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राजस्थान के उदयपुर जिले से 27 मील उत्तर-पश्चिम एवं नाथद्वार से 7 मील पश्चिम में इतिहास प्रसिद्ध रणस्थली हल्दीघाटी है। यहीं सम्राट अकबर की मुगल सेना एवं महाराणा प्रताप तथा उनकी राजपूत सेना में 18 जून, 1576 को भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में प्रताप के साथ कई राजपूत योद्धाओं सहित हकीम खाँ सूर भी उपस्थित था। इस युद्ध में राणा प्रताप का साथ स्थानीय भीलों ने दिया, जो इस युद्ध की मुख्य बात थी मुगलों की ओर से मानसिंह सेना का नेतृत्व कर रहा था। प्रताप के पक्ष में निर्णायक न हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था।प्रताप एवं उसकी सेना युद्धस्थल से हटकर पहाड़ी प्रदेश मे आ गयी थी-भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए। अकबर की अधीनता स्वीकार न किए जाने के कारण प्रताप के साहस एवं शौर्य की गाथाएँ तब तक गुंजित रहेंगी जब तक युद्धों का वर्णन किया जाता रहेगा। युद्ध के दौरान प्रताप का स्वामिभक्त घोड़ा चेतक घायल हो गया था। फिर भी, उसने अपने स्वामी की रक्षा की। अंत में चेतक वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्धस्थली के समीप ही चेतक की स्मृति में स्मारक बना हुआ है।
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'''हल्दीघाटी''' [[भारतीय इतिहास]] में प्रसिद्ध [[राजस्थान]] का वह ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ [[महाराणा प्रताप]] ने अपनी मातृभूमि की लाज बचाये रखने के लिए असंख्य युद्ध लड़े और शौर्य का प्रदर्शन किया। हल्दीघाटी राजस्थान के [[उदयपुर ज़िला|उदयपुर ज़िले]] से 27 मील {{मील|मील=27}} उत्तर-पश्चिम एवं [[नाथद्वारा]] से 7 मील {{मील|मील=7}} पश्चिम में स्थित है। यहीं सम्राट [[अकबर]] की [[मुग़ल]] सेना एवं महाराणा प्रताप तथा उनकी [[राजपूत]] सेना में [[18 जून]], 1576 को भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में प्रताप के साथ कई [[राजपूत]] योद्धाओं सहित हकीम ख़ाँ सूर भी उपस्थित था। इस युद्ध में राणा प्रताप का साथ स्थानीय [[भील|भीलों]] ने दिया, जो इस युद्ध की मुख्य बात थी। मुग़लों की ओर से [[राजा मानसिंह]] सेना का नेतृत्व कर रहे थे।
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==इतिहास==
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उदयपुर से [[नाथद्वारा]] जाने वाली सड़क से कुछ दूर हटकर पहाडि़यों के बीच स्थित हल्दीघाटी इतिहास प्रसिद्ध वह स्थान है, जहां 1576 ई. में [[महाराणा प्रताप]] और [[मुग़ल]] [[अकबर|बादशाह अकबर]] की सेनाओं के बीच घोर युद्ध हुआ था। इस स्थान को 'गोगंदा' भी कहा जाता है। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में [[मेवाड़]] के महाराणा प्रताप ही ऐसे थे, जिन्हें मुग़ल बादशाह की मैत्रीपूर्ण दासता पसन्द न थी। इसी बात पर उनकी [[आमेर]] के [[मानसिंह]] से भी अनबन हो गई थी, जिसके फलस्वरूप मानसिंह के भड़काने से अकबर ने स्वयं मानसिंह और सलीम ([[जहाँगीर]]) की अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी।
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हल्दीघाटी की लड़ाई [[18 जून]], 1576 ई. को हुई थी। इसमें राणा प्रताप ने अप्रतिम वीरता दिखाई। उनका परम भक्त सरदार [[झाला मान]] इसी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ था। स्वयं प्रताप के दुर्घर्ष भाले से गजासीन सलीम बाल-बाल बच गया। किन्तु प्रताप की छोटी सेना मुग़लों की विशाल सेना के सामने अधिक सफल नहीं हो सकी और प्रताप अपने घायल, किन्तु बहादुर घोड़े पर युद्ध-क्षेत्र से बाहर आ गये, जहां चेतक ने प्राण छोड़ दिये। इस स्थान पर इस स्वामिभक्त घोड़े की समाधि आज भी देखी जा सकती है। इस युद्ध में प्रताप की 22 सहस्त्र सेना में से 14 सहस्त्र काम आई थी। इसमें से 500 वीर सैनिक राणा प्रताप के सम्बंधी थे। मुग़ल सेना की भारी क्षति हुई तथा उसके भी लगभग 500 सरदार मारे गये थे। सलीम के साथ जो सेना आयी थी, उसके अलावा एक सेना वक्त पर सहायता के लिये सुरक्षित रखी गई थी। और इस सेना द्वारा मुख्य सेना की हानिपूर्ति बराबर होती रही। इसी कारण मुग़लों के हताहतों की ठीक-ठीक संख्या [[इतिहासकार|इतिहासकारों]] ने नहीं लिखी है। इस युद्ध के पश्चात् [[राणा प्रताप]] को बड़ी कठिनाई का समय व्यतीत करना पड़ा था। किन्तु उन्होंने कभी साहस नहीं छोड़ा और अपने राज्य का अधिकांश मुग़लों से वापस छीन लिया था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=ऐतिहासिक स्थानावली|लेखक=विजयेन्द्र कुमार माथुर|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=1013|url=}}</ref>
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==बलिदान भूमि==
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हल्दीघाटी राजपूताने की वह पावन बलिदान भूमि है, जिसके शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान, राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास में प्रसिद्ध है। यह सभी तथ्य वीरकाव्य के परम उपजीव्य है। [[मेवाड़]] के उष्ण रक्त ने श्रावण संवत 1633 वि. में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया। अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े-से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व [[चेतक]], उसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्त में वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा।
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==युद्ध की तैयारी==
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[[चित्र:Haldighati-Museum-Udaipur.jpg|हल्दीघाटी संग्रहालय, [[उदयपुर]]|left|thumb|250px]]
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[[दिल्ली]] का उत्तराधिकारी शहज़ादा सलीम (बाद में [[जहाँगीर|बादशाह जहाँगीर]]) मुग़ल सेना के साथ युद्ध के लिए चढ़ आया। उसके साथ राजा मानसिंह और सागरजी का जातिभ्रष्ट पुत्र मोहबत ख़ाँ भी था। प्रताप ने अपने पर्वतों और बाईस हज़ार राजपूतों में विश्वास रखते हुए [[अकबर]] के पुत्र का सामना किया। अरावली के पश्चिम छोर तक शाही सेना को किसी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, परन्तु इसके आगे का मार्ग प्रताप के नियन्त्रण में था। प्रताप अपनी नई राजधानी के पश्चिम की ओर पहाड़ियों में आ डटे। इस इलाक़े की लम्बाई लगभग 80 मील {{मील|मील=80}} थी और इतनी ही चौड़ाई थी। सारा इलाक़ा पर्वतों और वनों से घिरा हुआ था। बीच-बीच में कई छोटी-छोटी नदियाँ बहती थीं। राजधानी की तरफ़ जाने वाले मार्ग इतने तंग और दुर्गम थे कि बड़ी कठिनाई से दो गाड़ियाँ आ-जा सकती थीं। इस स्थान का नाम [[हल्दीघाटी]] है, इसके द्वार पर खड़े [[पर्वत]] को लाँघकर उसमें प्रवेश करना संकट को मोल लेने के समान था। प्रताप के साथ विश्वासी [[भील]] लोग भी [[धनुष अस्त्र|धनुष]] और [[बाण अस्त्र|बाण]] लेकर डट गए। भीलों के पास बड़े-बड़े पत्थरों के ढेर पड़े थे, जैसे ही शत्रु सामने से आयेगा वैसे ही पत्थरों को लुढ़काकर उनके सिर को तोड़ने की योजना बनाई गई थी।
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==हल्दीघाटी का युद्ध==
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[[चित्र:Pratap-Singh-And-Chetak-Attacking-Man-Singh.jpg|[[मान सिंह]] पर हमला करते हुए [[महाराणा प्रताप]] और चेतक|thumb|250px]]
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{{main|हल्दीघाटी का युद्ध}}
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[[महाराणा उदयसिंह]] 1541 ई. में राणा बने थे और राणा बनने के कुछ ही समय बाद [[अकबर]] की [[मुग़ल]] सेना ने [[मेवाड़]] पर आक्रमण कर [[चित्तौड़]] को घेर लिया। किंतु राणा उदयसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और प्राचीन आधाटपुर के पास [[उदयपुर]] नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चले गये। उनके बाद [[महाराणा प्रताप]] ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता स्वीकार नहीं की। '[[हल्दीघाटी का युद्ध]]' '[[भारतीय इतिहास]]' में प्रसिद्ध है। राजपूत और मुग़ल सैनिकों के मध्य '[[हल्दीघाटी का युद्ध]]' [[जून]], 1576 ई. में लड़ा गया। बादशाह अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए [[राजा मानसिंह]] एवं आसफ़ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य 'गोगुंडा' के निकट [[अरावली पर्वत श्रृंखला|अरावली पहाड़ी]] की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ।
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दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े [[चेतक]] पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर सलीम अपने [[हाथी]] पर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो [[अकबर]] अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। राणा प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया और तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी के सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत का छाती का छलनी होना अंकित किया गया है।<ref>डॉ. गोपीनाथ शर्मा इस कथन को सही नहीं मानते। प्रताप ने सलीम के हाथी पर नहीं अपितु मानसिंह के हाथी पर आक्रमण किया था। सलीम तो युद्ध स्थल पर उपस्थित ही नहीं था।</ref>
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====मन्नाजी का बलिदान====
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महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भागने लगा था, लेकिन सलीम ने उसे नियंत्रित कर लिया। युद्ध उस समय और भी भयानक हो उठा, जब शहज़ादा सलीम पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य [[मुग़ल]] सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से उन पर प्रहार करने लगे। राणा प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था।[[चित्र:Battlefield-Death-Of-Pratap-Singh-Chetak.jpg|thumb|250px|युद्धभूमि पर [[महाराणा प्रताप]] के चेतक (घोड़े) की मौत]] इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। [[राजपूत]] सैनिक भी राणा को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसता जा रहा था। स्थिति की गम्भीरता को परखकर झाला सरदार '[[मन्नाजी]]' (या 'झाला मान') ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उसका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जिवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।
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==युद्ध की समाप्ति==
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'हल्दीघाटी का युद्ध' युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक न हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए राणा प्रताप एवं उनकी सेना युद्ध स्थल से हटकर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। बाद के कुछ वर्षों में जब अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगा गया, तब प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1597 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी। [[अकबर]] की अधीनता स्वीकार न किए जाने के कारण प्रताप के साहस एवं शौर्य की गाथाएँ तब तक गुंजित रहेंगी, जब तक युद्धों का वर्णन किया जाता रहेगा। युद्ध के दौरान प्रताप का स्वामिभक्त घोड़ा [[चेतक]] घायल हो गया था, फिर भी वह बुरी तरह घायल हो चुके अपने स्वामी को युद्ध स्थल से दूर निकाल ले जाने में सफल रहा। उसने अपने स्वामी की शत्रुओं के हाथ में पड़ जाने से रक्षा की और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्ध स्थली के समीप ही चेतक की स्मृति में स्मारक बना हुआ है। अब यहाँ पर एक संग्रहालय है। इस संग्रहालय में हल्‍दीघाटी के युद्ध के मैदान का एक मॉडल रखा गया है। इसके अलावा यहाँ महाराणा प्रताप से संबंधित वस्‍तुओं को भी सहेज कर रखा गया है।
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11:36, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

हल्दीघाटी
=महाराणा प्रताप की प्रतिमा, हल्दीघाटी, उदयपुर
विवरण 'हल्दीघाटी' राजस्थान के प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। यहीं पर बादशाह अकबर की मुग़ल सेना एवं महाराणा प्रताप की राजपूत सेना में 18 जून, 1576 को प्रसिद्ध 'हल्दीघाटी का युद्ध' हुआ था। युद्ध में प्रताप के असंख्य शूरवीरों ने वीरगति प्राप्त की और साथ ही राणा के घाड़े चेतक ने भी अपने स्वामी पर प्राण न्यौछावर कर दिये।
राज्य राजस्थान
प्रसिद्धि 'हल्दीघाटी के युद्ध' के लिए
संबंधित लेख राणा प्रताप, झाला मान
अन्य जानकारी राणा प्रताप के वीर सरदारों में से एक 'मन्नाजी' ने हल्दीघाटी के युद्ध में वीरगति पाई। मन्नाजी ने प्रताप को बचाने के लिए उनका मुकुट स्वयं धारण कर लिया और अंत तक युद्ध करता रहा।

हल्दीघाटी भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध राजस्थान का वह ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि की लाज बचाये रखने के लिए असंख्य युद्ध लड़े और शौर्य का प्रदर्शन किया। हल्दीघाटी राजस्थान के उदयपुर ज़िले से 27 मील (लगभग 43.2 कि.मी.) उत्तर-पश्चिम एवं नाथद्वारा से 7 मील (लगभग 11.2 कि.मी.) पश्चिम में स्थित है। यहीं सम्राट अकबर की मुग़ल सेना एवं महाराणा प्रताप तथा उनकी राजपूत सेना में 18 जून, 1576 को भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में प्रताप के साथ कई राजपूत योद्धाओं सहित हकीम ख़ाँ सूर भी उपस्थित था। इस युद्ध में राणा प्रताप का साथ स्थानीय भीलों ने दिया, जो इस युद्ध की मुख्य बात थी। मुग़लों की ओर से राजा मानसिंह सेना का नेतृत्व कर रहे थे।

इतिहास

उदयपुर से नाथद्वारा जाने वाली सड़क से कुछ दूर हटकर पहाडि़यों के बीच स्थित हल्दीघाटी इतिहास प्रसिद्ध वह स्थान है, जहां 1576 ई. में महाराणा प्रताप और मुग़ल बादशाह अकबर की सेनाओं के बीच घोर युद्ध हुआ था। इस स्थान को 'गोगंदा' भी कहा जाता है। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में मेवाड़ के महाराणा प्रताप ही ऐसे थे, जिन्हें मुग़ल बादशाह की मैत्रीपूर्ण दासता पसन्द न थी। इसी बात पर उनकी आमेर के मानसिंह से भी अनबन हो गई थी, जिसके फलस्वरूप मानसिंह के भड़काने से अकबर ने स्वयं मानसिंह और सलीम (जहाँगीर) की अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी।

हल्दीघाटी की लड़ाई 18 जून, 1576 ई. को हुई थी। इसमें राणा प्रताप ने अप्रतिम वीरता दिखाई। उनका परम भक्त सरदार झाला मान इसी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ था। स्वयं प्रताप के दुर्घर्ष भाले से गजासीन सलीम बाल-बाल बच गया। किन्तु प्रताप की छोटी सेना मुग़लों की विशाल सेना के सामने अधिक सफल नहीं हो सकी और प्रताप अपने घायल, किन्तु बहादुर घोड़े पर युद्ध-क्षेत्र से बाहर आ गये, जहां चेतक ने प्राण छोड़ दिये। इस स्थान पर इस स्वामिभक्त घोड़े की समाधि आज भी देखी जा सकती है। इस युद्ध में प्रताप की 22 सहस्त्र सेना में से 14 सहस्त्र काम आई थी। इसमें से 500 वीर सैनिक राणा प्रताप के सम्बंधी थे। मुग़ल सेना की भारी क्षति हुई तथा उसके भी लगभग 500 सरदार मारे गये थे। सलीम के साथ जो सेना आयी थी, उसके अलावा एक सेना वक्त पर सहायता के लिये सुरक्षित रखी गई थी। और इस सेना द्वारा मुख्य सेना की हानिपूर्ति बराबर होती रही। इसी कारण मुग़लों के हताहतों की ठीक-ठीक संख्या इतिहासकारों ने नहीं लिखी है। इस युद्ध के पश्चात् राणा प्रताप को बड़ी कठिनाई का समय व्यतीत करना पड़ा था। किन्तु उन्होंने कभी साहस नहीं छोड़ा और अपने राज्य का अधिकांश मुग़लों से वापस छीन लिया था।[1]

बलिदान भूमि

हल्दीघाटी राजपूताने की वह पावन बलिदान भूमि है, जिसके शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान, राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास में प्रसिद्ध है। यह सभी तथ्य वीरकाव्य के परम उपजीव्य है। मेवाड़ के उष्ण रक्त ने श्रावण संवत 1633 वि. में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया। अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े-से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व चेतक, उसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्त में वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा।

युद्ध की तैयारी

हल्दीघाटी संग्रहालय, उदयपुर

दिल्ली का उत्तराधिकारी शहज़ादा सलीम (बाद में बादशाह जहाँगीर) मुग़ल सेना के साथ युद्ध के लिए चढ़ आया। उसके साथ राजा मानसिंह और सागरजी का जातिभ्रष्ट पुत्र मोहबत ख़ाँ भी था। प्रताप ने अपने पर्वतों और बाईस हज़ार राजपूतों में विश्वास रखते हुए अकबर के पुत्र का सामना किया। अरावली के पश्चिम छोर तक शाही सेना को किसी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, परन्तु इसके आगे का मार्ग प्रताप के नियन्त्रण में था। प्रताप अपनी नई राजधानी के पश्चिम की ओर पहाड़ियों में आ डटे। इस इलाक़े की लम्बाई लगभग 80 मील (लगभग 128 कि.मी.) थी और इतनी ही चौड़ाई थी। सारा इलाक़ा पर्वतों और वनों से घिरा हुआ था। बीच-बीच में कई छोटी-छोटी नदियाँ बहती थीं। राजधानी की तरफ़ जाने वाले मार्ग इतने तंग और दुर्गम थे कि बड़ी कठिनाई से दो गाड़ियाँ आ-जा सकती थीं। इस स्थान का नाम हल्दीघाटी है, इसके द्वार पर खड़े पर्वत को लाँघकर उसमें प्रवेश करना संकट को मोल लेने के समान था। प्रताप के साथ विश्वासी भील लोग भी धनुष और बाण लेकर डट गए। भीलों के पास बड़े-बड़े पत्थरों के ढेर पड़े थे, जैसे ही शत्रु सामने से आयेगा वैसे ही पत्थरों को लुढ़काकर उनके सिर को तोड़ने की योजना बनाई गई थी।

हल्दीघाटी का युद्ध

मान सिंह पर हमला करते हुए महाराणा प्रताप और चेतक

महाराणा उदयसिंह 1541 ई. में राणा बने थे और राणा बनने के कुछ ही समय बाद अकबर की मुग़ल सेना ने मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया। किंतु राणा उदयसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चले गये। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता स्वीकार नहीं की। 'हल्दीघाटी का युद्ध' 'भारतीय इतिहास' में प्रसिद्ध है। राजपूत और मुग़ल सैनिकों के मध्य 'हल्दीघाटी का युद्ध' जून, 1576 ई. में लड़ा गया। बादशाह अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए राजा मानसिंह एवं आसफ़ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य 'गोगुंडा' के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ।

दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े चेतक पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर सलीम अपने हाथी पर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। राणा प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया और तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी के सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत का छाती का छलनी होना अंकित किया गया है।[2]

मन्नाजी का बलिदान

महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भागने लगा था, लेकिन सलीम ने उसे नियंत्रित कर लिया। युद्ध उस समय और भी भयानक हो उठा, जब शहज़ादा सलीम पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से उन पर प्रहार करने लगे। राणा प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था।

युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप के चेतक (घोड़े) की मौत

इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी राणा को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसता जा रहा था। स्थिति की गम्भीरता को परखकर झाला सरदार 'मन्नाजी' (या 'झाला मान') ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उसका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जिवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।

युद्ध की समाप्ति

'हल्दीघाटी का युद्ध' युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक न हो सका। खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए राणा प्रताप एवं उनकी सेना युद्ध स्थल से हटकर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। बाद के कुछ वर्षों में जब अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगा गया, तब प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1597 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी। अकबर की अधीनता स्वीकार न किए जाने के कारण प्रताप के साहस एवं शौर्य की गाथाएँ तब तक गुंजित रहेंगी, जब तक युद्धों का वर्णन किया जाता रहेगा। युद्ध के दौरान प्रताप का स्वामिभक्त घोड़ा चेतक घायल हो गया था, फिर भी वह बुरी तरह घायल हो चुके अपने स्वामी को युद्ध स्थल से दूर निकाल ले जाने में सफल रहा। उसने अपने स्वामी की शत्रुओं के हाथ में पड़ जाने से रक्षा की और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ। युद्ध स्थली के समीप ही चेतक की स्मृति में स्मारक बना हुआ है। अब यहाँ पर एक संग्रहालय है। इस संग्रहालय में हल्‍दीघाटी के युद्ध के मैदान का एक मॉडल रखा गया है। इसके अलावा यहाँ महाराणा प्रताप से संबंधित वस्‍तुओं को भी सहेज कर रखा गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 1013 |
  2. डॉ. गोपीनाथ शर्मा इस कथन को सही नहीं मानते। प्रताप ने सलीम के हाथी पर नहीं अपितु मानसिंह के हाथी पर आक्रमण किया था। सलीम तो युद्ध स्थल पर उपस्थित ही नहीं था।

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