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*एक बार [[वृष्णि संघ]], भोज और [[अंधक]] वंश के लोगों ने [[रैवतक|रैवतक पर्वत]] पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार संपत्ति का दान किया गया। बालक, वृद्ध और स्त्रियां सज-धजकर घूम रही थीं। [[अक्रूर]], सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, [[सात्यकि]], हार्दिक्य, [[उद्धव]], [[बलराम]] तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। गंधर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे। गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी।  
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{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र
*इस उत्सव में [[कृष्ण]] और [[अर्जुन]] भी बडे़ प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे। वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं। उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगे। कृष्ण ने अर्जुन के अभिप्राय को जानकर कहा, तुम्हारे यहाँ [[स्वयंवर]] की चाल (प्रचलन) है। परंतु यह निश्चय नहीं कि सुभद्रा तुम्हें स्वयंवर में वरेगी या नहीं, क्योंकि सबकी रुचि अलग-अलग होती है। लेकिन राजकुलों में बलपूर्वक हर कर ब्याह करने की भी रीति है। इसलिए तुम्हारे लिए वही मार्ग प्रशस्त होगा।  
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|चित्र=Arjuna-And-Subhadra.jpg
*एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया। जब सुभद्रा की सवारी [[द्वारका]] के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिए।  
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|चित्र का नाम=अर्जुन और सुभद्रा
*सैनिक सुभद्रा हरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए और वहां सब हाल कहा। सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया। वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के योद्धा अपने ज़रूरी कामकाज छोड़ कर वहां इकट्ठे होने लगे। सुभद्रा हरण का वृतांत सुनकर उनकी आंखें चढ़ गईं। उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले को उचित दंड देने का निश्चय किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी।  
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|पूरा नाम=सुभद्रा
*तब बलराम ने कहा, हे वीर योद्धाओ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो? फिर उन्होंने कृष्ण से कहा, जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय है? तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। यह दुस्साहस करके उसने हमें अपमानित किया है। मैं यह नहीं सह सकता।  
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|अन्य नाम=
*तब कृष्ण बोले, अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है। उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है। क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था। वह उत्तम वंश का होनहार युवक है। उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुंदर होगी।  
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|जन्म=
*कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ लोग कसमसाए। तब कृष्ण ने आगे कहा, इसके अलावा अर्जुन को जीतना भी दुष्कर है। यहाँ चाहे जितनी जोशीली बातें कर लें, वहां उसके हाथों पराजय भी हो सकती है। मैं समझता हूं कि इस समय लड़ाई का उद्योग न करके अर्जुन के के पास जाकर मित्रभाव से कन्या सौंप देना ही उत्तम है। कहीं अर्जुन ने अकेले ही तुम लोगों को जीत लिया और कन्या को हस्तिनापुर ले गया तो और बदनामी होगी। यदि उससे मित्रता कर ली जाए तो हमारा यश बढे़गा।  
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|जन्म भूमि=
*आख़िर लोगों ने कृष्ण की बात मान ली। सम्मान के साथ अर्जुन लौटा कर लाए गए। द्वारका में सुभद्रा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह संस्कार संपन्न हुआ। विवाह के बाद वे एक वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय [[पुष्कर]] क्षेत्र में व्यतीत किया। बनवास के बारह वर्ष समाप्त होने के उपरांत श्री[[कृष्ण]], [[बलराम]], सुभद्रा तथा दहेज के साथ [[अर्जुन]] [[इन्द्रप्रस्थ]] वापस चले गये। कालांतर में सुभद्रा की कोख से [[अभिमन्यु]] का जन्म हुआ।<ref>महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220</ref>  
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==श्रीमद् भागवत में==
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अर्जुन तीर्थ-यात्रा करता हुआ प्रभास-क्षेत्र पहुंचा। वहां उसने सुना कि बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह [[दुर्योधन]] से करना चाहता है किंतु [[कृष्ण]], [[वसुदेव]] तथा [[देवकी]] सहमत नहीं हैं। अर्जुन एक त्रिदंडी वैष्णव का रूप धारण करके [[द्वारका]] पहुंचा। बलराम ने उसका विशेष स्वागत किया। भोजन करते समय उसने और सुभद्रा ने एक-दूसरे को देखा तथा परस्पर विवाह करने के लिए इच्छुक हो उठे। एक बार सुभद्रा देव-दर्शन के लिए रथ पर सवार होकर द्वारका दुर्ग से बाहर निकली। सुअवसर देखकर अर्जुन ने उसका हरण कर लिया। उसे कृष्ण, वसुदेव तथा [[देवकी]] की सहमति पहले से ही प्राप्त थी। बलराम को उनके संबंधियों ने बाद में समझा-बुझाकर शांत कर दिया।<ref>श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12</ref>  
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'''सुभद्रा''' [[महाभारत]] के प्रमुख नायक [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] की बहिन थीं, जो [[वसुदेव]] की कन्या और [[अर्जुन]] की पत्नी थीं। इनके बड़े भाई [[बलराम]] इनका विवाह [[दुर्योधन]] से करना चाहते थे, किंतु कृष्ण के प्रोत्साहन से अर्जुन इन्हें [[द्वारका]] से भगा लाए। सुभद्रा के पुत्र [[अभिमन्यु]] महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा थे। [[पुरी]], [[उड़ीसा]] में '[[जगन्नाथ रथयात्रा|जगन्नाथ की यात्रा]]' में बलराम तथा सुभद्रा दोनों की मूर्तियाँ भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ ही रहती हैं।
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==अर्जुन-सुभद्रा विवाह==
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एक बार [[वृष्णि संघ]], भोज और [[अंधक संघ|अंधक वंश]] के लोगों ने [[रैवतक|रैवतक पर्वत]] पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार संपत्ति का दान किया गया। बालक, वृद्ध और स्त्रियां सज-धजकर घूम रही थीं। [[अक्रूर]], [[सारण]], [[गद]], वभ्रु, [[विदूरथ]], [[निशठ]], [[चारुदेष्ण]], [[पृथु (यादव)|पृथु]], [[विपृथु]], [[सत्यक]], [[सात्यकि]], [[हार्दिक्य]], [[उद्धव]], [[बलराम]] तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। [[गंधर्व]] और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे। गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में [[कृष्ण]] और [[अर्जुन]] भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे। वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं। उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगे। कृष्ण ने अर्जुन के अभिप्राय को जानकर कहा- "तुम्हारे यहाँ स्वयंवर की चाल (प्रचलन) है, परंतु यह निश्चय नहीं कि सुभद्रा तुम्हें स्वयंवर में वरेगी या नहीं, क्योंकि सबकी रुचि अलग-अलग होती है, लेकिन राजकुलों में बलपूर्वक हर कर ब्याह करने की भी रीति है। इसलिए तुम्हारे लिए वही मार्ग प्रशस्त होगा।"
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एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया। जब सुभद्रा की सवारी [[द्वारका]] के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिए। सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए और वहां सब हाल कहा। सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया। वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे। सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर उनकी आँखेंं चढ़ गईं। उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले को उचित दंड देने का निश्चय किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब [[बलराम]] ने कहा- "हे वीर योद्धाओ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो?" फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- "जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय है? तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। यह दुस्साहस करके उसने हमें अपमानित किया है। मैं यह नहीं सह सकता।"
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[[चित्र:Arjun-Subhadra.jpg|thumb|250px|left|सुभद्रा और [[अर्जुन]]]]
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तब [[कृष्ण]] बोले- "अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है। उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है। क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था। वह उत्तम वंश का होनहार युवक है। उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुंदर होगी।" कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ लोग कसमसाए। तब कृष्ण ने आगे कहा- "इसके अलावा अर्जुन को जीतना भी दुष्कर है। यहाँ चाहे जितनी जोशीली बातें कर लें, वहां उसके हाथों पराजय भी हो सकती है। मैं समझता हूं कि इस समय लड़ाई का उद्योग न करके अर्जुन के पास जाकर मित्रभाव से कन्या सौंप देना ही उत्तम है। कहीं अर्जुन ने अकेले ही तुम लोगों को जीत लिया और कन्या को [[हस्तिनापुर]] ले गया तो और बदनामी होगी। यदि उससे मित्रता कर ली जाए तो हमारा यश बढे़गा।"
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आख़िर लोगों ने कृष्ण की बात मान ली। सम्मान के साथ अर्जुन लौटा कर लाए गए। [[द्वारका]] में सुभद्रा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह संस्कार संपन्न हुआ। विवाह के बाद वे एक वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया। बनवास के बारह वर्ष समाप्त होने के उपरांत [[श्रीकृष्ण]], [[बलराम]], सुभद्रा तथा दहेज के साथ [[अर्जुन]] [[इन्द्रप्रस्थ]] वापस चले गये। कालांतर में सुभद्रा की कोख से [[अभिमन्यु]] का जन्म हुआ।<ref>महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220</ref>  
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==श्रीमद्भागवत के उल्लेखानुसार==
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'श्रीमद्भागवत' के उल्लेखानुसार जब [[अर्जुन]] तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने सुना कि [[बलराम]] अपनी बहन सुभद्रा का विवाह [[दुर्योधन]] से करना चाहते हैं, किंतु [[कृष्ण]], [[वसुदेव]] तथा [[देवकी]] सहमत नहीं हैं। अर्जुन एक त्रिदंडी वैष्णव का रूप धारण करके [[द्वारका]] पहुँचे। बलराम ने उनका विशेष स्वागत किया। भोजन करते समय उन्होंने और सुभद्रा ने एक-दूसरे को देखा तथा परस्पर विवाह करने के लिए इच्छुक हो उठे। एक बार सुभद्रा देव-दर्शन के लिए रथ पर सवार होकर द्वारका दुर्ग से बाहर निकलीं। सुअवसर देखकर अर्जुन ने उनका हरण कर लिया। इस कार्य के लिए अर्जुन को कृष्ण, वसुदेव तथा [[देवकी]] की सहमति पहले से ही प्राप्त थी। बलराम को उनके संबंधियों ने बाद में समझा-बुझाकर शांत कर दिया।<ref>श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12</ref>  
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05:20, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

सुभद्रा
अर्जुन और सुभद्रा
पूरा नाम सुभद्रा
पिता/माता वसुदेव, देवकी
पति/पत्नी अर्जुन
संतान अभिमन्यु
वंश यदुवंश
संबंधित लेख कृष्ण, बलराम, अर्जुन, अभिमन्यु
अन्य जानकारी पुरी, उड़ीसा में 'जगन्नाथ की यात्रा' में बलराम तथा सुभद्रा दोनों की मूर्तियाँ भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ ही रहती हैं।

सुभद्रा महाभारत के प्रमुख नायक भगवान श्रीकृष्ण की बहिन थीं, जो वसुदेव की कन्या और अर्जुन की पत्नी थीं। इनके बड़े भाई बलराम इनका विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे, किंतु कृष्ण के प्रोत्साहन से अर्जुन इन्हें द्वारका से भगा लाए। सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु महाभारत के प्रसिद्ध योद्धा थे। पुरी, उड़ीसा में 'जगन्नाथ की यात्रा' में बलराम तथा सुभद्रा दोनों की मूर्तियाँ भगवान श्रीकृष्ण के साथ-साथ ही रहती हैं।

अर्जुन-सुभद्रा विवाह

एक बार वृष्णि संघ, भोज और अंधक वंश के लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार संपत्ति का दान किया गया। बालक, वृद्ध और स्त्रियां सज-धजकर घूम रही थीं। अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। गंधर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे। गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे। वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं। उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगे। कृष्ण ने अर्जुन के अभिप्राय को जानकर कहा- "तुम्हारे यहाँ स्वयंवर की चाल (प्रचलन) है, परंतु यह निश्चय नहीं कि सुभद्रा तुम्हें स्वयंवर में वरेगी या नहीं, क्योंकि सबकी रुचि अलग-अलग होती है, लेकिन राजकुलों में बलपूर्वक हर कर ब्याह करने की भी रीति है। इसलिए तुम्हारे लिए वही मार्ग प्रशस्त होगा।"

एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया। जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिए। सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए और वहां सब हाल कहा। सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया। वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे। सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर उनकी आँखेंं चढ़ गईं। उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले को उचित दंड देने का निश्चय किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब बलराम ने कहा- "हे वीर योद्धाओ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो?" फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- "जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय है? तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। यह दुस्साहस करके उसने हमें अपमानित किया है। मैं यह नहीं सह सकता।"

सुभद्रा और अर्जुन

तब कृष्ण बोले- "अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है। उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है। क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था। वह उत्तम वंश का होनहार युवक है। उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुंदर होगी।" कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ लोग कसमसाए। तब कृष्ण ने आगे कहा- "इसके अलावा अर्जुन को जीतना भी दुष्कर है। यहाँ चाहे जितनी जोशीली बातें कर लें, वहां उसके हाथों पराजय भी हो सकती है। मैं समझता हूं कि इस समय लड़ाई का उद्योग न करके अर्जुन के पास जाकर मित्रभाव से कन्या सौंप देना ही उत्तम है। कहीं अर्जुन ने अकेले ही तुम लोगों को जीत लिया और कन्या को हस्तिनापुर ले गया तो और बदनामी होगी। यदि उससे मित्रता कर ली जाए तो हमारा यश बढे़गा।"

आख़िर लोगों ने कृष्ण की बात मान ली। सम्मान के साथ अर्जुन लौटा कर लाए गए। द्वारका में सुभद्रा के साथ उनका विधिपूर्वक विवाह संस्कार संपन्न हुआ। विवाह के बाद वे एक वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया। बनवास के बारह वर्ष समाप्त होने के उपरांत श्रीकृष्ण, बलराम, सुभद्रा तथा दहेज के साथ अर्जुन इन्द्रप्रस्थ वापस चले गये। कालांतर में सुभद्रा की कोख से अभिमन्यु का जन्म हुआ।[1]

श्रीमद्भागवत के उल्लेखानुसार

'श्रीमद्भागवत' के उल्लेखानुसार जब अर्जुन तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने सुना कि बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते हैं, किंतु कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी सहमत नहीं हैं। अर्जुन एक त्रिदंडी वैष्णव का रूप धारण करके द्वारका पहुँचे। बलराम ने उनका विशेष स्वागत किया। भोजन करते समय उन्होंने और सुभद्रा ने एक-दूसरे को देखा तथा परस्पर विवाह करने के लिए इच्छुक हो उठे। एक बार सुभद्रा देव-दर्शन के लिए रथ पर सवार होकर द्वारका दुर्ग से बाहर निकलीं। सुअवसर देखकर अर्जुन ने उनका हरण कर लिया। इस कार्य के लिए अर्जुन को कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी की सहमति पहले से ही प्राप्त थी। बलराम को उनके संबंधियों ने बाद में समझा-बुझाकर शांत कर दिया।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220
  2. श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12

संबंधित लेख

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