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[[चित्र:Rohtasgarh-Bihar.jpg|thumb|250px|रोहतासगढ़, [[बिहार]]]]
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'''रोहतासगढ़''' [[बिहार]] में [[कैमूर पहाड़ियाँ|कैमूर पहाड़ी]] और [[सोन नदी]] के तट पर स्थित एक प्राचीन [[ग्राम]] है, जो अपने इतिहास प्रसिद्ध [[दुर्ग]] के लिए प्रसिद्ध है। लोकश्रुति है कि [[हरिश्चन्द्र|महाराज हरिश्चन्द्र]] के पुत्र [[रोहिताश्व]] के नाम पर इसका नामकरण हुआ था। प्राचीन काल में इनका एक मंदिर भी यहाँ स्थित था, जिसे [[मुग़ल]] [[औरंगज़ेब|बादशाह औरंगज़ेब]] के शासन काल में तुड़वा दिया गया था।
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14:10, 31 जनवरी 2015 के समय का अवतरण

रोहतासगढ़
रोहतासगढ़, बिहार
विवरण 'रोहतासगढ़' बिहार स्थित एक प्राचीन ग्राम है। यहाँ का क़िला भारतीय इतिहास में काफ़ी प्रसिद्ध रहा है।
राज्य बिहार
जनश्रुति माना जाता है कि राजा हरिश्चंद्र के पुत्र 'रोहिताश्व' के नाम पर ही इसका रखा गया था।
संबंधित लेख बिहार, बिहार की संस्कृति, शेरशाह सूरी
अन्य जानकारी मध्य काल में रोहतासगढ़ का दुर्ग भारत के सुदृढ़तम क़िलों में गिना जाता था और अपनी स्थिति के कारण "बंगाल का दूसरा नाका" कहलाता था।

रोहतासगढ़ बिहार में कैमूर पहाड़ी और सोन नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन ग्राम है, जो अपने इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग के लिए प्रसिद्ध है। लोकश्रुति है कि महाराज हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के नाम पर इसका नामकरण हुआ था। प्राचीन काल में इनका एक मंदिर भी यहाँ स्थित था, जिसे मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के शासन काल में तुड़वा दिया गया था।

  • रोहतासगढ़ से बंगाल के महासामंत शशांक (7वीं शती ई.), जो महाराज हर्ष के समकालीन था तथा जिसने हर्ष के भाई राज्यवर्धन का युद्ध में वध किया था, का एक अभिलेख प्राप्त हुआ था।
  • मध्य काल में रोहतासगढ़ का दुर्ग भारत के सुदृढ़तम क़िलों में गिना जाता था और अपनी स्थिति के कारण "बंगाल का दूसरा नाका" कहलाता था। पहला नाका चुनार का गढ़ था।
  • बंगाल-बिहार की सूबेदारी के दौरान मानसिंह ने इस क़िले की मरम्मत करायी थी। मानसिंह का 1597 ई. का एक अभिलेख रोहतासगढ़ क़िले में पाया गया है, जो इस तथ्य की पुष्टि करता है।[1]
  • रोहतास अपनी स्थिति एवं सुदृढ़ता के कारण महत्त्वपूर्ण क़िला था। यह दुर्ग पूर्व-पश्चिम में चार मील और उत्तर-दक्षिण में पाँच मील के विस्तार में है। इतना विस्तृत दुर्ग देश में दूसरा नहीं है। इस दुर्ग में चौदह द्वार थे, किंतु शेरशाह सूरी के समय चार को छोड़कर शेष बन्द कर दिये गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जर्नल आॅव एशियाटिक सोसयटी आॅव बंगाल 1839, पृ. 354; 693

संबंधित लेख

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