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उत्पत्ति 1847 ई. में रौथ ने संकेत किया था कि शूद्र आर्यों के समाज से बाहर के रहे होंगे।[1] उस समय से सामान्यतया यह विचारधारा चली आ रही है कि ब्राह्मणकालीन समाज का चौथा वर्ण मुख्यतया आर्येतर लोगों का था, जिनकी वैसी स्थिति आर्य विजेताओं ने बना रखी थी।[2] यूरोप के 'गौरांग' और एशिया तथा अफ़्रीका के 'गौरांगेतर' लोगों के बीच हुए संघर्ष से साम्य के आधार पर इस विचारधारा की पुष्टि की जाती रही है।

वेदों में शूद्र

यदि दास और दस्यु दोनों आर्येत्तर भाषा बोलने वाले भारत के मूल निवासी हों[3], तो उपर्युक्त विचारधारा के पक्ष में ऋग्वेद से प्रमाण प्रस्तुत करना सम्भव है। इस ग्रन्थ के अनेक सूक्तों में, जिन्हें अथर्ववेद में भी दुहराया गया है, आर्यों के देवता इन्द्र को दासों के विजेता के रूप में चित्रित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये दास मनुष्य ही रहे होंगे। वेदों में कहा गया है कि, इन्द्र ने अधम दास वर्ण को गुफाओं में रहने को बाध्य कर दिया था।[4] विश्व-नियंता की हैसियत से दासों को पराधीन बनाने का भार उनके ऊपर है[5], और उनसे यह अनुरोध भी किया जाता है कि वे इन दासों का विनाश करने के लिए तैयार रहें।[6] ऋग्वैदिक स्तुतियों में बार-बार इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे दास जनजाति (विशु) का विध्वंस करें।[7] इन्द्र के बारे में यह भी कहा गया है कि उसने दस्युओं को सभी अच्छे गुणों से वंचित रखा है और दासों को अपने वश में किया है।[8]

दस्यु और दास

वेदों में दासों की अपेक्षा दस्युओं के विनाश और उन्हें पराधीन बनाने की चर्चा अधिक है। कहा गया है कि दस्युओं को मारकर इन्द्र ने आर्य वर्ण की रक्षा की है।[9] स्तुतियों में उससे अनुरोध किया गया है कि वह दस्युओं से युद्ध करे, ताकि आर्यों की शक्ति बढ़ सके।[10] महत्व की बात है कि दस्युओं की हत्या की चर्चा कम से कम बारह जगहों पर हुई है, जिनमें से अधिकांश हत्याएँ इन्द्र के द्वारा ही बताई गई हैं।[11] इसके विपरीत यद्यपि दासों की हत्या के अलग-अलग प्रसंग भी आए हैं, किन्तु ‘दासहत्या’ शब्द कहीं पर भी नहीं मिलता है। इससे पता चलता है कि दास और दस्यु पर्यायवाची नहीं थे और आर्य दस्युओं का विनाश निर्ममतापूर्वक करते थे, पर दासों के प्रति उनकी नीति नरम थी।

आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनमें मुख्यत: शत्रुओं के क़िलों और दीवारों से घिरी बस्तियों को ध्वस्त किया गया। दासों और दस्युओं, दोनों ही के क़ब्ज़े में अनेक क़िलाबन्द बस्तियाँ थी[12] जिनका सम्बन्ध भी सामान्यतया आर्यों के शत्रुओं के साथ जोड़ा जाता है।[13] मालूम होता है कि घुम्मकड़ आर्यों की आँखें दुश्मनों की बस्तियों में संचित सम्पत्ति पर लगी हुई थी और उन्हें हड़पने के लिए दोनों में निरन्तर ही संघर्ष होता रहता था।[14] उपासक की कामना रहती थी कि सभी ऐसे लोगों को मार दिया जाए जो यज्ञ, हवन आदि नहीं करते हैं और उन्हें मार देने के बाद उनकी सारी सम्पत्ति लोगों में बाँट दी जाए।[15] दस्युओं को सम्पत्तिशाली[16] होने पर भी यज्ञ न करने वाला[17] कहा गया है।[18] दो ऐसे दास प्रमुखों का उल्लेख किया गया है जो धनलोलुप माने गए हैं।[19] कामना की गई है कि इन्द्र[20] दासों की शक्ति को क्षीण करें और उनकी एकत्रित सम्पत्ति लोगों में बाँट दें। दस्युओं के पास स्वर्ण और हीरा - जवाहरात भी थे, जिनके चलते प्राय: आर्यों का मन और भी ललच गया।[21] किन्तु आर्य जैसी पशुपालक जाति को मुख्यतया अपने दुश्मनों के पशुधन का अधिक लोभ था। तर्क दिया जाता है कि ‘कीकट’[22] गाय को रखने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वे यज्ञ में गव्य[23] का उपयोग नहीं करते।[24] दूसरी ओर यह भी सम्भव है कि आर्यों के शत्रु उनके घोड़ों और रथों को अधिक महत्व देते थे। ऋग्वेद में एक कथा आई है कि असुरों ने राजर्षि दधीचि के नगर पर क़ब्ज़ा कर लिया था, किन्तु जब असुर लौट रहे थे तो इन्द्र ने उन्हें घेरकर पराजित किया और उनसे मवेशी, घोड़े तथा रथ छीनकर राजर्षि को वापस कर दिए।[25]

आर्यों का जनजातीय जीवन

दस्युओं के रहन-सहन के ढंग से भी आर्य उनके बैरी बन गए। ऐसा लगता है कि आर्यों का पशुपालन आधारित जनजातीय और अस्थायी जीवनक्रम देशीय संस्कृति के स्थायी एवं शहरी जीवन से बेमेल था।[26] आर्यों का जीवन प्रधानतया जनजातीय जीवन था, जो गण, सभा, समिति और विदथ जैसी विभिन्न सामुदायिक संस्थाओं के माध्यम से रूपायित हुआ है और जिसमें यज्ञ का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। किन्तु दस्युओं को यज्ञ से कोई सरोकार नहीं था। दासों के साथ भी यही बात थी, क्योंकि इन्द्र के बारे में बताया गया है कि वह दास और आर्य का विभेद करते हुए यज्ञस्थल में आता था।[27] ऋग्वेद के सातवें मंडल का एक सम्पूर्ण सूक्त अक्रतुन, अश्रद्धान्, अयज्ञान् और अयज्वान: जैसे विशेषणों की श्रृंखला मात्र है। इनका प्रयोग दस्युओं के लिए पुरज़ोर तौर पर यह सिद्ध करने के लिए किया गया है कि उनको यज्ञ पसन्द नहीं था।[28] इन्द्र से कहा गया है कि वे यज्ञपरायण आर्य और यज्ञविमुख दस्युओं के बीच अन्तर करें।[29] ‘अनिंद्र’[30] शब्द का प्रयोग भी कई स्थलों पर किया गया है, [31] और अनुमानत: इससे दस्युओं, दासों और सम्भवत: कुछ भिन्न मतावलम्बी आर्यों का बोध होता है। आर्यों के कथनानुसार दस्यु तिलस्मी जादू करते थे।[32] ऐसा मत अथर्ववेद में विशेष रूप से व्यक्त किया गया है। यहाँ दस्युओं को भूत - पिशाच के रूप में प्रस्तुत किया गया है और उन्हें यज्ञ - स्थल से भगाने की चेष्टा की गई है।[33] कहा जाता है कि ‘अंगिरस’ मुनि के पास एक परम शक्तिशाली रक्षा कवच[34] था, जिससे वह दस्युओं के क़िले को ध्वस्त कर सकते थे।[35] ऋग्वैदिक काल में उन्होंने जो लड़ाइयाँ लड़ी थीं, उनके कारण ही अथर्ववेद में दस्युओं को दुष्टात्मा के रूप में चित्रित किया गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ईश्वर के निन्दक दस्युओं को बलि वेदी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए।[36] ऐसा विश्वास था कि दस्यु विश्वासघाती होते हैं, वे आर्यों की तरह धर्म-कर्म नहीं करते और उनमें मानवता नहीं होती।[37]

आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में अन्तर

आर्यों और दस्युओं के रहन-सहन में जो अन्तर है, उससे आर्यों के व्रत, जिसका अर्थ सामान्यत: जीवन का सुनिश्चित ढंग होता है, के प्रति दस्युओं की क्या दृष्टि थी, इसका पता चलता है।[38] यदि व्रत और व्रात, जिसका अर्थ जनजातीय दल या समूह होता है, के बीच सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव हो तो यह कहा जा सकता है कि व्रत शब्द का अर्थ जनजातीय क़ानून या प्रथा है। दस्युओं को साधारणत: अव्रत[39] और अन्यव्रत[40] कहा गया है। ‘अपव्रत’ शब्द का प्रयोग दो स्थलों पर हुआ है, जो प्राय: दस्युओं और भिन्न मत रखने वाले आर्यों के लिए है।[41] ध्यान देने की बात है कि दासों के लिए इस प्रकार के विशेषणों का प्रयोग नहीं हुआ है, जिससे मालूम होता है कि वे दस्युओं की अपेक्षा आर्यों के तौर-तरीक़े अधिक पसन्द करते थे।

रंग का अन्तर

ऐसा लगता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में रंग का अन्तर था। आर्य, जो मानव[42] कहे जाते थे और अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे, कभी-कभी काले रंग वाले मनुष्यों[43] की बस्तियों में आग लगा देते थे और वे लोग संघर्ष किए बिना ही अपना सर्वस्व छोड़कर भाग खड़े होते थे।[44] आर्य देवता सोम को काले वर्ण के लोगों का हिंसक कहा गया है, जो दस्यु होते थे।[45] इन्द्र को भी काले रंग के राक्षसों[46] से संघर्ष करना पड़ा था, [47] और एक स्थल पर उन्हें पचास हज़ार काले वर्ण वालों[48] की हत्या का श्रेय दिया गया है, जिन्हें काले वर्ण का राक्षस मानते हैं।[49] इन्द्र का असुरों की काली चमड़ी उधेड़ते हुए चित्रण किया गया है।[50] इन्द्र का एक वीरतापूर्ण कार्य, जिसका कुछ ऐतिहासिक आधार हो सकता है, कृष्ण नामक योद्धा के साथ उनका युद्ध है।

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कहा जाता है कि जब कृष्ण ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या यमुना पर खेमा गिराया तब इन्द्र ने मरुतों[51] को संगठित किया और पुरोहित देव बृहस्पति की सहायता से अदेवी: विश: के साथ युद्ध किया।[52] अदेवी: विश: का अर्थ सायण ने काले रंग का असुर बताया है।[53] कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।[54] यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।[55] इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है।[56] सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना[57] माना है, किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे। किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है। उपर्युक्त प्रसंगों से निस्संदेह यह स्पष्ट होता है कि अग्नि और सोम के उपासक आर्यों को भारत के काले लोगों से युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद में एक प्रसंग आया है, जिसमें ‘पुरुकुत्स’ का पुत्र ‘त्रसदस्यु’ नामक वैदिक योद्धा काले रंग के लोगों के नेता के रूप मे वर्णित है।[58] इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने उन लोगों पर अपनी धाक जमा रखी थी।

यदि दस्युओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त अनास[59] शब्द का अर्थ नासाविहीन या चिपटी नाकवाला किया जाए और दासों के प्रसंग में प्रयुक्त वृषशिप्र शब्द[60] का अर्थ ‘वृषभ ओष्ठवाला’ या उभरे ओठोंवाला माना जाए तो यह माजूल पड़ेगा कि मुखाकृतियों की दृष्टि से आर्यों के शत्रु उनसे भिन्न प्रकार के थे।

­ऋग्वेद में ‘मृध्रवाक’ शब्द का प्रयोग विभिन्न रूप में छ: स्थलों पर हुआ है, [61] जिससे पता चलता है कि आर्यों और उनके शत्रुओं में बोलचाल की रीति भिन्न थी। यह दो स्थलों पर दस्युओं का विशेषण है।[62] सायण ने इसका अर्थ ‘विद्वेषपूर्ण वचन’ वाला किया है, और गेल्डनर ने इसे ‘झूठ बोलने वाले’ का पर्याय माना है।[63] इससे पता चलता है कि आर्यों और दस्युओं में कोई भाषाजन्य अन्तर था और दस्यु अपनी अनुचित वाणी से आर्यों की भावना को चोट पहुँचाते थे। अत: आर्यों और उनके दुश्मनों के बीच युद्ध में यद्यपि मुख्य प्रश्न पशु, रथ और अन्य प्रकार की सम्पत्ति को दखल करने का रहता था, फिर भी जाति, धर्म और बोलचाल की रीति में अन्तर होने के कारण भी उनके सम्बन्ध कटु बने रहते थे।

यदि ऋग्वेद में दास और दस्यु शब्द के प्रयोग की आपेक्षिक मात्रा से कोई निष्कर्ष निकाला जा सके, तो जान पड़ता है कि दस्युगण, जिनकी चर्चा चौरासी बार हुई है, स्पष्टत: दासों से अधिक संख्या में थे, जिनका उल्लेख इकसठ बार हुआ है।[64] दस्युओं के साथ युद्ध में अधिक रक्तपात हुआ। अपने विस्तार की आरम्भिक अवस्था में आर्यों को जीविकोपार्जन के लिए पशुधन की अकांक्षा रहती थी। इसलिए स्वभावतया उन्होंने नागर जीवन और संगठित कृषि का महत्व समझा।[65] ऐसा जान पड़ता है कि आर्यों के आने के पहले की नगर बस्तियाँ पूर्णत: ध्वस्त हो गई थीं। युद्ध में शत्रुओं से अपहृत वस्तुओं, ख़ासकर मवेशियों के कारण सरदारों और पुरोहितों की शक्ति बढ़ी होगी और वे ‘विश्’ से ऊपर उठे होंगे। बाद में क्रमश: उन्होंने समझा होगा कि पुरानी संस्कृति के किसानों से श्रमिकों का कार्य लिया जा सकता है और उनसे कृषि कार्य कराया जा सकता है। साथ ही अपनी जनजाति के लोगों से भी श्रमिकों का काम लेना उन्होंने धीरे-धीरे आरम्भ किया होगा।

आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच तो संघर्ष चल ही रहा था, आर्य जनजातीय समाज में भी आन्तरिक द्वन्द्व विद्यमान था। एक युद्धगीत में ‘मन्यु’,-मूर्तिमान क्रोध से याचना की गई है कि वे आर्य और दास दोनों तरह के शत्रुओं को पराजित करने में सहायक हों।[66] इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे ईश्वर से आस्था नहीं रखने वालों दासों और आर्यों से युद्ध करें; ये इन्द्र के अनुयायियों के शत्रु के रूप में वर्णित है।[67] ऋग्वेद में एक स्थल पर कहा गया है कि इन्द्र और वरुण ने सुदास के विरोधी दासों और आर्यों का संहार कर उसकी रक्षा की।[68] सज्जन और धर्मपरायण लोगों की ओर से दो मुख्य ऋग्वैदिक देवताओं, अग्नि और इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वे आर्यों और दासों के दुष्टतापूर्ण कार्यों और अत्याचारों का शमन करें।[69] क्योंकि आर्य स्वयं मानवजाति के दुश्मन थे, अत: आश्चर्य नहीं की इन्द्र ने दासों के साथ-साथ आर्यों का भी विनाश किया होगा।[70] विल्सन ने ऋग्वेद के एक परिच्छेद का जैसा अनुवाद किया है, उसे यदि स्वीकार किया जाए तो उसमें इन्द्र की भरपूर प्रशंसा की गई है, क्योंकि उन्होंने सप्तसिंधु (सात नदियों) के तट पर राक्षसों और आर्यों से लोगों की रक्षा की। उनसे यह भी अनुरोध किया गया है कि वे दासों को अस्त्र-शस्त्र विहीन कर दें।[71]

  1. आर. रौथ: शब्रह्म एंड डाइ ब्राह्मनेन साइटशिफ्ट डेर डोयूचेन मेर्गेनलेंडिशेन गेज़ेलशाफ्ट बर्लिन, 1 पृष्ठ 84
  2. वैदिक इंडेक्स, 2, पृष्ठ 265,388; आर. सी. दत्त: ए हिस्ट्री ऑफ़ सिविलिजेशन इन एनशिएंट इण्डिया, 1, पृष्ठ 2; सोनार्ट: कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 83; एन. के. दत्त: ओरोजिन एण्ड ग्रोथ ऑफ़ कास्ट इन इण्डिया, पृष्ठ 151-52; धुर्वे: कास्ट एण्ड क्लास, पृष्ठ 152-2, डी. आर. भंडारकर: सम आक्पेक्ट्स ऑफ़ एनशिएंट इण्डियन कल्चर, पृष्ठ 10
  3. जे. म्यूर: ‘ओरिजिनल संस्कृत टेक्ट्स’, 2, पृष्ठ 387. म्यूर का विचार है कि यह बताने के लिए कोई प्रमाण नहीं है कि वे आर्यों से भिन्न थे।
  4. ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’ अथर्ववेद, XX, 34. 4.
  5. ऋग्वेद, V. 34.6-‘यशावशं नयति दासमार्य:’
  6. ऋग्वेद, II. 13.8.-‘दासवेशाय चाव:’ सायण ने इसकी टीका दासों के विनाश के रूप में की है, किन्तु वैदिक इंडेक्स, I, 358, इसे दास का नाम मानता है।
  7. ऋग्वेद, II. 11.4; VI. 25.2; और X. 148.2
  8. ऋग्वेद, IV. 28.4
  9. ऋग्वेद, III. 34.9- हत्वी दस्यून प्रार्यं वर्णमावत; अथर्ववेद, XX. 11.9 (पिप्पलाद संस्करण में नहीं)
  10. ऋग्वेद, I, अथर्ववेद XX. 20.4
  11. ऋग्वेद, I. 51.5-6, 103.4; X.95.7, 99.7 में दस्यता शब्द आया है, दस्युधुन शब्द ऋग्वेद, VI. 16.10 में, दस्युहन शब्द ऋग्वेद, X. 47.4 में दस्युहंतम् शब्द ऋग्वेद, IV. 16.15, VIII. 39.8 में आया है और वाजसनेयि संहिता, XI. 34 में उसकी पुनरावृत्ति की गई है। आर्यों और दस्युओं में शत्रुता के कई प्रसंग आए हैं, यथा, ऋग्वेद, V. 7.10, VII. 5.6 आदि। ऋग्वेद, 1.100. 12, VI. 45.24; VIII. 76.11, 77.3 में इंद्र को दस्युहा कहा गया है। इंद्र द्वारा दस्युओं की हत्या के ऐसे ही कई प्रसंग अथर्ववेद III. 10-12; VIII. 8.5, 7; IX. 2.17 और 18; X. 3. 11; XIX. 46.2, XX. 11.6; 21.4, 29.4, 34.10, 37.4, 42.2, 64.3, 78.3 में आए हैं और अग्नि द्वारा दस्युओं की हत्या के प्रसंग अथर्ववेद में I. 7. 1. XI. 1.2 में आए हैं। अथर्ववेद, VI. 32.3 में मन्यु को दस्युहा कहा गया है।
  12. ऋग्वेद, I. 103.3; II. 19.6; IV. 30.20; VI. 20.10, 31.4.
  13. ऋग्वेद, I. 33.13, 53.8; VIII. 17.4.
  14. ऋग्वेद, IV. 30.13; V. 40.6; X. 69.6.
  15. ऋग्वेद, 176.4, 'अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदो हते'.
  16. धनिन:
  17. अक्रतु
  18. ऋग्वेद, I. 33.4.
  19. ऋग्वेद,VI. 47.21.
  20. ऋग्वेद, VIII. 40.6, 'वयं तदस्य सम्भृतं वसु इद्रेण विभजेमहि'.
  21. ऋग्वेद, I. 33.7-8.
  22. हरियाणा में रहने वाली एक जाति
  23. दुग्धोत्पादित वस्तुओं
  24. ऋग्वेद, III. 53.14. 'किं ते कृण्वंति की कटेषु गावो नाशीरं दुर्हे न तपन्ति धर्मम्'
  25. ऋग्वेद, II. 15.4.
  26. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I पृ. 90-91.
  27. ऋग्वेद, X. 86.19; अथर्ववेद, XX. 126.19.
  28. ऋग्वेद, VII. 6.3.
  29. ऋग्वेद, I. 51.8.
  30. इन्द्र को न मानने वाला
  31. ऋग्वेद, I. 133.1; V. 2.3; VII. 1.8.16; X. 27.6; X. 48.7.
  32. ऋग्वेद, IV. 16.9.
  33. अथर्ववेद, II. 14.5.
  34. ताबीज
  35. अथर्ववेद, X. 6.20.
  36. अथर्ववेद, XII. 1.37.
  37. ऋग्वेद, X. 22.8.
  38. पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. पृ. 12.
  39. ऋग्वेद, I. 51.8-9; I. 101.2; I. 175.3; VI. 14.3; IX. 41.2. किन्तु ‘अव्रत’ शब्द का प्रयोग कहीं पर भी दास के लिए नहीं किया गया है।
  40. ऋग्वेद, VIII. 70.11; X. 22.8.
  41. ऋग्वेद, V. 42.9; V. 40.6 में ‘अपव्रत’ शब्द का अर्थ काला माना गया है।
  42. मानुषी प्रजा
  43. असिक्नीविश:
  44. ऋग्वेद, VII. 5.2-3.। गेल्डर का अनुवाद; बी. लाल : ‘एनशियंट इण्डिया’, 9, पृ. 88. राणा घुंडई III. में हड़प्पा संस्कृति का अन्त भीषण अग्निकांड में हुआ।
  45. ऋग्वेद, IX, 41.1-2. ‘ध्नन्त: कृष्णं आप त्वचं....साह्वाम्से दास्युमव्रतम्’.
  46. त्वचमसिक्नीम्
  47. ऋग्वेद, IX. 73.5.
  48. कृष्ण
  49. ऋग्वेद, IV. 16.13. किन्तु गेल्डनर ने इस सन्दर्भ में राक्षस का ज़िक्र नहीं किया है।
  50. ऋग्वेद, I. 130.8.
  51. आर्यविश्
  52. ऋग्वेद, VIII, 96.13-15. ‘अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे धारयतल्वम्, तित्विषाण:; विशो अदेविर्भ्या चरन्तिर् बृहस्पतिना युजेन्द्र: ससाहे’.
  53. कृष्णरूपा: असुरसेना:।
  54. कोसंबी : ‘जर्नल ऑफ़ द बाम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी’, बम्बई, न्यू सीरीज, XXVII, 43.
  55. ऋग्वेद, I. 101.1. ‘य: कृष्णगर्भनिरहन्नृजिश्वाना’.
  56. ऋग्वेद, 20.7. ‘सवृत्रहेन्द्र: कृष्णयोनि: पुरन्दर ओदासीरैर्याद्वि’....सायण की टीका.। किन्तु गेल्डनर का सुझाव है कि दासों में पुर: अंतर्निहित है और कवि गर्भाधान की बात सोचता है।
  57. निकृष्ट जाती:.....आसुरी: सेना:
  58. ऋग्वेद, VIII. 19.36-37.
  59. ऋग्वेद, V. 29.10. सायण अनास की व्याख्या वाणीविहीन (आस्यरहित) के अर्थ में करते हैं।
  60. ऋग्वेद, VII 99.4.
  61. ऋग्वेद, I. 174.2; V. 29.10, 32.8; VII. 6.3, 18.13. चार स्थानों पर नहीं, जैसा कि ‘हू वेयर द शूद्राज़’, पृष्ठ 71 में है।
  62. ऋग्वेद, V. 29.10; VII. 6.3.
  63. ऋग्वेद, I. 174.2.
  64. यह गिनती विश्वबंधु शास्त्री के वैदिक कोश पर आधारित है।
  65. व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I, पृष्ठ 8. व्हीलर की राय है कि असभ्य खानाबदोशों (अर्थात् आर्यों) की चढ़ाई के कारण संगठित कृषि बिखर गई, पर अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनक आधार पर कहा जाए कि सैंधव शहरी सभ्यता के लोगों और आर्यों के बीच जमकर लड़ाई हुई।
  66. ऋग्वेद, X 83.1. ‘साह्यम दासमार्यं त्वयायुजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता’, जो अथर्ववेद, IV. 32.1 जैसा ही है।
  67. ऋग्वेद, X. 38.3; देखें अथर्ववेद, XX. 36.10.
  68. ऋग्वेद, VII. 83.1. ‘दासाच वृत्रा हतमार्याणि च सुदासम् इन्द्रावरुणावसावतम्’।
  69. ऋग्वेद, VI. 60.6.
  70. ऋग्वेद, VI. 33.3; ऋग्वेद X. 102.3.
  71. ऋग्वेद, VIII. 24.27. ‘य ऋक्षादंहसो मुचद्योवार्यात् सप्तसिन्धुषु; वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम्;’ गेल्डनर इस परिच्छेद का अर्थ लगाते हैं कि इंद्र ने दासों के अस्त्रों को आर्यों से विमुख कर दिया है।