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11:58, 17 अप्रैल 2012 का अवतरण

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काशी विशालाक्षी मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है।

काशी विशालाक्षी मंदिर उत्तर प्रदेश राज्य के वाराणसी शहर में काशी विश्‍वनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित एक शक्तिपीठ है। यहाँ माता सती के दाहिने कान के मणि गिरे थे। यहाँ की शक्ति विशालाक्षी तथा भैरव काल भैरव हैं।

तंत्रसागर के अनुसार

तंत्रसागर के अनुसार भगवती गौरवर्णा हैं। उनके दिव्य विग्रह से तप्त स्वर्ण सदृश्य कांति प्रवाहित होती है। वह अत्यंत रूपवती हैं तथा सदैव षोडशवर्षीया दिखती हैं। वह मुण्डमाल धारण करती हैं, रक्तवस्त्र पहनती हैं। उनके दो हाथ हैं जिनमें क्रमशः खड्ग और खप्पर रहता है।

तंत्रचूड़ामणि के अनुसार

तंत्रचूड़ामणि के अनुसार काशी (वाराणसी) में सती के दाहिने कान की मणि का निपात हुआ था। यह स्थान मीरघाट मुहल्ले के मकान नंबर डी/3-85 में स्थित है, जहाँ विशालाक्षी गौरी का प्रसिद्ध मंदिर तथा विशालाक्षेश्वर महादेव का शिवलिंग भी है।[1] यहाँ भगवान् काशी विश्वनाथ विश्राम करते हैं।

विशालाक्षी पीठ

देवी भागवत के 108 शक्तिपीठों में सर्वप्रथम विशालाक्षी का नामोल्लेख है,

वाराणस्यां विशालाक्षी नैमिषे लिंगधारिणी। प्रयागे ललिता देवी कामाक्षी गंधमादने॥[2]

जहाँ सती का मुख गिरा था।[3] देवी के सिद्ध स्थानों में काशी में मात्र विशालाक्षी का वर्णन मिलता है तथा एक मात्र विशालाक्षी पीठ का उल्लेख काशी में किया गया है।

अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये।[4]

तथा

वारणस्यां विशालाक्षी गौरीमुख निवासिनी।[5]

स्कंद पुराण [6] के अनुसार विशालाक्षी नौ गौरियों में पंचम हैं तथा भगवान् श्री काशी विश्वनाथ उनके मंदिर के समीप ही विश्राम करते हैं।

विशालाक्ष्या महासौधे मम विश्राम भूमिका। तत्र संसृति खित्तान्नां विश्रामं श्राणयाम्यहम्॥[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देवी पुराण (महाभागवत), पृष्ठ 459
  2. श्रीमददेवी भागवत महापुराण-सप्तम स्कंध-अध्याय 30
  3. श्रीमद्देवी भागवत के अनुसार मुख का तथा तंत्रचूड़ामणि के अनुसार यहाँ दाहिनी कर्णमणि का निपात हुआ था
  4. देवी भागवत 7/38/27
  5. तदैव 7/30/55
  6. काशी खण्ड
  7. स्कंद पुराण, काशीखण्ड, 79/77

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