशोभित किया। इन राजाओं के समय में भी गुजरात और शिलाहार राज्य के साथ यादवों के युद्ध जारी रहे। महादेव के बाद 'रामचन्द्र' (1271-1309) यादवों का राजा बना। उसके समय में 1294 ई. में दिल्ली के प्रसिद्ध अफ़ग़ान विजेता अलाउद्दीन ख़िलजी ने दक्षिणी भारत में विजय यात्रा की। इस समय देवगिरि का यादव राज्य दक्षिणापथ की प्रधान शक्ति था। अतः स्वाभाविक रूप से अलाउद्दीन ख़िलज़ी का मुख्य संघर्ष यादव राजा रामचन्द्र के साथ ही हुआ। अलाउद्दीन जानता था कि सम्मुख युद्ध में रामचन्द्र को परास्त कर सकना सुगम नहीं है। अतः उसने छल का प्रयोग किया और यादव राज के प्रति मैत्रीभाव प्रदर्शित कर उसका आतिथ्य ग्रहण किया। इस प्रकार जब रामचन्द्र असावधान हो गया तो अलाउद्दीन ने उस पर अचानक हमला कर दिया। इस स्थिति में यादवों के लिए अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखना असम्भव हो गया और रामचन्द्र ने विवश होकर अलाउद्दीन ख़िलज़ी के साथ सन्धि कर ली।

अलाउद्दीन द्वारा रामचन्द्र का स्वागत

इस सन्धि के परिणामस्वरूप जो अपार सम्पत्ति अफ़ग़ान विजेता ने प्राप्त की, उसमें 600 मन मोती, 200 मन रत्न, 1000 मन चाँदी, 4000 रेशमी वस्त्र और उसी प्रकार के अन्य बहुमूल्य उपहार सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र ने अलाउद्दीन ख़िलज़ी को वार्षिक कर भी देना स्वीकृत किया। यद्यपि रामचन्द्र परास्त हो गया था, फिर भी उसमें अभी स्वतंत्रता की भावना अवशिष्ट थी। उसने ख़िलज़ी के आधिपत्य का जुआ उतार फैंकने के विचार से वार्षिक कर देना बन्द कर दिया। इस पर अलाउद्दीन ने अपने सेनापति मलिक काफ़ूर को उस पर आक्रमण करने के लिए भेजा। काफ़ूर का सामना करने में रामचन्द्र असमर्थ रहा और उसे गिरफ़्तार करके दिल्ली भेज दिया गया। वहाँ पर ख़िलज़ी सुल्तान ने उसका स्वागत किया और उसे 'रायरायाओ' की उपाधि से विभूषित किया। अलाउद्दीन रामचन्द्र की शक्ति से भली-भाँति परिचित था और इसीलिए उसे अपना अधीनस्थ राजा बनाकर ही संतुष्ट हो गया। पर यादवों में अपनी स्वतंत्रता की भावना अभी तक भी विद्यमान थी।

अंत

रामचन्द्र के बाद उसके पुत्र 'शंकर' ने अलाउद्दीन ख़िलज़ी के विरुद्ध विद्रोह किया। एक बार फिर मलिक काफ़ूर देवगिरि पर आक्रमण करने के लिए गया और उससे लड़ते-लड़ते शंकर ने 1312 ई. में वीरगति प्राप्त की। 1316 में जब अलाउद्दीन की मृत्यु हुई तो रामचन्द्र के जामाता 'हरपाल' के नेतृत्व में यादवों ने एक बार फिर स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। हरपाल को गिरफ़्तार कर लिया गया और अपना रोष प्रकट करने के लिए सुल्तान मुबारक ख़ाँ ने उसकी जीते-जी उसकी ख़ाल खिंचवा दी। इस प्रकार देवगिरि के यादव वंश की सत्ता का अन्त हुआ और उनका प्रदेश दिल्ली के अफ़ग़ान साम्राज्य के अंतर्गत आ गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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