अफ़्रीका में गाँधी

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डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः 'सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए' सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गांधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया। बाद में देखने पर उन्हें लगा कि डरबन से प्रिटोरिया तक की यात्रा उनके जीवन के महानतम रचनात्मक अनुभवों में से एक थी। यह उनके सत्य का क्षण था।

फ़ेरी इमारत पर गाँधी जी की प्रतिमा, सेन फ़्रांसिस्को

मेरित्सबर्ग काण्ड

मेरित्सबर्ग काण्ड ने गांधी जी की जीवन यात्रा को एक नयी दिशा दी। उन्होंने स्वयं उस घटना का विवरण इस प्रकार लिखा है---'मेरित्सबर्ग में एक पुलिस कॉन्स्टेबल ने मुझे धक्का देकर ट्रेन से बाहर निकाल दिया। ट्रेन चली गयी। मैं विश्राम कक्ष में बैठ गया। मैं ठंड से काँप रहा था। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा असबाब कहाँ पर है, और न तो मैं किसी से कुछ पूछने की हिम्मत कर सकता था कि कहीं फिर से बेइज्जती न हो। नींद का सवाल ही नहीं था। मेरे मन में ऊहापोह होने लगी। काफ़ी रात गये मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि भारत वापस भाग जाना क़ायरता होगी। मैंने जो दायित्व अपने ऊपर लिया है, उसे पूरा करना चाहिए।' मेरित्सबर्ग कांड के बाद उन्होंने अपने मन में दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों को उस अपमान की ज़िन्दगी से उबारने का संकल्प लिया, जिसे वे लम्बे अरसे से झेलते आ रहे थे। इस संकल्प के बाद गांधीजी अगले बीस वर्षों (1893-1914) तक दक्षिण अफ़्रीका में रहे और शीघ्र ही वहाँ पर इनके नेतृत्व में उत्पीड़ित भारतीयों पर लगे सारे प्रतिबंधों को हटाने के लिए एक आंदोलन छिड़ गया। इस आंदोलन को सफल बनाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत छोड़ दी और ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर अपने परिवार और मित्रों के साथ टॉलस्टाय आश्रम की स्थापना करके वहीं पर रहने लगे। फिर कभी उन्होंने अन्याय स्वीकार नहीं किया। एक भारतीय और एक व्यक्ति के रूप में अपने सम्मान की रक्षा की।

विदाई समारोह

प्रिटोरिया प्रवास के दौरान गांधी ने अपने देशवासियों की उन परिस्थितियों का अध्ययन किया, जिसमें वे जी रहे थे और उन्हें उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों के बारे में शिक्षित करने का प्रयास किया। उनका दक्षिण अफ़्रीका में लम्बे समय तक रहने का कोई इरादा नहीं था। जून 1894 में जब एक साल का अनुबंध समाप्त होने को आया, तो वह वापस डरबन आकर भारत लौटने को तैयार थे। उनके सम्मान में आयोजित विदाई समारोह में नटाल मर्क्युरी के पन्ने पलटते हुए उन्हें पता चला कि नटाल लेजिस्लेटिव असेंबली भारतीयों को मतदान के अधिकार से वंचित करने सम्बन्धी एक विधेयक पर विचार कर रही है। गांधी ने अपने मेज़बानों से कहा, 'यह हमारे ताबूत की पहली कील है', लोगों ने इस विधेयक का विरोध करने में अक्षमता दिखाई और औपनिवेशिक राजनीति पर अपनी अज्ञानता स्वीकारते हुए गांधी से अपने लिए संघर्ष की प्रार्थना की।

नटाल इंडियन कांग्रेस

जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गाँधी की भारतीय डाक टिकट

18 वर्ष की आयु तक गांधी ने शायद ही कभी समाचार पत्र पढ़ा था। न तो इंग्लैंड के विद्यार्थी काल में और न ही भारत में बैरिस्टरी की शुरूआत में राजनीति में उनकी कभी रुचि रही। वस्तुतः किसी सभा में भाषण देते समय या अदालत में मुवक्किल का बचाव करते हुए वे जैसे ही बोलने खड़े होते, मंचीय भय उन्हें जकड़ लेता था। फिर भी, 1894 में मात्र 25 वर्ष की आयु में वह लगभग रातों रात एक सफल राजनीतिक आंदोलनकारी बन गए। उन्होंने नटाल की विधायिका और ब्रिटिश सरकार के नाम याचिकाएँ लिखीं और उन पर सैकड़ों भारतीयों के हस्ताक्षर कराए। वह विधेयक को तो नहीं रोक सके, लेकिन नटाल में रहने वाले भारतीयों के कष्टों की ओर नटाल, भारत और इंग्लैंड के अख़बारों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। उन्हें डरबन में रहकर वकालत करने और भारतीय समुदाय का एकजुट करने के लिए राज़ी कर लिया गया। 1894 में उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और उसके सक्रिय सचिव बन गए। इस सामान्य राजनीतिक संगठन के माध्यम से उन्होंने बहुजातीय भारतीय समुदाय में एकता की भावना भर दी। उन्होंने सरकार विधायिका और प्रेस में भारतीयों के कष्टों से सम्बन्धित तर्कपूर्ण वक्तव्यों की झड़ी लगा दी। अन्ततः उन्होंने महारानी विक्टोरिया की भारतीय प्रजा के साथ उनके ही अफ़्रीका स्थित उपनिवेश में किए जा रहे भेदभाव को दुनिया के सामने उजागर करके साम्राज्य की पोल खोल दी। एक प्रचारक के रूप में उनकी सफलता का प्रमाण यह था कि लंदन के 'द टाइम्स' और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के 'स्टेट्समैन' तथा 'इंग्लिशमैन' जैसे अख़बारों के संपादकीय में भी नटाल के भारतीयों के कष्टों पर टिप्पणियाँ लिखी गईं। 1896 में अपनी पत्नी कस्तूरबा तथा बच्चों को लाने एवं विदेश में रहने वाले भारतीयों के लिए समर्थन जुटाने हेतु गांधी भारत पहुँचे, उन्होंने प्रमुख नेताओं से मिलकर उन्हें बड़े-बड़े शहरों में जनसभाएँ: संबोधित करने के लिए राज़ी किया।

पराजय से सत्याग्रही को निराशा नहीं होती बल्कि कार्यक्षमता और लगन बढ़ती है। महात्मा गांधी

यह गांधी का दुर्भाग्य था कि उनकी गतिविधियों और वक्तव्यों की ऊटपटांग ख़बरें नटाल पहुँची और वहाँ की यूरोपीय जनता बिगड़ उठी। जनवरी 1897 में डरबन पहुँचने पर उग्र गोरों की भीड़ ने उन पर प्राण घातक हमला कर दिया। ब्रिटिश मंत्रिमंडल में औपनिवेशिक सचिव जोज़फ़ चेंबरलेन ने नटाल सरकार को तार भेजकर दोषी व्यक्तियों को गिरफ़्तार करने को कहा, लेकिन गांधी ने हमलावरों पर मुक़दमा करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह उनका सिद्धांत है कि व्यक्तिगत क्षति को क़ानूनी अदालत में न ले जाया जाए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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