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'''श्री त्र्यम्बकेश्वर / Shri Trayambkeshwar''' <br />
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[[चित्र:Trimbakeshwar.jpg|त्र्यंबकेश्वर मंदिर, [[नासिक]]<br /> Trimbakeshwar Temple, Nasik|thumb|250px]]
 
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'''त्र्यम्बकेश्वर मंदिर''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Trimbakeshwar Temple'') [[महाराष्ट्र]] प्रान्त के [[नासिक]] जनपद में नासिक शहर से तीस किलोमीटर पश्चिम में अवस्थित है। इसे त्रयम्बक ज्योतिर्लिंग, त्र्यम्बकेश्वर शिव मन्दिर भी कहते है। यहाँ समीप में ही ब्रह्मगिरि नामक पर्वत से [[गोदावरी नदी]] निकलती है। जिस प्रकार उत्तर [[भारत]] में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदी [[गंगा नदी|गंगा]] का विशेष आध्यात्मिक महत्त्व है, उसी प्रकार दक्षिण में प्रवाहित होने वाली इस पवित्र नदी गोदावरी का विशेष महत्त्व है। जहाँ उत्तरभारत की गंगा को ‘भागीरथी’ कहा जाता हैं, वहीं इस गोदावरी नदी को ‘गौतमी गंगा’ कहकर पुकारा जाता है। भागीरथी राजा [[भगीरथ]] की तपस्या का परिणाम है, तो गोदावरी ऋषि [[गौतम]] की तपस्या का साक्षात फल है।
==स्थिति==
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==महाकुम्भ का आयोजन==
 
{{tocright}}
 
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श्री त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग [[महाराष्ट्र]] प्रान्त के [[नासिक]] जनपद में नासिक शहर से तीस किलोमीटर पश्चिम में अवस्थित है।
 
==गोदावरी का उद्गम==
 
यहाँ समीप में ही ब्रह्मगिरि नामक पर्वत से [[गोदावरी नदी]] निकलती है। जिस प्रकार उत्तर भारत में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदी [[गंगा नदी|गंगा]] का विशेष आध्यात्मिक महत्त्व है, उसी प्रकार दक्षिण में प्रवाहित होने वाली इस पवित्र नदी गोदावरी का विशेष महत्त्व है। जहाँ उत्तरभारत की गंगा को ‘भागीरथी’ कहा जाता हैं, वहीं इस गोदावरी नदी को ‘गौतमी गंगा’ कहकर पुकारा जाता है। भागीरथी राजा [[भगीरथ]] की तपस्या का परिणाम है, तो गोदावरी ऋषि [[गौतम]] की तपस्या का साक्षात फल है।
 
==महाकुम्भ का आयोजन==
 
 
देश में लगने वाले विश्व के प्रसिद्ध चार महाकुम्भ मेलों में से एक महाकुम्भ का मेला यहीं लगता है। यहाँ प्रत्येक बारहवें वर्ष जब सिंह राशि पर बृहस्पति का पदार्पण होता है और सूर्य नारायण भी सिंह राशि पर ही स्थित होते हैं, तब महाकुम्भ पर्व का स्नान, मेला आदि धार्मिक कृत्यों का समारोह होता है। उन दिनों गोदावरी गंगा में स्नान का आध्यात्मिक पुण्य बताया गया है।
 
देश में लगने वाले विश्व के प्रसिद्ध चार महाकुम्भ मेलों में से एक महाकुम्भ का मेला यहीं लगता है। यहाँ प्रत्येक बारहवें वर्ष जब सिंह राशि पर बृहस्पति का पदार्पण होता है और सूर्य नारायण भी सिंह राशि पर ही स्थित होते हैं, तब महाकुम्भ पर्व का स्नान, मेला आदि धार्मिक कृत्यों का समारोह होता है। उन दिनों गोदावरी गंगा में स्नान का आध्यात्मिक पुण्य बताया गया है।
 
==श्री त्र्यम्बकेश्वर शिव==
 
==श्री त्र्यम्बकेश्वर शिव==
गोदावरी के उद्गगम स्थल के समीप ही श्री त्र्यम्बकेश्वर [[शिव]] अवस्थित हैं, जिनकी महिमा का बखान [[पुराण|पुराणों]] में किया गया है। ऋषि गौतम और पवित्र नदी गोदावरी की प्रार्थना पर ही भगवान शिव ने इस स्थान पर अपने वास की स्वीकृति दी थी। वही भगवान शिव ‘त्र्यम्बकेश्वर’ नाम से इस जगत में विख्यात हुए। यहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन स्त्रियों के लिए निषिद्ध है, अत: वे केवल भगवान के मुकुट का दर्शन करती हैं। त्र्यम्बकेश्वर-मन्दिर में सर्वसामान्य लोगों का भी प्रवेश न होकर, जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) हैं तथा भजन-पूजन करते हैं और पवित्रता रखते हैं, वे ही लोग मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर पाते हैं। इनसे अतिरिक्त लोगों को बाहर से ही मन्दिर का दर्शन करना पड़ता है।
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गोदावरी के उद्गगम स्थल के समीप ही श्री त्र्यम्बकेश्वर [[शिव]] अवस्थित हैं, जिनकी महिमा का बखान [[पुराण|पुराणों]] में किया गया है। ऋषि गौतम और पवित्र नदी गोदावरी की प्रार्थना पर ही भगवान शिव ने इस स्थान पर अपने वास की स्वीकृति दी थी। वही भगवान शिव ‘त्र्यम्बकेश्वर’ नाम से इस जगत् में विख्यात हुए। यहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन स्त्रियों के लिए निषिद्ध है, अत: वे केवल भगवान के मुकुट का दर्शन करती हैं। त्र्यम्बकेश्वर-मन्दिर में सर्वसामान्य लोगों का भी प्रवेश न होकर, जो द्विज ([[ब्राह्मण]], [[क्षत्रिय]] और [[वैश्य]]) हैं तथा भजन-पूजन करते हैं और पवित्रता रखते हैं, वे ही लोग मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर पाते हैं। इनसे अतिरिक्त लोगों को बाहर से ही मन्दिर का दर्शन करना पड़ता है।
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==श्री त्र्यम्बकेश्वर और गोदावरी==
 
==श्री त्र्यम्बकेश्वर और गोदावरी==
यहाँ मन्दिर के भीतर एक गड्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग हैं, जो [[ब्रह्मा]] [[विष्णु]] और शिव इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। ब्रह्मगिरी से निकलने वाली गोदावरी की जलधारा इन त्रिमूर्तियों पर अनवरत रूप से पड़ती रहती है। ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिए सात सौ सीढ़ियों का निर्माण कराया गया है। ऊपरी पहाड़ी पर ‘रामकुण्ड’ और ‘लक्ष्मणकुण्ड’ नामक दो कुण्ड भी स्थित हैं। पर्वत की चोटी पर पहुँचने पर गोमुखी से निकलती हुई भगवान गौतमी (गोदावरी) का दर्शन प्राप्त होता है। श्री शिव महापुराण के कोटिरूद्र संहिता में ऋषि गौतम- गौतमी-गोदावरी तथा त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है-
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यहाँ मन्दिर के भीतर एक गड्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग हैं, जो [[ब्रह्मा]] [[विष्णु]] और शिव इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। ब्रह्मगिरी से निकलने वाली गोदावरी की जलधारा इन त्रिमूर्तियों पर अनवरत रूप से पड़ती रहती है। ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिए सात सौ सीढ़ियों का निर्माण कराया गया है। ऊपरी पहाड़ी पर ‘रामकुण्ड’ और ‘लक्ष्मणकुण्ड’ नामक दो कुण्ड भी स्थित हैं। पर्वत की चोटी पर पहुँचने पर गोमुखी से निकलती हुई भगवान गौतमी (गोदावरी) का दर्शन प्राप्त होता है। श्री शिव महापुराण के [[कोटिरुद्र संहिता]] में ऋषि गौतम- गौतमी-गोदावरी तथा त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है-
 
==शिव पुराण के अनुसार==  
 
==शिव पुराण के अनुसार==  
‘पूर्व समय में गौतम नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि अपनी धर्मपत्नी [[अहल्या]] के साथ रहते थे। उन्होंने दक्षिण भारत के ब्रह्मगिरि पर्वत पर दस हजार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी।
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‘पूर्व समय में गौतम नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि अपनी धर्मपत्नी [[अहल्या]] के साथ रहते थे। उन्होंने दक्षिण [[भारत]] के ब्रह्मगिरि पर्वत पर दस हज़ार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी।
एक समय वहाँ सौ वर्षों तक वर्षा बिल्कुल नहीं हुई, सब जगह सूखा पड़ने के कारण जीवधारियों में बेचैनी हो गई। जल के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये, पृथ्वी पर महान संकट टूट पड़ा, सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता, आखिर जीवन को धारण करने वाला जल कहाँ से लाया जाये?  उस समय मनुष्य, मुनि, पशु, पक्षी तथा अन्य जीवनधारी भी जल के लिए भटकते हुए विविध दिशाओं में चले गये। उसके बाद ऋषि गौतम ने छ: महीने तक कठोर तपस्या करके [[वरुण]] देवता को प्रसन्न किया। ऋषि ने वरुण देवता से जब जल बरसाने की प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा कि मैं देवताओं के विधान विपरीत वृष्टि नहीं कर सकता, किन्तु तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हेतु तुम्हें अक्षय (कभी नष्ट नहीं होने वाला) जल देता हूँ। तुम उस जल को रखने के लिए एक गड्ढा तैयार करो।
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एक समय वहाँ सौ वर्षों तक वर्षा बिल्कुल नहीं हुई, सब जगह सूखा पड़ने के कारण जीवधारियों में बेचैनी हो गई। जल के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये, पृथ्वी पर महान् संकट टूट पड़ा, सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता, आख़िर जीवन को धारण करने वाला जल कहाँ से लाया जाये?  उस समय मनुष्य, मुनि, पशु, पक्षी तथा अन्य जीवनधारी भी जल के लिए भटकते हुए विविध दिशाओं में चले गये। उसके बाद ऋषि गौतम ने छ: महीने तक कठोर तपस्या करके [[वरुण देवता|वरुण]] [[देवता]] को प्रसन्न किया। ऋषि ने वरुण देवता से जब जल बरसाने की प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा कि मैं देवताओं के विधान के विपरीत वृष्टि नहीं कर सकता, किन्तु तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हेतु तुम्हें 'अक्षय'<ref>(कभी नष्ट नहीं होने वाला)</ref> जल देता हूँ। तुम उस जल को रखने के लिए एक गड्ढा तैयार करो।
वरुण देव के आदेश के अनुसार ऋषि गौतम ने एक हाथ गहरा एक गड्ढा खोद दिया, जिसे वरुण ने अपने दिव्य जल से भर दिया। उसके बाद उन्होंने परोपकार परायण ऋषि गौतम से कहा– ‘महामुने! यह अक्षुण्ण जल कभी नष्ट नहीं होगा और तीर्थ बनकर इस पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके समीप दान-पुण्य, हवन-यज्ञ, तर्पण, देव पूजन और पितरों का श्राद्ध, सब कुछ अक्षय फलदायी होंगे। उसके बाद उस जल से ऋषि गौतम ने बहुतों का कल्याण किया, जिससे उन्हें सुख की अनुभूति हुई।  
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वरुण देव के आदेश के अनुसार ऋषि गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोद दिया, जिसे वरुण ने अपने दिव्य जल से भर दिया। उसके बाद उन्होंने परोपकार परायण ऋषि गौतम से कहा– ‘महामुने! यह अक्षुण्ण जल कभी नष्ट नहीं होगा और तीर्थ बनकर इस पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके समीप दान-पुण्य, हवन-यज्ञ, तर्पण, देव पूजन और पितरों का श्राद्ध, सब कुछ अक्षय फलदायी होंगे। उसके बाद उस जल से ऋषि गौतम ने बहुतों का कल्याण किया, जिससे उन्हें सुख की अनुभूति हुई।  
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[[चित्र:Trimbakeshwar-Temple-4.jpg|thumb|left|250px|त्र्यम्बकेश्वर मंदिर का मुख्य द्वार]]
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इस प्रकार वरुण से अक्षय जल की प्राप्ति के बाद [[ऋषि]] [[गौतम ऋषि|गौतम]] आनन्द के साथ अपने नित्य नैमित्तिक कर्म, [[यज्ञ]] आदि सम्पन्न करने लगे। उन्होंने अपने नित्य हवन-यज्ञ के लिए धान, जौं, नीवार (ऋषि धान्य) आदि लगवाया। जल की सुलभता से वहाँ विविध प्रकार की फ़सलें, अनेक प्रकार के वृक्ष तथा फल-फूल लहलहा उठे। इस प्रकार जल की सुविधा और व्यवस्था को सुनकर वहाँ हज़ारों ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी और जीवधारी रहने लगे। कर्म करने वाले बहुत से ऋषि-मुनि अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रों तथा शिष्यों के साथ रहने लगे। समय का सदुपयोग करने के लिए गौतम ने काफ़ी खेतों में धान लगाया। उनके प्रभाव से उस क्षेत्र में सब ओर आनन्द ही आनन्द था।
  
इस प्रकार वरुण से अक्षय जल की प्राप्ति के बाद ऋषि गौतम आनन्द के साथ अपने नित्य नैमित्तिक कर्म, यज्ञ आदि सम्पन्न करने लगे। उन्होंने अपने नित्य हवन-यज्ञ के लिए धान, जौं, नीवार (ऋषि धान्य) आदि लगवाया। जल की सुलभता से वहाँ विविध प्रकार की फसलें, अनेक प्रकार के वृक्ष तथा फल-फूल लहलहा उठे। इस प्रकार जल की सुविधा और व्यवस्था को सुनकर वहाँ हजारों ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी और जीवधारी रहने लगे। कर्म करने वाले बहुत से ऋषि-मुनि अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रों तथा शिष्यों के साथ रहने लगे। समय का सदुपयोग करने के लिए गौतम ने काफी खेतों में धान लगाया। उनके प्रभाव से उस क्षेत्र में सब ओर आनन्द ही आनन्द था।
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एक बार कुछ ब्रह्मणों की स्त्रियाँ जो गौतम के आश्रम में आकर निवास करती थीं, जल के सम्बन्ध में विवाद हो जाने पर अहल्या से नाराज़ हो गयी। उन्होंने गौतम को नुक़सान पहुँचाने हेतु अपने पतियों को उकसाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम का अनिष्ट करने हेतु [[गणेश]] जी की आराधना की। गणेश जी के प्रसन्न होने पर उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि आप ऐसा कोई उपाय कीजिए कि यहाँ के सभी ऋषि डाँट-फटकार कर गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें। गणेश जी ने उन सबको समझाया कि तुम लोगों को ऐसा करना उचित नहीं है। यदि तुम लोग बिना अपराध किये ही गौतम पर क्रोध करोगे, तो इससे तुम लोगों की ही हानि होगी। जिसने पहले उपकार किया हो, ऐसे व्यक्ति को कष्ट दिया जाय, तो वह अपने लिए ही दु:खदायी होता है।  
 
 
एक बार कुछ ब्रह्मणों की स्त्रियाँ जो गौतम के आश्रम में आकर निवास करती थीं, जल के सम्बन्ध में विवाद हो जाने पर अहल्या से नाराज हो गयी। उन्होंने गौतम को नुकसान पहुँचाने हेतु अपने पतियों को उकसाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम का अनिष्ट करने हेतु [[गणेश]] जी की आराधना की। गणेश जी के प्रसन्न होने पर उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि आप ऐसा कोई उपाय कीजिए कि यहाँ के सभी ऋषि डाँट-फटकार कर गौतम को आश्रम से बार निकाल दें। गणेश जी ने उन सबको समझाया कि तुम लोगों को ऐसा करना उचित नहीं है। यदि तुम लोग बिना अपराध किये ही गौतम पर क्रोध करोगे, तो इससे तुम लोगों की ही हानि होगी। जिसने पहले उपकार किया हो, ऐसे व्यक्ति को कष्ट दिया जाय, तो वह अपने लिए ही दु:खदायी होता है।  
 
 
जब अकाल पड़ा था और उपवास के कारण तुम लोग दु:ख भोग रहे थे, उस समय गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम लोगों को सुख पहुँचाया, किन्तु अब तुम लोग उन्हें ही कष्ट देना चाहते हो। उस विषय पर तुम लोग पुनर्विचार करो। गणेश जी के समझाने पर भी वे दुष्ट ऋषि दूसरा वर लेने के लिए तैयार नहीं हुए और अपने पहले वाले दुराग्रह पर अड़े रहे।
 
जब अकाल पड़ा था और उपवास के कारण तुम लोग दु:ख भोग रहे थे, उस समय गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम लोगों को सुख पहुँचाया, किन्तु अब तुम लोग उन्हें ही कष्ट देना चाहते हो। उस विषय पर तुम लोग पुनर्विचार करो। गणेश जी के समझाने पर भी वे दुष्ट ऋषि दूसरा वर लेने के लिए तैयार नहीं हुए और अपने पहले वाले दुराग्रह पर अड़े रहे।
  
शिवपुत्र गणेश अपने भक्तों के अधीन होने के कारण, उनके द्वारा गौतम के विरूद्ध माँगे गये वर को स्वीकार कर लिया और कहा कि उसे मैं अवश्य ही पूर्ण करूँगा। गौतम ने अपने खेत में धान और जौं लगाया था। गणेश जी उन अत्यन्त दुबली-पतली और कमजोर गाय का रूप धारण कर उन खेतों में जाकर फसलों को चरने लगे। उसी समय संयोगवश दयालु गौतम जी वहाँ पहुँच गये और मुट्ठी भर खर-पतवार लेकर उस गौ को हाँकने लगे। उन खर-पतवारों का स्पर्श होते ही वह दुर्बल गौ कांपती हुई धरती पर गिर गई और तत्काल ही मर गयी।  
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शिवपुत्र [[गणेश]] अपने [[भक्त|भक्तों]] के अधीन होने के कारण, उनके द्वारा गौतम के विरुद्ध माँगे गये वर को स्वीकार कर लिया और कहा कि उसे मैं अवश्य ही पूर्ण करूँगा। गौतम ने अपने खेत में धान और जौं लगाया था। गणेश जी उन अत्यन्त दुबली-पतली और कमज़ोर गाय का रूप धारण कर उन खेतों में जाकर फ़सलों को चरने लगे। उसी समय संयोगवश दयालु गौतम जी वहाँ पहुँच गये और मुट्ठी भर खर-पतवार लेकर उस गौ को हाँकने लगे। उन खर-पतवारों का स्पर्श होते ही वह दुर्बल गौ कांपती हुई धरती पर गिर गई और तत्काल ही मर गयी।  
  
वे दुष्ट ब्राह्मण और उनकी स्त्रियाँ छिपकर उक्त सारी घटनाएँ देख रही थीं। गौ के धरती पर गिरते ही सभी ऋषि गौतम के सामने आकर बोल पड़े– ‘अरे , गौतम ने यह क्या कर डाला?’ गौतम भी आश्चर्य में डूब गयो। उन्होंने अहल्या से दु:खपूर्वक कहा– ‘देवि! यह सब कैसे हो गया और क्यों हुआ? लगता है, ईश्वर मुझ पर कुपित हैं। अब मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? मुझे तो गोहत्या के पाप ने स्पर्श कर लिया है।’ इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए गौतम की उन ब्राह्मणों तथा उनकी पत्नियों  ने घोर निन्दा की, उन्हें अपशब्द कहे और दुर्वचनों द्वारा अहल्या को भी प्रताड़ित किया। उनके शिष्यों तथा पुत्रों ने भी गौतम को पुन:-पुन: धिक्कारा और फटकारा, जिससे बेचारे गौतम भयंकर संकट और सन्ताप के सागर में गोता लगाने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा– ‘अब तुम यहाँ से चले जाओ, क्योंकि तुम्हें यहाँ मुख दिखाना अब ठीक नहीं है। गोहत्या करने वाले का मुख देखने पर तत्काल सचैल अर्थात वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता है। इस आश्रम में तुम जैसे गो हत्यारे के रहते हुए [[अग्नि]] देव और पितृगण (पितर) हमारे हव्य-कव्य (हवन तथा पिण्डदान) आदि को ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए पापी होने के कारण तुम बिना देरी किये शीघ्र ही परिवार सहित कहीं दूसरी जगह चले जाओ।
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वे दुष्ट [[ब्राह्मण]] और उनकी स्त्रियाँ छिपकर उक्त सारी घटनाएँ देख रही थीं। गौ के धरती पर गिरते ही सभी ऋषि गौतम के सामने आकर बोल पड़े– ‘अरे , गौतम ने यह क्या कर डाला?’ गौतम भी आश्चर्य में डूब गये। उन्होंने अहल्या से दु:खपूर्वक कहा– ‘देवि! यह सब कैसे हो गया और क्यों हुआ? लगता है, ईश्वर मुझ पर कुपित हैं। अब मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? मुझे तो गोहत्या के पाप ने स्पर्श कर लिया है।’ इस प्रकार पश्चाताप करते हुए गौतम की उन ब्राह्मणों तथा उनकी पत्नियों  ने घोर निन्दा की, उन्हें अपशब्द कहे और दुर्वचनों द्वारा अहल्या को भी प्रताड़ित किया। उनके शिष्यों तथा पुत्रों ने भी गौतम को पुन:-पुन: धिक्कारा और फटकारा, जिससे बेचारे गौतम भयंकर संकट और सन्ताप के सागर में गोता लगाने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा– ‘अब तुम यहाँ से चले जाओ, क्योंकि तुम्हें यहाँ मुख दिखाना अब ठीक नहीं है। गोहत्या करने वाले का मुख देखने पर तत्काल सचैल अर्थात् वस्त्र सहित [[स्नान]] करना पड़ता है। इस आश्रम में तुम जैसे गो हत्यारे के रहते हुए [[अग्निदेव|अग्नि]] देव और पितृगण (पितर) हमारे हव्य-कव्य (हवन तथा पिण्डदान) आदि को ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए पापी होने के कारण तुम बिना देरी किये शीघ्र ही परिवार सहित कहीं दूसरी जगह चले जाओ।
  
उसके बाद उन दुष्ट ब्राह्मणों ने गालियाँ देते हुए सपत्नीक ऋषि गौतम को अपमानित किया और उन पर ढेले तथा पत्थरों से भी प्रहार किया। कष्ट और मानसिक सन्ताप से भी पीड़ित गौतम ने उस आश्रम को तत्काल छोड़ दिया। उन्होंने वहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर जाकर अपना आश्रम बनाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम को तंग करने हेतु वहाँ भी उनका पीछा किया। उन्होंने कहा– ‘जब तक तुम्हारे ऊपर गो हत्या का पाप है, तब तक तुम्हें किसी भी वैदिकदेव अथवा पितृयज्ञ के अनुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिए।’ मुनि गौतम ने बड़ी कठिनाई और दु:ख के साथ पन्द्रह दिनों को बिताया, किन्तु धर्म-कर्म से वंचित होने के कारण उनका जीवन दूभर हो गया। उन्होंने उन मुनियों, ब्राह्मणों से गोहत्या का प्रायश्चित बताने हेतु बार-बार दु:खी मन से अनुनय-विनय की।  
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उसके बाद उन दुष्ट ब्राह्मणों ने गालियाँ देते हुए सपत्नीक ऋषि गौतम को अपमानित किया और उन पर ढेले तथा पत्थरों से भी प्रहार किया। कष्ट और मानसिक सन्ताप से भी पीड़ित गौतम ने उस आश्रम को तत्काल छोड़ दिया। उन्होंने वहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर जाकर अपना आश्रम बनाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम को तंग करने हेतु वहाँ भी उनका पीछा किया। उन्होंने कहा– ‘जब तक तुम्हारे ऊपर गो हत्या का पाप है, तब तक तुम्हें किसी भी वैदिकदेव अथवा पितृयज्ञ के अनुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिए।’ मुनि गौतम ने बड़ी कठिनाई और दु:ख के साथ पन्द्रह दिनों को बिताया, किन्तु धर्म-कर्म से वंचित होने के कारण उनका जीवन दूभर हो गया। उन्होंने उन मुनियों, ब्राह्मणों से गोहत्या का प्रायश्चित बताने हेतु बार-बार दु:खी मन से अनुनय-विनय की।
  
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उनकी दीनता पर तरस खाते हुए उन मुनियों ने कहा– ‘गौतम! तुम अपने पाप को प्रकट करते हुए अर्थात् किये गये गोहत्या-सम्बन्धी पाप को बोलते हुए तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करके फिर एक महीने तक व्रत करो। व्रत के बाद जब तुम इस ब्रह्मगिरि की एक सौ एक परिक्रमा करोगे, उसके बाद ही तुम्हारी शुद्धि होगी। ब्राह्मणों ने उक्त प्रायश्चित का विकल्प बतलाते हुए कहा कि यदि तुम गंगा जी को इसी स्थान पर लाकर उनके जल में स्नान करो, तदनन्तर एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर महादेव जी की उपासना (पार्थिव पूजन) करो, उसके बाद पुन: गंगा स्नान करके इस [[ब्रह्मगिरि शिखर|ब्रह्मगिरि पर्वत]] की ग्यारह परिक्रमा करने के बाद एक सौ कलशों (घड़ों) में जल भर पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक करो, फिर तुम्हारी शुद्धि हो जाएगी और तुम गो हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे।’ गौतम ने उन ऋषियों की बातों को स्वीकार करते हुए कहा कि वे ब्रह्मगिरि की अथवा पार्थिव पूजन करेंगे। तत्पश्चात् उन्होंने अहल्या को साथ लेकर ब्रह्मगिरि की परिक्रमा की और अतीव निष्ठा के साथ पार्थिव लिंगों का निर्माण कर महादेव जी की आराधना की।
  
उनकी दीनता पर तरस खाते हुए उन मुनियों ने कहा– ‘गौतम! तुम अपने पाप को प्रकट करते हुए अर्थात किये गये गोहत्या-सम्बन्धी पाप को बोलते हुए तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करके फिर एक महीने तक व्रत करो। व्रत के बाद जब तुम इस ब्रह्मगिरि की एक सौ एक परिक्रमा करोगे, उसके बाद ही तुम्हारी शुद्धि होगी। ब्राह्मणों ने उक्त प्रायश्चित का विकल्प बतलाते हुए कहा कि यदि तुम गंगा जी को इसी स्थान पर लाकर उनके जल में स्नान करो, तदनन्तर एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर महादेव जी की उपासना (पार्थिव पूजन) करो, उसके बाद पुन: गंगा स्नान करके इस ब्रह्मगिरि पर्वत की ग्यारह परिक्रमा करने के बाद एक सौ कलशों (घड़ों) में जल भर पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक करो, फिर तुम्हारी शुद्धि हो जाएगी और तुम गो हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे।’ गौतम ने उन ऋषियों की बातों को स्वीकार करते हुए कहा कि वे ब्रह्मगिरि की अथवा पार्थिव पूजन करेंगे। तत्पश्चात उन्होंने अहल्या को साथ लेकर ब्रह्मगिरि की परिक्रमा की और अतीव निष्ठा के साथ पार्थिव लिंगों का निर्माण कर महादेव जी की आराधना की।
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मुनि गौतम द्वारा अटूट श्रद्धा [[भक्ति]] से पार्थिव पूजन करने पर [[पार्वती देवी|पार्वती]] सहित भगवान [[शिव]] प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने प्रमथगणों सहित प्रकट होकर कहा- ‘गौतम! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। गौतम शिव के अद्भुत रूप को देखकर आनन्द विभोर हो उठे। उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक शिव को प्रणाम कर उनकी लम्बी स्तुति की। वे हाथ जोड़कर खड़े हुए और भगवान शिव से बोले कि ‘आप मुझे निष्पाप (पापरहित) बनाने की कृपा करें।’ भगवान शिव ने कहा– ‘तुम धन्य हो। तुम में किसी भी प्रकार का कोई पाप नहीं है। संसार के लोग तुम्हारे दर्शन करने से पापरहित हो जाते हैं। तुम सदा ही मेरी भक्ति में लीन रहते हो, फिर पापी कैसे हो सकते हो? उन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल-कपट किया है, तुम पर घोर अत्याचार किया है। इसलिए वे ही पापी, हत्यारे और दुराचारी हैं। उन सब कृतघ्नों का कभी भी उद्धार नहीं होगा, जो लोग उन दुरात्माओं का दर्शन करेगें वे भी पापी बन जाएँगे।’
  
मुनि गौतम द्वारा अटूट श्रद्धा भक्ति से पार्थिव पूजन करने पर [[पार्वती]] सहित भगवान [[शिव]] प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने प्रमथगणों सहित प्रकट होकर कहा– ‘गौतम! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए अद्भुत रूप को देखकर आनन्द विभोर हो उठे। उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक शिव को प्रणाम कर उनकी लम्बी स्तुति की। वे हाथ जोड़कर खड़े हुए और भगवान शिव से बोले कि ‘आप मुझे निष्पाप (पापरहित) बनाने की कृपा करें।’ भगवान शिव ने कहा– ‘तुम धन्य हो। तुम में  किसी भी प्रकार का कोई पाप नहीं है। संसार के लोग तुम्हारे दर्शन करने से पापरहित हो जाते हैं। तुम सदा ही मेरी भक्ति में लीन रहते हो, फिर पापी कैसे हो सकते हो? उन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल-कपट किया है, तुम पर घोर अत्याचार किया है। इसलिए वे ही पापी, हत्यारे और दुराचारी हैं। उन सब कृतघ्नों का कभी भी उद्धार नहीं होगा, जो लोग उन दुरात्माओं का दर्शन करेगें वे भी पापी बन जाएँगे।’
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भगवान [[शिव]] की बात सुनकर ऋषि गौतम आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने शिव को पुन:-पुन: प्रणाम किया और कहा– ‘भगवान्! उन्होंने तो मेरा बड़ा उपकार किया है, वे महर्षि धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने मेरे लिए परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके दुराचार से ही मेरा महान् कार्य सिद्ध हुआ है। उनके बर्ताव से ही हमें आपका परम दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो सका है।’ गौतम की बात सुनकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे बोले– विप्रवर! तुम सभी ऋषियों में श्रेष्ठ हो, मैं तुम पर अतिशय प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम कोई उत्तम वर माँग लो।’ ऋषि गौतम ने महेश को बार-बार प्रणाम करते हुए कहा कि लोक कल्याण करने के लिए आप मुझे गंगा प्रदान कीजिए। इस प्रकार बोलते हुए गौतम ने लोकहित की कामना से भगवान शिव के चरणों को पकड़ लिया। तब भगवान महेश्वर ने [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] और स्वर्ग के सारभूत उस जल को निकाला, जो [[ब्रह्मा]] जी ने उन्हें उनके विवाह के अवसर पर दिया था। वह परम पवित्र जल स्त्री का रूप धारण करके जब वहाँ खड़ा हुआ, तो ऋषि गौतम ने उसकी स्तुति करते हुए नमस्कार किया। गौतम ने गंगा की आराधना करके पाप से मुक्ति प्राप्त की। गौतम तथा मुनियों को गंगा ने पूर्ण पवित्र कर दिया। वह गौतमी कहलायी। [[गौतमी नदी]] के किनारे '''त्र्यंबकम शिवलिंग''' की स्थापना की गई, क्योंकि इसी शर्त पर वह वहाँ ठहरने के लिए तैयार हुई थीं।
  
भगवान शिव की बात सुनकर ऋषि गौतम आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने शिव को पुन:-पुन: प्रणाम किया और कहा– ‘भगवान्! उन्होंने तो मेरा बड़ा उपकार किया है, वे महर्षि धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने मेरे लिए परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके दुराचार से ही मेरा महान कार्य सिद्ध हुआ है। उनके बर्ताव से ही हमें आपका परम दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो सका है।’ गौतम की बात सुनकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे बोले– विप्रवर! तुम सभी ऋषियों में श्रेष्ठ हो, मैं तुम पर अतिशय प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम कोई उत्तम वर माँग लो।’ ऋषि गौतम ने महेश को बार-बार प्रणाम करते हुए कहा कि लोक कल्याण करने के लिए आप मुझे गंगा प्रदान कीजिए। इस प्रकार बोलते हुए गौतम ने लोकहित की कामना से भगवान शिव के चरणों को पकड़ लिया। तब भगवान महेश्वर ने [[पृथ्वी]] और स्वर्ग का सारभूत उस जल को निकाला, जो [[ब्रह्मा]] जी ने उन्हें उनके विवाह के अवसर पर दिया था। वह परम पवित्र जल स्त्री का रूप धारण करके जब वहाँ खड़ा हुआ, तो ऋषि गौतम ने उसकी स्तुति करते हुए नमस्कार किया।
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गौतम ने कहा– ‘सम्पूर्ण भुवन को पवित्र करने वाली गंगे! नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र कर दो।’ भगवान शंकर ने भी कहा– ‘देवि! तुम इस मुनि को पवित्र करो और [[वैवस्वत मनु]] के अट्ठाइसवें [[कलि युग]] तक यहीं रहो।’ गंगा ने भगवान शिव से कहा कि ‘मैं अकेली यहाँ अपना निवास बनाने में असमर्थ हूँ। यदि भगवान महेश्वर अम्बिका और अपने अन्य गणों के साथ रहें तथा मैं सभी नदियों में श्रेष्ठ स्वीकार की जाऊँ, तभी इस धरातल पर रह सकती हूँ।’ भगवान शिव ने गंगा का अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा कि ‘तुम यहाँ स्थित हो जाओ और मैं भी यहाँ रहूँगा।’ उसके बाद विविध [[देवता]], [[ऋषि]], अनेक तीर्थ तथा सम्मानित क्षेत्र भी वहाँ आ पहुँचे। उन सभी ने आदरपूर्वक गौतम, गंगा तथा भूतभावन शिव का पूजन किया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करते हुए अपना सिर झुकाया। उनकी आराधना से प्रसन्न [[गंगा]] और गिरीश ने कहा – ‘श्रेष्ठ देवताओं! हम तुम लोगों का प्रिय करना चाहते हैं, इसलिए तुम वर माँगो।’
  
गौतम ने कहा– ‘सम्पूर्ण भुवन को पवित्र करने वाली गंगे! नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र कर दो।’ भगवान शंकर ने भी कहा– ‘देवि! तुम इस मुनि को पवित्र करो और [[वैवस्वत मनु]] के अट्ठाइसवें [[कलि युग]] तक यहीं रहो।’ गंगा ने भगवान शिव से कहा कि ‘मैं अकेली यहाँ अपना निवास बनाने में असमर्थ हूँ। यदि भगवान महेश्वर अम्बिका और अपने अन्य गणों के साथ रहें तथा मैं सभी नदियों में श्रेष्ठ स्वीकार की जाऊँ, तभी इस धरातल पर रह सकती हूँ।’ भगवान शिव ने गंगा का अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा कि ‘तुम यहाँ स्थित हो जाओ और मैं भी यहाँ रहूँगा।’ उसके बाद विविध देवता, ऋषि, अनेक तीर्थ तथा सम्मानित क्षेत्र भी वहाँ आ पहुँचे। उन सभी ने आदरपूर्वक गौतम, गंगा तथा भूतभावन शिव का पूजन किया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करते हुए अपना सिर झुकाया। उनकी आराधना से प्रसन्न गंगा और गिरीश ने कहा – ‘श्रेष्ठ देवताओं! हम तुम लोगों का प्रिय करना चाहते हैं, इसलिए तुम वर माँगो।’
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देवताओं ने कहा कि ‘यदि गंगा और भगवान शिव प्रसन्न हैं, तो हमारे और मनुष्यों का प्रिय करने के लिए आप लोग कृपापूर्वक यहीं निवास करें। गंगा ने उत्तर देते हुए कहा कि ‘मैं तो गौतम जी का पाप क्षालित कर वापस चली जाऊँगी, क्योंकि आपके समाज में मेरी विशेषता कैसे समझी जाएगी और उस विशेषता का पता कैसे लगेगा? सबका प्रिय करने हेतु आप सब लोग यहाँ क्यों नहीं रहते हैं? यदि आप लोग यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें, तो मैं अवश्य ही रहूँगी।’ देवताओं ने बताया कि जब सिंह राशि पर [[बृहस्पति ऋषि|बृहस्पति]] जी का पदार्पण होगा, उस समय हम सभी आकर यहाँ निवास करेंगे। ग्यारह वर्षों तक लोगों का गो-पातक यहाँ क्षालित होगा, उस पापराशि को धोने के लिए हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ आप गंगा के पास आया करेंगे। महादेवी! समस्त लोगों पर अनुग्रह करते हुए हमारा प्रिय करने हेतु तुम्हें और भगवान शंकर को यहाँ पर नित्य निवास करना चाहिए।’
 
 
देवताओं ने कहा कि ‘यदि गंगा और भगवान शिव प्रसन्न हैं, तो हमारे और मनुष्यों का प्रिय करने के लिए आप लोग कृपापूर्वक यहीं निवास करें। गंगा ने उत्तर देते हुए कहा कि ‘मैं तो गौतम जी का पाप क्षालित कर वापस चली जाऊँगी, क्योंकि आपके समाज में मेरी विशेषता कैसे समझी जाएगी और उस विशेषता का पता कैसे लगेगा? सबका प्रिय करने हेतु आप सब लोग यहाँ क्यों नहीं रहते हैं? यदि आप लोग यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें, तो मैं अवश्य ही रहूँगी।’ देवताओं ने बताया कि जब सिंह राशि पर बृहस्पति जी का पदार्पण होगा, उस समय हम सभी आकर यहाँ निवास करेंगे। ग्यारह वर्षों तक लोगों का गो-पातक यहाँ क्षालित होगा, उस पापराशि को धोने के लिए हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ आप गंगा के पास आया करेंगे। महादेवी! समस्त लोगों पर अनुग्रह करते हुए हमारा प्रिय करने हेतु तम्हें और भगवान शंकर को यहाँ पर नित्य निवास करना चाहिए।’
 
  
 
==महापर्व==
 
==महापर्व==
देवताओं ने आगे बताया कि ‘गुरू (बृहस्पति) जब तक सिंह राशि पर यहाँ विराजमान होंगे, तभी तक हम लोग यहाँ निवास करेंगे। उस समय हम लोग तुम्हारे जल में तीनों समय स्नान करके भगवान शंकर का दर्शन करते हुए शुद्ध होंगे।’ इस प्रकार ऋषि गौतम और देवताओं के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवती गंगा और भगवान शिव वहाँ अवस्थित हो गये। तभी से वहाँ गंगा गौतमी (गोदावरी) के नाम से प्रसिद्ध हुईं और भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग भी त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ। यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग समस्त पापों का क्षय करने वाला है।
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देवताओं ने आगे बताया कि ‘गुरु (बृहस्पति) जब तक सिंह राशि पर यहाँ विराजमान होंगे, तभी तक हम लोग यहाँ निवास करेंगे। उस समय हम लोग तुम्हारे [[जल]] में तीनों समय स्नान करके भगवान [[शंकर]] का दर्शन करते हुए शुद्ध होंगे।’ इस प्रकार ऋषि गौतम और देवताओं के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवती गंगा और भगवान शिव वहाँ अवस्थित हो गये। तभी से वहाँ गंगा गौतमी ([[गोदावरी नदी|गोदावरी]]) के नाम से प्रसिद्ध हुईं और भगवान शिव का [[ज्योतिर्लिंग |ज्योतिर्लिंग]] भी त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ। यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग समस्त पापों का क्षय करने वाला है। उसी दिन से जब-जब बृहस्पति का सिंह राशि पर पदार्पण होता है, तब-तब सभी तीर्थ, क्षेत्र, [[देवता]], पुष्कर आदि सरोवर, [[गंगा]] आदि श्रेष्ठ नदियाँ, भगवान [[विष्णु]] आदि देवगण गौतमी के तट पर आते हैं और वहीं निवास करते हैं।
 
 
उसी दिन से जब-जब बृहस्पति का सिंह राशि पर पदार्पण होता है, तब-तब सभी तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि सरोवर, गंगा आदि श्रेष्ठ नदियाँ, भगवान विष्णु आदि देवगण गौतमी के तट पर आते हैं और वहीं निवास करते हैं।
 
  
जितने दिनों तक वे गौतमी के तट पर निवास करते हैं, उतने दिनों तक उनके मूलस्थान पर कोई फल नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार गौतमी तट पर स्थित इस त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग का जो मनुष्य भक्तिभाव पूर्वक दर्शन पूजन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। ऋषि गौतम द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग इस लोक में मनुष्य के समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करता है और परलोक में उत्तम मोक्ष पद को देने वाला है–  
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जितने दिनों तक वे गौतमी के तट पर निवास करते हैं, उतने दिनों तक उनके मूलस्थान पर कोई फल नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार गौतमी तट पर स्थित इस त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग का जो मनुष्य भक्तिभावपूर्वक दर्शन पूजन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। ऋषि गौतम द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग इस लोक में मनुष्य के समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करता है और परलोक में उत्तम मोक्ष पद को देने वाला है–  
 
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ज्योतिर्लिंगमिदं प्रोक्तं त्र्यम्बकं नाम विश्रुतम्।
 
ज्योतिर्लिंगमिदं प्रोक्तं त्र्यम्बकं नाम विश्रुतम्।
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07:51, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

त्र्यंबकेश्वर मंदिर, नासिक
Trimbakeshwar Temple, Nasik

त्र्यम्बकेश्वर मंदिर (अंग्रेज़ी:Trimbakeshwar Temple) महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जनपद में नासिक शहर से तीस किलोमीटर पश्चिम में अवस्थित है। इसे त्रयम्बक ज्योतिर्लिंग, त्र्यम्बकेश्वर शिव मन्दिर भी कहते है। यहाँ समीप में ही ब्रह्मगिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी निकलती है। जिस प्रकार उत्तर भारत में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदी गंगा का विशेष आध्यात्मिक महत्त्व है, उसी प्रकार दक्षिण में प्रवाहित होने वाली इस पवित्र नदी गोदावरी का विशेष महत्त्व है। जहाँ उत्तरभारत की गंगा को ‘भागीरथी’ कहा जाता हैं, वहीं इस गोदावरी नदी को ‘गौतमी गंगा’ कहकर पुकारा जाता है। भागीरथी राजा भगीरथ की तपस्या का परिणाम है, तो गोदावरी ऋषि गौतम की तपस्या का साक्षात फल है।

महाकुम्भ का आयोजन

देश में लगने वाले विश्व के प्रसिद्ध चार महाकुम्भ मेलों में से एक महाकुम्भ का मेला यहीं लगता है। यहाँ प्रत्येक बारहवें वर्ष जब सिंह राशि पर बृहस्पति का पदार्पण होता है और सूर्य नारायण भी सिंह राशि पर ही स्थित होते हैं, तब महाकुम्भ पर्व का स्नान, मेला आदि धार्मिक कृत्यों का समारोह होता है। उन दिनों गोदावरी गंगा में स्नान का आध्यात्मिक पुण्य बताया गया है।

श्री त्र्यम्बकेश्वर शिव

गोदावरी के उद्गगम स्थल के समीप ही श्री त्र्यम्बकेश्वर शिव अवस्थित हैं, जिनकी महिमा का बखान पुराणों में किया गया है। ऋषि गौतम और पवित्र नदी गोदावरी की प्रार्थना पर ही भगवान शिव ने इस स्थान पर अपने वास की स्वीकृति दी थी। वही भगवान शिव ‘त्र्यम्बकेश्वर’ नाम से इस जगत् में विख्यात हुए। यहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन स्त्रियों के लिए निषिद्ध है, अत: वे केवल भगवान के मुकुट का दर्शन करती हैं। त्र्यम्बकेश्वर-मन्दिर में सर्वसामान्य लोगों का भी प्रवेश न होकर, जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) हैं तथा भजन-पूजन करते हैं और पवित्रता रखते हैं, वे ही लोग मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर पाते हैं। इनसे अतिरिक्त लोगों को बाहर से ही मन्दिर का दर्शन करना पड़ता है।

श्री त्र्यम्बकेश्वर और गोदावरी

यहाँ मन्दिर के भीतर एक गड्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग हैं, जो ब्रह्मा विष्णु और शिव इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। ब्रह्मगिरी से निकलने वाली गोदावरी की जलधारा इन त्रिमूर्तियों पर अनवरत रूप से पड़ती रहती है। ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिए सात सौ सीढ़ियों का निर्माण कराया गया है। ऊपरी पहाड़ी पर ‘रामकुण्ड’ और ‘लक्ष्मणकुण्ड’ नामक दो कुण्ड भी स्थित हैं। पर्वत की चोटी पर पहुँचने पर गोमुखी से निकलती हुई भगवान गौतमी (गोदावरी) का दर्शन प्राप्त होता है। श्री शिव महापुराण के कोटिरुद्र संहिता में ऋषि गौतम- गौतमी-गोदावरी तथा त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है-

शिव पुराण के अनुसार

‘पूर्व समय में गौतम नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि अपनी धर्मपत्नी अहल्या के साथ रहते थे। उन्होंने दक्षिण भारत के ब्रह्मगिरि पर्वत पर दस हज़ार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। एक समय वहाँ सौ वर्षों तक वर्षा बिल्कुल नहीं हुई, सब जगह सूखा पड़ने के कारण जीवधारियों में बेचैनी हो गई। जल के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये, पृथ्वी पर महान् संकट टूट पड़ा, सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता, आख़िर जीवन को धारण करने वाला जल कहाँ से लाया जाये? उस समय मनुष्य, मुनि, पशु, पक्षी तथा अन्य जीवनधारी भी जल के लिए भटकते हुए विविध दिशाओं में चले गये। उसके बाद ऋषि गौतम ने छ: महीने तक कठोर तपस्या करके वरुण देवता को प्रसन्न किया। ऋषि ने वरुण देवता से जब जल बरसाने की प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा कि मैं देवताओं के विधान के विपरीत वृष्टि नहीं कर सकता, किन्तु तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हेतु तुम्हें 'अक्षय'[1] जल देता हूँ। तुम उस जल को रखने के लिए एक गड्ढा तैयार करो। वरुण देव के आदेश के अनुसार ऋषि गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोद दिया, जिसे वरुण ने अपने दिव्य जल से भर दिया। उसके बाद उन्होंने परोपकार परायण ऋषि गौतम से कहा– ‘महामुने! यह अक्षुण्ण जल कभी नष्ट नहीं होगा और तीर्थ बनकर इस पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके समीप दान-पुण्य, हवन-यज्ञ, तर्पण, देव पूजन और पितरों का श्राद्ध, सब कुछ अक्षय फलदायी होंगे। उसके बाद उस जल से ऋषि गौतम ने बहुतों का कल्याण किया, जिससे उन्हें सुख की अनुभूति हुई।

त्र्यम्बकेश्वर मंदिर का मुख्य द्वार

इस प्रकार वरुण से अक्षय जल की प्राप्ति के बाद ऋषि गौतम आनन्द के साथ अपने नित्य नैमित्तिक कर्म, यज्ञ आदि सम्पन्न करने लगे। उन्होंने अपने नित्य हवन-यज्ञ के लिए धान, जौं, नीवार (ऋषि धान्य) आदि लगवाया। जल की सुलभता से वहाँ विविध प्रकार की फ़सलें, अनेक प्रकार के वृक्ष तथा फल-फूल लहलहा उठे। इस प्रकार जल की सुविधा और व्यवस्था को सुनकर वहाँ हज़ारों ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी और जीवधारी रहने लगे। कर्म करने वाले बहुत से ऋषि-मुनि अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रों तथा शिष्यों के साथ रहने लगे। समय का सदुपयोग करने के लिए गौतम ने काफ़ी खेतों में धान लगाया। उनके प्रभाव से उस क्षेत्र में सब ओर आनन्द ही आनन्द था।

एक बार कुछ ब्रह्मणों की स्त्रियाँ जो गौतम के आश्रम में आकर निवास करती थीं, जल के सम्बन्ध में विवाद हो जाने पर अहल्या से नाराज़ हो गयी। उन्होंने गौतम को नुक़सान पहुँचाने हेतु अपने पतियों को उकसाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम का अनिष्ट करने हेतु गणेश जी की आराधना की। गणेश जी के प्रसन्न होने पर उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि आप ऐसा कोई उपाय कीजिए कि यहाँ के सभी ऋषि डाँट-फटकार कर गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें। गणेश जी ने उन सबको समझाया कि तुम लोगों को ऐसा करना उचित नहीं है। यदि तुम लोग बिना अपराध किये ही गौतम पर क्रोध करोगे, तो इससे तुम लोगों की ही हानि होगी। जिसने पहले उपकार किया हो, ऐसे व्यक्ति को कष्ट दिया जाय, तो वह अपने लिए ही दु:खदायी होता है। जब अकाल पड़ा था और उपवास के कारण तुम लोग दु:ख भोग रहे थे, उस समय गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम लोगों को सुख पहुँचाया, किन्तु अब तुम लोग उन्हें ही कष्ट देना चाहते हो। उस विषय पर तुम लोग पुनर्विचार करो। गणेश जी के समझाने पर भी वे दुष्ट ऋषि दूसरा वर लेने के लिए तैयार नहीं हुए और अपने पहले वाले दुराग्रह पर अड़े रहे।

शिवपुत्र गणेश अपने भक्तों के अधीन होने के कारण, उनके द्वारा गौतम के विरुद्ध माँगे गये वर को स्वीकार कर लिया और कहा कि उसे मैं अवश्य ही पूर्ण करूँगा। गौतम ने अपने खेत में धान और जौं लगाया था। गणेश जी उन अत्यन्त दुबली-पतली और कमज़ोर गाय का रूप धारण कर उन खेतों में जाकर फ़सलों को चरने लगे। उसी समय संयोगवश दयालु गौतम जी वहाँ पहुँच गये और मुट्ठी भर खर-पतवार लेकर उस गौ को हाँकने लगे। उन खर-पतवारों का स्पर्श होते ही वह दुर्बल गौ कांपती हुई धरती पर गिर गई और तत्काल ही मर गयी।

वे दुष्ट ब्राह्मण और उनकी स्त्रियाँ छिपकर उक्त सारी घटनाएँ देख रही थीं। गौ के धरती पर गिरते ही सभी ऋषि गौतम के सामने आकर बोल पड़े– ‘अरे , गौतम ने यह क्या कर डाला?’ गौतम भी आश्चर्य में डूब गये। उन्होंने अहल्या से दु:खपूर्वक कहा– ‘देवि! यह सब कैसे हो गया और क्यों हुआ? लगता है, ईश्वर मुझ पर कुपित हैं। अब मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? मुझे तो गोहत्या के पाप ने स्पर्श कर लिया है।’ इस प्रकार पश्चाताप करते हुए गौतम की उन ब्राह्मणों तथा उनकी पत्नियों ने घोर निन्दा की, उन्हें अपशब्द कहे और दुर्वचनों द्वारा अहल्या को भी प्रताड़ित किया। उनके शिष्यों तथा पुत्रों ने भी गौतम को पुन:-पुन: धिक्कारा और फटकारा, जिससे बेचारे गौतम भयंकर संकट और सन्ताप के सागर में गोता लगाने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा– ‘अब तुम यहाँ से चले जाओ, क्योंकि तुम्हें यहाँ मुख दिखाना अब ठीक नहीं है। गोहत्या करने वाले का मुख देखने पर तत्काल सचैल अर्थात् वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता है। इस आश्रम में तुम जैसे गो हत्यारे के रहते हुए अग्नि देव और पितृगण (पितर) हमारे हव्य-कव्य (हवन तथा पिण्डदान) आदि को ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए पापी होने के कारण तुम बिना देरी किये शीघ्र ही परिवार सहित कहीं दूसरी जगह चले जाओ।

उसके बाद उन दुष्ट ब्राह्मणों ने गालियाँ देते हुए सपत्नीक ऋषि गौतम को अपमानित किया और उन पर ढेले तथा पत्थरों से भी प्रहार किया। कष्ट और मानसिक सन्ताप से भी पीड़ित गौतम ने उस आश्रम को तत्काल छोड़ दिया। उन्होंने वहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर जाकर अपना आश्रम बनाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम को तंग करने हेतु वहाँ भी उनका पीछा किया। उन्होंने कहा– ‘जब तक तुम्हारे ऊपर गो हत्या का पाप है, तब तक तुम्हें किसी भी वैदिकदेव अथवा पितृयज्ञ के अनुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिए।’ मुनि गौतम ने बड़ी कठिनाई और दु:ख के साथ पन्द्रह दिनों को बिताया, किन्तु धर्म-कर्म से वंचित होने के कारण उनका जीवन दूभर हो गया। उन्होंने उन मुनियों, ब्राह्मणों से गोहत्या का प्रायश्चित बताने हेतु बार-बार दु:खी मन से अनुनय-विनय की।

उनकी दीनता पर तरस खाते हुए उन मुनियों ने कहा– ‘गौतम! तुम अपने पाप को प्रकट करते हुए अर्थात् किये गये गोहत्या-सम्बन्धी पाप को बोलते हुए तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करके फिर एक महीने तक व्रत करो। व्रत के बाद जब तुम इस ब्रह्मगिरि की एक सौ एक परिक्रमा करोगे, उसके बाद ही तुम्हारी शुद्धि होगी। ब्राह्मणों ने उक्त प्रायश्चित का विकल्प बतलाते हुए कहा कि यदि तुम गंगा जी को इसी स्थान पर लाकर उनके जल में स्नान करो, तदनन्तर एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर महादेव जी की उपासना (पार्थिव पूजन) करो, उसके बाद पुन: गंगा स्नान करके इस ब्रह्मगिरि पर्वत की ग्यारह परिक्रमा करने के बाद एक सौ कलशों (घड़ों) में जल भर पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक करो, फिर तुम्हारी शुद्धि हो जाएगी और तुम गो हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे।’ गौतम ने उन ऋषियों की बातों को स्वीकार करते हुए कहा कि वे ब्रह्मगिरि की अथवा पार्थिव पूजन करेंगे। तत्पश्चात् उन्होंने अहल्या को साथ लेकर ब्रह्मगिरि की परिक्रमा की और अतीव निष्ठा के साथ पार्थिव लिंगों का निर्माण कर महादेव जी की आराधना की।

मुनि गौतम द्वारा अटूट श्रद्धा भक्ति से पार्थिव पूजन करने पर पार्वती सहित भगवान शिव प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने प्रमथगणों सहित प्रकट होकर कहा- ‘गौतम! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। गौतम शिव के अद्भुत रूप को देखकर आनन्द विभोर हो उठे। उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक शिव को प्रणाम कर उनकी लम्बी स्तुति की। वे हाथ जोड़कर खड़े हुए और भगवान शिव से बोले कि ‘आप मुझे निष्पाप (पापरहित) बनाने की कृपा करें।’ भगवान शिव ने कहा– ‘तुम धन्य हो। तुम में किसी भी प्रकार का कोई पाप नहीं है। संसार के लोग तुम्हारे दर्शन करने से पापरहित हो जाते हैं। तुम सदा ही मेरी भक्ति में लीन रहते हो, फिर पापी कैसे हो सकते हो? उन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल-कपट किया है, तुम पर घोर अत्याचार किया है। इसलिए वे ही पापी, हत्यारे और दुराचारी हैं। उन सब कृतघ्नों का कभी भी उद्धार नहीं होगा, जो लोग उन दुरात्माओं का दर्शन करेगें वे भी पापी बन जाएँगे।’

भगवान शिव की बात सुनकर ऋषि गौतम आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने शिव को पुन:-पुन: प्रणाम किया और कहा– ‘भगवान्! उन्होंने तो मेरा बड़ा उपकार किया है, वे महर्षि धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने मेरे लिए परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके दुराचार से ही मेरा महान् कार्य सिद्ध हुआ है। उनके बर्ताव से ही हमें आपका परम दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो सका है।’ गौतम की बात सुनकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे बोले– विप्रवर! तुम सभी ऋषियों में श्रेष्ठ हो, मैं तुम पर अतिशय प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम कोई उत्तम वर माँग लो।’ ऋषि गौतम ने महेश को बार-बार प्रणाम करते हुए कहा कि लोक कल्याण करने के लिए आप मुझे गंगा प्रदान कीजिए। इस प्रकार बोलते हुए गौतम ने लोकहित की कामना से भगवान शिव के चरणों को पकड़ लिया। तब भगवान महेश्वर ने पृथ्वी और स्वर्ग के सारभूत उस जल को निकाला, जो ब्रह्मा जी ने उन्हें उनके विवाह के अवसर पर दिया था। वह परम पवित्र जल स्त्री का रूप धारण करके जब वहाँ खड़ा हुआ, तो ऋषि गौतम ने उसकी स्तुति करते हुए नमस्कार किया। गौतम ने गंगा की आराधना करके पाप से मुक्ति प्राप्त की। गौतम तथा मुनियों को गंगा ने पूर्ण पवित्र कर दिया। वह गौतमी कहलायी। गौतमी नदी के किनारे त्र्यंबकम शिवलिंग की स्थापना की गई, क्योंकि इसी शर्त पर वह वहाँ ठहरने के लिए तैयार हुई थीं।

गौतम ने कहा– ‘सम्पूर्ण भुवन को पवित्र करने वाली गंगे! नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र कर दो।’ भगवान शंकर ने भी कहा– ‘देवि! तुम इस मुनि को पवित्र करो और वैवस्वत मनु के अट्ठाइसवें कलि युग तक यहीं रहो।’ गंगा ने भगवान शिव से कहा कि ‘मैं अकेली यहाँ अपना निवास बनाने में असमर्थ हूँ। यदि भगवान महेश्वर अम्बिका और अपने अन्य गणों के साथ रहें तथा मैं सभी नदियों में श्रेष्ठ स्वीकार की जाऊँ, तभी इस धरातल पर रह सकती हूँ।’ भगवान शिव ने गंगा का अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा कि ‘तुम यहाँ स्थित हो जाओ और मैं भी यहाँ रहूँगा।’ उसके बाद विविध देवता, ऋषि, अनेक तीर्थ तथा सम्मानित क्षेत्र भी वहाँ आ पहुँचे। उन सभी ने आदरपूर्वक गौतम, गंगा तथा भूतभावन शिव का पूजन किया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करते हुए अपना सिर झुकाया। उनकी आराधना से प्रसन्न गंगा और गिरीश ने कहा – ‘श्रेष्ठ देवताओं! हम तुम लोगों का प्रिय करना चाहते हैं, इसलिए तुम वर माँगो।’

देवताओं ने कहा कि ‘यदि गंगा और भगवान शिव प्रसन्न हैं, तो हमारे और मनुष्यों का प्रिय करने के लिए आप लोग कृपापूर्वक यहीं निवास करें। गंगा ने उत्तर देते हुए कहा कि ‘मैं तो गौतम जी का पाप क्षालित कर वापस चली जाऊँगी, क्योंकि आपके समाज में मेरी विशेषता कैसे समझी जाएगी और उस विशेषता का पता कैसे लगेगा? सबका प्रिय करने हेतु आप सब लोग यहाँ क्यों नहीं रहते हैं? यदि आप लोग यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें, तो मैं अवश्य ही रहूँगी।’ देवताओं ने बताया कि जब सिंह राशि पर बृहस्पति जी का पदार्पण होगा, उस समय हम सभी आकर यहाँ निवास करेंगे। ग्यारह वर्षों तक लोगों का गो-पातक यहाँ क्षालित होगा, उस पापराशि को धोने के लिए हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ आप गंगा के पास आया करेंगे। महादेवी! समस्त लोगों पर अनुग्रह करते हुए हमारा प्रिय करने हेतु तुम्हें और भगवान शंकर को यहाँ पर नित्य निवास करना चाहिए।’

महापर्व

देवताओं ने आगे बताया कि ‘गुरु (बृहस्पति) जब तक सिंह राशि पर यहाँ विराजमान होंगे, तभी तक हम लोग यहाँ निवास करेंगे। उस समय हम लोग तुम्हारे जल में तीनों समय स्नान करके भगवान शंकर का दर्शन करते हुए शुद्ध होंगे।’ इस प्रकार ऋषि गौतम और देवताओं के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवती गंगा और भगवान शिव वहाँ अवस्थित हो गये। तभी से वहाँ गंगा गौतमी (गोदावरी) के नाम से प्रसिद्ध हुईं और भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग भी त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ। यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग समस्त पापों का क्षय करने वाला है। उसी दिन से जब-जब बृहस्पति का सिंह राशि पर पदार्पण होता है, तब-तब सभी तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि सरोवर, गंगा आदि श्रेष्ठ नदियाँ, भगवान विष्णु आदि देवगण गौतमी के तट पर आते हैं और वहीं निवास करते हैं।

जितने दिनों तक वे गौतमी के तट पर निवास करते हैं, उतने दिनों तक उनके मूलस्थान पर कोई फल नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार गौतमी तट पर स्थित इस त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग का जो मनुष्य भक्तिभावपूर्वक दर्शन पूजन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। ऋषि गौतम द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग इस लोक में मनुष्य के समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करता है और परलोक में उत्तम मोक्ष पद को देने वाला है–

ज्योतिर्लिंगमिदं प्रोक्तं त्र्यम्बकं नाम विश्रुतम्।
स्थितं तटे हि गौतम्या महापातकनाशनम्।।
य: पश्येद्भक्तितो ज्योतिर्लिंगं त्र्यम्बकनामकम्।
पूजयेत्प्रणमेत्सतुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते।।
ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकं हि पूजितं गौतमेन ह।
सर्वकामप्रदं चात्र परत्र परमुक्तिदम्।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (कभी नष्ट नहीं होने वाला)

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