विजय नगर साम्राज्य

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विजयनगर का शाब्दिक अर्थ है- ‘जीत का शहर’। प्रायः इस नगर को मध्ययुग का प्रथम हिन्दू साम्राज्य माना जाता है। 14 वीं शताब्दी में उत्पन्न विजयनगर साम्राज्य को मध्ययुग और आधुनिक औपनिवेशिक काल के बीच का संक्रान्ति-काल कहा जाता है। इस साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में दक्षिण भारत में तुग़लक़ सत्ता के विरुद्ध होने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप संगम पुत्र हरिहर एवं बुक्का द्वारा तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित अनेगुंडी दुर्ग के सम्मुख की गयी। अपने इस साहसिक कार्य में उन्हें ब्राह्मण विद्वान माधव विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण से प्रेरणा मिली। विजयनगर साम्राज्य का नाम तुंगभद्रा नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित उसकी राजधानी के नाम पर पड़ा। उसकी राजधानी विपुल शक्ति एवं सम्पदा की प्रतीक थी। विजयनगर के विषय में फ़ारसी यात्री अब्दुल रज्जाक ने लिखा है कि, "विजयनगर दुनिया के सबसे भव्य शहरों में से एक लगा, जो उसने देखे या सुने थे"।

उत्पत्ति मतभेद

विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों की उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट जानकारी के अभाव में इतिहासकारों में विवाद है। कुछ विद्वान ‘तेलुगु आन्ध्र’ अथवा काकतीय उत्पत्ति मानते हैं, तो कुछ 'कर्नाटा' (कर्नाटक) या होयसल तथा कुछ 'काम्पिली' उत्पत्ति मानते हैं। हरिहर और बुक्का ने अपने पिता संगम के नाम पर संगम राजवंश की स्थापना की। विजयनगर साम्राज्य की राजधानियाँ क्रमश: अनेगुंडी या अनेगोण्डी, विजयनगर, पेनुगोण्डा तथा चन्द्रगिरी थीं। हम्पी (हस्तिनावती) विजयनगर की पुरानी राजधानी का प्रतिनिधित्व करता है। विजयनगर का वर्तमान नाम 'हम्पी' (हस्तिनावती) है।

संगम वंश
शासक शासनकाल
हरिहर प्रथम (1336-1356 ई.)
बुक्का प्रथम (1356-1377 ई.)
हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई.)
विरुपाक्ष प्रथम (1404 ई.)
बुक्का द्वितीय (1404-1406 ई.)
देवराय प्रथम (1406-1422 ई.)
देवराय द्वितीय (1422-1446 ई.)
विजयराय द्वितीय (1446-1447 ई.)
मल्लिकार्जुन (1447-1465 ई.)
विरुपाक्ष द्वितीय (1465-1485 ई.)

विजयनगर के राजवंश

विजयनगर साम्राज्य पर जिन राजवंशों ने शासन किया, वे निम्नलिखित हैं-

  1. संगम वंश - 1336-1485 ई.
  2. सालुव वंश - 1485-1505 ई.
  3. तुलुव वंश - 1505-1570 ई.
  4. अरविडु वंश - 1570-1650 ई.

विजयनगर का प्रशासन

विजसनगर साम्राज्य के राजनीतिक स्वरूप के बारे में दो प्रकार के मत मिलते हैं। ए.के. शास्त्री के अनुसार- ‘विजयनगर साम्राज्य एक केन्द्रीकृत राज्य था। इसके विपरीत बर्टनस्टेन विजयनगर को खंडित राज्य का दर्जा देते हैं। कुल मिलाकर विजयनगर सम्राज्य का राजनीतिक स्वरूप खंडित होने के बजाय अत्यधित विस्तृत एवं संभाजित था।

केन्द्रीय व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य की शासन पद्धति राजतंत्रात्मक थी। राज्य एवं शासन के मूल को राजा, जिसे 'राय' कहा जाता था, होता था। इस काल में प्राचीन राज्य की ‘सप्तांग विचारधारा’ का अनुसरण किया जाता था। राजा के चुनाव में राज्य के मंत्री एवं नायक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते थे। विजयनगर में संयुक्त शासक की भी परम्परा थी। राजा को राज्याभिषेक के समय प्रजापालन एवं निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी। राज्याभिषेक के अवसर पर दरबार में अत्यन्त भव्य आयोजन होता था, जिसमें नायक, अधिकारी तथा जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति वेंकटेश्वर मन्दिर में सम्पन्न कराया था। राजा के बाद ‘युवराज’ का पद होता था। युवराज राजा का बड़ा पुत्र व राज्य परिवार का कोई भी योग्य पुरुष बन सकता था। युवराज के राज्याभिषेक को 'युवराज पट्टाभिषेक' कहते थे। विजयनगर में संयुक्त शासन की परम्परा भी विद्यमान थी, जैसे - हरिहर प्रथम एवं बुक्का प्रथम। युवराज के अल्पायु होने की स्थिति में राजा अपने जीवन काल में ही स्वयं किसी मंत्री को उसका संरक्षक नियुक्त करता था। इस काल में कुछ महत्वपूर्ण संरक्षक थे - वीर नरसिंह, नरसा नायक एवं रामराय आदि। कालान्तर में यही संरक्षक व्यवस्था ही विजयनगर के पतन में बहुत कुछ ज़िम्मेदार रही। विजयनगर के राजाओं ने अपने व्यक्तिगत धर्म के बाद भी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का अनुसरण किया। यद्यपि राज्य निरंकुश होता था, पर बर्बर नहीं। उसकी निरंकुशता पर नियन्त्रण तथा प्रशासनिक कार्यों में सहयोग करने के लिए एक ‘मंत्रिपरिषद’ होती थी, जिसमें प्रधानमंत्री, मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष तथा राज्य के कुछ नज़दीक के सम्बन्धी होते थे।

सालुव वंश
शासक कार्यकाल
सालुव नरसिंह (1485-1491 ई.)
तिम्मा राय (1491 ई.)
इम्माडि नरसिंह (1491-1505 ई.).

मंत्रिपरिषद

मंत्रियों के चयन में आनुवंशिकता की परम्परा का पालन होता था। मंत्रिपरिषद के मुख्य अधिकारी को ‘प्रधानी’ या ‘महाप्रधानी’ कहा जाता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री जैसी थी। इसकी तुलना मराठा कालीन पेशवा से की जा सकती है। यह राजा एवं युवराज के बाद तीसरे स्थान पर होता था। मंत्रिपरिषद में कुल 20 सदस्य होते थे। मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष को ‘सभानायक’ कहा जाता था। कभी-कभी प्रधानमंत्री अध्यक्षता भी करता था। टी.वी. महालिंगम ने विजयनगर प्रशासन की राजपरिषद और मंत्रिपरिषद में अन्तर स्पष्ट किया है। राजपरिषद प्रान्तों के नायकों, सामन्त शासकों, विद्धानों व राज्यों के राजदूतों को शामिल करके गठित किया गया एक विशाल संगठन होता था। विजयनगर कालीन मंत्रिपरिषद की तुलना कौटिल्य के मंत्रिपरिषद के साथ की जा सकती है।

तुलुव वंश
शासक कार्यकाल
वीर नरसिंह (1505-1509 ई.)
कृष्णदेव राय (1509-1529 ई.)
अच्युतदेव राय (1529-1542 ई.)
वेंकट प्रथम (1542 ई.)
सदाशिव राय (1542-1570 ई.)

केन्द्र में 'दण्डनायक' नाम का उच्च अधिकारी होता था। उसका यह पद पदबोधक न होकर विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी को इंगित करता था। दंडनायक का अर्थ, ‘प्रशासन का प्रमुख’ और ‘सेनाओं का नायक’ होता था। कहीं-कहीं मंत्रियों को भी दंडनायक की उपाधि प्रदान किये जाने का उल्लेख मिलता है। दण्डनायक को न्यायधीश, सेनापति, गर्वनर या प्रशासकीय अधिकारी आदि का कार्यभार सौंपा जा सकता था। कुछ अन्य अधिकारियों को ‘कार्यकर्ता’ कहा जाता था। केन्द्र में एक सचिवालय की व्यवस्था होती थी, जिसमें विभागों का वर्गीकरण किया जाता था। इन विभागों में ‘रायसम’ या सचिव, कर्णिकम या एकाउन्टेंट होते थे। रायसम राजा के मौखिक अधिकारों को लिपिबद्ध करता था। अन्य विभाग एवं उनके अधिकारी ‘मानिय प्रधान’, गृहमंत्री, मुद्राकर्ता, शाही-मुद्रा को रखने वाला अधिकारी आदि थे।

प्रांतीय प्रशासन

विजयनगर साम्राज्य का विभाजन प्रान्त, राज्य या मंडल में किया गया था। कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रान्तों की संख्या सर्वाधिक 6 थी। प्रान्तों के गर्वनर के रूप में राज परिवार के सदस्य या अनुभवी दण्डनायकों की नियुक्ति की जाती थी। इन्हें सिक्कों को प्रसारित करने, नये कर लगाने, पुराने कर माफ करने एवं भूमिदान करने आदि की स्वतन्त्रता प्राप्त थी। प्रान्त के गर्वनर को 'भू-राजस्व' का एक निश्चित हिस्सा केन्द्र सरकार को देना होता था।

अरविडु वंश
शासक कार्यकाल
तिरुमल (1570-1572 ई.)
श्रीरंग (1572-1585 ई.)
वेंकट प्रथम (1585-1614 ई.)
श्रीरंग प्रथम (1614 ई.)
रामदेव (1614-1630 ई.)
वेंकट द्वितीय (1630-1642 ई.)
श्रीरंग द्वितीय (1642-1652 ई.)

प्रान्त को ‘मंडल’ एवं मंडल को ‘कोट्म’ या ‘ज़िले’ में विभाजित किया गया था। कोट्टम को ‘वलनाडु’ भी कहा जाता था। कोट्टम का विभाजन ‘नाडुओं’ में हुआ था, जिसकी स्थिति आज के परगना एवं ताल्लुका जैसी थी। नाडुओं को ‘मेंलाग्राम’ में बाँटा गया था। एक मेलाग्राम के अन्तर्गत लगभग 50 गाँव होते थे। ‘उर’ या ‘ग्राम’ प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई थी। इस सम गांवों के समूह को ‘स्थल’ एवं ‘सीमा’ भी कहा जाता था। विभाजन का क्रम इस प्रकार था।

  1. प्रान्त - मंडल-कोट्टम या वलनाडु
  2. प्रकोट्टम - नाडु-मेलाग्राम-उर या ग्राम।

सामान्यतः प्रान्तों में राजपरिवार के व्यक्तियों (कुमार या राजकुमार) को ही नियुक्त किया जाता था। गर्वनरों को सिक्के जारी करने, नये कर लगाने, पुराने करों को माफ करने, भूमिदान देने जैसे अधिकार प्राप्त थे। संगम युग में गर्वनरों के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों को 'उरैयर' की उपाधि मिली हुई थी। चोल युग और विजयनगर युग के राजतंत्र में सबसे बड़ा अन्तर 'नायंकार व्यवस्था' थी।

नायंकार व्यवस्था

इस व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि, विजयनगर साम्राज्य की सेना के सेनानायकों को ‘नायक’ कहा जाता था, कुछ का मानना है कि, नायक भू-सामन्त होते थे, जिन्हें वेतन के बदले एवं स्थानीय सेना के ख़र्च को चलाने के लिए विशेष भू-खण्ड, जिसे ‘अमरम’ कहा जाता था, दिया जाता था। चूंकि ये अमरम भूमि का प्रयोग करते थे, इसलिए इन्हे ‘अमरनायक’ भी कहा जाता था। अमरम भूमि की आय का एक हिस्सा केन्द्रीय सरकार के कोष के लिए देना होता था। नायक को अमरम भूमि में शांति, सुरक्षा एवं अपराधों को रोकने के दायित्व का भी निर्वाह करना होता था। इसके अतिरिक्त उसे जंगलों को साफ करवाना एवं कृषि योग्य भूमि का विस्तार भी करना होता था। नायंकारों के आंतरिक मामलों में राजा हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। इनका पद आनुवंशिक होता था। नायकों का स्थानान्तरण नहीं होता था। राजधानी में नायकों के दो सम्पर्क अधिकारी - एक नायक की सेना का सेनापति और दूसरा प्रशासनिक अभिकर्ता ‘स्थानपति’ रहते थे। अच्युतदेव राय ने नायकों की उच्छृंखता को रोकने के लिए ‘मंहामंडलेश्वर’ या 'विशेष कमिश्नरों' की नियुक्त की थी। नायंकार व्यवस्था में पर्याप्त रूप में सामंतवादी लक्षण थे, जो विजयनगर साम्राज्य के पतन का कारण बनी।

आयंगर व्यवस्था

प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए प्रत्येक ग्राम को एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में संगठित किया गया था। इन संगठित ग्रामीण इकाइयों पर शासन हेतु एक 12 प्रशासकीय अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनकों सामूहिक रूप से ‘आयंगार’ कहा जाता था। ये अवैतनिक होते थे। इनकी सेवाओं के बदले सरकार इन्हे पूर्णतः कर मुक्त एवं लगान मुक्त भूमि प्रदान करती थी। इनका पद ‘आनुवंशिक’ होता था। यह अपने पद को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच या गिरवी रख सकता था। ग्राम स्तर की कोई भी सम्पत्ति या भूमि इन अधिकारियों की इजाजत के बगैर न तो बेची जा सकती थी, और न ही दान दी जा सकती थी। 'कर्णिक' नामक आयंगार के पास ज़मीन के क्रय एवं विक्रय से सम्बन्धित समस्त दस्तावेज होते थे। इस व्यवस्था ने ग्रामीण स्वतंत्रता का गला घोंट दिया।

स्थानीय प्रशासन

विजयनगर काल में चोल कालीन सभा को कहीं-कहीं 'महासभा', 'उर' एवं 'महाजन' कहा जाता था। गाँव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में विभाजित किया गया था। ‘सभा’ में विचार-विर्मश के लिए गाँव या क्षेत्र विशेष के लोग भाग लेते थे। ‘सभा’ नई भूमि या अन्य प्रकार की सम्पत्ति उपलब्ध कराने, गाँव की सार्वजनिक भूमि को बेचने, ग्रामीण की तरफ़ से सामूहिक निर्णय लेने, गाँव की भूमि को दान में देने के अधिकार अपने पास सुरक्षित रखती थी। यदि कोई भूमि स्वामी लम्बे समय तक लगान नहीं दे पाता था तो, ग्राम सभाएँ उसकी ज़मीन जब्त कर लेती थीं। न्यायिक अधिकारों के अन्तर्गत सभा के पास दीवानी मुकद्दमों एवं फौजदारी के छोटे-छोटे मामलों का निर्णय करने का अधिकार होता था। ‘नाडु’ गाँव की बड़ी राजनीतिक इकाई के रूप में प्रचलित थी। नाडु की सभा को नाडु एवं सदस्यों को ‘नात्वार’ कहा जाता था। अधिकार क्षेत्र काफ़ी विस्तृत होते थे, पर शासकीय नियंत्रण में रहना पड़ता था। विजयनगर के शासन काल में इन स्थानीय इकाइयों का ह्मस हुआ। ‘सेनेटेओवा’ गाँव के आय-व्यय की देखभाल करता था, ‘तलरी’ गांव के चौकीदार को कहते थे। ‘बेगरा’ गाँव में बेगार, मजदूरी आदि की देखभाल करता था। ब्रह्मदेव ग्रामों (ब्राह्मणों को भूमि-अनुदान के रूप में प्राप्त ग्राम) की सभाओं को 'चतुर्वेदीमंगलम' कहा गया है। ग़ैर ब्रह्मदेव ग्राम की सभा 'उर' कहलाती थी।

इस समय आय के प्रमुख स्रोत थे - लगान, सम्पत्ति कर, व्यवसायिक कर, उद्यागों पर कर, सिंचाई कर, चरागाह कर, उद्यान कर एवं अनेक प्रकार के अर्थ दण्ड।

भू-राजस्व व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किये जाने वाले विविध करों के नाम थे - 'कदमाई', 'मगमाइ', 'कनिक्कई', 'कत्तनम', 'कणम', 'वरम', 'भोगम', 'वारिपत्तम', 'इराई' और 'कत्तायम'। ‘शिष्ट’ नामक भूमिकर विजयनगर राज्य की आय का प्रमुख एवं सबसे बड़ा स्रोत था। राज्य उपज का 1/6 भाग कर के रूप में वसूल करता था। कृष्णदेव राय के शासन काल में भूमि का एक व्यापक सर्वेक्षण करवाया गया तथा भूमि की उर्वरता के अनुसार उपज का 1/3 या 1/6 भाग कर के रूप में निर्धारित किया गया। सम्भवतः राजस्व की दर विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग थी। आय का एक अन्य स्रोत था - सिंचाई कर, जिसे तमिल प्रदेश में ‘दासावन्दा’ एवं आन्ध्र प्रदेशकर्नाटक में ‘कट्टकोडेज’ कहा गया। यह कर उन व्यक्तियों से लिया जाता था, जो सिंचाई के साधनों का उपयोग करते थे। ब्राह्मणों के अधिकार वाली भूमि से उपज का 20 वाँ भाग तथा मंदिरों की भूमि से उपज का 30वाँ भाग लगान के रूप में वसूला जाता था। विजयनगर साम्राज्य में कोई ऐसा वर्ग नहीं था, जिससे व्यवसायिक कर नहीं लिया जाता हो। रामराय ने केवल नाइयों को व्यावसायिक कर से मुक्त कर दिया। केन्द्रीय राजस्व विभाग को अठनवे (अयवन) कहा जाता था।

सामाजिक एवं सामुदायिक कर के रूप में विवाह कर लिया जाता था। विधवा से विवाह करने वाले इस कर से मुक्त होते थे। कृष्णदेव राय ने विवाह कर को समाप्त कर दिया था। राज्य का राजस्व वस्तु एवं नकद दोनों ही रूपों में वसूल किया जाता था। विजयनगर काल में मंदिरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। वे सिंचाई परियोजनाओं के साथ-साथ बैंकिग गतिविधियों का संचालन भी करते थे। इनके पास सुरक्षित भूमि को देवदान अनुदान कहा जाता था। एक शिलालेख के उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, इस समय मंदिरों में लगभग 370 नौकर होते थे। भंडारवाद ग्राम वे ग्राम थे, जिनकी भूमि सीधे राज्य के नियंत्रण में थी। यहाँ के किसान राज्य को कर देते थे।





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